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जयंती विशेष : हमारी सच्चाइयों से हमें रूबरू कराते प्रेमचंद

तेज़ी से भड़कती इस धार्मिक जंग को रोक कर थोड़ा वक़्त लोगों को प्रेमचंद को पढ़ने में लगाना चाहिए और अपनी सच्चाइयों से अवगत होना चाहिए।
 प्रेमचंद

'आज़माए को आज़माना मूर्खता है’, इस कहावत के अनुसार यदि हम अब भी धर्म और नीति का दामन पकड़ कर समानता के ऊंचे लक्ष्य पर पहुँचना चाहें तो विफलता ही मिलेगी। जिस आदर्श को हमने सभ्यता के आरम्भ से पाला है। जिसके लिए मनुष्य ने ईश्वर को जाने कितनी क़ुर्बानियां की हैं, जिसकी परिणति के लिए धर्मों का आर्विभाव हुआ। मानव-समाज का इतिहास, जिस आदर्श की प्राप्ति का इतिहास है, उसे सर्वमान्य समझ कर एक अमिट सचाई समझ कर, हमें उन्नति के मैदान में क़दम रखना है। हमें एक ऐसे नए संगठन को सर्वांगपूर्ण बनाना है, जहां समानता केवल नैतिक बंधनों पर आश्रित न रह कर अधिक ठोस रूप प्राप्त कर ले, हमारे साहित्य को उसी आदर्श को अपने सामने रखना है।’

यह वक्तव्य है प्रेमचंद का। प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन में अपने वक्तव्य में प्रेमचंद स्पष्ट कर देते हैं कि धर्म से समानता की सीढ़ियाँ नहीं छुईं जा सकती। साथ ही यह भी कहा की धर्म परिवर्तकों ने समता की इमारत खड़ी करनी चाही लेकिन हमेशा विफल रहे।

प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 में उत्तर प्रदेश, बनारस,लमही गाँव में हुआ था। प्रेमचंद ने 13 वर्ष की आयु में लिखना शुरू कर दिया था। उन्होंने शुरुआत में 'नवाबराय' के नाम से उर्दू में लिखना शुरू किया था। प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह 'सोज़े-वतन' देशभक्ति के भावना से इतना ओतप्रोत था कि अंग्रेजों ने इसकी सारी प्रतियाँ ज़ब्त कर, उसे प्रतिबंधित कर दिया। और उनको भविष्य में लेखन न करने की चेतावनी दी गयी थी। बाद में, इसी वजह से उन्होनें अपनी कहानियाँ 'प्रेमचंद' नाम से लिखनी शुरू की। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होनें सरकारी नौकरी त्याग दी और लेखन के काम में जुट गए।

प्रेमचंद अपने राजनीतिक विचार को लेकर भी हमेशा मुखर रहे। एक लेख में नामवर सिंह ने यह लिखा है कि प्रेमचंद ने सन् 1930 में ही यह कह दिया था कि"उनका का साहित्य स्वराज के लिए है। उपनिवेशवाद  के खिलाफ है।" उन्होंने साफ तौर पर यह राजनीतिक पक्ष लिया था कि वह सामाजिक स्वराज चाहते हैं। जिससे उनका तात्पर्य सांप्रदायिकता,जातिवाद, छुआछूतऔर स्त्री स्वाधीनता से था। इसी राजनीति को आधार बना कर प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेख संघ की स्थापना 1936 में की थी और यह व्याप्त रूप से स्थापित हुआ कि साहित्य और राजनीति एक दूसरे से अलहदा नहीं है।

सांप्रदायिकता और प्रेमचंद

प्रेमचंद साहित्य को नए प्रतिमान और नए मूल्यों की स्थापना का जरिया बता कर के, अपना पक्ष स्पष्ट रूप से सबके सामने रखते हैं। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से सांप्रदायिक हिंसा का विरोध किया साथ ही इस पर भी प्रकाश डाला कि इस हिंसा के उत्पन्न होने के कारण क्या हैं और इनको उत्तेजित करने वाले कौन होते हैं।

