‘‘कॉलोनी ऑफ सैटलमेंट’’ और ‘‘कॉलोनी ऑफ कान्क्वेस्ट’’ में फ़र्क़ ज़रूरी

अपने महाग्रंथ, द वैल्थ ऑफ नेशन्स में, जो 1776 में प्रकाशित हुआ था, एडम स्मिथ ने एक प्रगतिशील राज्य, एक अगतिशील राज्य और एक क्षयशील राज्य के बीच अंतर की रेखाएं खीची थीं।
एडम स्मिथ का वर्गीकरण
उनके हिसाब से प्रगतिशील राज्य वह था, जहां पूंजी संचय, आबादी में वृद्धि की दर से ज्यादा तेजी से हो रहा हो, जिसके चलते मजदूरी ज्यादा होगी और आबादी बढ़ रही होगी। इसके विपरीत, क्षयशील राज्य में इससे ठीक उल्टा हो रहा होगा, जबकि एक अगतिशील राज्य में पूंजी स्टॉक तथा आबादी और इसलिए श्रम शक्ति, ज्यों के त्यों बने रहते हैं और वही स्थिति मजदूरी की होती है, लेकिन मजदूरी प्रगतिशील राज्य से एक सीढ़ी नीचे रहती है। इस आधार पर उन्होंने यह दलील दी थी: ‘श्रम की मजदूरी में बढ़ोतरी, राष्ट्रीय संपदा की वास्तविक विशालता से नहीं बल्कि उसमें निरंतर बढ़ोतरी होने से होती है।’ और यह भी कि, ‘प्रगतिशील राज्य वास्तव में, समाज के सभी तबकों के लिए एक खुश मिजाज और उत्साही राज्य होता है। अगतिशील, सुस्त होता है और क्षयशील, उदास।’
उनके अनुसार, उत्तरी अमेरिका एक प्रगतिशील राज्य का उदाहरण था, जबकि बंगाल, एक क्षयशील राज्य का और चीन, एक अगतिशील राज्य का।
एडम स्मिथ ने उत्तरी अमेरिका और बंगाल के बीच जो अंतर बताया था, पूरी तरह से सही था और अपने समय के हिसाब से अंतर्दृष्टिपूर्ण था। वास्तव में वह जब लिख रहे थे, उस समय के करीब तो बंगाल की वास्तविक स्थिति, वह जो कल्पना कर सकते थे उससे भी खराब थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के मुगल बादशाह शाह आलम से, बंगाल की दीवानी हासिल कर लेने के बाद, वहां लगान की मांग इतनी तेजी से बढ़ायी गयी थी कि इससे 1770-72 के दौरान भयावह अकाल पड़ गया था, जिसमें अनुमानों के अनुसार एक करोड़ लोग मारे गए थे यानी प्रांत की कुल आबादी के लगभग तिहाई हिस्से के बराबर। लेकिन, एडम स्मिथ ने उत्तरी अमेरिका और बंगाल की दशाओं में इस विपरीतता का कारण, कि क्यों उत्तरी अमेरिका तेजी से पूंजी का संचय कर रहा था, जबकि बंगाल में पूंजी स्टॉक तथा आबादी में गिरावट हो रही थी, यह बताया था कि उत्तरी अमेरिका का शासन ब्रिटिश सरकार के हाथ में था (उनका लेखन अमेरिका के स्वतंत्रता युद्ध से पहले का था) जबकि बंगाल पर, एक वाणिज्यिक कंपनी का राज था, ईस्ट इंडिया कंपनी का। एडम स्मिथ की इस तरह की व्याख्या हैरान करने वाली नहीं थी क्योंकि वह मुक्त बाजार पूंजीवाद के झंडाबरदार थे और वाणिज्यिक इजारेदारियों के विरोधी थे, जिसके चलते वह ईस्ट इंडिया कंपनी को नापसंद करते थे; लेकिन उनकी यह व्याख्या पूरी तरह से गलत थी।
बसावट के और जीते हुए उपनिवेश
