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बहस: नाभिकीय जवाबदारी क़ानून बदलने में दिलचस्पी क्यों

हम ग़लत चीज के पीछे क्यों भाग रहे हैं? क्यों हम अमरीकी आपूर्तिकर्ताओं से स्मॉल मोड्यूलर न्यूक्लिअर रिएक्टर खरीदने का वादा कर रहे हैं, जबकि वे ख़ुद अपने देश में इन रिएक्टरों को बेच नहीं पा रहे हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर।

वित्त मंत्री के हाल के बजट भाषण में नाभिकीय ऊर्जा पर काफी ध्यान दिया गया। इसमें खासतौर स्माल मोड्यूलर रिएक्टर्स (एसएमआर) के उपयोग पर और भारतीय नाभिकीय जवाबदारी कानून, द सिविल लाइबिलिटी फॉर न्यूक्लिअर डैमेज एक्ट, 2010 में संशोधन करने की जरूरत पर जोर दिया गया।

हालांकि, अमरीकी नाभिकीय उद्योग लंबे अर्से से इसकी मांग करता आ रहा था, यह मांग अब तक पीछे पड़ी रही थी क्योंकि अमरीका में नाभिकीय उद्योग खुद ही काफी अर्से से संकट में फंसा हुआ था। वेस्टिंगहाउस, 2018 में ही चैप्टर 11 के दीवालिया संरक्षण से उबर पायी थी और 2023 में ही अमरीका में जार्जिया में वोग्टल नाभिकीय संयंत्र को चालू कर पायी थी। इसमें उन्हें करीब 15 साल लग गए थे। 

जार्जिया पॉवर को वेस्टिंगहाउस एपी 1000 की दो यूनिट, करीब 37 अरब डालर की पड़ी थीं, जो कि शुरूआती अनुमान से दोगुनी ज्यादा कीमत होती है। दक्षिणी कैरोलिना में इसी तरह के एक संयंत्र को बीच में ही छोड़ दिया गया था, जबकि संबंधित बिजली उपयोगिता कंपनी इस पर निर्माण लागतों के रूप में 9 अरब डालर से ज्यादा का खर्चा कर चुकी थी। 

हालांकि, नाभिकीय क्षेत्र के कुछ पुराने खिलाड़ी, जिनमें वेस्टिंगहाउस तथा जनरल इलैक्ट्रिक (जिसका नाम बदल कर जीई वेर्नोवा कर दिया गया है), का नाभिकीय कारोबार खुद को एसएमआर आपूर्तिकर्ताओं के रूप में रीब्रांड कर रहे हैं, हालांकि अमरीका में अब तक ऐसा कोई संंयंत्र बना नहीं है। यहां तक कि नीति आयोग की एसएमआर रिपोर्ट (रोल ऑफ स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टर्स इन इनर्जी ट्रांजीशन) यह कहती है कि इकलौते काम कर रहे एसएमआर रूस और चीन में ही हैं। बहरहाल, ये दोनों ही आकार में बहुत छोटे हैं और अपने चरित्र में प्रयोगात्मक हैं।

एसएमआर में अमरीका में हाल में जागी दिलचस्पी इस विश्वास पर टिकी हुई है कि कृत्रिम मेधा या एआई क्रांति के लिए विराट, ऊर्जा डकारने वाले डॉटा सेंटरों की जरूरत होगी। हालांकि, एसएमआर की पूंजी लागत ज्यादा होती है, लेकिन एक स्थिर लोड पर चलते हुए, उनकी इकाई लागत और कार्बन फुटप्रिंट कम पड़ेंगे। लेकिन, डीपसीक ने एआई का एक वैकल्पिक मॉडल मुहैया कराया है, जिसकी पूंजी लागत कहीं कम हैं। इसलिए, अमरीका की विशाल कंपनियों--ओपन एआई, माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, अमेजन--द्वारा पेश किया जा रहा एआई का बड़े डॉटा सेंटर पर आधारित मॉडल, हो सकता है कि भविष्य के लिए बेहतरीन तरीका नहीं हो।

आख़िर क्यों?

इसलिए, भारत में एसएमआर में और हमारे नाभिकीय जवाबदारी कानून में संशोधन करने में अचानक यह दिलचस्पी क्यों? हमारे पास पहले ही बीएआरसी में तथा नाभिकीय ऊर्जा निगम में नाभिकीय संयंत्र डिजाइन करने तथा निर्मित करने की घरेलू क्षमता मौजूद है और भेल, एलएंडटी, बीएचवीपी आदि के रूप में इंजीनियरिंग उद्योग मौजूद है, जो उपकरणों की आपूर्ति कर सकता है। तब अचानक वेस्टिंगहाउस तथा जीई को आमंत्रित करने में और ऊंची लागतों तथा किसी भी नाभिकीय संयंत्र के जोखिमों, दोनों को उठाने में दिलचस्पी का यह पुनरोदय क्यों? 

