मुकेश मानस; असमय स्मृति शेष : क्यों तुम चले गए!
एक मासूम बच्चा किसी हवा भरे गुब्बारे से खेल रहा हो और अचानक किसी दबाव के कारण गुबारा फट जाए तो बच्चा एकदम स्तब्ध रह जाता है। मैं भी कुछ इसी तरह स्तब्ध रह गया जब व्हाट्सएप पर खबर पढ़ी कि मुकेश मानस अब हमारे बीच नहीं रहे! एकाएक बिल्कुल विश्वास नहीं हुआ। वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने व्हाट्सएप किया – ‘अरे नहीं...यह तो गहरा सदमा है—उफ्फ!’ मुकेश जी आपका यूं अचानक चले जाना आपके सभी चाहने वालों के लिए, दलित साहित्य और दलित प्रगतिशील आंदोलन के लिए, हमसब के लिए गहरा सदमा है। हमें इस तरह का दुखद सरप्राइज देते हुए जाना नहीं था आपको!
मुझे याद है मेरा उनसे परिचय उस समय से रहा जब वह दिल्ली के अंबेडकर नगर (दक्षिणपुरी) में रह कर संघर्षरत थे। उनके पिता का बचपन में निधन हो जाने के कारण परिवार की जीविका चलाने की जिम्मेदारी उन पर थी। वह अपनी एमफिल की पढाई कर रहे थे और “अंकुर” संस्था में कार्यरत थे। चिकित्सक और दलित लेखक डॉ. संतराम आर्य के माध्यम से उनसे परिचय हुआ था। उस समय वह दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों पर कुछ शोध कार्य कर रहे थे। बाद में उन्होंने पीएचडी की और दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में प्रोफ़ेसर हो गए।
जब वह “अंकुर” संस्था में काम कर रहे थे तब मैं भी दिल्ली में आजीविका की तलाश में आया था और कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर किसी तरह अपना गुजारा कर रहा था। हमारा संघर्ष और दुख एक जैसे थे। दुष्यंत कुमार मेरे भी प्रिय कवि और उनके भी। साहित्य से दोनों को लगाव। मैं, वह और डॉ. संतराम आर्य, हम लोग घंटो साहित्य पर चर्चा किया करते थे।
परोपकारी मानस
मैंने उनमें एक बात नोट की थी कि वह दूसरों की जरूरतें बिना कहे समझ जाते थे। उस संघर्षमय समय में भी वह जरूरतमंद लोगों की यथासंभव सहायता करते रहते थे। मैंने उनको कई लोगों की सहायता करते देखा। मई-जून के महीने में जब स्कूल गर्मी की छुट्टियों में डेढ़ महीने के लिए बंद हो जाते थे, और मेरे ट्यूशन छूट जाते थे, तब मैं भी आर्थिक तंगी के दौर से गुजरता। उस समय कई बार उन्होंने मेरी भी बिना मांगे आर्थिक सहायता की थी जब मेरे पास कमरे का किराया नहीं होता था या कभी खाने के लिए पैसे की जरूरत होती थी। कभी उनसे मिलने आने वालों से यह भी पूछ लेते कि जाने का किराया न हो तो निसंकोच बता दें। किसी को बिना मांगे भी जाने का किराया दे देते। किसी को कपड़े तो किसी को अन्य कोई जरूरत की वस्तु। कई जरूरतमंद उनसे तरह तरह की सहायता लेते रहते थे।
कवि मुकेश मानस
मुकेश जी के चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे – ‘पतंग और चरखड़ी’, ‘कागज़ एक पेड़ है’ ‘भीतर बुद्ध है’ और ‘धूप है खिली हुई’ । मुकेश जी की कविताएं छोटी पर मारक होती थीं। उनका पहला कविता संग्रह “पतंग और चरखड़ी” है। इस संग्रह की एक कविता है – मनुवादी।
उसने मेरा नाम नहीं पूछा
मेरा काम नहीं पूछा
पूछी एक बात
क्या है मेरी जात।
मैंने कहा - इंसान
उसके चेहरे पर उभर आई
एक कुटिल मुस्कान।
उसने तेजी से किया अट्टहास
उस अट्टहास में था
मेरे उपहास का
एक लम्बा इतिहास।।
इसी तरह उनकी एक और चर्चित कविता है – हत्यारे।
हत्यारे घूम रहे हैं
खुल्लम-खुल्ला, बड़ी शान से
अमूर्त हो रहे हैं अपराध
और हत्यारे बरी
दुनिया का कोई कानून
उन्हें हत्यारा नहीं मानता।।
हत्यारों को पहनाई जा रही हैं
रंग-बिरंगी पगड़ियां
उनकी मनुहार हो रही है
जय-जयकार गूंज रही है
समूचे ब्रह्मांड में।
मैं हैरान हूं
दुनिया भर में अनगिनत बच्चे
गूंगे क्यों हो रहे हैं?
