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क्या पंचिंग बैग है मुसलमान?

तबलीग़ी जमात मुसलमानों के किसी भी राजनीतिक या समाजिक मुद्दे पर कभी हस्तक्षेप नहीं करती है। लेकिन सत्ता और मीडिया के एक वर्ग द्वारा उसकी आड़ में पूरे समुदाय को विलेन करार देना ख़तरनाक मंसूबों की तरफ इशारा कर रहा है।
तबलीगी जमात
Image Courtesy: NDTV

नोवेल कोरोनावायरस पूरी दुनिया में कहर बरपा रहा है और वैज्ञानिक इसका इलाज खोजने में जुटे हुए हैं, लेकिन किसी भी देश में इसे सांप्रदायिक या वर्गीय रंग नहीं दिया गया है। सिर्फ भारत में मीडिया का एक वर्ग नियोजित तरीके से यह काम कर रहा है। पहले लॉकडाउन की घोषणा के बाद शहरों से गांवों की ओर पलायन कर रहे गरीब मजदूरों को कोरोना कैरियर बताया गया और अब पिछले 2-3 दिनों से यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि देश में इस बीमारी के फैलने का कारण मुसलमान हैं। कोरोना बम, मौलाना कोरोना, कोरोना भाईजान, देशद्रोही और आतंकवादी जैसी अनेक उपमाएं दी जा रही हैं। जमात-ए-तबलीगी संगठन को लापरवाही या गलती कि निश्चित रूप कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन उसकी आड़ में पूरे समुदाय को विलेन करार देने की कोशिशें खतरनाक मंसूबों की तरफ इशारा कर रही हैं।

ध्यान रहे कि 4 मार्च को जब प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि वे कोरोना के कारण होली नहीं मनाएंगे तभी से भारतीय मीडिया खासतौर पर हिन्दी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने कोरोना संकट को गंभीरता से लिया। इसके बाद चैनलों पर पतंजलि के मालिक रामदेव व श्रीश्री रविशंकर समेत बालीवुड कलाकारों के ज्ञान सुनाई पड़ने लगे। तमाम डाक्टर लोग भी टीवी पर आते थे, लेकिन उनके पास भी दर्शकों को बताने के लिए कोई ठोस जानकारी नहीं थी, सिवाय इसके कि ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ बहुत जरूरी है। शाहीनबाग आंदोलन के जरिए पैदा की जाने वाली सनसनीखेज व उत्तेजक खबरें भी अब टीआरपी नहीं बढ़ा पा रही थीं।

फिर अचानक 30 मार्च को बड़ा मुद्दा हाथ लग गया और अगले दिन हज़रत निज़ामुद्दीन में स्थित जमात के मरकज़ (मुख्यालय) के पास ओबी वैन की कतारें लग गईं। ठीक वैसा ही माहौल दिखाने की कोशिश की जाने लगी जैसा कि हरियाणा में रामपाल आश्रम और राम-रहीम के डेरे पर छापामारी के समय था। रात के कार्यक्रम में दो टीवी चैनलों के मालिक, जो एंकरिंग भी करते हैं, ने दांत पीस-पीस कर मुसलमानों को जमकर कोसा।

इन लोगों ने इस समुदाय की ऐसी मौखिक लिंचिंग की है कि आने वाले समय में कोरोना पीड़ितों की पहचान शायद ‘कपड़ों’ से ही होने लगेगी। हो सकता है कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद दुकानदार किसी दाढ़ी टोपी वाले को अपनी दुकान के करीब आने से मना कर दें और बस व ऑटो वाला उन्हें अपने वाहन पर चढ़ने से मना कर दे। लोग उन्हें आता हुआ देखें तो अपना रास्ता बदल दें। इतना ही नहीं नुक्कड़ों व चौराहों पर पुलिस वाला उन्हें बेंत मार कर अपना ‘मानवीय चेहरा’ (बकौल टीवी के) दिखाए तो कोई हैरानी नहीं। काफी अच्छा इंतजाम कर दिया गया है, मुसलमानों के लिए।

