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मिथकों, कहानियों और वास्तविक जीवन में महिलाओं की शक्ति को स्वीकारना

वेंडी डोनिगर की पुस्तक वुमेन, ऐन्ड्रौजअनस एंड अदर मिथिकल बीस्ट्स हिंदू, बौद्ध और तांत्रिक पौराणिक कथाओं में जेंडर और यौन पहचानों को तलाशती है। गीता हरिहरन के साथ इस बातचीत में वेंडी डोनिगर इस पुस्तक और इससे जुड़े कई आयामों पर रोशनी डालती हैं।
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वेंडी डोनिगर की पुस्तक  वुमेन, ऐन्ड्रौजअनस एंड अदर मिथिकल बीस्ट्स हिंदू, बौद्ध और तांत्रिक पौराणिक कथाओं में जेंडर और यौन पहचानों को तलाशती है। यह किताब हमें ऋग्वेद में ‘मां पृथ्वी’ और ‘पिता आकाश’ के मिलन से लेकर इच्छा के देव काम[देव] को शिव द्वारा भस्म करने तक ले जाती है। लेखिका हिंदू पौराणिक कथाओं में प्रभावशाली महिलाओं और देवियों के जटिल चित्रण की पड़ताल करती हैं। यह पुस्तक गैर-मातृ देवी और मातृ देवी के बीच में पूरी विपरीतता, शक्ति संरचानाओं की असमानता और मध्यकालीन भारत में एक नई देवी के उभार की भी जांच-पड़ताल करती है। देवी के साथ उपासक का रिश्ता, उनकी (देवी) द्वैधवृत्ति (ऐम्बिवलन्स) और उनकी उपस्थिति की प्रबल इच्छा हिंदू धर्म में भक्ति की बहुमुखी प्रकृति पर प्रकाश डालती है।

गीता हरिहरन के साथ इस बातचीत में वेंडी डोनिगर इस पुस्तक और इससे जुड़े कई आयामों पर रोशनी डालती हैं।

गीता हरिहरन (जीएच) : हिंदू संदर्भ में संत कौन है? मैं संशयित हूं कि इस प्रश्न के लिए एक समयरेखा और इसके विविध अर्थों को संबोधित करने की आवश्यकता हो सकती है। लेकिन जिस समय में हम रह रहे हैं, तो यह प्रश्न भी गुंजायमान हो उठता है – भारत में प्रतिदिन की खबरों में संतों और बाबाओं की पूरी श्रृंखला होती है जो विभिन्न प्रकार की धर्मनिरपेक्ष/राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होते हैं। 

वेंडी डोनिगर (डब्ल्यूडी) : मैं जिस हिंदू धर्म को बेहतर तरीके से जानती हूं और जिसके बारे में लिखती हूं, महाकाव्य और पौराणिक हिंदू धर्म, प्राचीन और प्रारंभिक मध्यकाल से मिथक और अनुष्ठान, उसमें संत उस तरह से नहीं है, जिस तरह से ईसाई और यहां तक कि कुछ बौद्ध (मुझे लगता है कि ईसाई प्रभाव के तहत) उसे ‘संत’ कहेंगे : साधारण जीवन में पैदा होने वाले मनुष्य जो बाल्यावस्था या जीवन में बाद के वर्षों में असाधारण धार्मिक गुण और शक्तियां धारण कर लेते हैं। इसके विपरीत, हिंदुओं के पास साधारण मनुष्य हैं जो असाधारण शक्तियों का प्रदर्शन करते हैं और जिन्हें लेकर देवताओं द्वारा यह बात प्रकट की जाती है कि वे अवतारी देव हैं, अथवा तो धारक या फिर परिवर्तित मनुष्य हैं। वर्तमान में भारतीय समाचारपत्रों में जिन कथित संतों के बारे में बातें होती हैं उनसे ये प्रतिभाशाली व्यक्ति वास्तव में बहुत ही कम समानता रखते हैं।

जीएच : मुझे (शीर्षक सहित) ‘द डेंजर्स ऑफ अपवर्ड मोबिलिटी’ वाले भाग में एक भारी-भरकम संकेत मिला कि कैसे एक केंद्रीय श्रेणीक्रम – नश्वर, देवताओं और इनके बीच में किसी भी चीज को – सभी दुनियाओं को व्यवस्थित करता है। ‘अपने स्थान की जानकारी होना’ तब भी काम करता प्रतीत होता है, जब आध्यात्मिक स्तर को प्राप्त करने की बात आती है। क्या आप कहेंगी कि तपस्या और प्रार्थना के माध्यम से संतत्व या देव/देवतुल्य स्थान प्राप्त करने के मार्ग में अप्रत्यक्ष बाधाएं हैं, जो व्यक्ति की पहुंच को सीमित करती हैं? आपने उन लोगों के बारे में कुछ सावधान करने वाली कहानियों का उल्लेख किया है, जो अपने स्थान से ऊपर उठकर आध्यात्मिक गतिविधियों की इच्छा रखते हैं? और क्या आप इसको ‘आध्यात्मिक शक्ति के ब्राह्मण एकाधिकार को चुनौती’ देने से जोड़ेंगी?   