वर्तमान समय में सड़क से लेकर संसद तक सांप्रदायिकता को लेकर बहस छिड़ी हुई है। इसी साल फरवरी में नागरिकता पर छिड़ी बहस ने देश के राजधानी में हिंसात्मक रूप ले लिया। हिंसा, जिसने फिर से मानव के आंतरिक द्वंद और घृणा को हमारे सामने ला खड़ा कर दिया। कहीं मस्जिदों को भगवा झण्डा ऊंचा कर कट्टर हिन्दुत्वादियों ने जश्न मनाया तो कहीं मुसलमानों ने उसी कौम के मंदिरों को टूटने से बचा कर नफ़रतों के दौरान प्रेम का पैग़ाम दिया। इस दंगे के नफ़रत के बीच भी प्रेम और मानवता बची रही। प्रेमचंद की कहानियाँ मोहब्बत, इंसानियत और संवेदनशीलता को भूल चुके लोगों के लिए है, जिनकी तलवार धर्म के नाम पर कभी भी खिंचने को आतुर रहती है। यह कहानियाँ एक तरफा किस्सा बयान नहीं करती, न ही कोई आदर्शवाद स्थापित करती है। इन कहानियों और इनके पात्रों के जरिये संवाद का एक विस्तार स्थापित हो पाता है कि किस तरह विचार ,संवेदना और तार्किकता धार्मिक हिंसा और हिंसात्मक प्रवृति को रोक सकते है।

प्रेमचंद की कहानियां और सांप्रदायिक समस्या

प्रेमचंद की एक कहानी है 'मंदिर और मस्जिद'। इस कहानी में प्रेमचंद ने दिखाया है कि किस तरह हमारा समाज हिन्दू और मुसलमान के नफरत पर नहीं बसा, बल्कि यह समाज दोनों के आपसी तालमेल के साथ बना है। कहानी का मुख्य पात्र चौधरी जो धर्म से मुसलमान और कर्म से दोनों ही मज़हबों की इज़्ज़त करने वाला व्यक्ति है , के किरदार के जरिये प्रेमचंद ने एक अहम  द्वंद को दर्शाया है। वह व्यक्ति जो दोनों ही धर्मों को तवज्जों देता है लेकिन  उसके सामने ऐसी परिस्थिति आती है कि चौधरी खुद धार्मिक हिंसा करने के ओर बढ़ता है। इसी उधेड़बुन में उसके सामने हिंसा और सज्जनता एवं दीन और धर्म का द्वंद  एवं उनसे जुड़े तमाम सवाल खड़े हो जाते है। अंत में वह तर्क का सहारा लेता है, लेकिन अकेला रह जाता है। हिंसा जहां तक कि सिर्फ एक धर्म विशेष को लेकर हम सब की पूर्वाग्रहों में स्थापित है, उसको तोड़ते हुए प्रेमचंद इस कहानी में बताते है कि आख़िर क्यों हिंसा दोनों ही धर्मों के लोगों की प्रवृति है? उनके पात्र हिन्दू और मुसलमान के सामंजस्य की बात अवश्य करते है लेकिन हमारे अंदर चलते धार्मिक कट्टरवाद प्रवृत्ति को भी सामने ला खड़ा करते है और खुद से सवाल करने पर मजबूर करते है।

