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ख़बरों के आगे-पीछे: संसद न चलने देने का बंदोबस्त पहले से?

संसद न चलने से लेकर मोदी के चुनावी साल, कांग्रेस के सहयोगियों द्वारा इमरजेंसी को याद करने, कांग्रेस पर क्षेत्रीय दलों का दबाव, बिहार में भाजपा के पुराने समीकरण और कांग्रेस से केसीआर की नज़दीकी पर अपने साप्ताहिक कॉलम में बात कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन।
Sansad
फ़ोटो साभार : PTI

अब यह साफ़ हो गया है कि संसद के हर सत्र से पहले सरकार की ओर से यह इंतिज़ाम कर लिया जाता है कि दोनों सदनों की कार्यवाही सुचारू रूप से न चले और शोर-शराबे में पूरा सत्र बीत जाए। आमतौर पर हर सत्र से पहले कोई न कोई ऐसी घटना हो जाती है या ऐसी कोई ख़बर आ जाती है, जिसे लेकर न तो विपक्ष को बोलने दिया जाता है और न ही सरकार की ओर से कुछ कहा जाता है। हंगामा और नारेबाज़ी होती रहती है और सरकार बिना बहस के विधायी कामकाज निबटा लेती है। संसद का बजट सत्र शुरू होने से ठीक पहले अडानी समूह को लेकर हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट आई थी। उस पर सत्र का पहला हिस्सा ज़ाया हुआ। उससे पहले चीन को लेकर शीतकालीन सत्र हंगामे में गुज़रा था। अब संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण शुरू हुआ तो सत्तापक्ष ही संसद नहीं चलने दे रहा है। उसकी ओर से मंत्री औेर सांसद एक हफ़्ते से हंगामा और नारेबाज़ी करते हुए राहुल गांधी पर देश का अपमान करने का आरोप लगा रहे हैं और साथ ही माफ़ी की मांग कर रहे हैं। राहुल गांधी अपने ऊपर लगे आरोप का जवाब देना चाहते हैं लेकिन आरोप है कि स्पीकर उन्हें बोलने की अनुमति नहीं दे रहे हैं। ऐसा ही खेल राज्यसभा में भी दोहराया जा रहा है। ज़ाहिर है कि सरकार की मंशा के मुताबिक़ दोनों सदनों के मुखिया भी नहीं चाह रहे हैं कि संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चले। यह नए मिज़ाज का संसदीय लोकतंत्र है।

मोदी का चुनावी साल शुरू

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए लोकसभा चुनाव का साल शुरू हो गया है। वैसे तो वे हमेशा ही चुनावी मोड में रहते हैं लेकिन अब वे पूरी तरह से चुनावी मोड में आ चुके है। पार्टी की ओर से अगले एक साल तक का उनका कार्यक्रम बनाया जा रहा है। अभी तो वे उन राज्यों पर फोकस कर रहे हैं, जहां इस साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं लेकिन इसके साथ ही भाजपा की रणनीतिक टीम उन राज्यों में भी उनकी रैलियों के कार्यक्रम बना रही है, जहां पिछली बार भाजपा को अचानक बहुत ज़्यादा सीटें मिल गई थीं। बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री इस साल के बचे हुए नौ महीनों में अलग-अलग राज्यों में क़रीब सौ रैलियां करेंगे। कर्नाटक से लेकर पश्चिम बंगाल और ओडिशा जैसे राज्यों पर उनका फोकस होगा। पिछले चुनाव में जिन राज्यों में भाजपा को अचानक छप्पर-फाड़ कामयाबी मिली थी उन राज्यों में नई परियोजनाओं के साथ ही बड़ी-बड़ी लोक-लुभावन घोषणाएं भी होंगी। बीते रविवार को मोदी कर्नाटक में थे। दो महीने में वे तीन बार कर्नाटक का दौरा कर चुके हैं। कुछ दिन पहले उन्होंने लिंगायत बहुल शिवमोगा में हवाईअड्डे का उद्घाटन किया था और इस बार वोक्कालिगा बहुल पुराने मैसूर में उनका कार्यक्रम हुआ। उन्होंने रोड शो किया और 16 हज़ार करोड़ रूपये की परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया। कर्नाटक में कुछ ही दिनों बाद विधानसभा चुनाव होना है, इसके अलावा लोकसभा चुनाव के लिहाज़ से भी कर्नाटक, भाजपा के लिए एक अहम राज्य है। पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य की 28 में से 25 सीटें भाजपा को मिली थीं।

