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क्या बूस्टर खुराक पर चर्चा वैश्विक टीका समता को गंभीर रूप से कमज़ोर कर रही है?

विश्व स्वास्थ्य संगठन लगातार इसे रेखांकित करता आया है कि बूस्टर टीकों की दौड़, वैश्विक टीका समता को गंभीर रूप से कमजोर कर रही है और वास्तव में महामारी की काट किए जाने को भी नुकसान पहुंचा रही है। क्योंकि महामारी की यह काट सचमुच प्रभावी तभी हो सकती है, जब इसका स्वरूप वैश्विक हो।
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इन दिनों भारत में कोविड के टीकों की बूस्टर खुराकें शुरू करने पर काफी चर्चा हो रही है। ये चर्चा दरअसल बूस्टर खुराकें आम तौर पर कोविड महामारी की काट के लिए लगाने और इस वाइरस के ओम्रिकॉन वेरिएंट के विशेष संदर्भ में है। अनेक विशेषज्ञों द्वारा बूस्टर खुराकें लगाने की जो सिफारिश की जा रही हैं। उनके पीछे अब तक इसके कोई साक्ष्य नहीं हैं कि बूस्टर टीके लगाना इस वाइरस के संक्रमण से बचाव के लिए कारगर है। इसके भी कम साक्ष्य हैं कि इस संक्रमण से गंभीर रूप से बीमार पड़ने से, अस्पताल में भर्ती होने तथा मौत के हालात पैदा होने से बचाने के लिए यह कारगर है। जबकि टीकाकरण कार्यक्रमों का तो मुख्य मकसद यही होता है। 

दुर्भाग्य से बूस्टर लगाने के सुझाव देते हुए कोविड-19 की महामारी से, भले ही उसका कोई भी वेरिएंट सामने हो, निपटने से संंबंधित सुस्थापित वैज्ञानिक ज्ञान को तथा इसके लिए आवश्यक कदमों के संबंध में सार्वजनिक स्वास्थ्य के अनुभव को भी अनदेखा किया जा रहा है। यह तब है जबकि उक्त कदम ही हैं जो आज भी, इस वाइरस के खिलाफ आम जनता के लिए, सबसे कारगर पहली रक्षा दीवार मुहैया कराते हैं।

बूस्टर खुराकों के संबंध में दुनिया भर का अब तक का अनुभव तो यही दिखाता है कि इसके संबंध में उठे अनेक सवालों के अब भी कोई आसान उत्तर उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि टीकाकरणों, बूस्टरों तथा अन्य बचाव उपायों व सावधानियों व पाबंदियों के अनुभवों के नतीजे, अलग-अलग तरह के रहे हैं।

बूस्टर कितने कारगर?

टीकों की बूस्टर खुराकों का मामला कोई नया नहीं है। भारत में, जो लोग अपनी आयु की साठ की या सत्तर की दहाइयों में चल रहे हैं, उन्हें याद होगा कि बचपन में उन्हें छोटी चेचक का पहला टीका लगने के कुछ ही साल बाद, दूसरा या बूस्टर टीका भी लगा था। और आज भी बच्चों के अनेक टीकों के मामले में बूस्टर टीकों की जरूरत पड़ती है। जैसे कि टिटनस-रोधी टीके के मामले में बूस्टर की जरूरत पड़ती है। कोविड-19 के मामले में चूंकि इस नये वाइरस के संबंध में जानकारियां बहुत सीमित ही हैं और इससे बचाव के टीके कहीं बहुत तेजी से विकसित किए गए हैं, वास्तव में इसकी कोई निश्चित जानकारी है ही नहीं कि बूस्टर खुराक लगाने की जरूरत भी होगी या नहीं।

