अलविदा शहीद ए आज़म भगतसिंह! स्वागत डॉ हेडगेवार !

क्या कोई सरकार आज़ादी के पचहत्तरवें साल के इस जश्न के साल में किसी महान क्रांतिकारी पर केन्द्रित पाठ को पाठ्यपुस्तक से हटाने का निर्णय ले सकती है ?
कर्नाटक में सत्तासीन भाजपा सरकार ने दसवीं के पाठयपुस्तक के संदर्भ में यही कदम उठाया , जब उन्होंने शहीदे आज़म भगतसिंह पर केन्द्रित पाठ को हटाने का निर्णय आननफानन लिया और फिर जनदबाव के चलते अंततः उसे अपना निर्णय बदलना पड़ा।
ताज़ा खबरों के मुताबिक न केवल उसे इन किताबों के मुद्रण पर रोक लगानी पड़ी है बल्कि विपक्षी पार्टियों एवं जनता के इन आरोपों को लेकर सफाई देनी पड़ रही है कि वह किस तरह वह पाठयपुस्तकों को खास रंग में ढालने की कोशिश कर रही है, उन्हें एक तरह से ‘भाजपा सरकार का पर्चा’ बना रही है।
फिलहाल यह पता नहीं कि पाठ्य पुस्तकों की समीक्षा के लिए जो कमेटी बनायी गयी थी - जिसने भगतसिंह पर केंद्रित पाठ को हटाने, जैसे विवादास्पद निर्णय लिए गए थे, उसके द्वारा लिए गए निर्णय भी खारिज होंगे या नहीं ? समाचारों के मुताबिक न केवल इन किताबों से स्वामी विवेकानंद के संप्रदाय विरोधी और मानवतावादी विचारों को भी कथित तौर पर हटाने तथा अग्रणी कन्नड लेखक, विचारक पी लंकेश का एक महत्वपूर्ण आलेख जो नस्लीय नफरत को नकारता है, उसे भी छांटने का निर्णय लिया गया था तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम सुप्रीमो डॉक्टर हेडगेवार के किसी व्याख्यान को इस किताब में शामिल करने का प्रस्ताव भी था।
अभी पिछले ही साल मध्य प्रदेश सरकार ने एम बी बी एस के छात्रों के पाठ्यक्रम में डॉ हेडगेवार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लम्बे समय प्रचारक रहे तथा बाद में उसके आनुषंगिक संगठन भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने दीनदयाल उपाध्याय को शामिल किया था।
वैसे इसे मात्र संयोग नहीं कहा जा सकता कि विभिन्न भाजपाशासित राज्यों के पाठयपुस्तकों में डा हेडगेवार को किसी न किसी तरह से ‘आधुनिक राष्ट्र के निर्माता’ की कतारों में शामिल करने का प्रयास रफता रफता सामने आ रहा है।
इधर कर्नाटक की पाठयपुस्तकों की चर्चा के पहले हरियाणा सरकार का निर्णय सूर्खियां बना था जिसमें कक्षा नौ की किताबों में जहां भारत के विभाजन के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया गया था, वहीं आज़ादी के आंदोलन में न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बल्कि हेडगेवार की भूमिका भी चर्चा सामने आयी थी।
नौवीं की किताब पेज 11 पर हेडगेवार पर एक विस्तृत निबंध है जहां उन्हें महान देशभक्त बताया गया है।
यह भी कहना मुनासिब नहीं होगा कि हेडगेवार को परोक्ष अपरोक्ष रूप से स्थापित करने का यह सिलसिला पहली दफा चला है, मिसाल के तौर पर सभी को याद होगा कि राजस्थान में इस हुकूमत के पहले सत्तासीन रही वसुंधरा राजे की अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने वहां हेडगेवार की जीवनी को खरीदने की सिफारिश राज्य के कॉलेज पुस्तकालयों की थी।
कर्नाटक, मध्य प्रदेश, हरियाणा और पहले राजस्थान .. इस फेहरिस्त को लंबा किया जा सकता है।
आज़ादी के इस पचहत्तरवें साल में इसके पीछे यही तर्क ज्यादा दिया जा रहा है कि ‘फलां फलां को इतिहास ने भुला दिया जिन्होंने आज़ादी के आंदोलन में योगदान दिया था।’ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसी बहाने कांग्रेस पर निशाना साधा जाता है। और फिर कहा जाता है कि इतिहास की ऐसी गलतियों को ठीक करने की जरूरत है।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 1925 में विजयादशमी के दिन जब संघ की स्थापना की गयी तो डॉ हेडगेवार के अलावा उपस्थित चार अन्य लोग थे: डा बी एस मुंजे, डा एल वी परांजपे, डा बी.बी. थलकर और बाबूराव सावरकर। इन सभी का नामोल्लेख इसलिये नहीं किया जाता क्योंकि ये सभी हिन्दू महासभा के कार्यकर्ता थे तथा सभी जानते हैं कि हिन्दू महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आपसी सम्बन्ध बहुत सौहार्दपूर्ण नहीं रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तराशने में डा बी एस मुंजे का तो विशेष योगदान था जिन्होंने इटली की अपनी यात्रा में मुसोलिनी से मुलाकात की थी तथा फासी संगठन का नजदीकी से अध्ययन किया था और उसी के मुताबिक संघ को ढालने के लिए उन्होंने विशेष कोशिश की थी। मार्जिया कोसोलारी जैसी विदुषियों ने अभिलेखागारों के अध्ययन से डा मुंजे की इटली यात्रा तथा संघ निर्माण में उनके योगदान पर बखूबी रौशनी डाली है। आखिर क्या वजह है कि संघ अपने चार अन्य संस्थापकों के नाम पर मौन रखता है?