कांग्रेस के सहयोगी भी इमरजेंसी को कर रहे याद

भाजपा के नेता और संवैधानिक पदों पर बैठे लोग तो अक्सर ही इमरजेंसी को याद करते हुए कांग्रेस को निशाना बनाते रहते हैं, लेकिन हैरानी की बात है कि कांग्रेस की सहयोगी पार्टियां भी इन दिनों बात-बात में इमरजेंसी को याद कर रही हैं। उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने 11 मार्च को मेरठ में एक कार्यक्रम में बिल्कुल भाजपा नेता की तरह राहुल गांधी पर हमला करते हुए कहा कि संसद में अभी नहीं, बल्कि इमरजेंसी के समय माइक बंद होता था, तब विपक्ष को नहीं बोलने दिया जाता था। इस बीच कांग्रेस की दो सहयोगी पार्टियों ने इमरजेंसी को याद किया और परोक्ष रूप से कांग्रेस पर निशाना साधा। कांग्रेस के सबसे क़रीबी सहयोगी और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने बिना किसी संदर्भ के इमरजेंसी का मुद्दा उठाया। उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा कि उनके पिता के. करुणानिधि से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी का समर्थन करने को कहा था लेकिन उन्होंने समर्थन नहीं किया। स्टालिन ने कहा कि इंदिरा गांधी की बात न मानने का नतीजा यह हुआ कि उनके पिता के नेतृत्व वाली डीएमके की सरकार गिरा दी गई। इसी तरह दूसरे क़रीबी सहयोगी राजद के नेता लालू प्रसाद ने केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का विरोध करते हुए कहा कि उन्होंने इमरजेंसी का भी मुकाबला किया है। उनकी पार्टी समेत यूपीए में शामिल दूसरी पार्टियां भी देश में अघोषित इमरजेंसी होने की बात करते हुए केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का विरोध कर रही हैं।

बिहार में पुराना समीकरण बना रही है भाजपा

बिहार में भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र अभी भी नीतीश कुमार पर डोरे डाल रही है, लेकिन साथ ही फिर वही सामाजिक समीकरण बनाने की कोशिश भी कर रही है, जिसके दम पर एनडीए ने 2014 के लोकसभा चुनाव में 32 सीटें जीती थीं। उस चुनाव में नीतीश की पार्टी भाजपा के साथ नहीं थी। नीतीश अभी राजद के साथ हैं और अगले चुनाव में भाजपा को सबक सिखाने की ठाने बैठे हैं। इसीलिए भाजपा 2014 जैसा समीकरण बना रही है। उस समय जो नेता भाजपा के साथ थे, वे फिर साथ आ रहे हैं। उपेंद्र कुशवाहा जनता दल (यू) से अलग होकर अपनी पार्टी बना चुके हैं। मुकेश सहनी 2014 में भाजपा के साथ थे, बाद में उनकी पार्टी बनी तो भाजपा ने पूरी पार्टी ही अपने में विलय करा ली लेकिन अब वे फिर भाजपा के क़रीब आ रहे हैं। चिराग पासवान पहले से भाजपा के साथ हैं। इन तीनों नेताओं के भाजपा के साथ होने या क़रीब आने के पीछे कई कारण है। जनता दल (यू) के राजद के साथ जाने के बाद इन नेताओं के लिए वहां कोई ख़ास गुंजाइश नहीं बची थी। दूसरा, इनका वोट बैंक यादव-मुस्लिम समीकरण में फिट नहीं बैठता है। कोइरी, मल्लाह और दुसाध, इन तीनों जातियों का भाजपा के साथ लगभग परफेक्ट कॉम्बिनेशन बनता है। इस बीच भाजपा ने इन तीनों को वीआईपी सुरक्षा के जाल में भी ले लिया है। जनता दल (यू) छोड़ते ही उपेंद्र कुशवाहा को वाई-प्लस सुरक्षा मिल गई। मुकेश सहनी को भी वाई-प्लस सुरक्षा दे दी गई है, जबकि चिराग पासवान की वाई-प्लस सुरक्षा को अपग्रेड करके ज़ेड श्रेणी का कर दिया गया है। केंद्र सरकार का सुरक्षा घेरा लेकर तीनों नेता अगले चुनाव की तैयारी में जुटे हैं।

