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भाग 5 - 'कोयले की मौत' पर सवाल- नवीकरणीय ऊर्जा बनाम कोयले से जुड़े आंकड़े

मौसम परिवर्तन इस बारे में नहीं है कि इंसान ऊर्जा कैसे पैदा करता है, दरअसल इसका संबंध इस बात से है कि वह अपनी ऊर्जा ज़रूरतों को कैसे कम करता है।
 कोयले की मौत' पर सवाल

पांच हिस्सों वाली सीरीज का यह आखिरी हिस्सा है। इसमें जीवाश्म ईंधन को स्वच्छ ऊर्जा से बदलने की वैश्विक और भारतीय प्रतिबद्धताओं का परीक्षण किया गया था। क्यों भविष्य में भी कोयले कि उपयोगिता बरकरार रहेगी? कैसे जीवाश्म ईंधन को नवीकरणीय क्षमताओं से बदलना भी संकटकारी हो सकता है?

कार्बन ट्रैकर जब पर्यावरण का वित्तीय बाजारों पर प्रभाव के ऊपर शोध कर रहा था, तब उसने पाया कि अमेरिका, चीन और भारत में नवीकरणीय विकास लगभग यूरोपीय संघ जैसा ही है। इसकी वजह "बड़ी मात्रा में उपलब्ध संसाधन, कम पूंजीगत कीमत  और ऐसी नीतियां हैं, जिनमें नवीकरणीय क्षमताओं को लगाने के लिए बेहद कम कीमत की व्यवस्था की गई है।"

जापान और तुर्की जैसे देश, जहां ठीक स्तर का काम नहीं हुआ, वहां यह शोध समर्थन ना देने वाली नीतियों और अविश्वास भरे बाज़ार को ज़िम्मेदार ठहराता है। (कार्बन ट्रैकर का लागत विश्लेषण का बॉक्स देखिए)।

 क्या भारत के संदर्भ में यह विश्लेषण सही है?

ब्रुकिंग इंडिया के लिए राहुल तोंगिया द्वारा 2018 में बनाया गया "लैडर ऑफ कॉमपीटिटिवनेस फॉर रेन्यूबल वर्सिज कोल" कोयले को नवीकरणीय ऊर्जा से बदलने के फायदे और नुकसान के बारे में बात करती है। स्वाभाविक है कि यह परिवर्तन ना तो आसान रहेगा और ना ही इसके बारे में कोई निश्चितता है। यह वक़्त के साथ होगा और VRE की पहुंच पर निर्भर करेगा (बढ़ती मुश्किलों पर बना चार्ट देखें)।

नवीकरणीय ऊर्जा प्रतिस्पर्धा 

तोंगिया नवीकरणीय ऊर्जा की कोयले के भिन्न तत्वों - स्थाई तत्व(पूंजी) और चर तत्व (ईंधन) की कीमतों पर आधारित बढ़ती प्रतिस्पर्धा में परिवर्तन के लिए चार स्तर बताते हैं। नवीकरणीय ऊर्जा में एक ही स्थायी लागत होती है। इनमें ईंधन का पैसा नहीं लगता। एक बार बनाने के बाद यह हमेशा चलते रहते हैं। "यह सही बात नहीं है कि ग्रिड को संतुलित रखने वाले ' लोड - डिस्पैचर्स या भार प्रेषक ' केवल कोयले की चर कीमत (ईंधन पर लगने वाली) देखते हैं और उसकी तुलना नवीकरणीय ऊर्जा की कुल कीमत (जो निर्माण की स्थाई कीमत है) से करते हैं।

तोंगिया कहते हैं कि  पॉवर पर्चेज एग्रीमेंट (PPAs) के बावजूद, कोयला संयंत्रों  के लिए स्थायी (निर्माण की पूंजी) कीमत चुका दी जाती है। लेकिन नवीकरणीय ऊर्जा को ऐसे ढांचे की सहूलियत नहीं है। प्रतिस्पर्धा के चार स्तर केवल "स्थायी बनाम कोयला संयत्र की चर कीमत " पर आधारित है। इसमें PPAs समझौतों में किए गए तोड़ मोड़ ध्यान में नहीं रखे जाते। 