वास्तव में ओमिक्रॉन वेरिएंट के आने से काफी पहले से बूस्टर खुराकें देने पर गंभीरता से सोच-विचार शुरू हो चुका था। हम मोटे तौर पर 2021 के मध्य की बात कर रहे हैं जब दुनिया भर में डेल्टा वेरिएंट कहर ढहा रहा था। इससे भी पहले, जब पहली लहर में मूल वाइरस ही हावी रहा था और उसी ने योरप तथा उत्तरी अमरीका में कहर धाना शुरू किया था। तभी अमरीका में तथा कुछ दूसरी जगहों में भी कुछ विशेषज्ञों ने इसकी संभावनाओं को लेकर खोज-बीन शुरू कर दी थी कि टीके से हासिल होने वाली सुरक्षा संभव है कि वक्त गुजरने के साथ या नये वेरिएंटों के मुकाबले के लिए, घट रही हो। जाहिर है कि टीका निर्माता कंपनियां ऐसी स्थिति में बूस्टर की जरूरत के विचार को आगे बढ़ाने के लिए जोर लगा रही थीं।

इस्राइल, टीके की बूस्टर खुराकों के उपयोग के विचार को सबसे पहले अपनाने वाले देशों में था और वह टीकाकरण कार्यक्रम शुरू करने में भी दूसरे अधिकांश देशों से आगे था--उसने 2020 के आखिर तक ही टीकाकरण शुरू कर दिया था। 2021 के मध्य में, डेल्टा वेरिएंट से आयी दूसरी लहर के दौरान, इस्राइली अध्ययनों में यह बात सामने आयी थी कि फाइजर-बायोएनटैक टीकों द्वारा मुहैया करायी गयी सुरक्षा घटती जा रही थी। इसलिए, 2021 के अगस्त से इस्राइल ने बुजुर्गों को बूस्टर देना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे बूस्टर का दायरा बढ़ाकर, 12 वर्ष से अधिक आयु के सभी लोगों को इसके दायरे में ले आया गया। इस्राइल, अपनी करीब 63 फीसद आबादी का फाइजर-बायोएनटैक के टीकेे से पूर्ण टीकाकरण कर चुका है। करीब बाकी सब को एक खुराक दी जा चुकी है और करीब 50 फीसद को बूस्टर लग चुका है। हालांंकि, इस्राइली तथा अन्य विशेषज्ञ इन सफलताओं का श्रेय टीकाकरण जल्दी शुरू करने को तथा बूस्टर लगाए जाने को देते हैं, वास्तव में यह खास स्पष्ट नहीं है कि बूस्टरों ने वास्तव में ठीक-ठीक क्या भूमिका अदा की है। याद रहे कि इस्राइल की कोविड केसों की दर और कोविड से मौतों की दर भी, अन्य देशों की तुलना में बीच के दर्जे में ही पड़ती है।

बेशक, अमरीका का मामला तो अलग ही है। वहां टीके की सुरक्षा से अब भी बाहर बने हुए लोगों की विशाल संख्या के चलते, संक्रमण की दर बहुत ज्यादा बनी हुई है और मौतों की संख्या भी बहुत ज्यादा है। इस समय दुनिया भर के कोविड-19 संक्रमितों में से हर पांचवां संक्रमित अमरीका में ही है और उसकी संक्रमण की दर बढ़ती ही जा रही है। वहां कोविड से जुड़ी मौतों का आंकड़ा भी 8 लाख से ऊपर निकल चुका है। लेकिन, पिछैती गर्मियों के अमरीका के आंकड़े, टीका लगवा चुके लेागों के मामले में, संक्रमण होने की सूरत में, बहुत कम ही मामलों में अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आने को दिखाते थे और इस तरह का संक्रमण भी, 5000 टीका लगाने वालों में से एक को ही हो रहा था। ओमिक्रॉन के आने से पहले, अमरीका के सेंटर ऑफ डिसीज़ कंट्रोल का कहना था कि वैसे तो मौजूदा टीके गंभीर बीमारी, अस्पताल में भर्ती होने की नौबत तथा मौतों से बचाने के लिए भली-भांति काम कर रहे थे, फिर भी संक्रमण से सुरक्षा में कुछ कमी और हल्की या मॉडरेट बीमारी देखने को मिल रही थी और इसलिए, बूस्टरों की सिफारिश की जा रही है।

