झारखंड: हथिनियों की गिरती सेहत को लेकर ज़ंजीरों से आज़ाद करने की मांग तेज़
सचमुच, हमने यह कैसा समाज रच डाला है, इसमें जो दमक रहा है शर्तिया काला है।।।
चर्चित हिंदी कवि वीरेन डंगवाल की लिखी उक्त पंक्तियों का खुला सच आज झारखंड स्थित लौह नगरी कहे जाने वाले औद्योगिक शहर जमशेदपुर से सटे ‘दलमा पहाड़ी जंगल क्षेत्र’ में आकर सहज ही देखा जा सकता है। जिसकी चमक-दमक और जनजीवन का प्राकृतिक मूलाधार इस नगर के ठीक उत्तर में स्थित दलमा के पहाड़ी श्रृंखला व जंगल क्षेत्र को माना जाता है, आज यहां बसने वाले आदिवासी-मूलवासियों के साथ-साथ जानवरों तक की ज़िंदगी को ख़त्म होने की कगार पर धकेल दिया गया है।
वर्षों पूर्व वर्तमान झारखंड के पूर्वी सिंहभूम ज़िला अंतर्गत सुंदर पहाड़ियों और सघन जंगल वाले इस इलाक़े के बड़े हिस्से को “राष्ट्र के विकास” के नाम पर टाटा जी ने अधिगृहित किया था, यहां की प्रकृति को तहस-नहस कर देश की सबसे पहली लौह नगरी बसाई। बचे हुए पहाड़ियों-जंगल और तराई के इलाक़े को ही आज ‘दलमा पहाड़ी जंगल क्षेत्र’ कहा जाता है।
विडंबना ही है कि चमक-चकाचौंध भरी इस लौह नगरी से महज़ चंद किलोमीटर की दूरी पर स्थित दलमा वन्य अभ्यारण्य के में सैलानियों के मनोरंजन के लिए लाकर रखी गयी दो उम्र दराज़ हथनियां ‘चंपा और रजनी’ आज मरणासन्न पर हैं। इस अभ्यारण्य में कल तक इनके साथ सपरिवार सेल्फी लेने वाले “खाते-पीते” घरानों के सैलानी आज इन्हें मरता हुआ देख नज़रें हटाकर चलते बनते हैं। ख़़बरों के अनुसार वन विभाग दोनों हथनियों का उचित इलाज करवाने की सिर्फ़ रस्म निभा रहा है।
दूसरी ओर, इन एडवांस सैलानी नगर वासियों से परे दलमा जंगल क्षेत्र के निवासी आदिवासी-मूलवासी समुदाय के लोग अपने यहां मेहमान बनाकर लायी गयीं दोनों हथनियों की ज़िंदगी बचाने के लिए आंदोलन तक करने पर उतारू हो गए हैं। जिन्हें हर वर्ष इनके शिकार-परब वाले दिन पूरे इलाक़े को पुलिस छावनी में तब्दील कर इन्हें दलमा जंगल क्षेत्र के जानवरों का दुश्मन बताकर प्रशासन-वन विभाग और मीडिया एक “खलनायक” के रूप में प्रचारित करता रहा है।
दलमा पहाड़ी जंगल क्षेत्र के ग्रामीण आदिवासी-मूलवासी समुदाय के लोग शासन-प्रशासन और वन विभाग द्वारा संरक्षित उक्त दोनों हथनियों को मरणासन्न स्थिति में भी ज़़ंजीर बांधकर रखने और कुपोषित बनाने का मुखर विरोध कर रहें हैं। उनका ऐलानियां तौर पर कहना है कि दलमा वन्य अभ्यारण्य और इको सेंसेटिव ज़ोन बनाए जाने के काफ़ी पहले से ही इस जंगल क्षेत्र में इंसान और जानवर दोनों साथ-साथ रहते आए हैं। इसलिए यहां रहने वाले जानवरों का भी दर्द वही समझ सकता है जो इनके बीच और साथ-साथ रहता व पला-बढ़ा हो।
यह भी सनद रहे कि विगत कई वर्षों से यहां पिछली कई पीढ़ियों से निवास कर रहे आदिम जनजाति, आदिवासी और मूलवासी समुदाय के लोग अपने विस्थापन के ख़िलाफ़ लगातार लड़ रहे हैं। लेकिन इस बार ये अपने लिए नहीं बल्कि यहां रहनेवाले जानवरों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रहें हैं। इनके आंदोलन का एकमात्र मुद्दा है, दोनों मरणासन्न हथनियों की ज़िंदगी बचाने और उन्हें गंभीर रूप से बीमार अवस्था में भी ज़ंजीरों से बांध कर रखा जाना है।
इन्हें पिछले कई वर्षों से दलमा क्षेत्र के ‘वाइल्ड लाइफ़ सेंच्युरी’ के मुख्य द्वार पर यहां घूमने आने वाले सैलानियों के मनोरंजन के लिए रखा गया है। लोगों के अनुसार 50 वर्ष से भी अधिक उम्र वाली ‘चंपा और रजनी’ नामक दोनों हथनीयां समुचित खाना नहीं मिलने के कारण भारी कुपोषण का शिकार होकर गंभीर रूप से बीमार हो गई हैं। इन्हें भरपेट भोजन और इलाज देने की बजाय चलने-फिरने में अशक्त हो गयीं इन मरणासन्न हथनियों को वन विभाग ने इन्हें ज़ंजीरों में बांध रखा है।
