जेएनयूएसयू 1977-78: आपातकाल के बाद हुए छात्रों के अधिकार बहाल
सीताराम येचुरी इंदिरा गांधी के सामने ज्ञापन पढ़ते हुए, जेएनयू चांसलर के पद से उनके इस्तीफे की मांग करते हुए। तस्वीर साभार: द हिंदू 'एक्स'से ली गई है।
नीचे सीताराम येचुरी का लेख जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ की स्मारिका से लिया गया है जिसका शीर्षक, 30 ईयर्स इन डिफेंस ऑफ प्रोग्रेसिव, डेमोक्रेटिक एंड सेकुलर कल्चर था और जो 2004 में प्रकाशित हुई थी। वे आपातकाल और जेएनयूएसयू अध्यक्ष के रूप में अपने समय को याद कर रहे हैं। स्पष्टता के लिए इसे कुछ संपादित किया गया है।
हां, मैं तीन बार जेएनयू छात्र संघ (जेएनयूएसयू) का अध्यक्ष चुना गया। लेकिन ये तीन चुनाव लगातार दस महीने के अंतराल में हुए थे! वे आपातकाल के बाद के दिन थे जब अति-लोकतंत्रवाद का बोलबाला था। मैं आखिरी ऐसा अध्यक्ष भी था जिसे सभी छात्रों ने सीधे चुनाव में जिताया था जबकि दूसरे पदाधिकारी, यानी महासचिव को परिषद [जेएनयूएसयू परिषद, जिसमें निर्वाचित पदाधिकारी और पार्षद शामिल थे] ने चुना था। इस संविधान को स्कूल की जनरल बॉडी की बैठकों और अंत में विश्वविद्यालय की जनरल बॉडी मीटिंग के माध्यम से पूरी तरह से संशोधित किया गया था, जो बैठक कई दिनों तक चली थी। यह वह संविधान है जो मुझे लगता है कि वर्तमान में जेएनयू छात्र संघ का मार्गदर्शन कर रहा है, और जिसने पदाधिकारियों के चार पदों (अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव और संयुक्त सचिव) के लिए सीधे चुनाव की व्यवस्था की है।
मैंने 1973 में जेएनयू में दाखिला लिया था। जेएनयूएसयू अपनी प्रारंभिक अवस्था में था। इसने पहले ही कुछ अनूठी और महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल कर ली थीं, उनमें से एक यह थी कि विश्वविद्यालय के अधिकारियों की यूनियन के कामकाज़ या चुनावों के संचालन में कोई भूमिका नहीं थी। ऐसा करने का मतलब, आपातकाल के दौरान छात्रों के पक्ष में खड़ा होना था, क्योंकि अधिकारी यूनियन को "मान्यता से वंचित" नहीं कर सकते थे।
मैं 1974 में स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज (SSS) से काउंसलर चुना गया था और स्कूल का कन्वीनर बना था। (प्रत्येक स्कूल से जेएनयूएसयू काउंसलर अपने बीच से एक कन्वीनर का चुनाव करते हैं।) यह वह समय था जब उन लाभों को समेकित करने या मजबूत करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना था। आनंद कुमार निर्वाचित अध्यक्ष थे। मतदाताओं को यह आश्वासन देने के बाद कि वे अध्यक्ष पद को बीच में नहीं छोड़कर जाएंगे और संयुक्त राज्य अमेरिका में अपनी छात्रवृत्ति को लेकर आगे नहीं बढ़ेंगे, उन्होंने ठीक आश्वासन के उल्टा किया, जिसके कारण मध्यावधि चुनाव हुए। जनवरी 1975 में स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) के डी.पी. त्रिपाठी ने वह चुनाव जीता।