यह सब भी तब जबकि खुद अमरीका में इसके लिए कोई भूख नहीं है, कम से कम उपयोगिता क्षेत्र में तो इसके लिए कोई भूख नहीं है। उपयोगिता क्षेत्र तो ‘‘ड्रिल बेबी ड्रिल’’ के ट्रम्प के नारे के साथ, फिर से गैस तथा तेल के उपयोग को बढ़ावा देने की ओर बढ़ रहा है!

यह हमें वृहत्तर भू-रणनीतिक मुद्दों पर और इस पर ले आता है कि ट्रम्प प्रशासन क्या करना चाहता है? साफ है कि अमरीका ने तय कर लिया है कि दुनिया की अग्रणी सैन्य तथा वित्तीय ताकत होने के नाते, वह शेष दुनिया से ‘‘खिराज’’ वसूल करने जा रहा है। इसका अर्थ यह है कि जी-7 के अंतर्गत तथाकथित नियम-आधारित व्यवस्था और विश्व व्यापार संगठन के अंतर्गत व्यापार व्यवस्था का अंत ही हो गया है। रूस और चीन, अमरीका के सैन्य प्रतिस्पर्धी हैं और आर्थिक रूप से चीन उसका प्रतिस्पर्धी है, जिससे अमरीका समझौते की बातचीत करने जा रहा है। लेकिन, बाकी सब से उसकी मांग खिराज वसूली की है। 

बेशक, भारत इतना बड़ा है कि उसके साथ मैक्सिको या कनाडा जैसा सलूक नहीं किया जा सकता है, फिर भी अमरीका उससे रियायतें हासिल करने की अपेक्षा करता है। नये ब्रांड के साथ महंगे अमरीकी एसएमआर तथा अमरीकी सैन्य विमान, हथियार तथा दृवीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) खरीदने की रजामंदी, एक भिन्न रूप में खिराज की मांग का ही मामला लगता है।

एसएमआर क्या करेंगे?

यहां हम नाभिकीय संयंत्रों के और खासतौर पर अमरीकी एसएमआर के आयात पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे। नाभिकीय ऊर्जा के मामले में अमरीका का रिकार्ड, शुरूआती अनुमानों के मुकाबले लागत तथा लगने वाले समय में भारी बढ़ोतरियों का रिकार्ड रहा है। हम इसकी भी पड़ताल करेेंगे कि क्या अमरीकी एसएमआर प्रौद्योगिकी के स्तर पर, वेस्टिंगहाउस तथा जीई द्वारा पहले बनाए जा रहे उन नाभिकीय संयंत्रों का, जिनके लिए अब कोई खरीददार ही नहीं है, लघुकृत रूप भर हैं। या उनमें कोई नयी प्रौद्योगिकियां हैं? इस संदर्भ में हम इसकी भी पड़ताल करेंगे कि भारत ने अपनी नाभिकीय ऊर्जा क्षमताओं के रूप में क्या हासिल कर लिया था और अब वह अमरीका को खुश करने के लिए इन क्षमताओं की बलि चढ़ाने के लिए क्यों तैयार नजर आ रहा है।

भारत समेत ज्यादातर अन्य देशों के विपरीत अमरीका में नाभिकीय संयंत्रों के मालिकान और आपूर्तिकर्ता, दोनों ही बहुत बड़े निजी खिलाड़ी हैं। जहां जनरल इलैक्ट्रिक तथा वेस्टिंगहाउस द्वारा संयंत्रों तथा उपकरणों की आपर्ति की जाती है, बिजली उपयोगिताओं की भूमिका निजी ऊर्जा कंपनियां संभालती हैं, जिनमें तीनों गतिविधियों का योग होता है—बिजली उत्पादन, पारेषण तथा वितरण। प्रसंगवश कह दें कि कैलीफोर्निया में एनरॉन की महाविफलता के बाद से अमरीका में, इन एकीकृत विद्युत उपयोगिताओं के विनियमन या विभाजित किए जाने की रफ्तार उल्लेखनीय रूप से धीमी पड़ गयी है।

