Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

रामपुर और आज़मगढ़ लोकसभा: कहां चूक गए अखिलेश और आज़म?

आने वाले चुनावों से पहले भाजपा ने सपा में बड़ा डेंट मारा है। जिसके बाद से सवाल उठ रहे हैं, कि आख़िर अखिलेश यादव कहां पीछे रह गए।
akhilesh azam

साल 2024 में लोकसभा चुनाव होने हैं, यानी अब से एक साल और कुछ महीने बाद। लेकिन इन चुनावों से पहले उत्तर प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी को ज़ोरदार झटका लगा है, क्योंकि समाजवादी पार्टी का गढ़ मानी जाने वाली रामपुर और आज़मगढ़ लोकसभा सीट उसके हाथ से निकल गई है।

वैसे तो चुनावों में हार जीत निहित होती है, लेकिन सपा का आज़मगढ़ और रामपुर हार जाना प्रदेश की राजनीति में बहुत बड़ा बदलाव है। वैसे तो इसकी शुरुआत हो गई थी, जब कुछ दिनों पहले प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने इतिहास रच दिया था और 37 साल के बाद लगातार दूसरी बार जीत हासिल कर ली थी। और चुनाव प्रचार में बयानवीर साबित हो रहे अखिलेश यादव को अपने दलों को संभालना भी मुश्किल हो गया था। हालांकि सपा ने आज़मगढ़ लोकसभा के अंतर्गत आने वाली पांचों विधानसभा सीट पर जीत दर्ज कर ली थी। इसके बावजूद लोकसभा उपचुनावों में हार का सामना करना पड़ा। ये हार इसलिए और ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि अखिलेश यादव यहीं से सांसद थे, और उपचुनावों में उन्होंने अपने भाई को ही प्रत्याशी बनाया था। ऐसे में हार के लिए सवाल तो पैदा होंगे ही।

आज़मगढ़ लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी की हार और अखिलेश यादव की गैरहाज़री... एक दूसरे के पर्याय ही बताए जा रहे हैं। एक ओर जहां इस सीट को सपा से छीनने के लिए भाजपा ने पूरी ताकत झोंक दी थी। तो अखिलेश यादव एसी कमरे में बैठकर ट्विटर युद्ध छेड़े हुए थे। और जुमलों के ज़रिए आज़मगढ़ की जनता से जीत की उम्मीद कर रहे थे। क्योंकि उन्हें पता था कि करीब 19 लाख वोट वाली इस लोकसभा में 26 फीसदी यादव और 24 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं, यानी 50 फीसदी वोट तो अपने हक में है ही, और दूसरा ये कि जनता को पता है कि हम ही जीतेंगे तो बाकी भी दूसरों को वोट क्यों करेंगे। हालांकि इन सब वोटों को छिटकने से बचाने के लिए उन्होंने अपने भाई धर्मेंद्र यादव को मैदान में उतार दिया, ताकि यादव वोटों के साथ-साथ मुस्लिम वोट हमारे लिए पहले जैसा बना रहे, लेकिन दूसरी ओर अखिलेश यादव और उनकी पार्टी शायद बसपा प्रत्याशी गुड्डी जमाली को थोड़ा कम आंक गई। और ज्यादातर मुस्लिम वोट उनकी ओर शिफ्ट हो गए, जिसका नतीजा ये रहा कि धर्मेंद्र यादव को गड्डू जमाली से कुछ ही वोट ज्यादा मिले। अगर आंकडों पर ग़ौर करें तो धर्मेंद्र यादव को 3 लाख 04 हज़ार 89 वोट मिले थे जबकि गुड्डू जमाली को 2 लाख 66 हज़ार 210 वोट मिले थे। यानी जो M-Y वोट अखिलेश और सपा के खाते में रहता था, वो अखिलेश की ग़ैर हाजिरी ने कुछ जमाली को दे दिया और कुछ भाजपा को।

वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनकी टीम ने सपा के इस गढ़ में घुसने के लिए पूरा प्लान तैयार कर रखा था। ख़ुद मुख्यमंत्री ने तीन विशाल रैलियां की और अपने प्रत्याशी के लिए वोट मांगे। मुख्यमंत्री के अलावा उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या और भाजपा के अन्य नेताओं ने जबरदस्त प्रचार किया। जिसका कारण ये रहा कि उन्हें सधे हुए वोट तो मिले ही साथ में मुस्लिम और यादवों के कुछ वोट भी ज़रूर मिले हैं। प्रचार की बात में एक चीज़ ये भी जोड़ना बेहद ज़रूरी है कि भाजपा के प्रत्याशी और भोजपुरी सुपरस्टार दिनेश लाल निरहुआ तो पिछले कई महीने से आज़मगढ़ में ही डेरा डाले हुए हैं, शायद ये भी एक वजह रही है कि लोगों में उनके प्रति विश्वास ज्यादा देखने को मिला। 

धर्मेंद यादव पर बाहरी होने का आरोप?

