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"हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो"

मशहूर शायर मख़दूम मुहिउद्दीन मज़दूरों के रहनुमा थे। उनकी शायरी में मज़दूरों और मज़लूमों का दर्द झलकता है। वे तरक़्क़ी पसंद शायर थे। आज यानी 4 फ़रवरी को उनका जन्मदिन है।
Makhdoom Mohiuddin

मशहूर शायर मख़दूम मुहिउद्दीन मज़दूरों के रहनुमा थे। उनकी शायरी में मज़दूरों और मज़लूमों का दर्द झलकता है। वे तरक़्क़ी पसंद शायर थे। आज यानी 4 फ़रवरी को उनका जन्मदिन है। इस मौक़े पर आपके लिए पेश है आज से 75 साल पहले मुंबई में 22 दिसंबर, 1947 के दिन 'अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन' के हफ़्तावार जलसे की पूरी रूदाद (वृत्तांत), जो किताब 'रूदाद—ए—अंजुमन' में दर्ज है। इस इजलास में सज्जाद ज़हीर ने अपनी तक़रीर में मख़दूम मुहिउद्दीन के बारे में जो कहा और अली सरदार जाफ़री ने अपने एक मज़ामीन (आलेख) में उनकी एक नज़्म 'ये जंग है जंगे आज़ादी' का जो शानदार तब्सिरा किया, वह वाक़ई क़ाबिले ग़ौर है।

उस साल 22 दिसंबर को उर्दू तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन का ये जलसा यौम—ए—मख़दूम की शक्ल में मुनअक़िद हुआ। जलसे में हाज़िरीन (उपस्थित जनसमूह) की तादाद अच्छी ख़ासी थी। तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन की गुज़िश्ता मीटिंग में दीवारी अख़बार की तजवीज़ पेश की गई थी। इस हफ़्ता इस तजवीज़ पर अमल शुरू हुआ था। इस हफ़्ते के दीवारी अख़बार के दरम्यान मोटे क़लम से मख़दूम का ये शे’र लिखाई देता था :

हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो

चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो।

और इस शे’र के ठीक ऊपर मख़दूम की एक बड़ी सी तस्वीर आवेज़ां (लटकाई हुई) थी। स्याही—माइल (हलका कालापन लिए हुए) चेहरे पर वही जानी-पहचानी मुस्कराहट खेल रही थी। एक नज़र देखने पर मालूम होता था, जैसे खु़द मख़दूम बैठे पूरे यक़ीन से कह रहे हो। ‘‘मैं जानता हूं तुम इस राज को समझ रहे हो और मैंने समझ लिया।

हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो

चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो।

इसलिए मैं अवामी ताक़तों की मशाल लिए हर भटकने वाले को राह दिखा रहा हूं और दक्कन की स्याह पथरीली धरती पर खु़श्क चट्टानों के पीछे एक नई फ़ौज तैयार कर रहा हूं। जिसने हर अत्याचारी ताक़तों के सामने सीना तानकर लड़ने का फ़ैसला कर लिया है जो मुस्तक़बिल के मैमारों (निर्माताओं) की फ़ौज है। और जो सारे ज़माने को साथ लेकर चलने के लिए उठी है। उनके जिस्म सदियों के जु़ल्म से दब गए हैं। मगर अब अपने पुराने लिबास को उतार रहे हैं। ये बहुत भोले हैं, मासूम हैं, सादा हैं। अपनी राह में बिछे हुए कांटों को हटाने से डरते हैं। मैं पूरी क़ुव्वत से आगे बढ़कर इनसे निजात पाने के लिए कह रहा हूं। क्या तुमने मेरी आवाज़ नहीं सुनी। मैं तुम्हारी आवाज़ का मुंतज़िर (प्रतिक्षा में होना) हूं।’’