आइए, हम अमरीकी एसएमआरों के आयात पर लौटें, जिसके लिए भारत अब सिविल लाइबिलिटी फॉर न्यूक्लिअर डैमेज एक्ट (सीएलएनडीए) में संशोधन करने के लिए तैयार हो गया है। यह अमरीका की लंबे समय से मांग रही है, ताकि अमरीकी आपूर्तिकर्ताओं पर कोई जवाबदारी नहीं आए। कोई भी दुर्घटना होने की सूरत में इसके लिए नाभिकीय संयंत्र की स्वामी संस्था यानी नाभिकीय विद्युत निगम की ही पूरी तरह से जिम्मेदार होगी, भले ही दुर्घटना अमरीकी कंपनियों द्वारा त्रुटिपूर्ण उपकरणों की आपूर्ति किए जाने के चलते ही क्यों न हुई हो। अमरीका के विपरीत और किसी भी अंतर्राष्ट्रीय आपूर्तिकर्ता ने, चाहे वह रूसी हो या फ्रांसीसी, नाभिकीय जवाबदारी की व्यवस्था में संशोधन को, नाभिकीय संयंत्रों तथा उपकरणों की आपूर्ति करने के लिए पूर्व-शर्त नहीं बनाया है।

एसएमआर से लागत में कमी के दावे

अमरीका में एसएमआर के मामले में रिएक्टरों के डिजाइन में कोई विकास या नयापन नजर नहीं आता है, सिर्फ रिएक्टरों का आकार ही छोटा कर दिया गया है। इससे पहले भी जब वेस्टिंगहाउस के वोग्टल तथा साउथ कैरोलिना वीसी समर संयंत्रों को बेचा जा रहा था, उनके 1100 मेगावाट के आकार के बावजूद, मोड्युलर डिजाइन के रिएक्टरों के तौर पर पेश किया गया था। इसका आशय यह था कि रिएक्टर का पात्र वाशिंगटन स्थित विनिर्माण संयंत्र में मोड्यूल की तरह निर्मित होना था और संयंत्र लगाए जाने के स्थल पर उसे ले जाकर खड़ा किया जाना था तथा जोड़कर लगाया जाना था। एसएमआर के मामले में भी ऐसा ही किया जाता है, बस उनका पैमाना छोटा होता है, जो उम्मीद की जाती है कि तेजी से संयंत्र के खड़े किए जाने की इजाजत देता होगा। बहरहाल, संयंत्र का आकार घटाए जाने से प्रति यूनिट उत्पादन लागत घटने की बात, इंजीनियरिंग की बुनियादी आर्थिकी के खिलाफ जाती है, जिसे इकॉनामी ऑफ स्केल या पैमाने से बचत कहते हैं। उल्टे किसी भी संयंत्र का आकार बढ़ाए जाने से ही प्रति मेगावाट पूंजी लागत कम होती है। इसीलिए तो नाभिकीय संयंत्र आपूर्तिकर्ताओं ने अपने संयंत्रों के आकार पहले बढ़ाए थे और उन्हें 1100 से 1600 मेगावाट तक पहुंचा दिया था। यह दिलचस्प है कि अब इससे उल्टा हो रहा है यानी संयंत्र के आकार के घटाए जाने को अब लागत घटने का कारण बताया जा रहा है और यह नहीं बताया जा रहा है कि संयंत्र के आकार में इस तरह की कमी से कैसे प्रति मेगावाट स्थापित क्षमता या प्रति यूनिट उत्पादित बिजली की लागत घट सकती है।

इंस्टीट्यूट फॉर इनर्जी एकॉनामिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आइईईएफए) के हाल के एक अध्ययन में एसएमआर के कम लागत के संयंत्र होने के दावों का विश्लेषण किया गया है। मैं उसे उद्धत कर रहा हूं, ‘स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टर (एसएमआर) के पैरोकारों का वाग्जाल शोरभरा और लगातार है : कि इस बार का मामला भिन्न होगा क्योंकि बड़े रिएक्टरों के निर्माण की परियोजनाएं जिन लागत में बढ़ोतरियों तथा समय सीमा आगे खिसकाए जाने की शिकार रही हैं, उन्हें इन संयंत्रों की नयी डिजाइन के चलते नहीं दोहराया जाएगा। लेकिन, जो चंद एसएमआर बने हैं (या शुरू किए गए हैं) एक और ही तस्वीर पेश करते हैं– ऐसी तस्वीर जो हैरान करने वाले तरीके से अतीत के जैसी लगती है। निर्माण में उल्लेखनीय देरियां अब भी नियम बनी हुई हैं और लागतें ऊपर चढ़ती रही हैं।’

