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बचाने के नाम पर विरासत का विध्वंस ?

नूंह, मेवात के इलाके में अल्पसंख्यकों के मकानों का ध्वस्त किया जाना या  गांधीवादी संस्थानों पर कब्ज़े की कोशिशें आदि को एक विशाल हिमखंड के ऊपरी सिरे के तौर पर देखा जा सकता है।
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शुक्रवार 4 अगस्त, 2023 को नूंह जिले में जिला प्रशासन के आदेश के बाद बुलडोजर से कथित अवैध निर्माण को ध्वस्त किया गया (फोटो : PTI)

‘‘दरअसल शहर को तबाह करना जरूरी हो गया था ताकि उसे बचाया जा सके’’।(It became necessary to destroy the town to save it.”)

यही लफ़्ज़ थे अमेरिकी सेना के एक मेजर के जब इस सेना ने वियतनाम युद्ध के दौरान बेन ट्रे  नामक शहर और आसपास के गांवों पर वियटकॉन्ग के लड़ाकों के नियंत्रण को खत्म करने के लिए जबरदस्त बमबारी की थी जिसमें शहर का लगभग 85 फीसदी हिस्सा तबाह हो गया था और एक हजार से अधिक नागरिक मारे गए थे।

इतिहास इस बात का गवाह है कि अंततः इस असमान युद्ध में दुनिया के चौधरी अमेरिका को वियतकॉन्ग  के लड़ाको के हाथों शिकस्त मिली थी और उसे वहां से भागना पड़ा था /1975/

गौरतलब है कि वियतनाम के इतिहास का यह प्रसंग अलग अलग संदर्भों में अलग अलग परिस्थितियों में आज भी प्रासंगिकता हासिल करता दिखता है।

वाराणसी का सर्व सेवा संघ परिसर, जो राजघाट के पास स्थित रहा है - जिसे चंद रोज पहले बुलडोजरों द्वारा ध्वस्त किया गया था - उसका फैला मलबा शायद इसी बात की ताईद करता दिखता है।

1.
तय बात है कि आज की तारीख में इस बात पर सहसा यकीन करना मुश्किल हो सकता है कि ‘सर्व सेवा संघ’ अर्थात एक ऐसी संस्था - जिसका निर्माण विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण जैसों ने गांधीवादी विचारों के प्रचार प्रसार के लिए किया था, जिसकी नींव गांधी हत्या के तत्काल बाद मार्च 1948 में वर्धा में हुए सम्मेलन में पड़ी थी, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, कुछ समय बाद ही गणतंत्र के पहले राष्टपति पद पर आसीन राजेंद्र प्रसाद आदि ने भी शिरकत की थी - उसका वाराणसी स्थित परिसर जहां से गांधी विचारों के प्रचार प्रसार की मुहिम तेज हुई उसे इतने आनन फानन में तबाह किया जाएगा।

न इस बात पर गौर किया गया कि यह ऐसा परिसर है, जहां न केवल गांधी साहित्य का प्रकाशन होता आया है, और कार्यकर्ता एकत्रित होते रहे हैं बल्कि यहां पर खुद विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण समय समय पर रहते रहे हैं, नारायण भाई देसाई जैसे अन्य प्रमुख गांधीवादी भी यहां आवास करते रहे हैं। बहरहाल इस बात पर काफी कुछ लिखा जा चुका है कि किस तरह पहले इस परिसर को खाली कराया गया और चंद दिनों बाद ही बुलडोजर भेज कर मलबे में तब्दील किया गया।

 निश्चित तौर पर तेजी से बदलते इस घटनाक्रम ने अमन और इन्साफ़ के हक़ में खड़े तमाम लोगों की उम्मीदों को बड़ा झटका लगा है।

यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि कहीं यह घटनाक्रम एक तरह से पूरे मुल्क में ‘गांधीवादी संस्थानों’ पर कब्जा जमाने की किसी रणनीति का हिस्सा तो नहीं है, जिसका आगाज़ एक तरह से गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देने से हुआ था और इसकी एक झलक महात्मा गांधी द्वारा स्थापित अहमदाबाद के गुजरात विद्यापीठ में भी पिछले दिनों दिखाई दी, जहां लम्बे समय से चली आ रही सर्व धर्म प्रार्थना को रोका गया जिस सिलसिले को खुद गांधी ने ही शुरू किया था।