कार्बन ट्रैकर का लागत विश्लेषण

किसी संयंत्र की ऊर्जा की "लांग रन मार्जिनल कॉस्ट (LMRC) - कुल उत्पादित ऊर्जा की कीमत में से संयंत्र को चलाने में लगने वाली कीमत का घटाव होती होती है। संयंत्र को चलने में लगने वाली कीमत में ईंधन, क्रियाकलापों और प्रबंधन में लगने वाला पैसा, स्थायी O&M कीमत और स्तरीय कीमत (LCOE) होती है"। कार्बन ट्रैकर के मुताबिक़ LMRC और संयत्र बनाने का आर्थिक पहलू नवीकरणीय ऊर्जा के पक्ष में है।

कार्बन ट्रैकर इस बात पर जोर देता है कि दुनिया के 60 फ़ीसदी कोयला संयंत्रों का LRMC, नवीकरणीय ऊर्जा के LCOE से ज्यादा है। यह ट्रेंड यूरोप में ज़्यादा दिखाई पड़ता है। वहां नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश को मजबूत "कार्बन प्राइसिंग'' का समर्थन हासिल है। लेकिन यह  वैश्विक स्थिति नहीं है। ख़ासकर एशिया में तो कतई नहीं।

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नवीकरणीय ऊर्जा को दूसरे कारक भी प्रभावित कर रहे हैं। कोयले की वृहद क्षमता का काम उपयोग और अधिशेष ऊर्जा हासिल करने के लिए दिन का सही समय सबसे बड़े मुद्दे हैं। तोंगिया का सुझाव है कि राज्यों को सबसे तेज स्तर के दौरान बिजली खरीदनी चाहिए। इसके तहत बिजली एकत्रित करने की योजना पोर्टफोलियो स्तर पर होनी चाहिए, न कि स्थाई ब्लॉक के आधार पर।

 तोंगिया का मानना है कि थोक दामों और  लचीले बाज़ार से भी भंडारण की दिक्कत ख़तम होगी। बल्कि नवीकरणीय ऊर्जा की चुनौतियां राज्यों के स्तर पर खत्म की जा सकती हैं।  "खासकर तब जब नवीकरणीय ऊर्जा की ज़्यादातर मात्रा कुछ राज्यों तक ही सीमित है। यही राज्य आज असमान तरीके से खतरा उठाते और इसकी कीमत अदा करते हैं।"

 गैर राज्य नीलामी तत्वों के उभार, जो राज्यों को बायपास कर सीधे अंतर्राज्यीय हस्तांतरण ढांचे तक पहुंचते हैं। इनसे कुछ राज्यों तक संकेद्रण कम होता है।  लेकिन इसे दूसरे पक्ष से खतरा बरकरार रहता है, कम वक्त का लाभ मायने नहीं रखता। 

 बड़े लक्ष्य

मौजूदा स्थितियों में पवन ऊर्जा को दोगुना करने का लक्ष्य और सोलर PV को 2018 से 2024 के बीच चार गुना करने का लक्ष्य बहुत ज़्यादा बड़ा समझ में आता है।  सितंबर 2019 में CRISIL की एक रिपोर्ट में बताया गया,"भारत के नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य 2022 से काफ़ी पीछे चल रहे हैं।" 

भारत में मौजूदा कोयला संयंत्रों में पैदा होने वाली बिजली की उत्पादन कीमत, बेहतर संयंत्र भार क्षमता के चलते भारत में कम होती है। यह चीज भारत में कोयले के पक्ष में जाती है। हालांकि इस पर लगातार ईंधन के तौर पर लगने वाले कोयले की कीमत से सीमाबंदी हो जाती है। 

 कोल इंडिया के पूर्व अध्यक्ष पार्थ सारथी भट्टाचार्य मानते हैं कि लंबे वक़्त में कोयला तस्वीर से बाहर हो जाएगा। लेकिन वो कहते हैं," अगर प्रति टन 400 रुपए स्वच्छ सेस को जोड़ भी लिया जाए, तो भी कोयले से  ऊर्जा उत्पादन करने में लगने वाली कीमत नवीकरणीय ऊर्जा से कम ही रहेगी"। यह एक बहुत सोचने वाली बात है।

