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‘वकीलों के एक समूह’ की चीफ़ जस्टिस को चिट्ठी हमारी राय नहीं: ऑल इंडिया लायर्स यूनियन

“न्यायपालिका की सुरक्षा के नाम पर 'वकीलों के एक समूह' द्वारा सीजेआई को हाल ही में लिखा गया पत्र केवल जिम्मेदार वकीलों और वकील के मंचों के खिलाफ एक अफवाह है, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा और संविधान की बुनियादी संरचना यानी संवैधानिक अधिकार; मौलिक अधिकार और लोकतंत्र की रक्षा के लिए लगातार लड़ रहे हैं।”
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फोटो साभार :पीटीआई (फाइल फोटो)

ऑल इंडिया लायर्स यूनियन (AILU) के अध्यक्ष बिकास रंजन भट्टाचार्य ने एक बयान जारी कर न्यायपालिका की सुरक्षा के नाम पर 'वकीलों के एक समूह' द्वारा सीजेआई को लिखे पत्र के जरिए घड़ियाली आँसू बहाने पर एतराज़ जताया है। बयान के मुताबिक, “चुनावी बांड पर सर्वोच्च अदालत का निर्णय, चुनावी बांड के नाम पर दानदाताओं को लाभ पहुंचाना और राजनीतिक भ्रष्टाचार को उजागर करने का सीधा परिणाम है।”

बयान में आगे कहा गया है कि, “न्यायपालिका की सुरक्षा के नाम पर 'वकीलों के एक समूह' द्वारा सीजेआई को हाल ही में लिखा गया पत्र केवल जिम्मेदार वकीलों और वकील के मंचों के खिलाफ एक अफवाह है, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा और संविधान की बुनियादी संरचना यानी संवैधानिक अधिकार; मौलिक अधिकार और लोकतंत्र की रक्षा के लिए लगातार लड़ रहे हैं।”

भट्टाचार्य के मुताबिक, “न्यायिक समीक्षा की ताक़त और न्यायपालिका की स्वतंत्रता हमारे संविधान की बुनियादी संरचना और लोकतंत्र की रीढ़ है। वर्तमान सरकार, न्यायपालिका की स्वतंत्रता सहित संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ सीधे हमले कर रही है और छल कर रही है और उनके द्वारा पारित क़ानूनों पर न्यायपालिका द्वारा न्यायिक समीक्षा की ताक़त का इस्तेमाल करने के लिए उसका मज़ाक उड़ा रही है। संसद की सर्वोच्चता और संप्रभुता के नाम पर "न्यायिक समीक्षा" और "बुनियादी ढांचे" के खिलाफ कोई ओर नहीं बल्कि भारत के उपराष्ट्रपति और कानून मंत्री द्वारा की गई तीखी आलोचना और हमले इसका एक अन्य मिसाल है और जजों के चयन में कार्यकारी सरकार की भूमिका और शक्ति की मांग करना इस एक सुव्यवस्थित योजना का हिस्सा था।”

बयान आगे दर्ज़ करता है कि, उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के स्थानांतरण के मामले में कार्यकारी सरकार का सीधा हस्तक्षेप रहा है। कार्यकारी सरकार ने अतिरिक्त न्यायिक शक्ति के साथ और असंगत राजनीतिक कारणों की वजह से न्यायमूर्ति कुरेशी और न्यायमूर्ति डॉ. एस. मुरलीधर के स्थानांतरण में हस्तक्षेप किया था।”

यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि, “न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हेरफेर करने और हस्तक्षेप करने के लिए मोदी सरकार ने सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति लगतार की है। मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई को सेवानिवृत्ति के बाद मोदी सरकार ने राज्यसभा की सदस्यता दिलाई। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति अब्दुल नज़ीर की सेवानिवृत्ति के छह सप्ताह के भीतर उन्हें आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के रूप में नियुक्त करना इसकी कुछ मिसालें हैं।”