हार की एक वजह यह भी बताई जा रही है कि सपा नेतृत्व ने आज़मगढ़ सीट पर मुस्लिम और यादव मतों को एकजुट करने के लिए ठोस कोशिश नहीं की। बसपा के उम्मीदवार शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली इस लोकसभा सीट के अंदर आने वाली मुबारकपुर विधानसभा सीट से 2 बार विधायक रहे हैं और इस इलाके में काफी लोकप्रिय भी हैं। जबकि धर्मेंद्र यादव को यहां पर बाहरी उम्मीदवार बताया जा रहा था, हालांकि उम्मीदवार बनाए जाने के बाद धर्मेंद्र यादव ने आज़मगढ़ में कुछ सभाएं ज़रूर की, लेकिन जनता के बीच वो विश्वास नहीं बना पाए जो निरहुआ और गुड्डू जमाली ने बना लिया था।

रामपुर की हार- जीत के मायने

आज़मगढ़ के अलावा अगर रामपुर में समाजवादी पार्टी की हार की बात करें तो यहां शायद जनता को आज़म और अखिलेश के बीच पिछले दिनों बढ़ी तल्खियां पंसद नहीं आई, इसका कारण ये रहा कि यहां मुसलमानों ने सपा का साथ नहीं दिया। आपको बताते चलें कि रामपुर में भी अखिलेश यादव ने एक बार भी चुनाव प्रचार नहीं किया सिर्फ ट्विटर के ज़रिए ही वोट मांगते नज़र आए। उसमें भी वोट कम मांग रहे थे, भाजपा पर हमला ज्यादा किया था। और फिर जब आज़म खान जेल से बाहर आने वाले थे तब हर पार्टी के दिग्गज नेता आज़म खान से मिलने पहुंच रहे थे, जबकि अखिलेश यादव ने एक बार भी जाकर उनकी सुध नहीं ली। इसके बाद अखिलेश यादव पर आज़म के मीडिया प्रभारी का ये कहना कि उन्हें हमारे कपड़े से बदबू आती है, फिर योगी की तारीफ करना भी मुस्लिम वोटरों के छिटकने का एक बड़ा कारण है। इसके बाद प्रत्याशी को लेकर छींटाकशी भी शायद जनता को ज्यादा समझ नहीं आई। हालांकि आख़िर में आज़म के ही क़रीबी असीम रज़ा को प्रत्याशी बनाया गया।

वहीं दूसरी ओर भाजपा ने रामपुर लोकसभा सीट के दिग्गज मुस्लिमों को साधना शुरू कर दिया था। जैसे आज़म ख़ान के विरोधी नवाब काजिम अली खान उर्फ नवेद मियां, पूर्व विधायक अफरोज अली खां, जिला पंचायत सदस्य हुसैन चिंटू, खलील अहमद, रियासत अली को एकजुट कर दिया और इन सबने भाजपा के लिए खुले दिल से प्रचार किया। इतना ही नहीं समाजवादी पार्टी के मुकाबले भाजपा ने 16 मंत्री रामपुर सीट पर चुनाव प्रचार के लिए उतारे थे। जिसका सीधा फायदा भाजपा को मिलता दिखाई दिया। और घनश्याम लोधी ने सपा के उम्मीदवार को बड़े मार्जिन से हरा दिया।

लेकिन रामपुर में भाजपा की जीत से एक सवाल ज़रूर खड़ा हो गया कि बीते विधानसभा चुनाव में करीब 90 प्रतिशत मुसलमानों के वोट समाजवादी पार्टी के खाते में गए तो फिर उपचुनावों में रामपुर के मुसलमानों ने किसे वोट कर दिया। जिसको लेकर आज़म खान काफी नाराज़ भी नज़र आए और उन्होंने इन चुनावी नतीजों को चुनाव नहीं कहने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि 900 वोट का पोलिंग स्टेशन और सिर्फ 6 वोट, बस्तियां मुसलमानों की, 2200 की पोलिंग, मोहल्ला मुसलमानों का और सिर्फ 1 वोट।

यानी आज़म खान की मानें तो सरकारी मशीनरी का सीधा-सीधा दुरुपयोग किया गया है, या फिर लोगों को वोट देने से रोका गया है, क्योंकि ऐसा ही आरोप आज़मगढ़ लोकसभा सीट पर लगाया गया था।

फिलहाल चुनाव हो चुके हैं और नतीजे भी आ चुके हैं, लेकिन आज़म खान के आरोप सोचने पर मजबूर ज़रूर करते हैं।

इन सभी तर्कों के अलावा जो बात बेहद ज़रूरी है कि भाजपा जब भी चुनाव लड़ती है तो सिर्फ जीत के लिए लड़ती है। कहने का मतलब ये है कि भाजपा की ओर से छोटे-छोटे चुनावों को भी बड़ा बना दिया जाता है। यानी पार्टी के सभी दिग्गज चुनाव जीतने में लग जाते हैं, जबकि दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी की ओर से ये देखने को नहीं मिला। जिसका ख़ामियाज़ा सपा ने भुगत भी लिया।

अब सवाल है कि यहां से आगे क्या?

क्योंकि आने वाले वक्त में लोकसभा चुनाव हैं, ऐसे में उत्तर प्रदेश की 80 सीटों पर सभी की नज़रे रहेंगी। और यहां भाजपा के बाद अगर किसी में सीटों को जीतने का दमखम है तो सपा ही है। ऐसे में देखने वाली बात ये है कि समाजवादी पार्टी की आने वाले लोकसभा चुनावों में क्या रणनीति होगी। शायद एक बार फिर कांग्रेस का हाथ पकड़कर भाजपा के खिलाफ खड़ी हो जाए। या फिर छोटे-छोटे दलों को अपने साथ इकट्ठा कर चुनाव लड़ने की कोशिश करे।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest