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महामारी और अनदेखी से सफ़ाई कर्मचारियों पर दोहरी मार

आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार सफाई कर्मचारियों का सर्वे कर अलग से डेटा इकठ्ठा करे। जो माता-पिता अपने युवा और कमाऊ संतान को खो चुके हैं या जो बच्चे अपने माता-पिता को खो चुके हैं, उनके भरण-पोषण और पढ़ाई आदि के लिए हर महीने आर्थिक सहायता प्रदान करे।
अपने बच्चों के साथ पति की तस्वीर लिए बबीता। दिल्ली की वाल्मीकि बस्ती की बबीता ने कोविड की दूसरी लहर में अपने पति को खो दिया।
अपने बच्चों के साथ पति की तस्वीर लिए बबीता। दिल्ली की वाल्मीकि बस्ती की बबीता ने कोविड की दूसरी लहर में अपने पति को खो दिया।

कोरोना महामारी से जहां लाखों लोग परेशान हैं और उनकी व्यथा से देश व्यथित हुआ वहीं सफाई कर्मचारियों की पूरी तरह से अनदेखी की गई। जातिगत भेदभाव कोरोना जैसी महामारी से भी नहीं मिट पाया। अभी जब तीसरी कोरोना लहर की आशंका जताई जा रही है उसमें इस समुदाय के बारे में सोचना, नीति बनाना जरूरी है।

फिलहाल दिल्ली में कोरोना की दूसरी लहर भले ही उतार पर है। पर सफाई कर्मचारी समुदाय में जिन परिवारों ने अपने परिजनों को खोया है उनका सूरते-हाल काबिले-गौर है। दिल्ली में 50 सफाई कर्मचारियों की मौत कोरोना काल में हुई। विडंबना देखिये कि जहां कोरोना के समय बिना सुरक्षा उपकरणों के काम करने वाले सफाई कर्मचारियों को मरने के लिए, बीमार पड़ने के लिए बेसहारा छोड़ दिया गया था, वहीं बाकी फ्रंटलाइन वर्कर्स का ख़ास ध्यान रखा गया। इस महामारी से जो सफाई कर्मचारी अपनी जान गंवा चुके हैं। उनके परिवार का आज हाल-बेहाल है। कई परिवार ऐसे हैं जिनमें कमाने वाला शख्स ही कोरोना का शिकार हो गया। वहां रोजी-रोटी के भी लाले पड़ गए। कहीं बच्चे अनाथ हो गए तो कहीं बूढ़े माता-पिता बेसहारा हो गए।

अठारह वर्षीय अतुल अंबेडकर नगर नई दिल्ली में अपनी छोटी बहन चौदह  वर्षीया विधि के साथ किराये के घर में रहता है। दसवीं तक पढ़ाई की फिर उसके घर के हालात ठीक न होने पर उसकी पढ़ाई छूट गई। अभी विधि नौवीं कक्षा की छात्रा है। वह सरकारी स्कूल में पढ़ती है। इन बच्चों ने कोविड-19 में अपनी मां को खोया है। इनकी माता का देहांत 24 अप्रैल 2021 को हो गया। इनके पिता तो बहुत पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं। अपनी मां को खोने के बाद इन बच्चों का ध्यान रखने वाला कोई नहीं है। मां के गुजर जाने के बाद अतुल को मजदूरी करनी पड़ रही है। उसे 8000 रुपये प्रतिमाह वेतन मिलता है। इसमे वह किसी प्रकार घर खर्च चलता है।

अतुल का परिवार दिल्ली के अंबेडकर नगर के के-ब्लाक में रहता है। मूलरूप से वे देहरादून के रहने वाले हैं। उनका परिवार करीब 20 साल से दिल्ली में रह रहा था। बीस साल पहले विशाल और उनकी पत्नी निशा देहरादून से दिल्ली आए थे। यहीं उनके दोनों बच्चों अतुल और विधि का जन्म हुआ। विशाल पहले साफ़-सफाई का काम ठेके पर करते थे फिर कार चलाने लगे। सात साल पहले उनकी मृत्यु हाई शुगर की वजह से हुई थी। पति की मृत्यु के बाद निशा परिवार का पालन-पोषण करने के लिए कोठियों में सफाई का काम करने लगीं।