गौरतलब है कि इंदौर व मुंबई के धारावी समेत कुछ जगहों से ख़बरें आ रही हैं कि संदिग्ध कोरोना मरीजों की जांच के लिए जब मेडिकल टीमें वहां गई तो उन पर पत्थरबाजी की गई। क्या कभी ऐसा हो सकता है कि कोई किसी की जान बचाने जाए और वह उस पर हमला करे? सभी जानते हैं कि सरकारी डाक्टर, नर्सें व अन्य कर्मचारी अपनी जान जोखिम में डालकर इस संकट की घड़ी में लोगों का इलाज कर रहे हैं। फिर समाज के एक तबके के भीतर से इस तरह की प्रतिक्रिया क्यों आ रही है? दरअसल सत्ता और मीडिया के एक वर्ग द्वारा इस समुदाय के खिलाफ जो रवैया अपनाया जा रहा है, वह उसके अविश्वास और मलाल को और बढ़ा रहा है। 24 घंटा चलने वाले कुछ हिन्दी चैनलों पर जो नफ़रत भरे शब्दों के तीर छोड़े जाते हैं, वे न सिर्फ मुसलमानों के कलेजे को छलनी करते हैं, बल्कि अन्य धर्मों के लोगों में भी उनके प्रति ग़लतफ़हमी पैदा करते हैं।

अब जमातियों को कोरोना पाजटिव होने के जो आंकड़े बताए जा रहे हैं, भले ही वे सही हों, लेकिन लोग उस पर यकीन नहीं कर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि कोराना की रोकथाम और व्यवस्था को दुरूस्त करने के मामले में सरकार की नाकामी को छिपाने के लिए ठीकरा मुसलमानों के सिर फोड़ा जा रहा है, जबकि वे सरकार के सभी आदेशों का पालन कर रहे हैं। जब 1 मार्च को दिल्ली में इस्तिमा शुरू हुआ था तो भारत में कोरोना को लेकर कोई ज्यादा हलचल नहीं थी। देश में राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक गतिविधियां सामान्य रूप से चल रही थीं। 23 मार्च तक संसद चली और शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके ठीक पहले दौरान मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार का तख्तापलट हुआ। भाजपा व कांग्रेस ने अपने विधायकों को बिक्री के डर से उन्हें अलग-अलग समूहों में रखा। शिवराज चौहान तो भोपाल में विधायकों के साथ क्रिकेट खेलते नजर आए। इस तरह की अन्य गतिविधियां भी देश में जारी थीं।

सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि भारत के जमातियों में तो कोरोना था नहीं। जो विदेशी आए थे, वे ही संक्रमित थे। उन्हीं के जरिए यहां के लोगों में बीमारी फैली। फिर इन दाढ़ी टोपी वाले मलेशियाई व इंडोनेशियाई व बांग्लादेशी आदि नागरिकों की एयरपोर्ट पर चेकिंग क्यों नहीं की गई? दूसरे हज़रत निजामुद्दीन थाना जमात के मुख्यालय से सटा हुआ है। यहां काफी पहले से पुलिस की सतर्कता कुछ ज्यादा ही रहती है। एक समय तो जगह-जगह तख्तियां लगी होती थीं, जिन पर लिखा होता था ‘किसी संदिग्ध के दिखने पर पुलिस को सूचना दें… आतंकवादियों को पकड़वाने में मदद करें' आदि। फिर निज़ामुद्दीन थाने के प्रभारी को मरकज़ खाली करवाने का नोटिस देने की याद पीएम मोदी के लॉकडाउन की घोषणा के समय ही क्यों आई और वे 16 मार्च के बाद से क्या कर रहे थे, जबकि दिल्ली सरकार ने साफ़ तौर पर कह दिया था कि किसी भी जगह पर 50 से अधिक लोग जमा नहीं हो सकते हैं।

यह भी मान लिया जाए कि जमात के लोग मरकज़ खाली न करने पर अड़े हुए थे, लेकिन जब उन्होंने पुलिस, एसडीएम व डीएम आदि का दरवाजा खटखटाया तो उस पर सुनवाई करके लोगों को वहां से क्यों नहीं निकाला गया? अहम बात यह है कि एनएसए अजीत डोभाल 22 मार्च को रात 2 बजे जमात के प्रमुख मौलाना साद से मिलने पहुंचे। वैसे बताया जाता है कि मौलाना से उनके पुराने संबंध है, लेकिन इसके ठीक दूसरे दिन जब जमात के प्रतिनिधि एसएचओ से यह कहने गए कि कर्फ्यू के कारण उनके लोग बाहर नहीं निकल पा रहे हैं, उन्हें मदद चाहिए, तो उन्होंने इस मुलाकात की वीडियो रिकार्डिंग करवाई और कड़ी कानूनी कार्रवाई की चेतावनी भी दी।

जमात के लोगों का कहना है कि वे लगातार अफसरों से मदद की गुहार कर रहे थे, लेकिन उनकी सुनवाई नहीं हो रही थी। जहां तक डॉक्टरों व पुलिस वालों पर थूकने और अभद्र व्यवहार का आरोप है, तो यह बात हजम नहीं होती है, क्योंकि जमात तबलीगी के लोग अपने शालीन व्यवहार के लिए जाने जाते हैं। इनका इतिहास 100 साल पुराना है और इसके लोग हमेशा 8-10 का समूह बना कर यात्राएं करते रहते हैं। ये लोग अक्सर स्टेशनों व बस अड्डों पर नमाज़ भी पढ़ते नजर आते हैं। आम पब्लिक ने भी इनके व्यवहार के बारे में कभी कोई शिकायत नहीं की है।