बयान कहता है कि, “केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम के प्रस्तावों को चुनिंदा तरीके से विभाजित करके विभिन्न उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के स्थानांतरण/नियुक्ति पर कॉलेजियम के प्रस्ताव का अनादर करती रही है और कर रही है। कॉलेजियम द्वारा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सिफ़ारिश किए गए उम्मीदवारों के मामले में भी यही बात होती है। ऐसे उदाहरण हैं कि कॉलेजियम द्वारा उम्मीदवारों की सिफारिश दोहराए जाने के बाद भी सरकार ने मामलों को लंबा खींचा और अंततः उम्मीदवारों को नियुक्त करने से इनकार कर दिया। ये सभी न्यायपालिका की स्वतंत्रता के गंभीर उल्लंघन के उदाहरण हैं। 'वकीलों के समूह' ने इन उल्लंघनों पर और न्यायपालिका की सुरक्षा के लिए कभी कोई आवाज नहीं उठाई। यह "वकीलों का समूह" न्यायपालिका की स्वतंत्रता के विरुद्ध इस अलोकतांत्रिक असंवैधानिक विचार का मुखर समर्थन करता रहा है।”

बयान के मुताबिक, हाल के दिनों में उक्त ‘वकीलों का समूह’, चुनाव बांड मामले में सुप्रीम कोर्ट के सबसे प्रसिद्ध और मौलिक फैसले, जो बड़े कॉर्पोरेट इजारेदारों और चुनाव बांड में शामिल अन्य निहित स्वार्थी समूहों के साथ मिलकर राजनीतिक भ्रष्टाचार और उससे लाभ उठाने के सभी प्रयासों का पर्दाफाश करता है, वह चुनावी बॉन्ड के पक्ष में खड़ा पाया गया है। वे भारत के माननीय राष्ट्रपति को चुनावी बांड के फैसले को लागू करने से रोकने के लिए पत्र लिख रहे हैं और सीजेआई को स्वत: संज्ञान लेते हुए फैसले की समीक्षा करने के लिए पत्र लिखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। अंततः वे खुद ही न्यायालय के सामने तब बेनकाब हो गए, जब सीजेआई की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ ने पत्र के लेखक की कड़े शब्दों में निंदा की।”

यह तथ्य कि, “सुप्रीम कोर्ट ने आईटी संशोधन नियम, 2023 के तहत मोदी सरकार की सत्तावादी और अलोकतांत्रिक फैक्ट-चेक यूनिट (एफसीयू) अधिसूचना पर रोक लगा दी है, और यह रोक वकीलों के निहित स्वार्थ वाले "समूह" को भी परेशान करती नज़र आती है।”

बयान के मुताबिक, ‘वकीलों के समूह’ द्वारा लिखे पत्र में लगाए गए आरोप बेबुनियाद हैं और पूरे भारत में यह अधिवक्ताओं और कानूनी बिरादरी की आम राय नहीं हैं। 'वकीलों का समूह' भारत में अधिवक्ताओं और कानूनी बिरादरी का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। न्यायपालिका की सुरक्षा के नाम पर इन "समूहों" का प्रयास, न्यायपालिका के खिलाफ केवल एक छलावा और परोक्ष धमकी है क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता और जवाबदेही के मामले में न्यायिक समीक्षा की शक्ति का इस्तेमाल करता है। यह खुद को न्यायपालिका के रक्षक के रूप में पेश करने वाली झूठी कहानी के साथ लोगों को गुमराह करने का भी एक प्रयास है।”

बयान के अंत में ऑल इंडिया लायर्स यूनियन कहती है कि वह, इस तरह के प्रयास की कड़े शब्दों में निंदा करती है, और पूरे कानूनी समुदाय और लोगों से न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने वाली इस तरह की अस्वास्थ्यकर प्रथाओं के खिलाफ एकजुट होकर आवाज उठाने और हमारे संविधान और लोकतंत्र को बचाने की अपील करती है।

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