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मीडिया की आज़ादी: किस्से और हक़ीक़त के बीच इमरजेंसी

हमें यह मानना चाहिए कि न्यूज़क्लिक के यहां ईडी का छापा पड़ना इस बात को प्रमाणित करता है कि वह सचमुच पत्रकारिता कर रहा है और इस सरकार को सबसे अधिक डर सच दिखाने से ही लगता है!
मीडिया की आज़ादी: किस्से और हक़ीक़त के बीच इमरजेंसी

पिछले हफ्ते मीडिया पोर्टल न्यूज़क्लिक व उसके निदेशक सहित संस्थान के कई लोगों के घर पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने छापा मारा। छापा लगातार लगभग 114 घंटों तक चलता रहालेकिन छापे के पहले दिन अखबारों के द्वारा देश की जनता को बताया गया कि न्यूज़क्लिक के पास विदेश से संदिग्ध पैसे का लेनदेन हुआ है। समाचार-पत्रों के द्वारा देश-दुनिया को यह भी बताया गया कि ईडी को कई तरह की गड़बड़ियों की जानकारी मिली है और न्यूज़क्लिक के कर्ताधर्ता प्रबीर पुरकायस्थ इन गड़बड़ियों के बारे में कोई संतोषजनक जवाब देने में असफल रहे हैं। अख़बार में यह ख़बर भी छापी गई कि न्यूज पोर्टल न्यूज़क्लिक को मिली लगभग 31 करोड़ की विदेशी राशि का कहीं न कहीं गड़बड़झाला है!

अनाम सूत्र से इस तरह की ख़बर जर्नलिज्म ऑफ करेज’ की टैगलाइन लगाकर वर्षों से पत्रकारिता का झंडा गाड़े इंडियन एक्सप्रेस ने कवर पेज पर छापी थी।

अख़बार के पहले पेज पर छपी रितु सरीन व कृष्ण कौशिक के उस ख़बर में यह भी बताया गया है कि अख़बार ने प्रबीर पुरकायस्थ व प्रांजल पांडेय से ईमेलमैसेज और फोन पर संपर्क भी करने की कई कोशिश की लेकिन उन दोनों ने इसका जवाब नहीं दिया। कृष्ण कौशिक तो सूचना व मीडिया की बीट कवर करने वाले पत्रकार हैं इसलिए उन्हें यह ख़बर लिखने की जरूरत पड़ी होगीलेकिन रितु सरीन तो इन देश की जानी-मानी खोजी ख़बर करने वाली पत्रकार हैं। क्या उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि जब भी ईडी या सीबीआई किसी के घर या दफ्तर पर छापे मारती है (अगर वह जेनुइन छापे भी हों) तब उस व्यक्ति का फोन व लैपटॉप सबसे पहले अपने कब्ज़े में ले लेती है जिससे कि वह इंसान किसी से कोई मदद न मांग पाए (वैसे कारवां को दिए गए अपने साक्षात्कार में प्रबीर ने बताया है कि ईडी के अधिकारियों ने उनके लैपटॉपटैबलेट और दोनों मोबाइल जब्त कर लिए हैं और आज के दिन उनके पास कोई फोन नहीं है)! आखिर इतनी धुरंधर पत्रकार जब ख़बर लीक करने वालों’ का नाम छुपा सकती हैं तो उसी ख़बर में एक पंक्ति में यह सूचना भी तो दे ही सकती थीं कि जिनके यहां छापे मारे जा रहे थे उन्हें फोन या कंप्यूटर तक जाने से रोक दिया जाता है।

जर्नलिज्म ऑफ करेज’ का दावा करने वाले अख़बार ने पिछले सात वर्षों से पत्रकारिता के नाम पर अनगिनत वैसे-वैसे खेल खेले हैं जिससे पत्रकारिता शर्मसार हो जाए। ऐसा ही खेल इंडियन एक्सप्रेस ने उस समय भी खेला था जब जस्टिस लोया की हत्या से जुड़े मामले का खुलासा कारवां मैगजीन ने किया था। उस ख़बर में मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े दूसरे सबसे ताकतवर आदमी की मिलीभगत होने की जानकारी थीलेकिन कारवां की ख़बर के बाद देश के दो महत्वपूर्ण ब्रांड इंडियन एक्सप्रेस व एनडीटीवी ने कारवां की उस ख़बर में उस-उस जगह का जोरदार स्पष्टीकरण वाला खंडन छापा थाजिसमें शक की सुई उस व्यक्ति के ऊपर जा रही थी। सत्ता प्रतिष्ठान ने जान-बूझ कर उन दोनों मीडिया घराने का उस समय इस्तेमाल किया था क्योंकि देश के एक खास तबके में इंडियन एक्सप्रेस की इमेज व्यवस्था विरोधी और एनडीटीवी की धर्मनिरपेक्षता वाली थी। न्यूज़क्लिक से जुड़ी ख़बर में इंडियन एक्सप्रेस ने फिर से अपनी उस विखंडित छवि का इस्तेमाल करके न्यूज़क्लिक की साख को नुकसान पहुंचाया है।

प्रबीर पुरकायस्थ का मामला कोई अलहदा मामला नहीं है। जिस रूप में वर्तनाम सत्ताधारी पार्टी ने पत्रकारिता को घुटने के बल पर लाकर खड़ा कर दिया है वह पिछले 74 साल के इतिहास का सबसे शर्मनाक उदाहरण है। हमारे देश में पत्रकारिता को जितना नुकसान इमरजेंसी के तथाकथित चैंपियन जनसंघ व आरएसएस ने पहुंचाया हैइतना नुकसान देश की सभी सरकारों ने मिलकर भी नहीं पहुंचाया है। इसका प्रमुख कारण यह है कि देश से निकलने वाले अधिकांश समाचारपत्र या टीवी चैनलों के मालिकों का पत्रकारिता एकमात्र धंधा नहीं है बल्कि अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश मीडिया व्यवसायियों के इसके इतर भी कई-कई धंधे हैं।

मोदी सरकार से पहले तक सरकार सभी खबरों को नियंत्रित नहीं करती थी बल्कि कुछ खबरों को रोकती थी। इसका परिणाम यह होता था कि कई वैसी खबरें बाहर भी आ जाती थीं जो जनता से जुड़ी हों। मोदीकाल में उन सभी खबरों को नियंत्रित किया जा रहा है जिससे कि सरकार की इमेज पर कोई दाग न लगे। आज के दिन सरकार हर उस ख़बर को दबाती है जो सरकार की किसी नीति या कार्यक्रम की आलोचना करती है। अब तो बार-बार वैसा भी होने लगा है कि गलती से अगर कहीं सरकार के बारे में ख़बर छप जाती है तो मुख्यधारा के तमाम अख़बार या टीवी चैनल सरकार की तरफ से उस ख़बर का या तो खंडन करने लगते हैं या फिर उस ख़बर के विपरीत सरकार के समर्थन में कैंपेन शुरू कर देते हैं। टीवी चैनलों व अखबारों की मजबूरी यह है कि उनके मालिकों के इसके अलावा इतने अधिक धंधे हैं और उसमें इतनी गड़बड़ियां हैं कि उसे छुपाने के लिए सरकार की हर बात को मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

पिछले 84 दिनों से दिल्ली के बॉर्डर पर हजारों किसान सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। ये किसान इतनी सर्दी में अपने दौ सौ से अधिक धरना दे रहे भाइयों की मौत के बाद भी डटे हुए हैं। यह ख़बर मुख्यधारा की मीडिया में कहीं नहीं आ रही है। इसके उलट सरकार की तरफदारी करते हुए सभी टीवी चैनलों व अख़बारों ने उन किसानों को आतंकवादी-खालिस्तानी से लेकर देशद्रोही तक कहा है।

पिछले दिनों सिंघु बॉर्डर पर जनपथ व कारवां के लिए रिपोर्टिंग कर रहे मनदीप पुनिया व दूसरे पत्रकार धर्मेन्द्र सिंह को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उन दोनों को पुलिस ने इसलिए उठाया क्योंकि वे किसानों की बातों को गंभीरतापूर्वक उठा रहे थे। अंदाजा लगाइए कि अगर मुख्यधारा के मीडिया घराने की तरफ से भी किसानों के बारे में सही सही रिपोर्टिंग हो रही होती तो अभी तक सरकार घुटने पर नहीं आ गयी होतीक्या कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर व वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल की वह हैसियत होती कि वे इस शर्त पर किसानों से 12 राउंड की बात करते कि हम बिल को वापस नहीं लेंगेअगर आपको इसके अलावा भी कुछ कहना है तो आप हमारे साथ बात करो!

जिस दिन भी किसानों के साथ बैठक हुईउस दिन के टीवी चैनलों या अगले दिन के अख़बार की हेडिंग देखने से पता चलता था कि जैसे किसान बिना किसी उद्देश्य के अपना घर-द्वार छोड़कर यहां बॉर्डर पर एय्याशी करने आ गये हैं!

सरकार ने आज न्यूज़क्लिक को निशाने पर लिया हैउसके प्रमोटर प्रबीर पुरकायस्थ का चरित्रहनन कर रही है। कल हो सकता है कि द कारवांस्क्रॉलन्यूजलॉड्रीवायरक्विंटसत्य हिन्दी जैसे कुछ और न्यूज़ पोर्टलों के यहां छापा डलवाए और उसके प्रमोटरों का भी चरित्र हनन करे। हमें यह मानना चाहिए कि न्यूज़क्लिक के यहां ईडी का छापा पड़ना इस बात को प्रमाणित करता है कि वह सचमुच पत्रकारिता कर रहा है और इस सरकार को सबसे अधिक डर सच दिखाने से ही लगता है!

(जितेंद्र कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं। उनका यह लेख  जनपथ में प्रकाशित हुआ है। लेखक की सहमति से यह लेख साभार प्रकाशित किया जा रहा है। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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