कहानीकार मुकेश मानस
मुकेश जी के अब तक दो कहानी संग्रह प्रकाशित हुए थे। उनका पहला कहानी संग्रह है – उन्नीस सौ चौरासी। यह 2005 में प्रकाशित हुआ था। दूसरा संग्रह है – पंडिज्जी का मंदिर और अन्य कहानियां। यह संग्रह 2012 में प्रकाशित हुआ था। उनकी कुछ चर्चित कहानियों के नाम हैं – ‘उन्नीस सौ चौरासी’, ‘अभिशप्त प्रेम’, ‘समाजवादी जी उर्फ़ प्यारेलाल भारतीय’, ‘कल्पतृष्णा’, ‘बड़े होने पर’, ‘सूअरबाड़ा’, ’दुलारी’, ‘औरत’, ‘टूटा हुआ विश्वास’,’ शराबी का बेटा’ और ‘पंडिज्जी का मंदिर’ आदि। मुकेश मानस जी कि कहानियां यथार्थपरक हैं। कई बार किसी सत्यघटना से प्रेरित होती हैं।
आलोचक मुकेश मानस
मुकेश जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने आलोचना की पुस्तकें लिखीं। कविता की आलोचना करते हुए उन्होंने एक पुस्तक लिखी – हिंदी कविता की तीसरी धारा और कहानी व लेखों को माध्यम बना कर लिखी उनकी पुस्तक है – दलित साहित्य के बुनियादी सरोकार। इन पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने कविता और दलित साहित्य पर अपनी बेबाक राय रखी है। इसके अलावा उनकी पत्रकारिता पर भी अच्छी पकड़ थी। उन्होंने मीडिया के छात्रों के लिए भी एक पुस्तक लिखी थी – ‘मीडिया लेखन : सिद्धांत और प्रयोग’।
संपादक और अनुवादक मुकेश मानस
मुकेश जी ने “मगहर” नाम से एक पत्रिका का संपादन भी किया। इसके प्रकाशक और संपादक वे स्वयं थे। इस पत्रिका के कई विशेषांक निकले। इसमे “दलित बचपन” चर्चित रहा। उन्होंने रजनी तिलक जी पर भी एक विशेषांक निकाला था।
मुकेश जी एक अच्छे अनुवादक भी थे। उन्होंने कांचा इलैया की पुस्तक “व्हाई आई ऍम नोट अ हिन्दू’’ का अंग्रेजी से हिंदी में “मैं हिन्दू क्यों नहीं हूँ ‘’नाम से अनुवाद किया। इसके अलावा उन्होंने एम.एन. रॉय की पुस्तक “इंडिया इन ट्राजीशन” का अनुवाद एवं प्रकाशन किया।
उपरोक्त के अवाला उन्होंने कुछ अन्य पुस्तकें भी लिखीं जैसे –“अंबेडकर का सपना”, “दलित समस्या और भगत सिंह” और “सावित्रीबाई फुले : भारत की पहली महिला शिक्षिका” आदि।
मार्क्सवाद और अंबेडकरवाद के समर्थक
मुकेश मानस प्रगतिशील विचारधारा के संवाहक थे। वह मार्क्स और अंबेडकर दोनों विचारधारा के अनुयायी थे। मार्क्स और अंबेडकर विचारधारा के समन्वयक थे। समाजवाद के पक्षधर और पूंजीवाद के विरोधी थे। वह कास्ट, क्लास और जेंडर की लड़ाई के समर्थक थे। भगत सिंह को वे बहुत अधिक पसंद करते थे। कह सकते हैं कि उनके प्रशंसक थे। उन्होंने एक लेख भी लिखा था “भगत सिंह को क्यों याद करें” । मुकेश मानस एक अच्छे लेखक थे। उनके कुछ लेख काफी चर्चित हुए थे जैसे –“अछूत दलित जीवन का अंतर्पाठ”, “दलित समस्या और भगत सिंह”, “हिंदी दलित साहित्य आंदोलन: कुछ सवाल कुछ विचार”, “मीडिया की जाति” और “फासीवाद, सांप्रदायिकता और दलितजन’’’ आदि।
