झारखंड: भ्रष्ट, विभाजनकारी राजनीति के विकल्प की तलाश जारी
झारखंड में 13 और 20 नवंबर, 2024 को छठी विधानसभा के लिए मतदान होगा। नवंबर 2000 में बने आदिवासी बहुल इस राज्य ने इन 24 सालों में 13 सरकारें (हालांकि सात मुख्यमंत्री) और तीन बार राष्ट्रपति शासन देखा है। इस पूरे समय के लगभग आधे हिस्से में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का शासन रहा है, जबकि बाकी समय झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) और अन्य दलों के गठबंधन की सत्ता रही है।
यहां तक कि 2006-2008 में निर्दलीय विधायक, मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बने थे और उनका शासन लगभग दो साल चला था जिसे जेएमएम और कांग्रेस का समर्थन हासिल था, हालांकि कोड़ा मूल रूप से भाजपा के विधायक थे। संक्षेप में कहें तो, झारखंड के लोग ऐसी सरकार की तलाश कर रहे हैं जो काम करे, इस पार्टी या उस पार्टी का समर्थन करते हुए, अक्सर बिखरे हुए जनादेश के साथ सरकारें काम करती रहे।
यह खोज सिर्फ़ झारखंड तक सीमित नहीं है। सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में लोग इसी तरह अलग-अलग रंगों के दरवाज़े खटखटाते रहते हैं। लेकिन झारखंड जो बड़े लंबे और कठिन संघर्ष के बाद आस्तित्व में आया था, ने उम्मीद जगाई थी कि एक नई शुरुआत होगी और शायद गरीबी, बदहाली, और वंचितता की बेड़ियों को तोड़ सकेगी। यह भी उम्मीद की गई थी कि देश की अनुमानित 40 फीसदी खनिज संपदा जो राज्य में मौजूद है उसके कारण, नौकरियों और सम्मान का जीवन जीने का मौका मिलेगा और आम समृद्धि जल्द ही आएगी। कम से कम वादा तो यही किया गया था।
लेकिन यह खोज अभी भी जारी है। 2005-06 में झारखंड में 74 फीसदी गरीबी दर थी और यह देश का दूसरा सबसे गरीब राज्य था। 2019-21 में भी इसमें गरीबी दर 29 फीसदी थी, और फिर से देश का दूसरा सबसे गरीब राज्य रहा। दोनों वर्षों में, बिहार, जिसका पड़ोसी राज्य झारखंड है और वह उसी से अलग हुआ था, सबसे गरीब राज्य था। यह नीति आयोग के बहुआयामी गरीबी सूचकांक पर आधारित है, जो गरीबी की एक विवादास्पद परिभाषा को अपनाता है। आलोचकों का मानना है कि आय को ध्यान में न रखकर यह उपाय गरीबी को कम करके आंक रहा है। जो भी हो, जब कोई अन्य परिभाषा नहीं है तो यह डेटा एक बिंदु को स्पष्ट कर देता है: कि झारखंड गरीबी और अभाव के अपने चौंकाने वाले स्तर को तोड़ नहीं पाया है या यहां तक कि इसे कम भी नहीं कर पाया है। कोई आश्चर्य नहीं कि हताश लोग इससे बाहर निकलने का रास्ता खोज रहे हैं।
चुनावी चहल-पहल
झारखंड में चुनावी उथल-पुथल और लगातार बदलते समीकरणों की एक झलक - जो कि विफलता का प्रतिबिंब नज़र आता जिसे चुनाव आयोग के आंकड़ों के आधार पर नीचे दिए गए चार्ट में देखा जा सकती है। यह दो मुख्य गठबंधनों और अन्य द्वारा जीती गई सीटों की संख्या बताता है। भाजपा गठबंधन में वह खुद और ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (AJSU) शामिल हैं, जिन्होंने 2014 में मिलकर 42 सीटें जीती थीं और सरकार बनाई थी।
कांग्रेस-झामुमो गठबंधन, जिसमें राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और वामपंथी दल भी शामिल थे, ने 26 सीटें जीतीं थी। अन्य, जिसमें कई छोटी पार्टियां और निर्दलीय शामिल थे, को सम्मानजनक 13 सीटें मिलीं थी। लेकिन 2019 के अगले चुनाव में, स्थिति बदल गई क्योंकि लोग भाजपा सरकार से ऊब चुके थे, जिसका नेतृत्व संयोग से पहले गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री रघबर दास कर रहे थे।
2019 में, भाजपा-आजसू गठबंधन को केवल 27 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस-झामुमो-राजद-वाम गठबंधन ने 48 सीटें जीतीं और आसानी से सत्ता में आ गया। ध्यान दें कि ‘अन्य’ की संख्या भी 13 सीटों से घटकर 6 रह गई थी। लोगों ने 2014 में नरेंद्र मोदी के वादों के पहले चरण में भाजपा को वोट दिया था, लेकिन पांच साल बाद, सपना बिखर गया और वे फिर से झामुमो और उसके सहयोगियों के पास चले गए।
2024 के लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय सरोकार हावी रहे और भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) को राज्य से ठोस जनादेश मिला और उसने सभी सीटें जीत लीं। अगर आप इस वोट को विधानसभा क्षेत्रों में बांटें, तो भाजपा 47 सीटों पर आगे है और उसकी सहयोगी एजेएसयू पांच सीटों पर, यानी एनडीए को कुल 52 सीटों पर आगे है। विपक्षी दल इंडिया ब्लॉक 29 विधानसभा क्षेत्रों तक सीमित है - 14 झामुमो के नेतृत्व में और 15 कांग्रेस की बनती हैं।
