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छुपाने भी दो यारो!

कोविड के मरीजों को बचा नहीं सकते, तो उनकी मौतों को छुपा तो सकते हैं। छुपाना वैसे भी राष्ट्रभक्ति की मांग है, वर्ना देश-दुनिया में लोग देखेंगे तो क्या-क्या कहेंगे? सो छुपाने भी दो यारो!
छुपाने भी दो यारो!
लखनऊ में भैंसाकुंड स्थित बैकुंठ धाम श्मशान घाट के चारों ओर टीन की दीवार खड़ी कर दी गई है। ताकि बाहर से कुछ दिखाई ना दे।

कटाक्ष

डबल इंजन की सरकारों के काम न करने की झूठी शिकायतें करने वाले अब क्या कहेंगे? डबल इंजन की सरकारें पूरी तरह से काम कर रही हैं, शब्दश: पूरी तरह से। यूपी में योगीजी-मोदीजी उर्फ योमो की डबल इंजन सरकार ने कोविड के इस टैम में अस्पताल से श्मशान तक बल्कि श्मशान की बाउंड्री के बाहर तक काम कर के दिखाया है। दूर क्यों जाएं, राजधानी लखनऊ के भैंसाकुंड की ही मिसाल ले लीजिए। जब कोरोना माता के कोप से जलाने के लिए शवों का तांता लग गया और एक साथ जलती दर्जनों चिताएं दूर तक सडक़ से न सिर्फ दिखाई देनी लगीं बल्कि उनकी तस्वीरें भी उतारीं और दिखाई जाने लगीं, तब भी योमो सरकार ने हार नहीं मानी। अस्पतालों में इलाज, ऑक्सीजन, वेंटीलेटर वगैरह की अगर कोई कमी रह भी गयी थी तो उसकी भरपाई उसने श्मशानों में टॉप क्लास इंतजामों से कर दी। और अगर मरने वालों की भीड़ के चलते, श्मशानों में इंतजाम में कोई कसर रह भी गयी थी, तो उसकी भरपाई योमो सरकार ने श्मशान में जलती चिताओं को आम पब्लिक की नजर से बचाने के इंतजाम कर के कर दी। अब टीन की चादरों का एकदम नया निकोर पर्दा भैंसाकुंड में जलने वाली चिताओं की आती-जाती पब्लिक की निगाहों से रखवाली करेगा।

फिर भी कोई कसर रह जाए तो फालतू ताक-झांक करने वालों के लिए, आपदा प्रबंधन कानून में कारवाई की चेतावनी और है! जिंदों का ख्याल तो कोई भी रख लेगा, पर मुर्दों का इतना ख्याल इससे पहले किसी सरकार ने नहीं रखा होगा।

बेशक, मोदी जी की दूरदृष्टि के बिना यह नहीं हो सकता था। ईमानदारी की बात तो यह है कि योगी जी तो बाद में यूपी की गद्दी पर आए, मोदी जी की नजर उससे पहले से श्मशानों की स्थिति बेहतर बनाने पर थी। 2017 के एसेंबली चुनाव में मोदी जी ने खासतौर पर श्मशानों का सवाल उठाया था और श्मशानों की जरूरत हर हाल में पूरी करने का भरोसा दिलाया था। मोदी जी की पैनी नजरों से यह छुपा नहीं रह सकता था कि यूपी में बुआ-बबुआ के राज में जिंदा तो जिंदा, मुर्दों का भी तुष्टीकरण होता था और कब्रिस्तानों के मुकाबले श्मशानों पर कम कम खर्चा हुआ था। मोदी जी ने जोर देकर कहा कि सवाल श्मशानों की कमी होने न होने का नहीं है। सवाल न्याय का है। श्मशानों को न्याय दिलाना है और कब्रिस्तानों का तुष्टीकरण मिटाना है, तो हमारी डबल इंजन सरकार बनाओ। पब्लिक ने अगर उनकी बात मानकर डबल इंजन सरकार बना दी, तो योमो सरकार ने भी श्मशानों को पूरा न्याय दिलाया है। तभी तो एक साथ इतने शव जलते देखना पब्लिक के स्वास्थ्य के लिए भले हानिकारक हो, पर मुर्दों को जलने में कोई कष्ट नहीं हो रहा है। योमो सरकार सभी का ख्याल रख रही है, मुर्दों के लिए चिता की जगह है और पब्लिक के टीन का पर्दा।