बूस्टर और ओमिक्रॉन

ओमिक्रॉन वेरिएंट के आने और तेजी से फैलने से बूस्टरों की मांग को और भी बल मिल गया है। ऐसा समझा जा रहा है कि ओमिक्रॉन टीके या एंटी-बॉडीज़ की बाधा को पार कर सकता है। इसके अलावा ऐसा भी माना जाता है कि उसकी संक्रमणशीलता, डेल्टा वेरिंएट से भी कहीं ज्यादा है। बहरहाल, इस वेरिएंट की संक्रामकता तथा उसके प्रसार-क्षमता के संबंध में किए जाने वाले दावों की पुष्टि करने के लिए तो फिर भी कुछ तो डेटा है। पर अब तक ऐसा कोई डेटा या तो सामने नहीं नहीं आया है औ यदि आया है तो बहुत ही कम है, जिससे यह नतीजा निकाला जा सकता हो कि डेल्टा या अन्य कोविड-19 वेरिएंटों की तुलना में ओमिक्रॉन से रोगी के गंभीर होने की संभावनाएं ज्यादा हैं, जिनसे अस्पताल में भर्ती कराए जाने की जरूरत पड़े और मौत तक हो सकती हो।

इसके बावजूद, कुछ देशों में चिंतित करने वाली बात यह है कि अगर इसके पॉजिटिव केसों की संख्या बहुत ज्यादा तेजी से बढ़ती है, तो गंभीर रूप से बीमार होने वालों की संख्या भी इतनी बढ़ सकती है कि उसके बोझ से, अस्पतालों व स्वास्थ्यरक्षा की व्यवस्था के ही बैठ जाने की नौबत आ जाए। मिसाल के तौर पर यूके में पहले ही कोविड-19 संक्रमणों में भारी तेजी से देखने को मिल रही थी और हर रोज आने वाले नये केसों का आंकड़ा बढक़र 70,000 के करीब हो गया था। बहरहाल, इनमें से ज्यादातर केस डेल्टा वेरिएंट के थे और यूके ने शुरूआत में 18 वर्ष से अधिक के आयु वर्ग के लिए टीकों की बूस्टर खुराक लगानी शुरू की थी, जिसके लिए जनवरी के आखिर तक पूरी आबादी को ही कवर करने का लक्ष्य तय किया गया था। लेकिन, बाद में ओमिक्रॉन के केसों के तेजी से फैलने को देखते हुए, यूके ने देश में ‘‘कोविड इमर्जेंसी’’ का एलान कर दिया और बूस्टर के कवरेज की समय सीमा को घटाकर, दिसंबर के अंत तक ले आए। अब यूके सरकार के स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया है कि सबसे अनुकूल स्थिति में यानी अगर टीके तथा बूस्टर ओमिक्रॉन के खिलाफ कारगर साबित होते हैं तब भी हर रोज करीब 2,400 यानी वर्तमान दर से तीन गुने ज्यादा रोगी अस्पतालों में भर्ती हो रहे होंगे। और अगर टीके तथा बूस्टर, इस वेरिएंट के खिलाफ उम्मीद से कम कारगर साबित हुए तो, अस्पतालों में पहुंचने वालों की संख्या 6,000 प्रतिदिन से भी आगे निकल सकती है।