सूचना के मुताबिक स्कूल की छात्राओं ने जब इस प्रार्थना को गाना शुरू किया तो किसी अध्यापक ने उन्हें गाने से रोक दिया और इसे गाने के लिए उन्हें बहुत भला-बुरा कहा। मेहुल देवकला ने द टेलिग्राफ की अपनी इस नोट में लिखा है कि ‘सत्ताधारी समूह द्वारा गुजरात विद्यापीठ के पिछले साल किए गए अधिग्रहण के नतीजे सामने आ रहे हैं। 

फिलवक़्त जब सर्व सेवा संघ का वाराणसी परिसर महज स्मृतियों का हिस्सा है, एक काल्पनिक संवाद के बारे में सोचा जा सकता है, जिसमें गोया कोई खोजी पत्रकार संघ के भवनों को बुलडोजरों  के जरिए ध्वस्त करने के लिए जिम्मेदार अधिकारी से बात कर रहा है और उनकी तरफ से यह कहा जा रहा है कि दरअसल यह समूची कार्रवाई ‘गांधी की विरासत को बचाने के लिए की गयी है।’

विडंबना ही कही जाएगी कि 21वीं सदी की इस तीसरी दहाई में ऐसा बुलडोजर ‘न्यू इंडिया’ का नया प्रतीक बन कर उभरा है।

नूंह, मेवात में ध्वस्त मकान, दुकान और प्रतिष्ठान यही बताते दिख रहे हैं।

2.
मालूम हो कि सर्व सेवा संघ में चले बुलडोजर की कार्रवाई के चंद रोज पहले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के पास के नूंह इलाके में बुलडोजरों के धुआंधार चलने की एक और ख़बर आयी थी, जिसमें क्या मकान, क्या दुकान और क्या अन्य प्रतिष्ठान एक एक करके तबाह किए गए थे। एक वेब पत्रिका के मुताबिक कम से कम पचास किलोमीटर के दायरे में बुलडोजर चले थे। 

ध्यान देने लायक बात है कि इसमें निशाना धार्मिक अल्पसंख्यकों अर्थात मुसलमानों पर था और इतनी बड़ी कार्रवाई - जिसे एक तरह से समुदाय विशेष के खिलाफ सामूहिक सज़ा के तौर पर देखा गया था - उसके लिए न पहले कोई नोटिस दी गयी, न किसी किस्म के लिखित आदेश जारी हुए। कहने का तात्पर्य कि इतनी बड़ी कार्रवाई बिना किसी कानूनी आधार पर की गयी।

 गनीमत थी कि पंजाब हरियाणा उच्च अदालत ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और हरियाणा सरकार से साफ साफ पूछा कि बिना किसी प्रक्रिया के चलायी गयी यह प्रक्रिया किसी ‘नस्लीय सफाये’ ethnic cleansing  की योजना का हिस्सा तो नहीं है। 

ध्यान रहे कि आज़ाद हिन्दोस्तां के इतिहास में यह पहली दफा है कि किसी राज्य सरकार की एकतरफ कार्रवाई को लेकर अदालत ने ऐसे शब्द कहे हैं। एक स्थूल अनुमान के हिसाब से इस समूची कार्रवाई मे सैकड़ों मकान और प्रतिष्ठान जमींदोज किए गए। इस बात पर भी गौर नहीं किया गया कि इनमें से कुछ मकान तो सरकारी सहायता से ही बने थे।

 वैसे इस मामले में मानवाधिकार संगठनों द्वारा विस्तार से बताया जा चुका है कि किस तरह नूंह के इस मुस्लिम बहुल इलाके में - जो मेवात में पड़ता है - जहां विगत 75 साल से कभी दंगे नहीं हुए थे, वहा एक रैडिकल हिन्दुत्ववादी संगठन को धार्मिक जुलूस निकालने की अनुमति दी गयी और इस बात पर भी पाबंदी नहीं लगायी गयी कि वह हथियार न ले जाएं और भडकाऊ नारे न लगाएं और बाद में जब वहां इस भड़काऊ कार्रवाई की प्रतिक्रिया हुई तो पुलिस मूकदर्शक बनी रही।