प्रेमचंद की ऐसी ही एक दूसरी कहानी ‘हिंसा परमो धर्म:’ है, जो कि सूक्ति  ‘अहिंसा परमो धर्म:’ का विपरीत है। इस कहानी का मुख्य पात्र जामिद हिन्दू और अपने धर्म दोनों के प्रति विचार रखता है। उसके इसी बात का फ़ायदा उठाकर कुछ हिन्दू लोग उसका धर्म परिवर्तन कर हिन्दू बनाना चाहते हैं। वहीं एक मौलवी जबरदस्ती एक हिन्दू लड़की की शादी जामिद से कराकर मुसलमान बनाना चाहता है। दोनों ही बार जामिद इस कुकृत्य से खुद को बचाता है। और हिंसा का सामना करता है। दोनों ही धर्मों ने किसी को अपने कौम में शामिल करने की कोशिश तो की लेकिन जब भी कुछ गलत हुआ, उसको धर्म के नाम पर सही ठहरा कर  हिंसा का सहारा लिया गया।

इसी कहानी में प्रेमचंद गाँव और शहर में धर्म की मौजूदगी को आंकते हैं। वह चिह्नित करते हुए बताते है कि गाँव में जहां एक पेड़ में पानी डाल कर हिन्दू अपनी पूजा सम्पन्न समझते हैं, वही मुसलमान चबूतरे पर नाम पढ़ कर खुश रहते है। वहाँ होड़ नहीं है, वहाँ हिंसा नहीं है। हालांकि अंग्रेज़ों के आने से पहले सांप्रदायिक भावना लोगों में मौजूद थी लेकिन इसका विस्तार अंग्रेज़ी हुकूमत में तेज़ी से हुआ। मौजूदा भारत में स्थित में काफी बदलाव है। धर्म को लेकर लोगों सिर्फ शहरों में नहीं बल्कि गांवों में भी उग्र रूप लिए हुए है। प्रेमचंद ने उसी समय ही यह दिखा दिया थाकि धर्म ने तर्क की जगह को खत्म कर दिया है और एक इंसान को समाज उसके धार्मिक अस्मिता पर लाकर छोड़ता है। क्योंकि बहुत हद तक हम मनुष्य को मनुष्य कम और उसकी जाति, धर्म और लिंग से पहचानते है। मनुष्य का मनुष्य के प्रति संवेदनशीलता और सद्भाव अब महज  जातीय , धार्मिक और लैंगिक अस्मिता का प्रश्न बन कर रह गया है।

प्रेमचंद के लेख और उनका आज से संबंध

प्रेमचंद ने तत्कालीन देशकाल और समाज को समझा था। वह उपनिवेशवाद द्वारा जनित वर्ग और धर्म विभाजन को समझते थे। इसके बारे में वह अपनी कहानियों के अलावा लेखों में भी लिखते रहें। ऐसे ही एक लेख ‘सांप्रदायिकता और संस्कृति’ में प्रेमचंद ने लिखा कि "दोनों कौम अपनी-अपनी संस्कृति को क़यामत तक बचाए रखने के लिए हिंसक है, लेकिन मौजूदा हालत में संस्कृति, धर्म नहीं आर्थिकी और बाज़ार द्वारा संचालित होता है।" अर्थात सांप्रदायिकता का जो फैलाव हम देख रहे है वो दिखाई तो धर्म द्वारा प्रेरित देता है लेकिन वास्तविकता में इसे आर्थिक और राजनीतिक ताक़तें चलाती है। जो कि हमें वास्तव में भी दिखता है, जब हम ज़मीन पर देखते है कि दंगे में या हिंसा में नुकसान अक्सरसमाज के हाशिए पर मौजूद लोगों का होता है।