लालू की पार्टी के पैसे वाले नेता भी निशाने पर

केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई सिर्फ विपक्षी पार्टियों के शीर्ष नेताओं पर ही नहीं हो रही है, बल्कि उनके साथ-साथ ऐसे नेताओं को भी निशाना बनाया जा रहा है, जो पैसे वाले और कारोबारी हैं। पैसे वाले कारोबारी नेताओं को निशाना बनाने से चुनाव में पार्टियों के लिए पैसे का इंतिज़ाम मुश्किल होगा और चुनावी तैयारियां प्रभावित होगी। बिहार में लालू प्रसाद की पार्टी राजद के पैसे वाले नेताओं पर केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई में यह पैटर्न दिख रहा है। पिछले कुछ दिनों में लालू प्रसाद की पार्टी के पैसे वाले चार नेताओं पर कार्रवाई हुई है। जब बिहार में जनता दल (यू) और भाजपा की सरकार चल रही थी उसी समय ईडी ने राजद के राज्यसभा सांसद अमरेंद्रधारी सिंह को गिरफ़्तार किया था। वे राज्यसभा के सबसे अमीर सांसदों में से हैं। नामांकन दाखिल करते हुए उन्होने अपनी निजी संपत्ति 238 करोड़ रूपये और एक साल की कमाई 74 करोड़ रूपये बताई थी। हालांकि गिरफ़्तारी के दो महीने बाद ही उनको हाई कोर्ट से ज़मानत मिल गई। उसके बाद राजद के कोषाध्यक्ष और एमएलसी सुनील सिंह के यहां आयकर विभाग ने छापा मारा। वे सहकारिता से जुड़े हैं। इसके बाद पिछले साल नवंबर में राजद के विधायक और नीतीश कुमार की सरकार के उद्योग मंत्री समीर महासेठ के यहां आयकर विभाग ने छापेमारी की। वे भी बड़े कारोबारी हैं। अब ईडी ने लालू प्रसाद की पार्टी के पूर्व विधायक और बिल्डर अबू दोजाना के यहां छापा मारा है। अमरेंद्रधारी सिंह, सुनील सिंह, समीर महासेठ और अबू दोजाना ये सब राजद के लिए वित्तीय प्रबंधन करने वाले नेता हैं।