वहां की इस प्रायोजित हिंसा को लेकर राव इंद्रजीत सिंह - जो मोदी मंत्रिमंडल के सदस्य हैं और खुद गुड़गांव से सांसद हैं - उनका बयान गौरतलब है, जिसमें उन्होंने धार्मिक जुलूस में हथियार लेकर जाने को लेकर जबरदस्त आपत्ति दर्ज की। उन्होंने पूछा कि इन्हें हथियार लेकर चलने की अनुमति किसने दी ? इतना ही नहीं हरियाणा के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चैटाला ने भी स्थानीय प्रशासन को लताडा कि उसने स्थिति को नियंत्रण से बाहर जाने दिया।

इस बात को मानने के पर्याप्त आधार हैं कि पुलिस का तथा स्थानीय प्रशासन का आचरण निश्चित तौर पर पक्षपाती किस्म का था, जिसने न केवल अतिवादी हिन्दुत्व संगठनों की नकेल नहीं कसी तथा मोनू मनेसर नामक शख्स के खिलाफ - जिस पर आरोप है कि उसने राजस्थान के नासिर और जुनैद की हत्या की - कोई कार्रवाई करने की जरूरत नहीं समझी, जिसने वीडियो जारी करके चेतावनी दी थी कि वह इस ‘धार्मिक जुलूस’ में शामिल होगा। और जब आपसी तनाव कम हुआ तब चुन चुन कर अल्पसंख्यकों के मकानों को एवं दुकानों को ध्वस्त किया।

आज नूंह में पचास किलोमीटर के दायरे में फैले उस मलबे पर खड़े होकर यह सोचना क्या कुफ्र में शुमार माना जाएगा कि प्रशासन में बैठे उन अधिकारियों पर क्या कोई कार्रवाई होगी, जिन्होंने बकौल पंजाब हरियाणा हाईकोट इस ‘नस्लीय सफाये’ को होने दिया, गैरकानूनी कार्रवाई के जरिए समुदाय विशेष के मकान गिराने को सुगम बनाया और क्या यह सोचना गलत होगा कि क्या यह बहुसंख्यकवादी संगठन जिन्होंने हथियार लेकर रैली निकाली वह अपनी किए कराए की सज़ा भुगतेंगे ?

3.
निस्सन्देह जब आज़ादी की 76 वीं सालगिरह हम चंद रोज पहले ही मना चुके हैं और आज़ादी के महान संघर्ष के नायकों द्वारा हमें सौंपे गए सामाजिक मुक्ति और समानता के कार्यभार को पूरा करने के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहरा चुके हैं तब यह सोचना जरूरी है कि हमारे रास्ते में खड़ी चुनौतियां किस किस्म की हैं।

नूंह, मेवात के इलाके में अल्पसंख्यकों के मकानों का ध्वस्त किया जाना या  गांधीवादी संस्थानों पर कब्जे की कोशिशें आदि को एक विशाल हिमखंड के ऊपरी सिरे के तौर पर देखा जा सकता है। चंद महीने पहले ही हम इस बात को महसूस कर चुके हैं कि मौजूदा सियासी माहौल में हर वह शख्स, हर वह तंज़ीम, संगठन पर खतरा मंडरा रहा है जो आज भी संवैधानिक मूल्यों पर और सिद्धांतों पर यकीन रखते हैं। मिसाल के तौर पर अप्रैल माह में ही ख़बर आयी थी कि डॉ. अम्बेडकर की जन्मभूमि महू, मध्य प्रदेश जहां उनकी याद में एक विशाल स्मारक का निर्माण हुआ है, वहां की एक परंपरा को अचानक बदला जा रहा है।

मालूम हो कि हर साल 14 अप्रैल को वहां समता सैनिक दल -जिसका निर्माण खुद डॉ. अम्बेडकर ने किया था - उसके कार्यकर्ता पथ संचलन करते थे अर्थात अपने ड्रेस में मार्च निकालते थे और डॉ अम्बेडकर के विचारों के प्रति अपनी संलग्नता को रेखांकित करते थे। इस साल इस योजना में ऊपरी आदेश से अचानक परिवर्तन किया गया। इसके बजाय कि समता सैनिक दल के कार्यकर्ता पथ संचलन करें, इस मार्च का जिम्मा भारतीय फौज की एक विंग महार रेजिमेंट को दिया गया।

