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चिंता: क्या जज और वकील ख़ुद नहीं कर रहे अदालत की अवमानना!

‘अदालत की अवमानना’ को लेकर बहुत शोर रहता है लेकिन इन दिनों कुछ जज और वकील दोनों के ऐसे कई कारनामे सामने आए हैं जिसे अदालत ही नहीं क़ानून और संविधान की अवमानना कहा जाना चाहिए।
Judiciary
विवादित फ़ैसला देने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा (बाएं), जौनपुर सिविल कोर्ट में शादी करने आए युवक को वकीलों ने पीटा (दाएं)

जज और वकीलों से मिलकर ही पूरी न्यायपालिका बनती है। लेकिन जब एक जज ही कैश कांड में संदेह के घेरे में हो, जब एक जज ही बलात्कार के प्रयास के मामले में क़ानून के परे जाकर टिप्पणियां और फ़ैसले करने लगे, जब वकील ही वादी या याची के साथ अदालत परिसर में मारपीट करने लगें तो फिर इंसाफ़ का क्या होगा?  

सब जानते हैं कि न्यायपालिक लोकतंत्र का महत्वपूर्ण अंग है। और जब कार्यपालिका और विधायिका पर सवालिया निशान हो तो उस समय न्यायपालिका की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन अगर न्यायपालिका पर ही सवाल उठने लगें। उसकी निष्पक्षता ही सवालों के घेरे में आ जाए तो फिर क्या किया जाए, कहां जाया जाए। 

हाल के दिनों में वकीलों या जजों के एक हिस्से में इस तरह की प्रवृत्तियां या व्यवहार के नमूने सामने आए हैं जिसने न्यायपालिका की निष्पक्षता और न्यायबोध को ही कठघरे में ला दिया है और जिसकी वजह से देश की सर्वोच्च अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट भी सकते में है। स्तब्ध है। हालांकि कई बार ख़ुद उसके भी कुछ फ़ैसले सवालों के घेरे में रहे हैं। 

आइए बारी बारी से समझते हैं कि इन दिनों ऐसा क्या घटनाक्रम हुआ है और हमें एक बतौर भारतीय नागरिक इसकी चिंता करनी चाहिए या नहीं–

सबसे पहले बात इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज और उनके विवादास्पद फ़ैसले की जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए रोक लगा दी है। 

इलाहाबाद हाईकोर्ट का विवादित फ़ैसला

दरअसल इसी 17 मार्च 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा ने अपने एक निर्णय और टिप्पणियों में कहा कि नाबालिग लड़की के स्तनों को छूना, उसके पायजामे की डोरी तोड़ना और उसे पुलिया के नीचे खींचने का प्रयास करना बलात्कार या बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में नहीं आता। उन्होंने इसे 'यौन उत्पीड़न' माना। इसके लिए उन्होंने बाक़ायदा प्रयास और तैयारी का फ़र्क़ भी समझाया। 

यह मामला उत्तर प्रदेश के कासगंज का है। जहां 2021 में दो व्यक्तियों, पवन और आकाश, पर 11 वर्षीय नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार के प्रयास का आरोप लगाया गया था। ​

इस फ़ैसले पर विवाद होना ही था, सो हुआ। इस फ़ैसले ने देश भर में संवेदनशील लोगों के भीतर चिंता पैदा कर दी। क्योंकि हम जानतें हैं कि महिलाओं और ख़ासकर बच्चियों पर यौन हमले किस तरह बढ़ रहे हैं। देश के कई हिस्सों में महिला संगठनों ने इस फ़ैसले के विरोध में प्रदर्शन किया और कहा कि इस एक फ़ैसले की वजह से लाखों बच्चियां असुरक्षित हो गई हैं।  

25 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का स्वतः संज्ञान लिया। जब 'वी द वीमेन ऑफ इंडिया' नामक संगठन ने हाईकोर्ट के निर्णय पर आपत्ति जताई। ​

26 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और ए. जी. मसीह की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय पर रोक लगा दी। उन्होंने कहा कि यह निर्णय 'संवेदनहीन' और 'अमानवीय' है, और न्यायमूर्ति मिश्रा की टिप्पणियों पर कड़ी आपत्ति जताई। ​

पीठ ने कहा कि यह निर्णय न्याय के मानकों के अनुरूप नहीं है। अदालत ने विशेष रूप से फ़ैसले के पैराग्राफ़ 21, 24, और 26 पर आपत्ति जताई और उन्हें कानून के सिद्धांतों के विपरीत माना। ​

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार को भी नोटिस जारी कर इस मामले में उनका पक्ष मांगा है। ​आपको बता दें कि यह पहला मामला नहीं है जब बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के मामले में विभिन्न अदालतों ने विवादित फ़ैसले और टिप्पणियां की हैं।

जस्टिस वर्मा का कैश कांड! 