लेकिन इससे पहले कि छात्र अधिकारों को मजबूत करने और आगे बढ़ाने की प्रक्रिया आगे बढ़ पाती, जैसे कि यूनिवर्सिटी कोर्ट, कार्यकारी परिषद आदि जैसे विश्वविद्यालय की संस्थाओं में छात्रों का प्रतिनिधित्व जीतने का काम किया जाना था लेकिन आ गया आपातकाल। आपातकाल की घोषणा के दो सप्ताह के भीतर, 8 जुलाई 1975 को, सैकड़ों सशस्त्र पुलिसकर्मियों ने छात्रावासों पर धावा बोल दिया। वे 69 छात्रों को ले गए और उनमें से 10 को भारत रक्षा नियमों (मिसा) के तहत हिरासत में ले लिया था। यह संख्या बहुत अधिक होती अगर पुलिस ने पहले गोदावरी छात्रावास को घेरने की गलती नहीं की होती। जब तक उन्हें एहसास हुआ कि यह उन लड़कों का छात्रावास नहीं है जिनकी वे तलाश कर रहे थे, तब तक सुबह हो चुकी थी। कावेरी छात्रावास से गुजरने और बेतरतीब ढंग से छात्रों को उठाने का ही समय था। पेरियार छात्रावास में हममें से कई लोग उस अनुभव से बच गए थे, क्योंकि लड़कों के छात्रावास के बजाय पुलिस ने लड़कियों के छात्रावास को घेर लिया था।
स्पष्ट रूप से, पुलिस की कार्रवाई छात्र समुदाय को आतंकित करने के लिए थी। कहने की ज़रूरत नहीं है कि इसके विपरीत, इसने जेएनयू के छात्रों को उत्साहित किया। हमने कैंपस के अंदर आपातकाल के प्रति समर्थन के खिलाफ़ एक भूमिगत संघर्ष चलाया। हममें से कई लोगों ने 'द रेजिस्टेंस' नामक एक समूह बनाया जिसने कई भूमिगत पर्चे जारी किए और प्रदर्शनकारी कार्रवाइयों का आयोजन किया।
छात्रों के प्रतिरोध के प्रति अधिकारियों की प्रतिक्रिया, छात्र संघ को तबाह करने के कठोर प्रयासों के ज़रिए आई। यूनियन की सदस्यता स्वैच्छिक कर दी गई। छात्रों के लिए आचार संहिता जारी की गई। 1975 में दाखिले के लिए योग्य बारह छात्रों को राजनीतिक आधार पर दाखिला देने से माना कर दिया गया। इस अलोकतांत्रिक कदम का विरोध करते हुए जेएनयूएसयू काउंसिल ने कक्षाओं के बहिष्कार का आह्वान किया। काउंसिल के उस प्रस्ताव पर एसएफआई पार्षद सुश्री अशोक लता जैन ने हस्ताक्षर किए थे, जिन्हें ऐसा करने पर निलंबित कर दिया गया था।
इसके विरोध में 24 से 26 सितंबर तक अभूतपूर्व जन आंदोलन हुआ। यह शायद आपातकाल के खिलाफ देश में कहीं भी पहली व्यापक छात्र हड़ताल थी। इसी आंदोलन के दौरान, एक ऐसा मामला जो बाद में प्रसिद्ध हुआ, जिसमें प्रबीर पुरकायस्थ को पी.एस. भिंडर ने अगवा कर लिया, जो बाद में दिल्ली के पुलिस आयुक्त बने। प्रबीर ने आपातकाल के बाकी समय आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (यानी मीसा) के तहत जेल में बिताए।
इसके बाद 6 नवंबर को डी पी त्रिपाठी को अकादमिक परिषद की बैठक में भाग लेने से रोक दिया गया, जिसके वे जेएनयूएसयू के अध्यक्ष होने के नाते पदेन सदस्य थे। उन्हें निष्कासन आदेश दिया गया और बाद में 11 नवंबर को मीसा के तहत परिसर के अंदर से गिरफ्तार कर लिया गया।
कुलपति ने जेएनयूएसयू को किसी भी तरह के कामकाज के लिए जगह देने से इनकार कर दिया और छात्र यूनियन के विरोध में अपनी एक मनोनीत छात्र यूनियन स्थापित करने की कोशिश की। लेकिन जेएनयू छात्र आंदोलन की सच्ची भावना का प्रदर्शन करते हुए, लगभग सभी छात्रों ने ऐसे नामांकन को अस्वीकार कर दिया था।