दलमा क्षेत्र में यहां के आदिवासी-मूलवासी समुदायों के सवालों पर निरंतर आंदोलनरत रहने वाले जन संगठन ‘संयुक्त ग्राम सभा मंच’ ने ‘चंपा व रजनी’ नाम की दोनों हथनियों को ज़ंजीरों से मुक्त कराने और उनकी गिरती सेहत जितना जल्द हो सुधारने के लिए मुहिम छेड़ दिया है। प्रशासन और वन विभाग के ख़िलाफ़ ‘चंपा-रजनी को ज़ंजीर से आज़ाद करो, इनकी गिरती स्वास्थ्य स्थिति को फ़ौरन ठीक करो!’ के नारे के साथ-साथ पूरे दलमा पहाड़ी क्षेत्र के गांव गांव में लोगों को गोलबंद करने के लिए सघन जन संपर्क और ग्राम सभाएं की जा रहीं हैं।
संयुक्त ग्राम सभा मंच ने स्थानीय प्रशासन और वन विभाग पर दलमा क्षेत्र अभ्यारण्य के संरक्षित जानवरों के रख-रखाव और भोजन इत्यादि के पैसों की लूट-खसोट करने का आरोप लगाते हुए सवाल उठाया है कि यहां रखे गए चंपा-रजनी समेत तमाम जानवरों की मरणासन्न स्थिति का ज़िम्मेदार कौन है, जानवरों के भोजन तक के पैसे कौन खा रहा है? ग्राम सभा के सवालों पर स्थानीय प्रशासन से लेकर वन विभाग के आला अधिकारी तक मौन हैं।
ग़ौरतलब है कि सबसे पहले 1972 के दौर में इस पूरे इलाक़े को तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने ‘हाथी जो़न (गजराज संरक्षण परियोजना)’ का इलाक़ा घोषित किया था। बाद में 2012 में अधिसूचना जारी करते हुए केंद्र की सरकार इसे जानवरों के लिए अभ्यारण्य ‘वाइल्ड लाइफ सेंच्युरी’ इलाक़ा बना दिया। इसके बाद इस पूरे इलाक़े को ‘इको सेंसेटिव ज़ोन’ घोषित कर इसकी देखरेख के लिए स्थानीय प्रशासन और वन विभाग को लेकर क्षेत्रीय उपयुक्त की अध्यक्षता में मॉनिटरिंग कमेटी का गठन किया गया। तब से दलमा पहाड़ी जंगल क्षेत्र और यहां के जानवरों की सुरक्षा और देख-भाल की सारी ज़िम्मेदारी प्रशासन और वन विभाग के हवाले है। लेकिन इस महती कार्य के लिए निर्धारित बजट के पैसों व संसाधनों की लूट-खसोट का ही नतीजा है कि कुपोषित और बीमार इन हथनियों को मरणासन्न बनाकर ज़ंजीरों में बांध दिया गया है।
ऑल इंडिया पीपल्स फोरम से जुड़े और दलमा क्षेत्र के संयुक्त ग्राम सभा मंच का नेतृत्व कर रहे आंदोलनकारी सुखलाल पहाड़िया का साफ़ तौर पर कहना है कि हम आदिवासी-मूलवासियों को हमेशा से विकास-विरोधी बताने वाले, असल में मुनाफ़ाखोर कंपनी-राज के पैरोकार हैं। जो हमेशा से यहां के जल, जंगल, ज़मीन, खनिज व प्राकृति का दोहन व लूट करते ही हैं, यहां के जानवरों तक के साथ बर्बरता करने में थोड़ा भी नहीं हिचकते हैं। आज एक ओर, इस इलाक़े के सबसे पुराने बाशिंदे हम आदिवासी-मूलवासी समुदाय के लोगों को ‘इको सेंसेटिव ज़ोन’ के नाम पर दलमा पहाड़ी क्षेत्र से विस्थापित किया जा रहा है। तो दूसरी ओर, इस इलाक़े को ‘खाए-पिए अघाए’ समूह वालों के सैर सपाटे के लिए अभ्यारण्य बना दिया गया है। जो इसे अपनी अय्यासी का खुला चारागाह और जानवरों को महज़ मनोरंजन का साधन मात्र मानते हैं। इसीलिए ‘चंपा व रजनी’ हथनियों को ज़ंजीरों से मुक्त कराकर व उनकी जान बचाकर, हम अपनी मानवीय-संस्कृति का महत्व समझाना चाहते हैं। लूट-झूठ की सत्ता के बल पर दबंग बनाने वालों को ये भी पाठ पढ़ाना चाहते हैं कि पीढ़ियों से यहां के आदिवासी-मूलवासी समाज के लोग प्रकृति-पर्यावरण-जंगल के साथ-साथ यहां रहने वाले जानवरों तक को अपने जीवन का अभिन्न-जीवंत हिस्सा मानते हैं।
फ़िलहाल, दलमा पहाड़ की ‘चंपा व रजनी’ को ज़ंजीरों से मुक्त कराने के लिए अगले 5 दिसंबर से शहरबेड़ा मुख्य द्वार से लेकर माकलुकोचा मुख्य द्वार तक पद यात्रा निकालकर लोगों को जागरूक बनाने का जन अभियान चलाया जाएगा।
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