तार्किक तौर पर कोयले का CEC   में 30,000 करोड़ रुपए का योगदान होता होता है। किसी भी पूंजी तुलना में इसे लेना होगा। पार्थ सारथी के मुताबिक़, " अगर इसे और कोयला क्षेत्रों के आसपास बने कोयला संयंत्रों को चलाने में लगने वाली कीमत को जोड़ लिया जाए, तो भी कोयला आधारित बिजली संयंत्र नवीकरणीय ऊर्जा के साथ अगले दो दशकों तक प्रतिस्पर्धा में रहेंगे।" ऊपर से कोयला आधारित ऊर्जा क्षमता को नवीकरणीय ऊर्जा से बदलने पर सीमा की बाध्यता भी है। जिससे ऐसा करना लगभग प्रतिबंध हो जाता है।

 कोयला है विकल्प

इन स्थितियों में कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि कोल इंडिया की पूंजी को केंद्रीय बजट में 9500 करोड़ रुपए कर दिया गया, जो 18 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी थी। कोयला मंत्रालय के लिए करीब 18467 करोड़ रुपए आवंटित हुए थे। जो पिछले साल आवंटित हुए 18,121 करोड़ रुपए से थोड़ा ज्यादा थे। लिग्नाइट माइनर NLC   है। इंडिया को 2020-21 के लिए 6,667 करोड़ और सिंगरेनी कोलिरीज को 2,300 करोड़ रुपए मिले हैं।

कोयला और लिग्नाइट की खोज के लिए 700 करोड़ रुपए का भी प्रावधान किया गया है। इससे पता चलता है कि कोयले की मात्रा का पता लगाने के लिए प्राथमिक खुदाई पर ही जोर रहेगा। 

 ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर बताता है कि भारत में 37 गीगावॉट की कोयला क्षमता मौजूद है। जुलाई 2019 की शुरुआत तक 49 गीगावॉट की क्षमताएं अपने निर्माण के शुरुआती दौर में थीं। यह चीन के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कोयला पाइपलाइन है। पर्यावरण नीतियों के तहत कोयले को निशाना बनाने वाले दबाव का यहां कोई असर नहीं पड़ेगा। भारत की ऊर्जा जरूरतों में काला हीरा अपना दबदबा बरकरार रखेगा।

कार्बन को कम करना होगा

हरित लक्ष्यों की पूर्ति करने के लिए कार्बन की मात्रा को नियंत्रित कर ज़्यादा साफ कोयला  हासिल करने की जरूरत है। कोयले के भविष्य पर MIT  का अध्ययन हरित आशावादियों की चालाकियों से इतर, एक ऐसी दुनिया में जहां ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए कार्बन उत्सर्जन प्र लगाम लगाई जा रही है, वहां ऊर्जा के स्रोत के तौर पर कोयले के किरदार का परीक्षण करता है। इस परीक्षण में माना गया कि सरकार CO2 और दूसरी हरित प्रभाव वाली गैसों को रोकने के लिए कदम बढ़ाएंगी ही।

बल्कि चुनौती इस बात की है कि सरकारें और उद्योग ऐसा रास्ता निकालें जिससे आपात मांगों को पूरा करने के लिए, खासकर विकासशील देशों में, कोयले का प्रचलन भी जारी रहे और कार्बन उत्सर्जन भी कम हो। ''रिपोर्ट ऑन इंडियाज़ एनर्जी ट्रांजिशन: द कास्ट ऑफ मीटिंग एयर पॉल्यूशन स्टैंडर्ड इन द कोल फायर्ड इलेक्ट्रिसिटी सेक्टर'' के मुताबिक़ भारत में कोयला संयंत्रों में स्वच्छ वायु पैमानों की पूर्ति के लिए 10 बिलियन डॉलर और टैरिफ में 1/10 की बढ़ोतरी करनी होगी। इस रिपोर्ट को अंतरराष्ट्रीय सतत विकास संस्थान और ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद ने प्रकाशित किया है।

 यह अनुमान स्वच्छ पैमानों को बनाने के चार साल बाद और इन्हे लागू करने की  "शुरुआती अंतिम सीमा'' खत्म होने के दो साल बाद आए हैं। इनसे हमें भारतीय राज्य की स्वच्छ हवा के बारे में प्रतिबद्धता का अंदाजा होता है। क्या कोरोना महामारी का प्रहार स्थितियों में कुछ बदलाव लाएगा? ज़ाहिर है इन्हें लागू करने के लिए वैश्विक दबाव होगा। फिर भी कुछ तय नहीं कहा जा सकता।