इस दौरान जेएनयू छात्र संघ ने ऐसी ख्याति अर्जित की कि आपातकाल और पुलिस आतंक के बावजूद विश्वविद्यालय कोर्ट की बैठक, जो परिसर में होनी थी, उसे विज्ञान भवन में स्थानांतरित करना पड़ा, ताकि विश्वविद्यालय की कुलाधिपति यानी श्रीमती इंदिरा गांधी को विरोध का सामना न करना पड़े। इससे पहले परिसर में एक समारोह में भाग लेने आए केंद्रीय शिक्षा मंत्री को एक अनोखे विरोध का सामना करना पड़ा था, जब वे बोलने के लिए उठे, तो सभी छात्र उठकर हॉल से बाहर चले गए थे। जेएनयू में सत्ता-विरोधी प्रतिरोध इतना मजबूत था कि एनएसयूआई को भी [आपातकाल-विरोधी आंदोलन के खिलाफ] भूमिगत प्रतिरोध करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
आपातकाल के हटने और 1977 के लोकसभा चुनावों में श्रीमती गांधी की कांग्रेस की हार के बाद छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों को बहाल करने और आगे बढ़ाने के लिए एक उत्साहजनक प्रतिक्रिया हुई। 1974 में चुने गए छात्र संघ के बचे हुए सदस्यों ने अक्टूबर में सामान्य कार्यक्रम के अनुसार जेएनयूएसयू के चुनाव कराने का प्रस्ताव रखा। लेकिन यह प्रस्ताव विश्वविद्यालय की जनरल बॉडी (यूजीबीएम) में खारिज हो गया, जो प्रस्ताव आपातकाल के बाद की इच्छा को दर्शाता था, और तुरंत एक लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित यूनियन चाहता था।
इस प्रकार, अप्रैल 1977 में, जेएनयूएसयू अध्यक्ष पद के लिए मैंने पहला चुनाव लड़ा था। एक-एक करके, आपातकाल के दौरान वंचित किए गए हर एक लोकतांत्रिक अधिकार को बहाल किया गया – जिसमें छात्र संघ के लिए धन और सुविधाएं; अकादमिक परिषद की बैठक में जेएनयूएसयू अध्यक्ष और अन्य की भागीदारी; आपातकाल के दौरान लगाए गए सभी छात्र-विरोधी कानूनों को निरस्त करना; छात्र संघ की अनिवार्य सदस्यता और उसकी फीस की बहाली; निलंबित, निष्कासित या प्रवेश से वंचित सभी छात्रों की बहाली; छात्र-संकाय समितियों और अध्ययन बोर्ड की बहाली, और आचार संहिता को खत्म करना था।
ये सभी उपलब्धियां जेएनयूएसयू द्वारा शुरू किए गए अनगिनत संघर्षों के ज़रिए हासिल की गईं थी। छात्रों की जनरल बॉडी ने चार विश्वविद्यालय अधिकारियों, अर्थात् कुलपति, रजिस्ट्रार, शैक्षणिक मामलों के समन्वयक और सुरक्षा अधिकारी के खिलाफ परिसर में आपातकालीन शासन के एजेंडे को लागू करने के लिए एक विस्तृत और बेहतर ढंग से तैयार दस्तावेज़ के आधार पर एक आरोप पत्र तैयार किया। इसके कारण "दोषियों को दंडित करने" के लिए एक लंबा संघर्ष हुआ, जिसमें सुश्री इन्दिरा गांधी को विश्वविद्यालय के कुलपति के पद से हटाना भी शामिल था।
आंदोलनकारी का यह कार्यक्रम, अक्टूबर 1977 में छात्र संघ के नियमित चुनावों के बाद भी जारी रहा। "दोषियों" को विश्वविद्यालय में प्रवेश करने से रोकने के आंदोलन के जवाब में, कुलपति ने विश्वविद्यालय को अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया था। अगले महीने में बहुत ज़्यादा गतिविधि हुईं, जिन्हें पुस्तकालयों, छात्रावासों और भोजनालय में छात्रों ने खुद चलाया था। वरिष्ठ छात्रों ने कक्षाएं लीं, और दिल्ली की जनता ने संघर्ष-फंड का बड़े गर्मजोशी से स्वागत किया और दिल खोल कर फंड दिया, जिसे इस नारे के इर्द-गिर्द इकट्ठा किया गया था कि छात्र विश्वविद्यालय चला रहे हैं जबकि कुलपति हड़ताल पर हैं! वास्तव में, द स्टेट्समैन, राष्ट्रीय दैनिक ने रिपोर्ट किया था कि, "कुलपति को छोड़कर विश्वविद्यालय में सब कुछ सामान्य रूप से चल रहा है।"