क्षेत्रीय पार्टियों का कांग्रेस पर दबाव

विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा है ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की कांग्रेस की ज़िद और उसके नेताओं के अहंकारी बयान। क्षेत्रीय पार्टियों की ओर से कांग्रेस पर समझौते का दबाव है। कई राज्यों में सहयोगी पार्टियां चाहती हैं कि कांग्रेस कम सीटो पर समझौता करे। कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच कई जगह ऐसा समझौता था कि विधानसभा चुनाव में प्रादेशिक पार्टी ज़्यादा सीटों पर लड़ती थी और लोकसभा चुनाव मे कांग्रेस को ज़्यादा सीटें मिलती थी। झारखंड इसकी मिसाल है। लेकिन अब क्षेत्रीय पार्टियां लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस से ज़्यादा सीटों पर लड़ना चाहती हैं। तमिलनाडु और बिहार की तरह झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा भी लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में ज़्यादा सीटें चाहता है। महाराष्ट्र में एनसीपी भी चाहती है कि वह ज़्यादा सीटों पर लड़े। कुछ अन्य राज्यों में संभावित सहयोगी चाहते हैं कि कांग्रेस एक-दो सीट लेकर ही समझौता करे। अपनी बात मनवाने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों के नेता पिछले दो चुनावों की मिसाल देकर पूछ रहे हैं कि कांग्रेस बताए कि उसने अपने दम पर कितनी सीटें जीती हैं। कांग्रेस को जो 52 सीटें मिली हैं, उनमें से भी ज़्यादातर सहयोगी दलों के कारण मिली हैं। तमिलनाडु में कांग्रेस को आठ सीटें मिली हैं। अगर वह अकेले सभी 39 सीटों पर लड़ती तो एक भी सीट नहीं मिल पाती। इसी तरह केरल में उसे 15 सीटें यूडीएफ की पार्टियों के समर्थन से मिली हैं। उत्तर प्रदेश में वह अकेले लड़ी तो दो से घट कर एक सीट पर आ गई। बिहार में भी एक सीट सहयोगी पार्टी की वजह से मिली। कांग्रेस जहां-जहां भी अकेले लड़ी वहां उसका प्रदर्शन बहुत ख़राब रहा। इसलिए सहयोगी चाहते हैं कि कांग्रेस कम सीट लेकर समझौता करे और प्रादेशिक पार्टियों को ज़्यादा सीटों पर लड़ने दे, इससे गठबंधन की सीटें भी बढ़ेंगी और कांग्रेस की भी।

अब कांग्रेस से दोस्ती चाहते हैं केसीआर

तेलंगाना के मुख्यमंत्री औेर भारत राष्ट्र समिति के नेता के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) अभी तक कांग्रेस से लड़ते दिख रहे थे, लेकिन अब उन्हें कांग्रेस की चिंता सता रही है। दरअसल केसीआर को अहसास हो गया है कि अगर कांग्रेस तेलंगाना में ज़्यादा ज़ोर लगा कर लड़ेगी तो उसका फायदा भाजपा को होगा। इस बात को कांग्रेस भी समझ रही है इसलिए केसीआर पर दबाव बनाए रखने के लिए वह तेलंगाना में रैलियां और अन्य कार्यक्रम कर रही है। भाजपा को रोकने की मजबूरी में दोनों पार्टियां तालमेल करेंगी या नहीं, यह बाद की बात है लेकिन फिलहाल केसीआर की ओर से सद्भाव दिखाने की शुरुआत हो गई है। दिल्ली में उनकी बेटी के. कविता ने कांग्रेस को ज़िद छोड़ने और गठबंधन मे शामिल होने को कहा। कविता ने जब कांग्रेस को गठबंधन में शामिल होने के लिए कहा तो वे लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन की बात नहीं कर रही थीं। उनके कहने का मतलब था - तेलंगाना के चुनाव में साथ आना। तेलंगाना में कांग्रेस की अच्छी उपस्थिति है और एक बड़े इलाके में असद्दुदीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम का असर है। इस तरह भारत राष्ट्र समिति, कांग्रेस और एआईएमआईएम के बीच मुस्लिम वोटों का बंटवारा होता है तो भाजपा को फायदा होगा। केसीआर नहीं चाहते कि विधानसभा त्रिशंकु बने। सो, कांग्रेस से सद्भाव दिखाने की शुरुआत हुई है। उनकी बेटी के. कविता ने 10 मार्च को दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक दिन की भूख हड़ताल की और सोनिया गांधी की जम कर तारीफ़ की। उन्होंने सोनिया का आभार जताया कि उनके प्रयास से महिला आरक्षण बिल राज्यसभा से पास हो सका था। उनकी ओर से हुई इस पहल के बाद तेलंगाना की राजनीति में कुछ दिलचस्प बदलाव देखने को मिल सकता है।

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