यूके की बूस्टर संबंधी आधिकारिक सिफारिश में एक पेच और भी है, जिसकी भारत के लिए विशेष प्रासंगिकता है। यूके के अधिकारियों की सिफारिश है कि दूसरे किसी भी टीके से पूर्ण टीकाकरण के बाद, फाइजर तथा मॉडर्ना का टीका ही बूस्टर के तौर पर लगाया जा सकता है और ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका का टीका बूस्टर के तौर पर सिर्फ ऐसे मामलों में लगाया जाना चाहिए, जिनमें मरीज चिकित्सकीय कारणों से फाइजर या मॉडर्ना के टीके नहीं लगवा सकता हो। इसका कारण यह बताया गया है कि एस्ट्रा-जेनेका का टीका, जो भारत में बनता है तथा यहां कोविशील्ड के नाम से जाना जाता है, बूस्टर के रूप में उतना प्रभावी नहीं होता है क्योंकि यह संभवत: टी-सैलों को बढ़ाने का काम नहीं करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी सिफारिश की है कि निष्क्रियकृत वाइरस पर आधारित टीके, जैसे कि हमारे देश में निर्मित कोवैक्सीन तथा दो चीनी टीके, सिनोवेक तथा सिनोफार्म, के बाद कमजोर-प्रतिरोधात्मकता वाले लोगों के लिए बूस्टर टीके लगाने की जरूरत हो सकती है, क्योंकि वक्त के साथ इन टीकों का असर कम हो जाता है।

दक्षिण अफ्रीका में, जहां ओमिक्रॉन वेरिएंट का पहले पहल पता चला था, इस वेरिएंट की चपेट में आए 78,000 लोगों पर एक वृहत्तर अध्ययन भी हुआ है। इनमें से करीब आधे लोगों का, फाइजर के टीके से पूर्ण टीकाकरण भी हो चुका था। यह पता चला है कि फाइजर का टीका, डेल्टा तथा अन्य वेरिएंटों के मामले में करीब 80 फीसद असरदार साबित हुआ है। लेकिन, ओमिक्रॉन के मामले में उसकी कारगरता घटकर 30 फीसद ही रह गयी। बहरहाल, जहां टीके की दो खूराकें पहले गंभीर बीमारी तथा अस्पताल में भर्ती किए जाने की नौबत आने से करीब 90 फीसद बचाव मुहैया कराती थीं, ओमिक्रॉन के संक्रमण के खिलाफ इस बचाव में बहुत भारी गिरावट देखने को नहीं मिली और यह बचाव 70 फीसद के करीब बना रहा। यह दिखाता है कि बूस्टर अगर नहीं भी लगाए जाते हैं तब भी टीकाकरण से मिलने वाली सुरक्षा का स्तर ऊंचा बना रहेगा।

इसलिए, कुल मिलाकर यह कि अगर हम इस तथ्य को ध्यान में रखें कि टीकाकरण का मुख्य उद्देश्य ही संक्रमण होने की सूरत में गंभीर बीमारी तथा अस्पताल में भर्ती होने की नौबत से बचाना है, खासतौर पर ओमिक्रॉन के खिलाफ बूस्टर डोज़ के उपयोग के पक्ष में साक्ष्य बहुत ही कम हैं। ओमिक्रॉन की प्रसारकता अगर डेल्टा वेरिएंट के मुकाबले ज्यादा हो तब भी, उसका मुकाबला सिर्फ टीके की सुरक्षा को और बढ़ाने के जरिए ही नहीं बल्कि कोविड-उपयुक्त आचरण तथा उससे जुड़ी हुईं मॉस्क लगाने, वेंटीलेशन बेहतर करने और भीड़-भाड़ तथा बड़े समागमों से बचने जैसी, सामाजिक पाबंदियों के जरिए भी किया जाना जरूरी है। सिर्फ तकनीकी उपायों, जैसे टीकों तथा अब बूस्टर पर भी अतिनिर्भरता, समग्र सामाजिक प्रयास को कमजोर करती है, जबकि ऐसा प्रयास महामारी का मुकाबला करने के लिए जरूरी है।