यह संघर्ष, एक महीने से अधिक समय तक विभिन्न गतिविधियों के साथ चलता रहा। यह वह समय था जब शाह आयोग ने आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों के आरोपों की जांच करते हुए छह घटनाओं को सूचीबद्ध किया, जिनमें से एक जेएनयू परिसर से दिनदहाड़े अपहरण की घटना थी। हालांकि, विश्वविद्यालय बंद रहने के गतिरोध को देखते हुए, जेएनयूएसयू परिषद ने यूजीबीएम को इस तरह के आंदोलन को स्थगित करने का प्रस्ताव दिया और परिसर को कुलपति के लिए वर्जित घोषित कर दिया गया। यह प्रस्ताव खारिज हो गया। लगभग 14 घंटे तक चली मैराथन यूजीबीएम के बाद अध्यक्ष के नेतृत्व में पूरी परिषद ने इस्तीफा दे दिया। इसके कारण फरवरी 1978 में मध्यावधि चुनाव कराना आवश्यक हो गया था। यह आखिरी बार था जब मैंने चुनाव लड़ा और जीता। हालांकि, संघर्ष का असर हुआ और कुलपति को पहले तो कुलपतियों के सम्मेलन में भाग लेने की अनुमति नहीं दी गई और बाद में उन्हें अपना कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही पद छोड़ने का निर्देश दिया गया।
इस वक़्त के दौरान, विश्वविद्यालय जीवन में इन सभी संघर्षों और गतिविधियों का बोलबाला रहा, साथ ही छात्रों के अधिकारों को व्यवस्थित ढंग से मज़बूती मिली। जेएनयूएसयू के वर्तमान चरित्र की नींव मजबूत हुई और बस रूट, बैंकिंग और डाक सुविधाओं जैसे विभिन्न अधिकार और सुविधाएं परिसर स्थापित की गईं।
यह वह दौर था जब जेएनयूएसयू ने देश भर में और विदेशों में लोकतांत्रिक संघर्षों के साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिए राष्ट्रीय ख्याति हासिल की थी। यह वह दौर भी था जब प्राकृतिक आपदाओं के दौरान छात्र यूनियन के बैनर तले जेएनयू के छात्रों ने निस्वार्थ काम किया था, जैसे कि 1978 में आंध्र प्रदेश में आए चक्रवात या दिल्ली की बाढ़ इसके कुछ उदहारण हैं। जेएनयू छात्र यूनियन में आम विश्वास इतना था कि बाद के अवसर पर, सेना, जिसे बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में सहायता के लिए बुलाया गया था, ने राहत कार्य करने वाले 84 राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में से केवल जेएनयूएसयू को ही अपनी नावों और संसाधनों का पूरा नियंत्रण दिया था।
आज जब हम इन तीन दशकों को याद करते हैं, तो जेएनयू छात्र आंदोलन की अनूठी उपलब्धियों पर गर्व महसूस किए बिना नहीं रहा जा सकता। हमेशा की तरह, वर्तमान परिस्थितियां नई चुनौतियां पेश करती हैं, जिनमें से कुछ तो उन चुनौतियों से भी गंभीर होती हैं जिनका सामना छात्र आंदोलन ने अतीत में किया था। धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र से जुड़े आधुनिक भारतीय गणराज्य की अवधारणा ही खतरे में है। उम्मीद है कि, जेएनयू छात्र संघ अपनी शानदार विरासत को आगे बढ़ाते हुए एक बार फिर इस अवसर पर मज़बूती से खड़ा होगा।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव सीताराम येचुरी का हाल ही में 72 वर्ष की आयु में निधन हो गया।
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