जब बंगाल को और तब तक कंपनी के राज के अंतर्गत आ चुके शेष भारत को, 1857 के विद्रोह के बाद, 1858 में ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथों में ले लिया, तब भी उनकी गिरावट नहीं रुकी। अकालों का सिलसिला आजादी आने तक नहीं रुका और औपनिवेशिक प्रशासन के लुटेरेपन में रत्तीभर कमी नहीं आयी। उत्तरी अमेरिका और बंगाल के बीच की विपरीतता का वास्तविक कारण समझने में एडम स्मिथ ने गलती की थी। इस विपरीतता का असली कारण इस तथ्य में निहित था कि उत्तरी अमरीका बसावट का उपनिवेश यानी ‘‘कॉलोनी ऑफ सैटलमेंट’’ था, जबकि बंगाल जीता गया उपनिवेश या ‘‘कॉलोनी ऑफ कान्क्वेस्ट’’ था।
बसावट के उपनिवेशों में, जो उन सम शीतोष्ण इलाकों में थे, जहां यूरोपीय आबादी जाकर बस गयी थी, इन आप्रवासियों ने स्थानीय आबादियों को उनकी जमीनों से खदेड़ दिया था; यूरोपियों के संपर्क में आने के बाद भी जो बच रहे थे उन्हें ‘‘रिजर्वेशनों’’ में धकेल कर बंद कर दिया था और उनकी जमीनों तथा वास स्थानों को हथिया लिया था; ताकि खुद को अच्छे खाते-पीते किसानों के तौर पर या किसानी के बढ़ने के बहुगुणनकारी प्रभाव के रूप में उभरकर आए अन्य पेशों में स्थापित कर सकें।
विद्वानों का अनुमान है कि 1815 से 1914 के बीच, करीब 5 करोड़ यूरोपीय, यूरोप से गोरी बसाहट के सम-शीतोष्ण क्षेत्रों में जा पहुंचे थे जैसे कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा दक्षिण अफ्रीका। (उत्प्रवास इससे पहले से भी चल रहा था, लेकिन अपेक्षाकृत छोटे पैमाने पर।) यह दर्ज करने वाली बात है कि इसी अवधि में, इन्डेन्चर्ड या कुली मजदूरों के रूप में, भारतीय और चीनी आबादियों का इतने ही परिमाण में उष्ण-कटिबंधीय इलाकों के बीच तबादला तो हुआ था, लेकिन किसी भी उष्ण-कटिबंधीय उत्प्रवासी को उन सम-शीतोष्ण इलाकों में बेरोक-टोक जाने की इजाजत नहीं थी, जहां यूरोपीय उत्प्रवासी बसे हुए थे। वास्तव में तो उन्हें आज भी, सम-शीतोष्ण इलाके के इन देशों में बेरोक-टोक घुसने की इजाजत नहीं है।
सम-शीतोष्ण इलाकों में यूरोप से आबादी के इस पलायन के साथ ही, पूंजी का समांतर पलायन भी चल रहा था, जिसके चलते इस नयी दुनिया या न्यू वर्ल्ड में, औद्योगिक गतिविधियों का प्रसरण हुआ था। इसके विपरीत, जीते हुए उपनिवेशों की ओर, जो मुख्य रूप से गर्म और सम-शीतोष्ण इलाकों में स्थित थे, यूरोप से या यूरोपीय प्रवासियों की बसाहट के नये-नये औद्योगीकरण कर रहे देशों से, कम से कम अभी हाल तक तो, औद्योगिक गतिविधियों का शायद ही कोई प्रसरण हुआ था। विकसित दुनिया द्वारा इन जीते हुए उपनिवेशों में जो थोड़ी-बहुत पूंजी लगायी थी गयी थी, प्राथमिक मालों के विकास पर ही लगायी गयी थी, जो अंतर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन के औपनिवेशिक पैटर्न के अनुरूप ही था। मिसाल के तौर पर, पहले विश्व युद्ध के आरंभ तक, भारतीय उप-महाद्वीप में, जो कि उनका सबसे बड़ा उपनिवेश था, ब्रिटिश प्रत्यक्ष निवेश का सिर्फ 10 फीसद आया था और वह भी चाय, जूट जैसे क्षेत्रों में और उनके निर्यात से जुड़ी गतिविधियों में।