क्या यह कहना वाज़िब है कि डॉ हेडगेवार को महान देशभक्त साबित करना है, तो किसी भी सूरत में उनके प्रयासों और प्रेरणाओं के विदेशी स्रोतों को, खासकर ऐसे स्त्रोत जो प्रगट रूप में मानवद्रोही दिखते हों, उन्हें ढंकना ही जरूरी समझा जाता होगा ।
दरअसल हेडगेवार के चिन्तन की सीमा महज इतनी ही नहीं थी कि उन्होंने ‘हिन्दुओं के कमजोर होने’ के औपनिवेशिक दावों का आत्मसातीकरण किया और हिन्दुओं को संगठित करने में जुट गये। वे उन साझी परम्पराओं को देखने में भी असफल हुए जिन्होंने सदियों से इस जमीन में आकार ग्रहण किया था। अंग्रेज विचारकों द्वारा अपने राज को स्थायित्व प्रदान करने के लिए भारतीय इतिहास को हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश कालखंड में बांटे जाने की साजिश को भी उन्होंने अपने व्यवहार से वैधता प्रदान की । वैसे उनकी बड़ी सीमा इस मायने में भी दिखाई दी कि समूचे हिन्दू समाज को एक अखण्ड माना और इस बात पर कभी गौर नहीं किया कि सदियों से चली आ रही जातिप्रथा ने इन्सानों के एक बड़े हिस्से को इन्सान समझे जाने से भी वंचित कर रखा है।
स्वतंत्रता के लिए जारी व्यापक जनसंघर्ष से उद्वेलित कार्यकर्ताओं के प्रति खुद डाक्टर हेडगेवार का रूख क्या रहता था इसपर दूसरे संघसंचालक गोलवलकर गुरूजी की किताब ‘विचार नवनीत’ रौशनी डालती है। संघ की कार्यशैली में अन्तर्निहित नित्यकर्म की चर्चा करते वे लिखते हैं।
‘‘नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने की विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथलपुथल होती रहती है। सन 1942 में ऐसी उथल पुथल हुई थी । उसके पहले सन 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डॉक्टर जी के पास गये। इस ‘शिष्टमंडल’ ने डॉक्टर जी से अनुरोध किया था कि इस आंदोलन से स्वातंत्र्य मिल जाएगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिये। उस समय एक सज्जन ने जब डॉक्टर जी से कहा कि वे जेल जाने को तैयार हैं, तो डाक्टरजी ने कहा .. जरूर जाओ । लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलाएगा ?’’ उस सज्जन ने बताया ‘‘- दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकतानुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।’’ तो डाक्टरजी ने कहा ‘‘ आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिये संघ का ही कार्य करने के लिये निकलो। घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गये न संघ का कार्य करने के लिये बाहर निकले ।’’ (श्री गुरूजी समग्र दर्शन, खण्ड 4, नागपुर, प्रकाशन तिथि नहीं, पृष्ठ 39-40)
हेडगेवार को स्थापित करने की दिशा में इस साल की शुरुआत में एक और प्रयास सामने आया जब किसी अलसुबह भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने घोषणा की कि वह सूबा महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में पुसद नामक आदिवासी बहुल इलाके में वर्ष 1930 के जंगल सत्याग्रह की याद में एक म्यूजियम बनाने जा रही है, जिसका फोकस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक सदस्य डा. हेडगेवार पर रहेगा जिन्होंने कथित तौर पर इस ‘सत्याग्रह की अगुआई’ की थी।
मालूम हो कि उपरोक्त जंगल सत्याग्रह देश में छेड़े गए व्यापक नागरिक अवज्ञा आंदोलन के हिस्से के तौर पर खड़ा हुआ था।