मीटिंग शुरू होते ही सेक्रेटरी ने पिछले हफ़्ते की रूदाद पढ़कर सुनाई। इसके बाद सज्जाद ज़हीर ने यौम—ए—मख़दूम के मुतल्लिक़ अपने ख़यालात का इज़हार करते हुए, मख़दूम की शायरी और शख़्सियत का मुख़्तसर तआरूफ़ कराया। उन्होंने कहा, ‘‘आज हर तरफ़ से रज'अत-परस्त (रूढ़ीवादी), तरक़्क़ीपसंदों पर हमला कर रहे हैं और हमले उस वक़्त तक ख़त्म नहीं होते, जब तक उस रज़'अत-परस्ती का ख़ात्मा नहीं हो जाता। और यह ऐसी सूरत में मुमकिन है जब हम शे’र-ओ-अदब में तरक़्क़ीपसंदी के साथ-साथ अमली दुनिया में पूरे तरक़्क़ीपसंद हो जाएं। ऐसे तरक़्क़ीपसंद जैसा कि मख़दूम हैं।’’

उन्होंने कहा था, ‘‘मख़दूम हैदराबाद के कॉलेज में प्रोफेसर थे। नज़रियाती तौर पर वो बहुत पहले तरक़्क़ीपसंद हो गए थे। ये उन दिनों का ज़िक्र है, जब हमारे साथी सिब्ते हसन भी हैदराबाद में थे। सिब्ते हसन और मख़दूम में बहुत मुबाहिसे (वाद—विवाद) होते रहते थे। जिसका नतीजा ये हुआ कि मख़दूम न सिर्फ़ मुकम्मल तरक़्क़ीपसंद शायर हो गए, बल्कि वो पूरे तरक़्क़ीपसंद इंसान भी बन गए। और इस तरह उनकी ज़िंदगी में एक ऐसा वक़्त आया, जब उन्होंने महसूस किया कि उन्हें अभी और बढ़ाया जाए। इस तरह वो नौकरी छोड़कर अपना वक़्त मज़दूरों और किसानों को देने लगे। अदबी म'आश (ज़मीन) पर उन्होंने हैदराबाद के रियासत होने के बावजूद, तरक़्क़ीपसंद अदब का एक मज़बूत क़िला बना दिया। और आज हैदराबाद में जब भी कोई कॉन्फ्रेंस या मुशायरा किया जाता है, इसका मतलब तरक़्क़ीपसंदों का इज्तिमा होता है। सियासी म'आश पर मख़दूम पच्चीस हज़ार मज़दूरों को ट्रेड यूनियनों में लाए। आज वो ट्रेड यूनियन कांग्रेस के सद्र और वहां के मज़दूर और किसानों के महबूब रहनुमा हैं।’’

सिलसिला—ए—कलाम ज़ारी रखते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘इन दिनों हैदराबाद की हुकूमत हर तरह से अवामी तहरीकों को दबाने की कोशिश कर रही है। वहां कम्युनिस्ट पार्टी को और मज़दूरों के इदारों को ग़ैर-क़ानूनी क़रार दिया गया है। मख़दूम के वारंट जारी हो चुके हैं, लेकिन वो मज़दूर रहनुमा रू-पोश (गुप्त) होकर बराबर टकरा रहे हैं।’’ आख़िर में उन्होंने कहा, ‘‘हमने फै़सला किया है कि हम मख़दूम और हैदराबाद की मौजूदा अवामी तहरीक से मुतल्लिक़ एक पेम्फलेट शाया करें, ताकि अंजुमन के एक मुमताज़ मेंबर की ज़िंदगी को मिसाल के तौर पर पेश किया जा सके।’’