 रिपोर्ट में आखिर में कहा गया-  "उद्योगों के नियामकों को लागू करने और मानने के पुराने इतिहास को देखते हुए ऐसा लगता है कि उद्योग अब भी वही रवैया जारी रखेंगे। जबकि हर संयंत्र के लिए एक निश्चित सीमा तय की गई है। इस बात को आगे आने वाले वक़्त में लगने वाली ऊंची पूंजी और घाटा पूरा करने की प्रवृत्ति से और भी ज्यादा बल मिलेगा। क्योंकि अब तक इसकी  नुकसान की भरपाई की प्रक्रिया साफ नहीं हो पाई है।

स्वच्छ कोयला मजबूर भारत के भविष्य के लिए  सबसे बेहतर आशा है, लेकिन वह भविष्य भी अब काफ़ी दूर है।

नवीकरणीय ऊर्जा के आसपास काफ़ी चिंताएं हैं। अगर नवीकरणीय ऊर्जा कोयले कि जगह लेगी तो 2050 तक इसे सौर और पवन ऊर्जा से भारी भरकम 7 टेरावॉटस बिजली का उत्पादन करना होगा। जिससे दुनिया की आधी अर्थव्यवस्था को ऊर्जा मिल सकेगी। अगर पूरी अर्थव्यवस्था को ऊर्जा दिलवानी है तो इससे दोगुनी बिजली चाहिए होगी। उस अवस्था में नवीकरणीय माध्यमों को बनाने के लिए 34 मिलियन टन कॉपर, 40 मिलियन टन लेड, 50 मिलियन टन जिंक, 162 मिलियन टन एल्युमिनियम और कम से कम 4.8 बिलियन टन लोहे की जरूरत होगी।

 पवन ऊर्जा में टर्बाइन के लिए नियोडाई मियम में 35 फ़ीसदी ज्यादा खनन की जरूरत होगी। सोलर पैनल में लगने वाली चांदी में खनन 105 फ़ीसदी बढ़ाना होगा। इंडियम की मांग तीन गुनी से लेकर 920 फ़ीसदी तक बढ़ सकती है। स्टोरेज बैटरी बढ़ाने कनमतबल होगा कि 40 मिलियन टन लिथियम की जरूरत होगी। जो मौजूदा खनन से 2,700 फ़ीसदी ज्यादा होगा।

दुनिया की दो अरब मोटरगाड़ियों को बदलने के लिए खनन में भयंकर इज़ाफ़ा करना होगा। नियोडाई-मियम और डाई- स्पॉर्सियम में 70 फ़ीसदी बढ़ोतरी होगी, वहीं तांबा का खनन दोगुने से ज्यादा करना होगा। 2050 तक इस काम के लिए कोबाल्ट की मात्रा को चार गुना करना होगा।

तब मौसम परिवर्तन यह नहीं रह जाएगा कि इंसान ऊर्जा कैसे पैदा करता है, तब इसका मतलब होगा कि वह अपनी ऊर्जा जरूरतों को कैसे कम करेगा।

समता,नैतिकता,पर्यावरण या अर्थशास्त्र, हम किसी भी नज़रिए से देखें तो हमें एक नई सभ्यता की जरूरत है।

(समाप्त)

लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं, जो 1980 से कोयले पर लिख रही हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेज़ी में मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें।

Questioning the Death of Coal-V: Reconciling Renewables Versus Coal Numbers

भाग 1 - क्या ख़त्म हो रहा है कोयले का प्रभुत्व : पर्यावरण संकट और काला हीरा

भाग 2 - क्या ख़त्म हो रहा है कोयले का प्रभुत्व : पर्यावरण संकट और काला हीरा

भाग 3 - क्या ख़त्म हो रहा है कोयले का प्रभुत्व : एशियाई भूख और काला हीरा

भाग 4 - कोयले की मौत पर सवाल: नवीकरणीय ऊर्जा पर बड़बोलापन और इससे जुड़ी आशाएं

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