इसी लेख में वो खान-पान के तरीके पर भी टिप्पणी करते है जो कि मौजूदा वक़्त में गौरतलब है। पिछले कई दिनों से ट्विटर पर बक़रीद के अवसर पर ‘इको फ्रेंडली बकरीद’, ‘अल्लाह डज़ नॉट नीड कुर्बानी’ आदि हैशटैग  पर ट्रेंड चलाया जा रहा है। जिसमें असंख्य संख्या में हिन्दू यह ट्वीट कर रहे है कि जब दिवाली बिना पटाखों के और होली बिना पानी और सूखे रंगो से मनाई जा सकती है तो बकरीद बिना खून के क्यूँ नहीं मनाई जा सकती है? ऐसे ट्रेंड सीधे तौर पर किसी धर्म के संस्कृति पर हमला हैं जो कि उनके खान-पान का मसला है। यहाँ पर बक़रीद के त्योहार को हिंसा से जोड़कर उस समाज की छवि को ही हिंसा जनित बताए जाने की कोशिश है। जबकि भारत के कई राज्यों में स्थानीय स्तर पर सामाजिक त्योहार में पशु बलि दी जाती है और प्रसाद के रूप में उसका वितरण पूरे गाँव भर में होता है। चूँकि हमारे मन में एक धर्म विशेष के खिलाफ पूर्वाग्रह गढ़ने की पूरी-पूरी कोशिश तमाम धर्म का झण्डा बुलंद किए लोग करते रहते है। इसलिए आम जन इसे देख नहीं पाते।

इसी लेख में आगे प्रेमचंद खुलकर दोनों ही धर्मों में मौजूद खान-पान की संस्कृति पर प्रकाश डालते हैं। वो कहते है कि ‘गर मुसलमान मांस खाते हैं तो हिन्दू भी अस्सी फ़ीसदी मांस खाते हैं। ऊंचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते हैं, ऊंचे दरजे के मुसलमान भी। नीचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते है, नीचे दरजे के मुसलमान भी। मध्यवर्ग के हिन्दू या तो बहुत कम शराब पीते हैं, या भंग के गोले चढ़ाते हैं, जिसका नेता हमारा पण्डा-पुजारी क्लास है। मध्यवर्ग के मुसलमान भी बहुत कम शराब पीते है। हां, कुछ लोग अफ़ीम की पीनक अवश्य लेते हैं, मगर इस पीनकबाज़ी में हिन्दू भाई मुसलमानों से पीछे नहीं हैं।’

तेज़ी से भड़कती इस धार्मिक जंग को रोक कर थोड़ा वक़्त लोगों को प्रेमचंद को पढ़ने में लगाना चाहिए और अपनी सच्चाइयों से अवगत होना चाहिए।

अभी की परिस्थिति में जब हम अपने आस पास देखते है जाति, धर्म, लिंग के आधार पर तमाम हिंसा जो कभी गौहत्या के नाम पर, या कभी ‘लव–जिहाद’ के नाम पर हो रही है। जिसका शिकार निम्न और मध्यम वर्गीय समाज हो रहा है।

वहीं स्कूल की शिक्षा प्रणाली जो सद्भाव और आपसी भिन्नता का सम्मान करने का सीख देने की जगह है, वहाँ से भी ‘धर्मनिरपेक्षता’, ‘जेंडर, वर्ग और जाति’ , ‘लोकतंत्र और विविधता’ वाले पाठ, स्कूल के पाठ्यक्रम से हटा दिये गए है। इतना ही नहीं, इतिहास की किताबों का भी एक धार्मिक दृष्टिकोण से पुनर्लेखन किया जा रहा है। इन मामलों को रोकने के लिए बहुत ज़रूरी है कि हम अपने आस-पास जागरूकता फैलाये। प्रेमचंद के तमाम कहानियों को लोगों तक कही नाटक के रूप में, कहीं कहानी पाठ के रूप में और तमाम अलग ढंग से लोगों तक पहुंचाए। ये कहानियाँ न सिर्फ हमारे सामने हिंसा के जन्म पर प्रश्न खड़ा करती है अपितु हमारे साथ एक संवाद भी स्थापित करने की कोशिश करती है कि किस तरह अलग मज़हबों का सम्मान करते हुए तर्क को सर्वोपरि रखना अति आवश्यक है।

प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम भाषण में कहा था की साहित्यकार या साहित्य का काम सिर्फ़ महफ़िल सजाना या मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं होना चाहिए, वह राजनीति और देशभक्ति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई होनी चाहिए।

(सोनम कुमारी छात्र-एक्टिविस्ट हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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