14 मार्च 2025 को, होली के दिन, दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास में आग लग गई। ख़बरें आईं कि आग बुझाने के दौरान उनके घर के स्टोररूम में जले हुए नकदी के बंडल पाए गए हैं। इस घटना को लेकर काफ़ी विवाद रहा। कभी कहा गया कि जले हुए नोट मिले हैं, कभी कहा गया कुछ नहीं मिला। 

लेकिन कुल मिलाकर इस कांड से जस्टिस वर्मा की ईमानदारी संदेह के घेरे में आ गई। 

बताया गया कि सुप्रीम कोर्ट ने एक तीन-सदस्यीय समिति का गठन किया है ताकि इस मामले की जांच की जा सके। ​

इसी दौरान जस्टिस वर्मा के इलाहाबाद हाईकोर्ट ट्रांसफर की ख़बर आती है। बताया जाता है कि सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस वर्मा को उनके मूल न्यायालय, इलाहाबाद हाईकोर्ट, में स्थानांतरित करने की सिफारिश की है। हालांकि, यह भी कहा गया कि यह स्थानांतरण जांच से स्वतंत्र है और जांच प्रक्रिया जारी रहेगी। ​इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट पर भी सवाल उठे। 

इस ट्रांसफर का इलाहाबाद के वकीलों ने तीखा विरोध किया और कहा कि उनका हाईकोर्ट कोई डस्टबिन नहीं है। वकीलों ने इस मामले की पूरी जांच और कार्रवाई की मांग की। 

अब 24 मार्च को दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय ने जस्टिस वर्मा को तत्काल प्रभाव से सभी न्यायिक कार्यों से हटा दिया है। यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट की समिति की प्रारंभिक जांच के आधार पर लिया गया। ​

सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति ने 25 मार्च को जस्टिस वर्मा के आवास का भी दौरा किया। सुप्रीम कोर्ट के ही आदेश पर दिल्ली पुलिस ने भी इस मामले में जांच शुरू कर दी है।

इस मामले में कई अहम और अनुत्तरित सवाल हैं। जस्टिस वर्मा की सफाई भी है, जिसे आप विस्तार से न्यूज़क्लिक की इस ख़बर में पढ़ सकते हैं–

Justice Yashwant Varma Documents: 10 Vital Questions

कुल मिलाकर यह मामला न्यायपालिका की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर गंभीर प्रश्न उठाता है। लेकिन एक सवाल यह भी अहम है कि इस मामले में जिस तरह भाजपा ब्रिगेड सक्रिय हुई है। उपराष्ट्रपति धनखड़ समेत कई नेताओं ने न्यायपालिका में नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता के नाम पर एक तरह से कोलोजियम प्रणाली को फिर निशाने पर लिया है। वह भी संदेह और चिंता पैदा करता है। क्योंकि मोदी सरकार बहुत समय से जजों की नियुक्ति प्रक्रिया अपने हाथ में लेने की कोशिश कर रही है।

अब आते हैं वकीलों पर—

वकीलों के कारनामे

हाल के दिनों में अदालत परिसरों में वकीलों के एक ख़ास वर्ग द्वारा लिव-इन या अंतरधार्मिक विवाह करने वाले जोड़ों पर हमले की कई घटनाएं सामने आई हैं। 

  1. रीवा, मध्य प्रदेश (फरवरी 2025): एक मुस्लिम युवक और उसकी 21 वर्षीय हिंदू साथी, जो गर्भवती थीं, अपनी शादी का पंजीकरण कराने रीवा जिला अदालत पहुंचे। वहां कुछ वकीलों ने उनकी पहचान जानने के बाद युवक पर हमला कर दिया। पुलिस ने अज्ञात व्यक्तियों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया है। ​ 
  2. जौनपुर, उत्तर प्रदेश (फरवरी 2025): एक मुस्लिम युवक सलमान अपनी हिंदू साथी के साथ सिविल कोर्ट में शादी का पंजीकरण कराने पहुंचे। वहां कुछ वकीलों ने उन पर हमला किया, जिससे वे और उनका परिवार मौके से भागने को मजबूर हुए। 

इन घटनाओं से अदालत परिसरों में सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों को लेकर गंभीर चिंताएं उत्पन्न हुई हैं।​ 

आप जानते हैं कि इस समय हिंदुत्व की राजनीति और इसी के तहत समान नागरिक संहिता (UCC) के शोर के चलते प्रेमी जोड़ों जो लिव इन में रहते हैं या शादी करना चाहते हैं उनके सामने किस तरह की चुनौतियां और जोखिम हैं, क्योंकि उनसे पहले ही अदालत परिसर में भाजपा-आरएसएस और अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों से जुड़े कार्यकर्ता पहुंच जाते हैं और मारपीट करते हैं। अब अगर यही काम वकील भी करने लगें तो क्या होगा। कई मामलों में वकीलों पर ऐसे संगठनों को सूचना देने का भी आरोप है। हालांकि यह वकीलों का वही वर्ग है जो हिन्दुत्ववादी संगठनों से जुड़ा है या रुझान रखता है। 

कुल मिलाकर सवाल गंभीर है कि जब इंसाफ़ के रखवाले ख़ुद कठघरे में हैं तो फिर जनता का इंसाफ़ कौन करेगा, कैसे करेगा। इस पर न्यायपालिका ख़ुद जितनी तेज़ी से सोचेगी और कार्रवाई करेगी उतना ही देश के लोकतंत्र और संविधान के लिए अच्छा होगा। 

(विचार व्यक्तिगत हैं।)

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