डब्ल्यूडी : गहरे स्तर पर पैठ जमाए इन श्रेणीक्रमों के बारे में आपने जो कहा है वह निश्चित रूप से सही है। लेकिन यहां पर मैं सोचती हूं कि हमें हिंदू परंपरा में स्पष्ट ऊर्ध्वगामी गतिशीलता (अपवर्ड मोबिलिटी) के बारे में दो एकदम विपरीत शक्तिशाली और प्राचीन तथा सोचने की गहरी विपरीत धाराओं के बीच में अंतर करने की आवश्यकता है। एक तरफ, अधिकांश क्लासिकल संस्कृत ग्रंथों (जिनके बारे में मैंने ज्यादातर लेखन किया है), ब्राह्मणों द्वारा रचित ग्रंथों, में ऊर्ध्वगामी गतिशीलता पूर्ण रूप से वर्जित है, और अपनी जाति और वर्ग की स्थिति को बदलने का निष्फल प्रयास करने वाले गैर-ब्राह्मणों के बारे में हजारों सचेतात्मक कहानियां हैं, जहां उन्हें न केवल रोका गया बल्कि उन्हें भयानक दंड दिए गए, धरती पर और उसके बाद भी (संदर्भित ग्रंथ के हिसाब से वह जो भी हो)। 

दूसरी तरफ, बाद में मध्यकालीन भक्तिकाल के दौर के संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओं के मूल ग्रंथों, दोनों में ही हम उस परिघटना से आमना-सामना करते हैं जिसका मेरे पुराने शिक्षक मिर्सिया एलियाडे ने एक बार ‘ब्रिसर ल ट्वा’ या ‘छत को तोड़ देने’ के रूप में चरित्र-चित्रण किया था। इन ग्रंथों में निचली जाति के लोग, यहां तक कि वे जिन्हें आज हम दलित कहते हैं और महिलाएं भी (!), महान आत्म-बलिदान और उदारता का प्रदर्शन करते हैं तथा उन्हें ईश्वर या देवी या देवों द्वारा स्वर्ग या सभी स्वर्गों से परे की दुनिया में स्थानांतरण के जरिये पुरस्कृत किया जाता है, या यहां तक कि कुछ ग्रंथों में उनके पुनर्जन्म में ब्राह्मण बन जाने की बाते भी हैं। ये मिथकीय कहानियां उन महान सामाजिक परिवर्तनों को प्रतिबिंबत करती हैं जो उस समय के भारत में चल रही थी, यह पूरे हिंदू समाज में नहीं चल रही थी जो कि कट्टर जातिवादी था और अभी भी बना हुआ है, लेकिन हिंदू समाज के कुछ बड़े हिस्सों में यह चल रहा था, यह केवल गुरुओं के अनुयाइयों के अलग हुए समूहों या त्याग करने वाले और साधुओं (जिनमें से कुछ पर सूफियों का प्रभाव था) की संगत तक ही सीमित नहीं था, बल्कि जातिवादी समाज की सीमाओं के भीतर रहने वाले बहुत सारे हिंदुओं के दिमागों में भी यह परिवर्तन चल रहा था, जिन्होंने ऊर्ध्वगामी गतिशीलता के बारे अधिक उदार विचारों के साथ सोचना शुरू कर दिया था। 

जीएच : एक महिला के लिए संतत्व की चाहत रखना कितना अलग या मुश्किल है? क्या यह चीजों की श्रेणीक्रम (और ब्राह्मणवादी) व्यवस्था को एक बहुत बड़ी चुनौती होगी? मैं इसको एक दूसरे संदर्भ में आपके द्वारा दिए गए एक सशक्त कथन से जोड़ना चाहती हूं, “पौराणिक कथाओं में पुरुष की तुलना में वास्तव में महिला अधिक घातक है।” 