यह दिलचस्प है कि उक्त अध्ययन में, उन एसएमआर संयंत्रों की लागत का ब्यौरा दिया गया है, जिन्हें नीति आयोग ने सफल एसएमआर के उदाहरणों के रूप में पेश किया है। ये हैं एक रूस का संयंत्र, एक चीन का संयंत्र और तीसरा, अर्जेंटीना में निर्माणाधीन संयंत्र। रूस के तैरते हुए एसएमआर के मामले में और चीनी शिदाओ बे संयंत्र के मामले में भी, लागत बढक़र आरंभिक अनुमान से 3 से 4 गुनी तक हो चुकी है, जबकि अर्जेंटीना के करेम5 के मामले में, जो अभी चालू नहीं हुआ है, लागत पहले ही मूल अनुमान से 7 गुनी हो चुकी है! एक और एसएमआर परियोजना के मामले में, नूस्केल पॉवर तथा उटाह ऐसोसिएटेड म्यूनिसिपल पॉवर सिस्टम्स के बीच नवंबर 2023 में कांट्रैक्ट रद्द करने पर सहमति हो गयी थी। कांट्रेक्ट रद्द करने के लिए ऊंची लागतों और चालू होने को लेकर अनिश्चितताओं को कारण बताया गया था। 

अगर प्रौद्योगिकी वही है तो यह समझ पाना मुश्किल है कि कैसे बिजली की प्रति इकाई लागत, संयंत्र का आकार छोटा करने मात्र से घट सकती है। दूसरे शब्दों में, जैसाकि आइईईएफए रिपोर्ट का शीर्षक कहता है, ‘एसएमआर: अब भी बहुत महंगे, बहुत धीमे और बहुत जोखिम भरे।’

नवीकरणीय ऊर्जा ही है विकल्प

सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के मामले में, जोकि ऊर्जा के दो ऐसे स्रोत हैं जिनका दुनिया भर में सबसे तेजी से विस्तार हो रहा है, स्थापित क्षमता की प्रति मेगावाट लागत और उत्पादित बिजली की प्रति यूनिट लागत, दोनों में उल्लेखनीय कमी हुई है। सीधे-सरल शब्दों कहें तो हम इस समय नवीकरणीय ऊर्जा में एक क्रांति देख रहे हैं, जिसके चलते इस बिजली की पूंजी लागत और प्रति यूनिट बिजली उत्पादन लागत, दोनों घटकर, ग्रिड से जुड़े ऊर्जा के दूसरे हरेक स्रोत से नीचे चली गयी हैं, चाहे हम जीवाष्म ईंधन की बात करें या नाभिकीय ऊर्जा की ही बात क्यों न करें। प्रति मेगावाट पूंजी लागत के लिहाज से नाभिकीय ऊर्जा आज सबसे महंगी ऊर्जा है। नाभिकीय ऊर्जा के पक्ष में कोई भी आर्थिक दलील खासतौर पर बेतुकी लगती है क्योंकि नवीकरणीय ऊर्जा के मामले में हमारे यहां न सिर्फ पैमाने की बचत हासिल की जा चुकी है बल्कि इस मामले में हम जैसे-जैसे निवेश करेंगे, वैसे-वैसे और सुधार ही होने जा रहा है। अब यह सिर्फ पर्यावरण की रक्षा का तकाजा ही नहीं है बल्कि सबसे सस्ता विकल्प भी है। बेशक, फिर भी भंडारण की जरूरत होगी और ग्रिड के लिए पम्प्ड हाइड्रो यानी पानी उलीचने के जरिए उसमें ऊर्जा का भंडारण, इसका बेहतरीन विकल्प लगता है। नवीकरणीय ऊर्जा सिर्फ जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ताओं की दिलचस्पी की चीज नहीं रह गयी है बल्कि उसकी तगड़ी कारोबारी तुक भी बनती है।

तब हम गलत चीज के पीछे क्यों भाग रहे हैं? क्यों हम अमरीकी आपूर्तिकर्ताओं से स्मॉल मोड्यूलर न्यूक्लिअर रिएक्टर खरीदने का वादा कर रहे हैं, जबकि वे खुद अपने देश में इन रिएक्टरों को बेच नहीं पा रहे हैं। भारत की भू-राजनीति के लिए अमरीका को रियायतें देने की जरूरत तो हो सकती है लेकिन, यह तो जरूरी नहीं होगा कि इसके लिए देश के बिजली क्षेत्र में एक और महा-विफलता को न्यौता जाए, जो एनरॉन महा-विफलता से भी बड़ी होगी। 

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