उन्होंने कहा, ‘यौम—ए—मख़दूम’ के सिलसिले में मरकज़ी अवामी तहज़ीबी दस्ते के तीन रुक्न (मेंबर) बना दिए। प्रीति, सरकार और प्रेम धवन भी आज की महफ़िल में शरीक हुए थे। सज्जाद ज़हीर की इस मुख़्तसर तक़रीर के बाद इन तीनों ने मख़दूम का मशहूर तराना ‘ये जंग है, जंग-ए-आज़ादी’ गाया। इसके बाद सरदार जाफ़री ने ‘सुर्ख़ सबेरा का शायर’ के उन्वान (शीर्षक) से अपना मज़मून (आलेख) पढ़ा। मज़मून काफ़ी तवील (लंबा) और बेहद दिलचस्प था। मख़दूम की शख़्सियत और शायरी पर इतना अच्छा तब्सिरा ग़ालिबन पहले कभी नहीं हुआ। बनारस जेल में सरदार जाफ़री और मख़दूम की पहली मुलाक़ात से लेकर आज तक के मख़दूम पर ये मज़मून बेहद पसंद किया गया। सद्रे जलसा इस मज़मून से काफ़ी मुतास्सिर हुए और उसके बाद ख़ात्मे पर उन्होंने कहा कि ‘‘इस मज़मून पर तो ग़ालिबन कुछ नहीं कहा जाएगा।’’

लेकिन ज़ोय अंसारी साहब ने अपने आईनी (नियम और क़ानून) लहजे में सद्र को तंबीह (आगाही) करते हुए फ़ौरन जवाब दिया, ‘‘ये फ़ैसला आपने कैसे किया?’’

सद्र साहब झेंप गए। और ज़ोय अंसारी साहब के वजूद पर ईमान लाते हुए बोले, ‘‘फ़रमाईए।’’

ज़ोए अंसारी ने मख़्सूस (विशिष्ट) लहजे में जवाब दिया, ‘‘जाफ़री साहब नस्र की ग़ालिबन ये पहली चीज़ है, जो मैंने आपसे सुनी है। और इसे सुनने के बाद मेरा ये यक़ीन मुतज़लज़ल (कंपायमान) हो गया है कि आप सिर्फ़ नज़्म ही अच्छी लिखते हैं, लेकिन एक बात कहूं कि इक़बाल और टैगोर के क़ौमी और मख़दूम के बैनल-अक़वामी (अंतर्राष्ट्रीय) तरानों के मुक़ाबले का टकराव, कुछ गै़र मौज़ूं सा मालूम होता है।’’

सरदार जाफ़री ने कहा था कि, ‘‘उन्होंने यही लिखा है कि इक़बाल का ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ और टैगोर का ‘जन गण मन अधिनायक’ दोनों जुग़राफ़ियाई (भौगोलिक) वहदत (गुण या भाव) लिए हुए हैं। लेकिन मख़दूम की नज़्म की सरहदें कहीं ख़त्म नहीं होतीं।’’

इसकी वज़ाहत (विस्तार) करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘चूंकि इक़बाल ने ये नज़्म 1905 में लिखी थी। जब हमारी तहरीक इतनी उठी हुई नहीं थी, जितनी कि अब है। जब मख़दूम ने ये नज़्म लिखी और टैगोर ने भी हिंदोस्तां के ही हुस्न, अज़्मत और बुजुर्गी को बयान किया है जो जुग़राफ़ियाई वहदत लिए हुए है। लेकिन मख़दूम कहते हैं,

सारा संसार हमारा है

पूरब पच्छिम उत्तर दक्कन

हम अफ़रंगी, हम अमरीकी

हम चीनी, जांबाज़ाने वतन

हम सुर्ख़ सिपाही, जुल्म शिकन

आहनपैकर फौलादबदन।

क्योंकि इस वक़्त मुल्कों की सरहदें ख़त्म हो चुकी हैं।’’

उन्होंने कहा, ‘‘मज़मून के इसी टुकड़े के साथ एक फ़िक़रे (एक वाक्य का एक हिस्सा) में इक़बाल और टैगोर की शख़्सियात को हिमालय और मख़दूम को दरिया से तुलना दी गई है।’’

सज्जाद जहीर, ‘‘आपने अपने मज़मून में टैगोर और इक़बाल की शख़्सियात से मख़दूम की शख़्सियत का मुक़ाबला किया है। या इन दोनों की नज़्मों से मख़दूम की नज़्म का।’’

सरदार जाफ़री, ‘‘सिर्फ़ इन तीनों नज़्मों का ज़िक्र किया है और इसकी वजह ये बताई जा चुकी है कि ये मज़मून लिखने का ख़याल मुझे एक ऐसी महफ़िल में सूझा था, जहां मुख़्तलिफ़ सूबों के आदमी जमा थे। और जहां ये तीनों नज़्में पढ़ी गई थीं। जहां तक शख़्सियात के मुक़ाबले का तअल्लुक़ है, वो तो हो ही नहीं सकता। और न ही इसका सवाल पैदा होता है।’’

ज़ोय अंसारी ने सरदार जाफ़री से एक और सवाल पूछते हुए कहा, ‘‘जहां आपने दरम्यानी तबके़ की क़द्रों (मूल्यों) को रौंद कर आगे बढ़ने का ज़िक्र किया है, वो कुछ समझ में नहीं आया ?’’

सरदार जाफ़री ने कहा कि, ‘‘एक दौर में दरम्यानी तबके़ की हर क़द्र को रौंदना ही तरक़्क़ीपसंदी समझा जाता था।’’ इस सिलसिले में उन्होंने कहा कि, ‘‘अक्सर औक़ात (समय का बहुवचन) किसी अमीर दोस्त के सोफे पर बैठकर बीड़ी पीने को तरक़्क़ीपसंदी समझा जाता रहा है। हालांकि ये दुरुस्त नहीं।’’

मधूसूदन ने सरदार जाफ़री से पूछा कि ‘‘इस मज़मून में आपने एक जगह लिखा है कि आज का शायर मज़दूरों में काम करके ही लिख सकता है। और ये कि ये बात मख़दूम अपने तजुर्बें की बिना (आधार) पर कहता है कि मज़दूरों में जाकर इंसान अपनी जड़ें धरती की गहराई में महसूस करता है। लेकिन एक दूसरी जगह आपने लिखा है कि मख़दूम ने कहा कि मज़दूरों में काम करने के बाद शायरी जारी नहीं रखी जा सकती।’’

सरदार जाफ़री, ‘‘इससे मुराद ये है कि मज़दूरों में बारह-चौदह घंटे काम करने के बाद इतनी फ़ुर्सत नहीं होती कि इंसान बाक़ायदा शे’र लिखता रहे। ये बात अगर फ़िक़रे से साफ़ तौर पर वाज़ेह (स्पष्ट) नहीं होती, तो उसे वाज़ेह तौर पर लिख दिया जाएगा।’’

इसके बाद मजरूह सुल्तानपुरी ने मख़दूम की मशहूर नज़्म ‘इंक़लाब’ सुनाई। जिसका मिसरा ये है :

'गुज़र भी जा के तेरा इंतज़ार कब से है।'

ज़ोय अंसारी ने ‘मख़दूम’ के उन्वान से एक नज़्म सुनाई। जो बेहद पसंद की गई।

मजरूह सुल्तानपुरी ने कहा कि ‘‘इस नज़्म में दर्द को मुअन्नस (स्त्रीलिंग) बांधा गया है। हालांकि 'दर्द' मुज़क्कर (पुंल्लिग) है।’’

ज़ोय अंसारी, ‘‘दर्द’ फ़ारसी का लफ़्ज़ है, और इसे स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में इस्तेमाल किया जा सकता है।’’

विश्वामित्र आदिल, ‘‘तो पिदर (बाप) और मुर्ग को आप क्या कहेंगे ?’’ ज़ोय अंसारी, ‘‘इसका फै़सला ये लफ़्ज़ इस्तेमाल करने के तसव्वुर के एहसास से हो सकता है।’’

बाक़ायदा प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद प्रीति ने प्रेम धवन का लिखा हुआ एक गाना सुनाया, जो तहज़ीबी दस्ते (सांस्कृतिक मोर्चे) ने फ़साद (सांप्रदायिक झगड़ा) की मुख़ालफ़त के लिए तैयार किया था। बीना राय ने एक बंगाली गीत सुनाया। इसके बाद प्रेम धवन ने दो गीत सुनाए। एक पंजाबी और एक हिंदुस्तानी और ये मजलिस (सभा) ख़त्म हुई।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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