वैश्विक समता और टीका सुरक्षा

विश्व स्वास्थ्य संगठन लगातार इसे रेखांकित करता आया है कि बूस्टर टीकों की दौड़, वैश्विक टीका समता को गंभीर रूप से कमजोर कर रही है और वास्तव में महामारी की काट किए जाने को भी नुकसान पहुंचा रही है, क्योंकि महामारी की यह काट सचमुच प्रभावी तभी हो सकती है, जब इसका स्वरूप वैश्विक हो।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के महा-निदेशक, डॉ. ग्रेबे्रयेसस ने तो बूस्टर खुराकों के कार्यक्रम के लिए कहा है कि यह, ‘एक घोटाला है, जिसे अब बंद किया जाना चाहिए।’ विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ध्यान दिलाया है कि गरीब देशों में टीके की जितनी शुरूआती खुराकें लग रही हैं, उससे 6 गुनी ज्यादा बूस्टर खुराकें अमीर देशों में लग रही हैं। 92 से ज्यादा देशों ने बूस्टर प्रोग्राम शुरू करने के अपने इरादे के बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन को सूचित किया है और इनमें एक भी कम आय वाला देश नहीं है। अमीर देशों ने औसतन अपनी आबादी के 65 फीसद का पूर्ण टीकाकरण पहले ही कर लिया है, जबकि कम आय वाले देशों में आबादी के 4 फीसद का भी टीकाकरण नहीं हो पाया है। इस अगस्त में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने टीके बूस्टर खुराक लगाए जाने पर दुनिया भर में रोक लगाने का आग्रह किया था।

यह एक नैतिक प्रश्न भर नहीं है। सारी दुनिया ने देखा है कि किस तरह से कोई एक संक्रमित व्यक्ति ही, जो किसी ऐसे देश से आया हो, जहां ओमिक्रॉन जैसा कोई वेरिएंट फैला हुआ हो या पाया भर गया हो, बहुत तेजी से इस संक्रमण को फैला सकता है और यह संक्रमण इतनी तेजी से फैल सकता है कि उसके कोविड-19 के वाइरस का मुख्य वेरिएंट बन जाने का वास्तविक खतरा पैदा हो सकता है। जब तक  दुनिया भर में कहीं भी या देशों की अपनी सीमाओं के अंदर भी, ऐसी उल्लेखनीय आबादियों के पॉकेट बने रहेंगे, जिनका टीकाकरण नहीें हुआ हो, तब तक वाइरस के लिए इसके मौके बने रहेंगे कि वह अपने को बदलता रहे और हो सकता है कि और घातक रूप भी ले ले। पिछले साल डेल्टा वेरिएंट ने दुनिया में कहर बरपा दिया था। नये साल में ओमिक्रॉन अपना कहर बरपा कर सकता है और इसी तरह हम ग्रीक वर्णमाला के नये-नये अक्षरों के नाम से कहर झेलते रह सकते हैं।

इसके बावजूद, हमारी दुनिया और खासतौर पर ज्यादा साधनसंपन्न देश, इस वाइरस का मुकाबला करने में बुरी तरह से नाकाम रहे हैं। साधनसंपन्न देशों ने सिर्फ अपनी ही फिक्र करने का रास्ता चुना है। इस तरह का रुख अपनाने के पीछे भावना तो फिर भी समझी जा सकती है, पर यह रास्ता तो हार की ओर ले जाने वाला ही रास्ता है। एक पुराने सूत्रवाक्य को दोहराएं तो, इस वाइरस से कोई भी तब तक सुरक्षित नहीं होगा, जब तक सब सुरक्षित नहीं हो जाएंगे।

इस तरह, कमजोर प्रतिरोधकता वाले लोगों जैसे खासतौर पर कमजोर तबकों को लक्ष्य बनाकर बूस्टर डोज लगाने के बजाए, व्यापक रूप से बूस्टर कार्यक्रम के अपनाए जाने के पक्ष में पर्याप्त साक्ष्य तो नहीं ही हैं, फिलहाल तो बूस्टर की परिकल्पना भी काफी विभ्रमित है।

भारत को क्या करना चाहिए?