वाल्मीकि समाज की होने की वजह से उन्हें और कोई काम नहीं मिला। मृत्यु के चार महीने पहले से वह मरीजों की देखभाल का काम कर रही थीं। वहीं से वह कोरोना संक्रमित हुईं। 19 अप्रैल को उन्हें काम से हटा दिया गया। निशा ने नजदीकी  डॉक्टर  को दिखाया तो डॉक्टर ने उन्हें कोरोना टेस्ट कराने की सलाह दी। कोरोना टेस्ट कराने पर उनकी रिपोर्ट पोजीटिव आई। 24 अप्रैल को उन्हें सांस लेने में दिक्कत हुई। उनका बेटा अतुल और बेटी विधि उन्हें पास के अस्पताल में ले गए जहां डॉक्टरों ने उनकी मां को मृत घोषित कर दिया।

अतुल और विधि पर क्या बीती होगी, यह समझा जा सकता है। पिता का साया तो पहले ही सिर से उठ गया था अब मां भी नहीं रही। बच्चे अंदर से टूट गए थे। ऐसे में अठारह वर्षीय अतुल ने जीने के लिए काम करना शुरू किया। जिससे वह कमरे का किराया दे सके और अपना तथा अपनी बहन का पालन-पोषण कर सके। बहन को उच्च शिक्षा दिला सके। 

दूसरा उदाहरण बबीता देवी का लिया जा सकता है। बकौल बबीता :

मेरा नाम बबीता है। मैं 38 साल की हूं। मैं वाल्मीकि बस्ती, तिलक नगर, नई दिल्ली में रहती हूं। मेरे दो बच्चे हैं बेटा लव (18) और बेटी खुशी (16)। बेटा बारहवीं पास कर चुका है और खुशी अभी बारहवीं में गई है। मेरे पति हाउस कीपिंग के काम के साथ आर्केस्ट्रा कार्यक्रमों में इंस्ट्रूमेंट बजाने का काम किया करते थे। मैं ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हूं। मैं घर-घर जाकर कूड़ा उठाने का काम किया करती थी। इसी तरह जीवन यापन हो रहा था। पर मैं जीवन में आगे बढ़ने की चाह रखती थी।

इसी दौरान सफाई कर्मचारी आंदोलन से डॉ. रेनू छाछर हमारी बस्ती में सर्वे के लिए आईं। उनसे परिचय होने के बाद मैं सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़ गई।

सफाई कर्मचारी आंदोलन के राशन वितरण अभियान में मदद करतीं बबीता

सब कुछ सही चल रहा था कि अचानक कोरोना की दूसरी लहर मुझ से मेरे पति को छीन ले गई। 22 अप्रैल 2021 को मेरे पति का कोरोना से निधन  हो गया। मेरे ऊपर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। मैं टूट गई। पर मैंने हिम्मत नहीं हारी है। मेरा संघर्ष जारी है।

दिल्ली नगर निगम सफाई मजदूर संघ से जुड़े दिलीप पारचा ने बताया कि शाहदरा में 12 सफाई कर्मचारियों की मौत कोरोना से हुई। इनमें से किसी के भी परिजनों को न तो आर्थिक मदद मिली और न ही रोजगार। कोरोना से बहुत से सफाई कर्मचारी पीड़ित हुए, उनके परिजन भी बीमार पड़े, लेकिन उन्हें इलाज में कोई मदद नहीं मिल पाई। सबसे बड़ी परेशानी यह रही कि जिस तरह का खौफ़ कोरोना पीड़ित होने का था, उससे कई उन ज्यादा इस बात का कि अगर यह बात लोगों को पता चलेगी तो उनका सामाजिक बहिष्कार होगा। इसके डर से बहुतों ने कोरोना पीड़ित होने की बात छुपाई गई। कोरोना टेस्ट ही नहीं हुए। उत्तर प्रदेश में तो जांच करवाना बेहद मुश्किल काम था। पूरी की पूरी मशीनरी कोरोना पीड़ितों की संख्या को कम करने पर उतारू थी। इसकी मार सफाईकर्मियों पर पड़ी। जो लोग कोरोना से मारे गए वे सरकारी आंकड़ों में दर्ज ही नहीं हुए।

सफाई कर्मचारी हों या इस समुदाय से जुड़े अन्य लोग और परिवारों को दोहरी मार झेलनी पड़ी। देश की राजधानी दिल्ली में भी समुदाय के परिजनों की समस्याओं पर बहुत कम ध्यान दिया गया।

एक ओर जहां दिल्ली सरकार शहीद हुए डॉक्टर कोरोना योद्धाओं के परिजनों को एक करोड़ की सहायता राशि दे रही है वहीं इन सफाई कर्मचारी कोरोना योद्धाओं के परिजनों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। क्या उनका कसूर ये है कि वे सफाई कर्मचारी समुदाय से हैं। दलित समुदाय से हैं। इसलिए उनकी कोई अहमियत नहीं है। जातिवादी प्रशासन और प्रशासनिक अधिकारियों की नजर में इनकी जान जाने का कोई महत्व नहीं है भले ही वे कोरोना से लोगों की जान बचाते-बचाते खुद शहीद हो गए हों। क्या प्रशासन उन्हें शहीद का दर्जा देगा?

ये सफाई कर्मचारी भी इसी देश के नागरिक हैं। संविधान में उनको बराबरी का अधिकार है। उनके वोट की कीमत भी अन्य नागरिकों के वोट की कीमत के समान है। पर कथित उच्च जाति के अधिकारियों और नेताओं को इनकी याद तब ही आती है जब उन्हें इनका वोट लेना होता है। कहीं साम्प्रदायिक दंगे करवाने होते हैं। इनके श्रम का शोषण तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी होता आ रहा है। सरकारें भी अक्सर इन्हें अनपढ़ और गरीब बनाए रखने की साजिशें रचती रहती हैं।

कोरोना काल में दिल्ली जैसे महानगर में भी अधिकांश सफाई कर्मचारियों की आर्थिक स्थिति जर्जर हो गई है। लोग ये भी कहने लगे हैं कि “हम कोरोना से बच भी गए तो भूख से मर जायेंगे।”  क्योंकि वे बेरोजगारी और भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। जो लोग नगर निगम के तहत सफाई का काम कर रहे हैं उनकी स्थिति भी अच्छी नहीं है। उन्हें कई-कई महीनों तक वेतन नहीं मिलता।

भले ही दिल्ली सरकार अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर कहे कि- कोविड से जो दुनिया छोड़ गए, उनके परिवारों के साथ है सरकार। कोविड-19 के कारण मृत्यु हो जाने वाले लोगों के लिए दिल्ली सरकार द्वारा “मुख्यमंत्री कोविड-19 परिवार आर्थिक सहायता शुरू की है। मासिक आर्थिक सहायता के रूप में 2,500 रुपये की सहायता उन दिल्लीवासियों के लिए दी जाएगी जिनके परिवार में कमाने वाले व्यक्ति की कोविड-19 के कारण मृत्यु हुई है। इसके अलावा एकमुश्त राशि के रूप में 50,000 रुपये की अनुग्रह राशि की सहायता उन समस्त दिल्लीवासियों के लिए है जिनके परिवार में कोविड-19 के कारण किसी की भी मृत्यु हुई है।

सब जानते हैं कि अधिकांश सफाई कर्मचारी और उनके  बच्चे अनपढ़ व गरीब होते हैं। ऐसी स्थिति में वे क्या विज्ञापन और योजना का लाभ ले पायेंगे? 

आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार सफाई कर्मचारियों का सर्वे कर अलग से डेटा इकठ्ठा करे। जो माता-पिता अपने युवा और कमाऊ संतान को खो चुके हैं उनके भरण-पोषण के लिए हर महीने आर्थिक सहायता प्रदान करें। स्कूल जाने वाले जिन बच्चों ने अपने माता-पिता और अभिभावकों को खो  दिया है उनकी पढ़ाई का पूरा खर्च और उनके पालन-पोषण का खर्च सरकार उठाए। सवाल है कि क्या सरकार इन सफाई कर्मचारियों के प्रति इतनी संवेदनशीलता दिखाएगी?

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार निजी हैं।)

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