क्या हाल के चुनावी इतिहास के इस संक्षिप्त पुनरावलोकन का आने वाले विधानसभा चुनावों पर कोई असर होगा? ज़रूर होगा, इस हद तक कि संभवतः लोग अतीत की तरह कुछ बदलाव की उम्मीद करेंगे। लेकिन ज़्यादा महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह होगा कि एक नई ताकत के उभरने की गुंजाइश है जो लोगों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों को संबोधित कर सकती है, साथ ही मौजूदा भ्रष्ट और पतनशील राजनीतिक ताकतों से अलग हट सकती है, जिनमें वे ताकतें भी शामिल हैं जो लोगों को धार्मिक आधार पर बांटने की लगातार कोशिश कर रही हैं।
वैकल्पिक नीतियों की आवश्यकता
किस तरह की वैकल्पिक नीतियों से लोगों को वास्तव में लाभ मिल सकता है? सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, खनिज संसाधनों के प्रति एक टिकाऊ और निष्पक्ष नीति जो लोगों को ध्यान में रखती है। इसका मतलब होगा कोयला खनन और अन्य निष्कर्षण गतिविधियों जैसे उद्योगों के निजीकरण को रोकना। निकाले गए खनिज संपदा और विभिन्न डाउनस्ट्रीम प्रसंस्करण पर रॉयल्टी का इस्तेमाल राज्य सरकार को राज्य के लोगों के कल्याण के लिए इस्तेमाल के लिए करना चाहिए और मूल्यवान संसाधन जुटाने के लिए किया जाना चाहिए।
बिजली उत्पादन जैसे अन्य संबंधित उद्योगों को भी पहले घरेलू जरूरतों को पूरा करने की दिशा में काम करना चाहिए और वह भी किफायती दरों पर ऐसा करना होगा। भूमि अधिग्रहण को पूरी तरह से विनियमित किया जाना चाहिए और वनों के बेवजह विनाश या आदिवासी भूमि के अधिग्रहण को समुदायों की सहमति से और रोजगार और मुआवजे की पर्याप्त गारंटी के साथ अत्यधिक संतुलित किया जाना चाहिए। संक्षेप में, झारखंड से संसाधनों का घरेलू और विदेशी कंपनियों की जेबों में जाना बंद होना चाहिए, ताकि लोग खनिज संपदा से लाभ उठा सकें।
कृषि सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) में एक तिहाई का योगदान देती है, जो उद्योगों के योगदान के लगभग बराबर है। हालांकि, झारखंड आर्थिक सर्वेक्षण व्यवसायों में भारी बदलाव को दर्शाता है, कृषि में काम करने वाले पुरुषों की हिस्सेदारी 2017-18 में लगभग 43 फीसदी से घटकर 2022-23 में 30 फीसदी हो गई है, जबकि महिलाओं की हिस्सेदारी 63 फीसदी से बढ़कर लगभग 80 फीसदी हो गई है।
सीमांत जोतों में तेज वृद्धि हुई है और अन्य सभी बड़ी जोतों में गिरावट आई है, जिसकी वजह से खेती में बहुत ही छोटे, निर्वाह स्तर की खेती के कारण एक गंभीर संकट उभरता नज़ार आता है। पुरुष कृषि श्रमिकों में गिरावट की भरपाई खनन या विनिर्माण में बदलाव से नहीं होती है, इन दोनों क्षेत्रों में उनकी हिस्सेदारी क्रमशः 1.7 फीसदी और 9 फीसदी ही है। खेती छोड़ने वाले पुरुषों में से अधिकांश को निर्माण क्षेत्र में अनौपचारिक मौसमी काम करना पड़ता है, जहाँ 2017-18 में 20 फीसदी की तुलना में 2022-23 में लगभग 26 फीसदी पुरुष कार्यरत हैं।
इस संकट का समाधान केवल किसानों को बेहतर सिंचाई, सस्ते इनपुट, अधिक उत्पादन के लिए बढ़े हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सुनिश्चित खरीद और ऐसी अन्य नीतियों के माध्यम से किया जा सकता है। फलों और सब्जियों, औषधीय पौधों और नकदी फसलों जैसे अन्य कृषि उत्पादों के लिए भी समर्थन की आवश्यकता है। खनन और उत्खनन में रोजगार के चौंकाने वाले निम्न स्तर से पता चलता है कि सरकारें यह सुनिश्चित करने में विफल रही हैं कि राज्य में खनन उद्योग स्थानीय रोजगार को ध्यान में रखें।
मौजूदा विधानसभा चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाला गठबंधन ऐसी नीतियों से मुंह मोरे खड़ा है, उनका ध्यान धार्मिक विभाजन और पहचान आधारित राजनीति को बढ़ावा देने पर है। इंडिया ब्लॉक भी आर्थिक नीतियों में बुनियादी बदलावों के बजाय मैय्या सम्मान योजना जैसी अपनी नीतियों पर निर्भर है। यहां तक कि भाजपा के विभाजनकारी एजेंडे को चुनौती देने में भी उनकी भूमिका ठंडी है। शायद अब समय आ गया है कि वामपंथी ताकतें बड़े जन समर्थन को पाने के लिए दृढ़ संकल्प वाले प्रयास करें, हालांकि वे अभी सत्ता की दावेदारी की स्थिति में नहीं आए हैं।
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