जीते गए उपनिवेशों की भिन्न नियति
जीते गए उपनिवेश, सिर्फ ‘अधिशेष की लूट’ या ड्रेन ऑफ सरप्लस के ही शिकार नहीं होते हैं, जिसके लिए वित्त कर राजस्व के जरिए बटोरा जाता है और उपनिवेशों के पूरे के पूरे निर्यात अधिशेष के ही मुफ्त में औद्योगिक देश में पहुंचा दिए जाने का रूप ले लेता है, जिसके बिना वहां औद्योगिक क्रांति का हो पाना भी संदेह के घेरे में आ जाता है। इसके साथ ही, इन जीते गए उपनिवेशों को इस पूरी प्रक्रिया में, औद्योगिक दुनिया से विनिर्मित मालों के आयात के जरिए, अपनी पूर्व-पूंजीवादी औद्योगिक गतिविधियों के विनाश का भी सामना करना पड़ता है। यह विनाश, जिसे ‘निरुद्यौगीकरण’ या डीइंडस्ट्रिअलाइजेशन कहा जाता है, दस्तकारों तथा कारीगरों की जन बेरोजगारी पैदा करता है, जिससे जमीन पर दबाव बढ़ता है, जमीन के भाड़े बढ़ते हैं, मजदूरी घटती है और जन गरीबी पैदा होती है। इस तरह बंगाल सिर्फ ऋणात्मक पूंजी संचय का ही शिकार नहीं था, जिसका शिकार एडम स्मिथ उसे मानते थे। वह तो ब्रिटेन में हो रहे पूंजी संचय के सिक्के का दूसरा पहलू था। और उसकी ह्रासशील अवस्था सिर्फ ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का ही नतीजा नहीं थी बल्कि ब्रिटेन में औद्योगिक पूंजीवाद के विकास भी नतीजा थी। और इस औद्योगिक पूंजीवाद ने ही अंतत: इसका तकाजा किया कि व्यापार पर ईस्ट इंडिया कंपनी की इजारेदारी को खत्म किया जाए, ताकि भारत में औद्योगिक दुनिया से बड़े पैमाने पर औद्योगिक आयातों का आना संभव हो जाए।
यह सभी कुछ खूब जाना-माना है। इसे यहां दोहराने की वजह यह है कि आज भी अक्सर अर्थशास्त्रियों तथा आर्थिक इतिहासकारों द्वारा बसावट के उपनिवेशों और जीते हुए उपनिवेशों के बीच अंतर नहीं किया जाता है और वे ऐतिहासिक डाटा प्रस्तुत करते हुए अक्सर, साम्राज्य की संज्ञा के दायरे में, दोनों तरह के उपनिवेशों को एक साथ खड़ा कर देते हैं, जो वास्तव में वहां जो होता रहा है, उसे धुंधलाने का ही काम करता है।
लेकिन, बात इतनी ही नहीं है। अक्सर ऐसा मान लिया जाता है कि पहले किसी जमाने में, औद्योगिक दुनिया से, गोरों की बसाहट के सम शीतोष्ण इलाकों में, आर्थिक गतिविधियों का जो प्रसरण हुआ था, वैसा ही प्रसरण अब नव-उदारवादी निजाम के अंतर्गत, कल तक के जीते गए उपनिवेशों की ओर हो रहा है, जिस तरह पहले किसी जमाने में अमेरिका तथा कनाडा का विकास हुआ था, आज के दौर में वैसे ही भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों का विकास होने जा रहा है।
जीते गए उपनिवेशों का भिन्न यात्रा पथ
लेकिन, यह दलील तीन स्वत:स्पष्ट नुक्तों को अनदेखा छोड़ देती है। पहला यह कि भारत तथा इंडोनेशिया जैसे देश, जो जीते गए उपनिवेश रहे हैं, अतीत से विरासत में गरीबी तथा बेरोजगारी का एक बैकलॉग लेकर चल रहे हैं, जो ठीक उनके जीते गए उपनिवेश रहे होने का ही नतीजा है। इसलिए, औद्योगिक दुनिया से पूंजी प्रवाहों के सम-शीतोष्ण देशों के अनुभव के दुहराए जाने भर से, इन समस्याओं को नहीं मिटाया जा सकता है। दूसरे, इन जीते गए उपनिवेश रहे देशों में अब भी खासी मात्रा में लघु तथा बहुत छोटा उत्पादन है, जिसे इन अर्थव्यवस्थाओं के दरवाजे पूंजी प्रवाहों के लिए खोल देना, और भी तबाह करेगा। उपनिवेशवाद द्वारा इन देशों में पैदा की गयी बेरोजगारों की फौज को खपाने के बजाए, जो कि इन समाजों के विकास का पर्याय ही है, पूंजी के प्रवाह तो बेरोजगारों की इस फौज में और बढ़ोतरी ही करने जा रहे हैं। और तीसरे, उन्नीसवीं सदी में जब यूरोपीय बसाहटों के सम शीतोष्ण इलाकों की ओर औद्योगिक गतिविधियों का प्रसरण हो रहा था, ऐसी बसाहटों के देशों ने मजबूती से अपने हितों का बचाव किया था। लेकिन, आज के इस तरह के आर्थिक गतिविधियों के प्रसरण के लाभार्थियों के मामले में, नव-उदारवादी निजाम किसी भी तरह के संरक्षणवाद को रोकता है और यह इस प्रसरण के स्थानीय बहुगुणनकारी प्रभावों को सीमित कर देता है।
इसके अलावा, यह सब भी इसके ऊपर से है कि औद्योगिक देश हाथ पर हाथ रखकर बैठे नहीं रहेंगे और इसे चुप-चाप देखते ही नहीं रहेंगे कि जो उनके जीते हुए उपनिवेश हुआ करते थे, उनके उत्पाद, इन औद्योगिक देशों के घरेलू उत्पादन को प्रतिस्पर्धा में पछाड़ दें और उनकी घरेलू बेरोजगारी में इजाफा कर दें। यह तो उन्हें उस स्थिति में भी मंजूर नहीं होगा, जब प्रतिस्पर्धा करने वाले ये उत्पाद, उनकी महानगरीय पूंजी के इन पूर्व-उपनिवेशों में पुनर्स्थापना के जरिए ही बनाए जा रहे हों। चीन के साथ इस समय जो कुछ हो रहा है, जिसके मालों के आयातों से अमेरिका अपना संरक्षण कर रहा है, इस संदर्भ में बहुत ही सबक देने वाला है।
बसाहट के उपनिवेशों और जीते गए उपनिवेशों के विकास पथ पूरी तरह से भिन्न रहे हैं। एडम स्मिथ इस भिन्नता को नहीं देख पाए थे, लेकिन उनकी इस चूक को माफ किया जा सकता है क्योंकि वह पुरोधा थे, जिनका लेखन काफी शुरूआत में हुआ था। लेकिन, जो यह मानते हैं कि ऐसे देश जो जीत के उपनिवेश बनाए गए थे, आज उसी यात्रा पथ पर चल सकते हैं, जिस पर किसी जमाने में बसावट के उपनिवेश चले थे, तो वे पूरी तरह से गलत होंगे।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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