निश्चित तौर पर समता सैनिक दल का कार्यक्रम और भारतीय सेना का कार्यक्रम इसमें गुणात्मक अंतर है, इस बात को आसानी से समझा जा सकता है। इस पूरी कवायद को न केवल डॉ. अम्बेडकर की विरासत को धुंधला करने के प्रयास के तौर पर देखा गया बल्कि साथ ही साथ उसके सैन्यीकरण के तौर पर भी देखा गया। 

विडम्बना यही थी कि डॉ. अम्बेडकर के अनुयायियों के बीच आपसी एकता की कमी के चलते सरकार अपने इरादों में सफल रही, कोई खास प्रतिरोध मुमकिन नहीं हो सका ।

4.
चाहे गांधीवादी संस्थानों पर कब्जे के प्रयास हों या अम्बेडकर की विरासत को धुंधला करने की कवायदें या संविधान के तहत समान अधिकार पाए धार्मिक अल्पसंख्यकों को कहीं नूंह, मेवात में तो कही मणिपुर में निशाना बनाने की बात हो, यह सभी बातें यही संकेत देती दिखती हैं कि भारत के सेक्युलर जनतांत्रिक गणतंत्र के सामने एक साझा चुनौती उपस्थित हुई है, सभी समुदायों को लेकर आगे बढ़ने के प्रयासों के बजाय, साझी विरासत का सम्मान करने के बजाय इस गणतंत्र को हिन्दू राष्ट्र  में तब्दील करने की कोशिशें आगे बढ़ रही है और जाहिरा तौर पर वे सभी जो आज भी संविधान पर यकीन रखते हैं - फिर चाहे गांधीवादी हों, अम्बेडकरवादी हों, समाजवादी हों या कम्युनिस्ट हों या उदारवादी/लिबरल या नारीवादी हों, सभी को एक मंच पर आकर इसका मुकाबला करना होगा। वे तमाम धार्मिक लोग भी इसमें जुड़ने चाहिए जो आस्था के नाम पर किसी किस्म की हिंसा का विरोध करते हैं और सर्व धर्म समभाव की हिमायत करते हैं।

तय बात है कि भारत के गणतंत्र के धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक, बहुलतावादी स्वरूप को बचाए रखने के इस महासमर में राजनीतिक पार्टियों को - फिर चाहे नयी उर्जा से लैस कांग्रेस हों या समूचा विपक्षी गठबंधन हो, जिसने आपस में हाथ मिलाया है- आगे रहना होगा।

 मुमकिन है जिस तरह विभिन्न जनतांत्रिक संस्थाओं को एक तरह से निष्प्रभावी किया जा चुका है या उनका एक किस्म का हथियारीकरण किया जा रहा है, न्यायपालिका को भी अंदर से कमजोर करने की कोशिशें चल रही है, और असहमति की आवाज़ रखने वाले हर शख्स पर शिकंजा कसने की कोशिश हो रहीं हैं, उस पृष्ठभूमि में यह लड़ाई बेहद असमान लग सकती है, प्रतिकूल परिस्थिति में लड़ी देखी जा सकती है।

 लेकिन हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि हमारे पुरखों ने अपने दौर में असमावेश, शोषण और अंधेरे की ताकतों के खिलाफ अधिक चुनौतीपूर्ण  माहौल में काम किया है और हमें यह साबित करना है कि हम उनकी इस संग्रामी  परिवर्तनकामी विरासत के सही वारिस हैं।

शायद इन कठिन परिस्थिति में हम वियतनामी जनता के महान संघर्ष के दिनों के - जब उन्होंने अमेरिकी चौधराहट को शिकस्त दी थी - एक नारे को दिल से याद कर सकते हैं ‘‘एकताबद्ध लोग हमेशा ही कामयाब होते हैं (People United Shall Always Be Victorious)”

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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