डब्ल्यूडी : यहां भी हमें पुनः शुरुआती संस्कृत ग्रंथों और संस्कृत तथा क्षेत्रीय भाषाओं के बाद के ग्रंथों के बीच में अंतर करना चाहिए। पूर्व के ग्रंथ असाधारण रूप से लैंगिकवादी हैं और ऐसी कहानियों से भरे हुए हैं जो पुष्ट करते हैं कि महिलाएं कितनी दुष्ट, अति कामुक और चालाक होती हैं, और उन्हें किस तरह से ‘सुरक्षित’ या ‘संरक्षित’ या ‘नियंत्रित’ किया जाना चाहिए (तथ्य यह है कि एक क्रिया, रक्ष, का तात्पर्य अपने आप में उन सभी चीजों से है जो संस्कृत ग्रंथों में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण का एक संकेत है), अन्यथा वे अपने पतियों को धोखा देंगी और उन्हें बर्बाद कर देंगी। ‘पुरुष से भी घातक’ वाली टिप्पणी से मेरा यही तात्पर्य था।

इसके बावजूद, संस्कृत ग्रंथों में भी कुछ अच्छी महिलाएं हैं (उपनिषदों में गार्गी, कुटिल और विध्वंसकारी कैकेई के साथ-साथ रामायण में सीता) जो श्रेणीक्रम की सख्त सीमाओं के भीतर रहते हुए भी अपने गुणों को साबित करती हैं, जो अपने पतियों और/या बच्चों की रक्षा के लिए असाधारण त्याग करती हैं, या कभी-कभी ब्रह्मचारी भी रहती हैं और दूसरों के लिए खुद का बलिदान कर देती हैं, और पुरस्कार स्वरूप स्वर्ग जाती हैं। लेकिन बाद के दौर में भक्ति ग्रंथों, विशेष रूप से बांग्ला, तमिल, तेलुगु और अन्य स्थानीय परंपराओं, में कुछ असाधारण महिलाएं धार्मिक ब्रह्मचारी या पुरुष गुरुओं के स्तर पर धार्मिक प्रतिनिधि भी बन गईं।    

जीएच : इसी तर्ज पर मैं आपसे एक क्रुद्ध महिला को शांत करने के लिए उसे देवी का ‘दर्जा देने’, बल्कि उसे चीजों की प्रतिबंधित व्यवस्था में वापस खींच लाने के बारे में पूछना चाहती हूं। जाहिर है, मैं शिलप्पादिकारम में कन्नगी के बारे में सोच रही हूं, जो अपने उखेड़े स्तन से मदुरै को जला देती है। उसकी आग को, उसके क्रोध को किस तरह से शांत किया जाए? उसे सतीत्व की देवी बना करके? और यह मुझे एक चतुराई से भरा विकल्प प्रतीत होता है। क्या मेरा यह मानना सही है कि राजा के अन्याय से उपजा उसका उग्र क्रोध अब न केवल ‘प्रतिष्ठान’ के साथ संधि, बल्कि ‘पवित्र व्यवहार’ के नियमों के भी अधीन हो जाएगा?

डब्ल्यूडी : हां, कन्नगी की कहानी अनोखी और सम्मोहक है। धर्म के इतिहासकारों ने स्तन की देवियों और दांत की देवियों की भिन्नता की तुलना की है (बाद में कभी-कभार योनि के लिए शिष्टोक्ति की गई, विशेष रूप से तथाकथित दांतों वाली योनि के लिए)। स्तन की देवियां सौम्य और पवित्र तथा भरण-पोषण करने वाली होती हैं; दांतों की देवियां अस्पष्ट और कामोत्तेजक और खरतनाक हैं। जितनी भी दूर तक जा सके, यह एक उपयोगी प्रतिमान है, हालांकि सभी परिस्थितियों में उपयोगी होने के लिए यह थोड़ा अधिक ढुलमुल और मुखर है। अपने स्तनों को चीरकर कन्नगी एक दयालु देवी (जो अपने पति को बचाने के अपने प्रयास में असाधारण आत्म-बलिदान करती है) से एक उग्र और खतरनाक देवी में परिवर्तित हो जाती है (जिसे, जीवित रहने की इच्छा रखने वालों को रक्त बलिदान देना ही होगा)। और हां, एक घातक देवी (काली और दुर्गा के बारे में सोचें) को नियंत्रित करने का तरीका उसकी पूजा करना है, जो कि उसे इतना अनुकूल नहीं बनाती है जितना कि उसकी उपयोगी विध्वंसक शक्तियों को उपासकों की सेवा में लगाने से बनाती है – कन्नगी के मामले में राजा और उसकी सेनाओं की सेवा को लेकर भी ऐसा ही है। और वास्तव में, जब तक वह ब्रह्मचारी बनी रहती है, हमें उसके हिंसक यौन-भाव के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है, क्या ऐसा है?  राजा इसे एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकता है, और हम उससे (कन्नगी) कह सकते हैं कि वह दुश्मनों से हमारी रक्षा करने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करे। 