सभी जानते हैं कि वह दौर औपनिवेशिक भारत में नागरिक अवज्ञा आंदोलन का दौर था, जिसके तहत महात्मा गांधी की अगुआई में देश भर में व्यापक आांदोलन को गति मिली थी। इस आंदोलन का आगाज़ कांग्रेस के आवाहन पर 26 जनवरी 1930 को ‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाने से शुरू हुआ था। और 12 मार्च 1930 को गांधीजी अपने 78 सहयोगियों के साथ साबरमती आश्रम से दांडी के लिए चल दिए थे, जहां उन्होंने नमक बना कर ब्रिटिश कानून को तोड़ा था। ब्रिटिश सरकार की नीतियों की मुखालफत के प्रतीक के तौर पर शेष भारत में भी अलग अलग स्थानों पर सत्याग्रह हुए थे। जंगल सत्याग्रह उसी का हिस्सा था, जिसके अंतर्गत लोगों ने आरक्षित जंगलों में प्रवेश कर ब्रिटिश कानून का विरोध किया था।
चूंकि दांडी विदर्भ ( तत्कालीन मुंबई प्रांत का वह इलाका जिसमें यवतमाल, नागपुर, अमरावती जैसे जिले आते हैं ) के उस इलाके से काफी दूर था, विदर्भ के क्षेत्रीय कांग्रेस नेतृत्व ने - जिसमें डा माधव सदाशिव अणे आदि शामिल थे, यह तय किया कि वह जंगल में जाकर कानून तोड़ेंगे, जिसके लिए जनता को आवाहन किया गया।
याद रहे कि पूरे मुल्क मे दांडी सत्याग्रह तथा नागरिक अवज्ञा आंदोलन ने ऐसा समां बांधा था कि आर एस एस से जुड़े तमाम उत्साही नवयुवक स्वयंसेवक कांग्रेस के आवाहन पर जंगल सत्याग्रह मे शामिल होनाा चाह रहे थे, लेकिन उस दबाव के बावजूद डा हेडगेवार ने संगठन को इस आंदोलन में जोड़ने से इन्कार किया। डा हेडगेवार के विभिन्न चरित्र - जो उनके विचारों के हिमायतियों ने ही लिखे हैं इस पूरे प्रसंग पर अच्छी रौशनी डालते हैं जिनकी तरफ से यह तय किया गया था कि ‘संघ संगठन के नाते आंदोलन में नहीं उतरेगा’।
अगर हम चं प भिशीकर द्वारा रचित किताब ‘संघवृक्ष के बीज: डा केशव बलिराम हेडगेवार’ को देखें जिसे एक तरह से हेडगेवार का आधिकारिक चरित्र समझा जाता है, जो उजागर करता है कि संगठन के अंदर उन दिनों क्या उहापोह चल रहा था :
वर्ष 1930/ में महात्मा गांधी ने जनता को आवाहन किया कि वह सरकार के विभिन्न कानूनो को तोड़े। गांधीजी ने खुद नमक सत्याग्रह का आयोजन किया जिसके तहत उन्होंने दांडी मार्च निकाला। डा साहेब / हेडगेवार/ ने सब जगह संदेश भेजा कि संघ सत्याग्रह में शामिल नहीं होगा, अलबत्ता जो व्यक्तिगत तौर पर शामिल होना चाहते हैं, उन्हें प्रतिबंधित नहीं किया जाएगा। इसका मतलब यही था कि संघ का कोई जिम्मेदार कार्यकर्ता सत्याग्रह में शामिल नहीं हो सकता था।‘ ( Delhi : Suruchi Prakashan, 1994,Page 20, quoted in 'Religious Dimension of Indian Nationalism , Shamsul Islam, Media House, 2006, Page 309)
ना ह पालकर, जिन्होंने मराठी भाषा में डा हेडगेवार का चरित्र लिखा है तथा जिसे संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर ने प्रस्तावना लिखी है वह इस बात को उजागर करती है कि वे सभी युवा स्वयंसेवक जिन्होंने आंदोलन से जुड़ने की इच्छा प्रगट की थी, उन्हें हेडगेवार ने क्या कहा / मूल मराठी से अनूदित/
‘अधिकारी शिक्षा वर्ग समाप्त होने के बाद कइयों ने व्यक्तिगत तौर पर सत्याग्रह में शामिल होने की डॉक्टरसाब से अनुमति मांगी। ... डॉक्टर हेडगेवार ने उनसे पूछा कि ‘‘कितने दिन की तैयारी करके निकलना चाहते हैं ?’ अगर उनकी तरफ से यह जवाब मिला ‘‘छह माह’’, फिर डॉक्टर पूछते थे कि ‘‘अगर छह माह की जगह दो साल की सज़ा हुई तो ? ‘‘उनके इस प्रश्न का जवाब तुरंत मिलता था ‘ सज़ा भोग लेंगे।’ अगर किसी ने इतनी तैयारी दिखाई तो डॉक्टर उसे कहते थे ‘‘ तुम्हें दो साल की सज़ा हुई है यह मान कर उतना वक्त़ संघकार्य को क्यों नही देते।’’ डॉक्टरसाब के इस प्रश्न का निहितार्थ जानते हुए ही युवक अपना अगला रास्ता तय करते थे।’ / पेज 202, डा हेडगेवार, ना ह पालकर, भारतीय विचार साधना, पुणे, पांचवां संस्करण, 2000/
इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’ / गोलवलकर की संकलित रचनाएँ, खंड 4, भारतीय विचार साधना, नागपुर/ इसी किस्म के प्रसंग की चर्चा करती है। जंगल सत्याग्रह से आधिकारिक तौर पर दूर रहना एकमात्र मिसाल नहीं थी, लेकिन ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों से दूर रहने के कई उदाहरण मिलते हैं। इस बात को चं प भिशीकर तथा हेडगेवार के अन्य जीवनीकार भी बताते हैं कि संघ निर्माण के बाद ‘हिन्दू संगठन’ पर ही हेडगेवार का जोर रहता था। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका नहीं के बराबर रहती थी ( संघ वृक्ष के बीज, पृष्ठ 24, सन 1966, दिल्ली)
गौरतलब था कि जहां हेडगेवार अपने स्वयंसेवकों को सत्याग्रह में शामिल होने को लेकर निरूत्साहित करते मिलते थे, उन्होंने संघ को ऐसी किसी ब्रिटिशविरोधी गतिविधि में जोड़ने से बार बार इन्कार किया था - भले उसके लिए जो भी तर्क दिए जा रहे हों - लेकिन उन्हीं हेडगेवार ने इस सत्याग्रह में खुद शामिल होने का निर्णय लिया था।
इसके पीछे का जो विचार था वह स्पष्ट था। एच वी शेषाद्री - जो संघ के अग्रणी नेता रह चुके हैं तथा जिन्होनें हेडगेवार पर एक किताब का संपादन किया है, उसमें लिखा गया है कि, सत्याग्रह से जुड़ने से ‘‘उन्हें मौका मिलता जो अलग अलग स्थानो से वहां पहुंचनेवाले देशभक्त युवाओं से मिलते ...जिससे भविष्य मे संघ की गतिविधियों के विस्तार में सहायता होती।’ यह अकारण नहीं था कि हेडगेवार के जेल से बाहर आने के बाद संघ के कार्यों को इसी वजह से नयी गति मिली।
ब्रिटिश विरोधी संघर्ष के प्रति उनके रूख को इस बात से भी समझा जा सकता है जिसके तहत उन्हे इस बात से गुरेज नहीं था कि मुल्क की आज़ादी के लिए जेल जाने के लिए तैयार लोगों तथा देशभक्ति की उनकी भावना का एक तरह से उपहास करें। इन्ही दिनों उन्होंने कहा था कि ‘‘आज जेल जाना देशभक्ति का प्रतीक माना जाता है .. मुल्क की मुक्ति नहीं होगी जब तक इस किस्म की क्षणिक भावनाओं का स्थान सकारात्मक और दीर्घगामी प्रयासों में नहीं होगा।’ (मूल अंग्रेजी से अनूदित, Page 112, Hedgewar : The Epoch Maker -Edited by H V Sheshadri, Sahitya Sindhu Prakashan, 2021, Bangalore)
निश्चित ही इन दिनों हेडगेवार के नाम की चारो तरफ धूम है, चूँकि उनके वैचारिक अनुयायी केंद्र तथा कई सूबों में सत्ता की बागडोर संभाले हैं।
हेडगेवार के लिए म्यूजियम ऐलान तो हुआ ही है।
अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है कि जब उसका निर्माण पूरा होगा तो एक भव्य कार्यक्रम होगा और इस सत्याग्रह के असली नायक चाहे महात्मा गांधी हो, या स्थानीय स्तर पर डा अणे, अभ्यंकर जैसे कांग्रेस के लीडरान हो, सभी को भुलाते हुए डा हेडगेवार का ही गुणगान होगा, वही हेडगेवार जो व्यक्तिगत तौर पर सत्याग्रह में शामिल हुए थे और जिन्होंने सुनियोजित तरीके से अपने संगठन को दूर रखा था ताकि अंग्रेज़ों की वक्र निगाह उनके संगठन के तरफ ना पड़ें
हमारे आका आए दिन हमें नए इंडिया के आगमन की बात बताते हैं।
शायद यह नया इंडिया ही है कि शहीदे आज़म भगतसिंह को अब अलविदा कहा जाए, आजादी के तमाम असली नायकों को, गुमनाम शहीदों को भुला दिया जाए और हिन्दु राष्ट के प्रस्तोता डा. हेडगेवार की जय बोला जाए।
(यह लेखक के निजी विचार है)
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