कहने की जरूरत नहीं है कि भारत में भी बूस्टर कार्यक्रम शुरू करने का शोर बढ़ रहा है, फिर भले ही इसके पक्ष में कोई खास साक्ष्य नहीं है। केंद्र सरकार की प्रासंगिक एजेंसियों, एनटीएजीआइ तथा एनईजीवीएसी ने इस मामले में कोई फैसला नहीं सुनाया है क्योंकि उनका कहना है कि अभी पर्याप्त साक्ष्य नहीं सामने आए हैं।

भारत की वयस्क आबादी में से कुल 37.5 फीसद हिस्से का पूर्ण टीकाकरण हो पाया है और 22 फीसद और आबादी है, जिसको टीके की एक खुराक दी जा चुकी है। इस समय हर रोज औसतन 70-80 लाख टीके लग रहे हैं। साफ है कि भारत इस साल के आखिर तक अपनी पूरी वयस्क आबादी का टीकाकरण करने के लक्ष्य के आस-पास भी नहीं पहुंचने वाला है। सारे के सारे संकेत इसी ओर हैं कि इसके लिए टीकों की उत्पादन क्षमता का कम पडऩा नहीं, बल्कि आपूर्ति प्रबंधन की दिक्कतें और आवश्यक पैमाने पर टीके लगाने की क्षमता की समस्याएं ही जिम्मेदार हैं। हमारे देश में घरेलू तौर पर उपलब्ध टीकों के मुख्य उत्पादक, पुणे के सीरम इंस्टीट्यूट ने, जिसने अब तक हमारे देश में लगे टीकों का करीब 90 फीसद हिस्सा– कोवीशील्ड के नाम से– उपलब्ध कराया है, इसके संकेत दिए हैं कि सरकार के पर्याप्त आर्डर हाथ में न होने के चलते, वह अपना उत्पादन घटाकर आधा कर देने की तैयारी कर रहा है। दूसरा घरेलू टीका निर्माता, भारत बायोटैक तो, सरकार की पूरी मदद तथा पूरी साझीदारी के बावजूद, टीकों की आपूर्ति के अपने वादे पूरे करने में लगातार पिछड़ता ही रहा है। यहां हम इस मुद्दे के विस्तार में नहीं जा सकते हैं, बल्कि यहां इतना ही कहना काफी होगा कि अभी भी टीके के उत्पादन और टीके की जरूरत के बीच भारी अंतर बना ही हुआ है।

इसके अलावा, भारत के ऊपर वैश्विक कोवैक्स फैसिलिटी के लिए टीके मुहैया कराने की जिम्मेदारी भी है। इस व्यवस्था के जरिए कम आय वाले देशों को टीके मुहैया कराए जाने थे, जो भारत अपनी जरूरतें ही पूरी नहीं कर पाने के चलते, मुहैया नहीं करा पाया है। अभी हाल ही में काफी छोटे से पैमाने पर इस तरह के निर्यातों को दोबारा शुरू किया जा सका है।

इसलिए, किसी तरह के बूस्टर टीकाकरण प्रोग्राम के समर्थन में कोई खास साक्ष्य तो नहीं हैं, जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है। इसके अलावा ऐसे किसी कार्यक्रम की बात करना भी अभी विवादास्पद होगा। इस तरह के किसी भी कार्यक्रम के लिए आयातित टीकों की जरूरत होगी और अगर इस संबंध में कोवीशील्ड या कोवैक्सिन की अनुपयोगिता की सिफारिशों को अगर माना जाए, तब तो आयातित टीकों पर ही निर्भर रहना होगा। दूसरी ओर, अगर घरेलू तौर पर बनने वाले टीकों का इसके लिए उपयोग किया जाता है, तो बूस्टर कार्यक्रम का मतलब बुनियादी टीकाकरण के कार्यक्रम का और धीमा हो जाना ही होगा और यह आबादी के एक बड़े हिस्से को वाइरस के रहमो-करम पर छोड़े जाने की कीमत पर, एक सीमित तबके को वाइरस से अतिरिक्त सुरक्षा मुहैया कराना ही होगा। इसलिए, अगर टीकों की बूस्टर खुराक पर विचार करना ही है तो भी इस पर अन्य बीमारियों के चलते अपेक्षाकृत कमजोर स्थिति वाले, बुजुर्गों के लिए ही विचार किया जाना चाहिए, अन्यथा नहीं।

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