जीएच : महिलाओं की क्षमता – संभवतः जो कि उस तीसरे स्तन में है, को स्वीकार करने और महिलाओं, नश्वर या देवी, को पुरुषों, पुरुष देवों तथा ब्राह्मणवादी रूढ़िवादिता के नियंत्रण में रखने को लेकर दुश्चिंता के बीच कैसे संतुलन बैठाया जाए, क्या आप इस पर टिप्पणी करना चाहेंगी? 

डब्ल्यूडी : महिलाओं की शक्तियों को स्वीकार करने में समस्या यह है कि यह पुरुषों को भयभीत करती है और महिलाओं को पुरुषों के खिलाफ उन शक्तियों का इस्तेमाल करने से रोकने के लिए असाधारण उपायों को लागू करने के लिए भी प्रेरित करती है। क्लासिकल हिंदू पौराणिक कथाओं का यही संदेश है। और यह आज भी सच है। जैसे-जैसे भारत में महिलाएं अच्छी-खासी शिक्षित होती जा रही हैं और अक्सर अपने पति को चुनने में सक्षम बन रही हैं या विवाह नहीं करने का विकल्प चुन रही हैं, तो पुरुष आतंक बढ़ रहा है और परिणामस्वरूप महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा और अन्य प्रकार की हिंसा होती है, जिससे आज पूरा भारत जूझ रहा है। हालांकि, समाधान पीछे हटना और उन नई शक्तियों को लौटा देने में नहीं है, बल्कि महिलाओं की बढ़ती साक्षरता और भारतीय राजनीति में उनकी बढ़ती उपस्थिति का इस्तेमाल कानून बनाने और ऐसे उपायों को लागू करने में है जो देवी द्वारा दर्शायी गई शक्तियों को दिशा-निर्देशित करके ऐसे राजनीतिक हथियार में बदल दे जो महिलाओं की सुरक्षा एवं उनके सशक्तिकरण के लिए विधायिका और राजनीतिक उपस्थिति में सहायक हो।

जीएच : विशेषतौर पर ‘दानवी देवी’ की उपासना के बारे में उत्कंठा को किस तरह से संभाला जाता है? चाहे सितला और मनसा (या काली) हों, देवी को भक्त में काफी उभयवृत्तिता पैदा करनी होगी। 

डब्ल्यूडी :  हां, विशेषकर ‘दानवी’ देवियां ही नहीं बल्कि देवियां भी बहुत डरावनी हो सकती हैं। इसीलिए हम उनकी पूजा-अर्चना करते हैं; अगर हमने ऐसा नहीं किया तो कोई नहीं जानता है कि वे हमारा किस प्रकार से विनाश कर सकती हैं? लेकिन जितनी ‘स्तन’ देवियां हैं, उतनी है ‘दंत’ देवियां हैं। मेरी पसंदीदा षष्ठी है, ‘छठी’ की देवी, यानी शिशु के जन्म के बाद का छठवां दिन; वो वह देवी है जो शिशु के अस्तित्व के लिए इस सबसे ज्यादा खतरनाक अवधि के दौरान मांओं की देखभाल करती है। काली तुमसे एक बकरे की बलि देने को कहती है, ताकि तुम स्वयं एक बकरा न बन जाओ जिसे वह खा जाती है, लेकिन षष्ठी और अन्य बहुत-सी देवियां, स्तन देवियां आपसे आपकी प्रार्थनाएं और थोड़ा-सा घी या पुष्प मांगती हैं, जिसके बदले में वे आवश्यकता पड़ने पर आपके साथ खड़ी रहेंगी। मेरा मानना है कि भारत में महिलाओं को, जो बहुत गंभीर समस्याओं का सामना करती हैं, काली और षष्ठी, दोनों का ही आह्वान करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे (देवियां) उनके (महिलाओं) सभी आधारों को पूर्ण बल प्रदान कर सकें ताकि महिलाएं आज के भारत में समानता और सुरक्षा की अपनी लड़ाई को वास्तव में जीत सकें।

अनुवाद :  कृष्ण सिंह

साभार : ICF 

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