फ़िलहाल पत्रिका के मार्च 2003 में प्रकाशित “फासीवाद, सांप्रदायिकता और दलितजन” उनका बहुचर्चित लेख है इसका का एक उद्धरण देना उचित होगा। वे अपने इस लेख में लिखते हैं –“हिन्दू धर्म के फासीवादी और साम्प्रदायिक आचरण का सम्बन्ध दलितों के साथ दो तरफ़ा है – जाति के स्तर पर और धर्म के स्तर पर, हिन्दू धर्म के जातिगत श्रेणीबद्धता के कारण दलितों का हर स्तर पर शोषण हुआ है। इस जातिगत अवमानना और शोषण के चलते ही दलित दूसरे धर्मों में गए हैं। इसमें उनके मुक्ति की छटपटाहट और चाहत झलकती है। आज तथाकथित हिंदूवादी जब दूसरे धर्मों पर हमला करते हैं तो वह हमला परोक्ष रूप से दलितों पर ही होता है। हिन्दू धर्म के फासीवादी और अमानवीय ढांचे में दलितजन रह नहीं सकते। अगर वे इससे बाहर जाने का प्रयास करते हैं तो उन्हें सताया जाता है। हिंसात्मक तरीके अपनाकर उनका दमन किया जाता है। अभीतक तथाकथित हिंदूवादी परोक्ष रूप से ही दलितों पर हमला करते रहे हैं, अब वे सीधे-सीधे दलितों पर हमला करने की स्थिति में आ आ रहे हैं। आरक्षण विरोधी अभियान छोड़कर और धर्मान्तरण पर रोक लगाकर वे इसकी शुरुआत कर चुके हैं। इसलिए इस बारे में अब कोई खामख्याली नहीं है, तथाकथित हिन्दू धर्म और हिंदुत्व अपने समग्र रूप में दलितों का विरोधी है।”
मुकेश मानस का जन्म 15 अगस्त 1973 को बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। कोरोना से प्रभावित होने के कारण उनका लीवर ठीक से काम नहीं कर रहा था। उन्हें पीलिया भी हो गया था। दिल्ली के रोहिणी क्षेत्र के एक अस्पताल में इलाज के बावजूद ठीक न हो सके और 4 अक्टूबर 2021 को हम से विदा हो गए।
दलित साहित्य और समाज को उनसे बहुत अपेक्षाएं थीं जो उनके आकस्मिक निधन से समाप्त हो गईं। पर उन्होंने अब तक जो साहित्य और समाज को अवदान किया है वह भी कम नहीं है। मुकेश जी आप अपनी पुस्तकों में अपने लेखों में हमेशा जीवित रहेंगे। हमारे एक ऊर्जावान साथी का हमारे बीच से अचानक चले जाना बहुत ही दुखद है। अपूरणीय क्षति है। आपको अलविदा नहीं कहेंगे क्योंकि न केवल अपने लेखन में बल्कि हमारे जेहन में सदैव जिन्दा रहेंगे। अभी हम अपने कामरेड साथी को सजल नेत्रों से लाल सलाम कहेंगे और कहेंगे जय भीम।
(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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