माना कि टीन का पर्दा योमो सरकार का ऑरीजिनल आइडिया नहीं है। बेशक, योमो सरकार के इस टीन के पर्दे के पीछे कुछ न कुछ प्रेरणा अहमदाबाद की उस दीवार की भी है, जो गरीबों की बस्तियों को सडक़ पर चलने वालों की नजरों से बचाने के लिए बनायी गयी थी। चाहें तो इसे गुजरात से सीखने का मामला कह सकते हैं। लेकिन, गुजरात से सीखने में बुराई क्या है? आखिरकार, गुजरात में भी तो भगवा सरकार है। बल्कि हम तो कहेंगे कि योमो सरकार की तो खासियत ही यह है कि उसके पीछे गुजरात की सीखें हैं। फिर भी, योगी जी कोई आंख मूंदकर गुजरात को फॉलो नहीं कर रहे हैं। गुजरात वाले आइडिया की उन्होंने कोई नकल नहीं की है बल्कि उसका लखनौआ रूपांतरण किया है। इसीलिए तो, अहमदाबाद की दीवार, योगी जी के हाथों में टीन का पर्दा बन गयी, सस्ता भी और टिकाऊ भी। अहमदाबाद की दीवार, गरीबों पर ट्रम्प की नजर पडऩे से बचाने के लिए थी, तो लखनऊ का पर्दा भैंसाकुंड की जलती चिताओं पर पब्लिक की और खासतौर पर मीडिया की नजर पडऩे से बचाने के लिए है। जो गुजरात आज सोचता है, यूपी भी अगले साल तक सोच ही लेती है। रही ऑरीजिनेलिटी की बात तो, न गुजरात और न यूपी, सडक़ों पर पर्दे खींचकर सच को छुपाने की परंपरा, कम से कम ब्रिटिश राज के जमाने से तो चली ही आ रही है। भगवाई उसकी शुरूआत और भी प्राचीन मानते हों तो कह नहीं सकते। जो भी हो, यह परंपरा उतनी ही यूपी के भगवाइयों की विरासत है, जितनी गुजरात वालों की।

रही बात पर्दे खींचकर सच को छुपाने की तो स्वच्छता वाली झाडू के अलावा एक यही तो काम की चीज है जो बापू से हमें मिली है। बापू के तीन बंदर याद हैं? एक ने दोनों हाथों से आंखें बंद कर रखीं थीं, दूसरे ने दोनों हाथों से कान और तीसरे ने दोनों हाथों से कस कर मुंह बंद कर रखा था। बुरा न देखने, बुरा न सुनने, बुरा न बोलने का अर्थ हम समझ कर भी कभी नहीं समझ पाए। जब आंख, कान, मुंह परमानेंटली बंद थे, तो यह सिर्फ बुरा न देखने, बुरा न सुनने और बुरा न बोलने का संदेश कैसे हो सकता है? संदेश एकदम साफ था--देखना, सुनना, बोलना बंद ही कर दो; बुरे का झंझट ही खत्म हो जाएगा; सब हरा ही हरा नजर आएगा। मीडिया से योमो की सरकार गांधी जी के बंदरों के धर्म का ही तो पालन करा रही है। फिर भी कोई तस्वीर-वस्वीर निकल जाए, तो उसके लिए श्मशानों पर टीन के पर्दे लगवा रही है। कोविड के मरीजों को बचा नहीं सकते, तो उनकी मौतों को छुपा तो सकते हैं। छुपाना वैसे भी राष्ट्रभक्ति की मांग है, वर्ना देश-दुनिया में लोग देखेंगे तो क्या-क्या कहेंगे? सो छुपाने भी दो यारो!

(इस व्यंग्य आलेख के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं।)

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