मुसलमानों में अविश्वास और बेचैनी महज इन्हीं कारणों से नहीं हैं। इसके पहले मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर इंसाफ न होना, सीएए व कुछ दिनों के लिए टाला गया एनपीआर और वित्तीय, राजनीतिक व सामाजिक रूप से हाशिए पर धकेला जाना समेत कई कारण हैं।

जमात वालों की गलती

यह बात सही है कि मरकज़ में पूरे साल लोगों के आने-जाने का सिलसिला लगा रहता है, लेकिन कोरोना वायरस की गंभीरता को समझते हुए जमात वालों को 16 मार्च को ही अपने लोगों वहां से जाने के लिए कह देना चाहिए था। जब जमात अपने लोगों को सख्ती के साथ कानूनों का पालन का पाठ पढ़ाती है और यहां तक कहती है कि टू-व्हीलर बिना हेलमेट के न चालाएं, उस पर तीन लोग इकठ्ठा न बैंठे, और टीवी व सिनेमा आदि देखने के भी ख़िलाफ़ हैं, तो दिल्ली सरकार के आदेश का ध्यान उन्हें क्यों नहीं रहा? अब वे कारण ज़रूर गिना रहे हैं, लेकिन इस माहौल में उनके तर्कों को कोई नहीं मानेगा। दूसरी बात यह है कि डोभाल से मुलाकात के बाद मौलाना साद अपने लोगों का वहां छोड़ कर हटे क्यों? अगर वे अपने को अमीर-ए-जमात कहते हैं तो उन्हें वहां मौजूद रहना चाहिए था, भले ही गिरफ्तारी हो जाती। मौलाना साद ने क्वारंटाइन का बहना बना कर खुद अपना, जमात-ए-तबलीग़ी और मुसलमानों का मज़ाक बना दिया है।

क्या है जमात-ए-तबलीग़ी?

यह विश्व में मुसलमानों का सबसे बड़ा धार्मिक संगठन है। इसके वर्तमान प्रमुख मौलाना साद हैं, जो शामली कांधला के रहने वाले हैं। वर्ष 1920 में इनके परदादा मौलाना इलियास ने इस जमात का गठन किया था, जिसका मकसद लोगों के बीच इस्लाम की शिक्षा का प्रचार करना था। शुरू में उन्होंने हरियाणा के मेवात क्षेत्र में काफी काम किया। इस संगठन के अपने कुछ सिद्धांत हैं, जिनका वह अपने स्थापना काल से कड़ाई के साथ पालन कर रहा है। 1- ईमान यानी अल्लाह पर विश्वास रखना। 2-  नमाज़ व कलमा। 3- इल्म का जिक्र। 4- इकराम मतलब एखलाक, अच्छा बर्ताव व भाईचारा। 5- इखलास यानी कोई बनावट नहीं, साफ दिल का होना। 6- दावत अर्थात लोगों को धर्म के लिए आमंत्रित करना और अल्लाह के रास्ते पर निकलना।

सौ साल बीतने के बाद भी इस जमात ने न तो अपने काम-काज का दायरा बढ़ाया और न ही नए दौर के लिहाज से तौर-तरीकों में कोई बदलाव किया है। जमात का नेतृत्व भी एक ही परिवार के हाथों में रहा है। मौलाना इलियास के बाद उनके पुत्र मौलाना यूसुफ और इनके बाद मौलाना साद के पिता मौलाना हारून जमात के प्रमुख रहे। जमात में एक गुट इनके चाचा जुबैर के बेटों का भी है। ध्यान रहे कि करीब 200 देशों में इसके सदस्य हैं। भारत में पिछले 6-7 वर्षों के दौरान मुस्लिम युवाओं का एक बड़ा वर्ग इस जमात के साथ तेजी से जुड़ा है, लेकिन इसके यथास्थितिवादी रवैए के चलते वह भी पुराने ढर्रे पर ही चलता नज़र आ रहा है। यहां उसे कोई नया विजन नहीं मिल पा रहा है। जमात तबलीगी मुसलमानों के किसी भी राजनीतिक या समाजिक मुद्दे पर कभी हस्तक्षेप नहीं करती है। तीन तलाक़ से लेकर सीएए, लिंचिंग व दंगों आदि समेत अन्य मुद्दों पर वह खामोश रही।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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