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इतिहास का पुनर्लेखन: आंशिक लाभ के लिए अतीत में कलह का बीज बोया जा रहा है

एनसीईआरटी की ओर से छात्रों के पाठ्यक्रम में जो “कांट-छांट” की गई है, वह नागरिकों को इस तरह विभाजित कर देगा जैसा औपनिवेशिक शासक भी नहीं कर पाए थे।
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कई लोगों का तर्क है कि सारा इतिहास समकालीन इतिहास है और यह हमेशा विजेताओं द्वारा लिखा जाता है। इसका अर्थ यह निकलता है कि, आज भारत में जो कुछ हो रहा है वह नया या आश्चर्यजनक नहीं है: जब अंग्रेजों ने भारत पर शासन किया, तो उन्होंने खुद की इतिहास की कहानी रची। जब भारत आज़ाद हुआ, उसके बाद के दशकों में कांग्रेस का वर्चस्व रहा, और परिणामस्वरूप, इतिहास के पाठ्यक्रम को उसके हितों के अनुरूप बनाया गया। और अब, भारत पर एक अलग विचारधारा का शासन है, वे वही कर रहे हैं जो उनके सामने हमेशा किया गया था: यानि कहानी के खुद के संस्करण को आगे बढ़ाने के लिए इतिहास को अपनी दासी के रूप में इस्तेमाल करना। 

लेकिन, क्या मामला वाकई इतना सरल है? क्या यह सिर्फ इतिहास के एक "संस्करण" का दूसरे के ख़िलाफ़ वाला मामला है? या यह और भी भयावह है? क्या यह केवल एक साधारण "राजनीतिक" कवायद है या एक ऐसा प्रयास जिसके गंभीर परिणाम होंगे?

इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, आइए हम इतिहास के इस्तेमाल और उसकी ज़रूरत को समझें। सरल शब्दों में कहें तो यह अतीत को समझने का एक प्रयास है कि हमने क्या गलतियां कीं और कौनसे ग़लत क़दम उठाए, ताकि हम ऐसी समान ग़लतियों से बच सकें और एक बेहतर भविष्य बना सकें। बेशक, हम अतीत के गौरव के बारे में भी सीखते हैं और यह भी कि कैसे हम अभी भी अपने भविष्य के प्रयासों में उन सफलताओं को हासिल कर सकते हैं! जिस तरह एक हड्डी या कंकाल का वैज्ञानिक अध्ययन करने से एक वैज्ञानिक सूचना मिलती है कि मृतक किस तरह का जीवन जी रहा था और उसकी मृत्यु का कारण क्या था, एक इतिहासकार भी अतीत के समाजों, संस्कृतियों, अर्थव्यवस्थाओं और उनकी तकनीकों का अध्ययन करता है - या उनकी कमी का अध्ययन करता है - यह निर्धारित करने के लिए कि हम आज जहां हैं वहां हम कैसे पहुंच गए हैं और हमें आगे कैसे बढ़ना चाहिए।

हमें यह भी याद रखना चाहिए कि अतीत को समझने में हमें केवल अपनी कल्पना या इच्छाओं से सहायता नहीं मिलती है। हम 'स्रोतों' पर निर्भर होते हैं जो हमें अतीत का जायज़ा लेने में मदद करते हैं। स्रोतों से तात्पर्य कलाकृतियों, लिखित शब्दों, दस्तावेजों, कालक्रमों, पुस्तकों आदि से है, जो अध्ययन की वजह से लंबे वक़्त से ज़िंदा हैं। ये वही हैं जो हमें अतीत की अच्छी या बुरी घटनाओं के बारे में बताते हैं। इस प्रकार, अतीत से अज्ञात नए स्रोतों और सबूतों की खोज हमारे अतीत के बारे में हमारे ज्ञान और समझ की समीक्षा करने में परिणत होती है। अतीत की घटनाओं की कोई भी व्याख्या जो साक्ष्य एवं तथ्यों से समर्थित नहीं है, वह इतिहास नहीं बल्कि मिथक-इच्छाधारी सोच है!

पिछले कुछ वर्षों से जो हो रहा है वह यह कि इतिहास-लिखित हो या भौतिक, साक्ष्य के आधार पर अतीत का अध्ययन, धीरे-धीरे लेकिन क्रमशः मिथक में बदल रहा है - एक काल्पनिक अतीत जो किसी भी तथ्य, कमज़ोर या मजबूत द्वारा समर्थित नहीं है। हम अपनी इच्छानुसार सोच के मुताबिक इतिहास को गढ़ने में लगे हैं। और यह हमारे भविष्य के लिए ख़तरे को दर्शाता है।

जैसे ही वर्तमान व्यवस्था ने सत्ता संभाली, मिथक चलन बन गए, जैसे कि कहा गया कि हमारे पूर्वजों को प्लास्टिक सर्जरी, कृत्रिम गर्भाधान और हवाई जहाज का ज्ञान था! और 2020-21 में, एक नई शिक्षा नीति या एनईपी पेश की गई, जिसके अनुसार इतिहास में स्नातक डिग्री के लिए एक पाठ्यक्रम तैयार किया गया, जिसमें बताया गया है कि भारत एक गौरवशाली आर्य मातृभूमि है। भारत में आर्यों के प्रवासन के सिद्धांत के सभी संदर्भों को "औपनिवेशिक" डिसकोर्स से अलग कर खारिज कर दिया गया। हड़प्पा और वैदिक संस्कृतियों के बीच समानता पर ज़ोर दिया गया, और सरस्वती सभ्यता का एक आख्यान तैयार किया गया।

यहां तक कि प्राचीन भारतीय इतिहास से संबंधित पाठ्यक्रम पर एक सरसरी नज़र डालने से पता चलता है कि महाकाव्यों को भी ऐतिहासिक स्रोतों के रूप में स्थापित किया गया है। यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि प्राचीन काल में सती, स्त्री दासता, बहुविवाह और जातिगत भेदभाव जैसी कुरीतियां नहीं थीं और इसका परिणाम "विदेशियों" - मुसलमानों के आगमन से हुआ। धर्मशास्त्रों में बहुविवाह और सती के सभी संदर्भ पूरी तरह से हटा दिए गए हैं।

अब उसी तरह के बदलाव और हटाने से कक्षा छह से बारहवीं कक्षा तक की एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें प्रभावित हो रही हैं। अप्रशिक्षित आंखों को इस किस्म के विलोपन अक्सर किए जाने वाले काम लग सकते हैं, जिससे एनसीईआरटी के निदेशक दिनेश प्रसाद सकलानी को यह दावा करने में मदद मिलती है कि कोविड-19 महामारी के कारण छात्रों पर पाठ्यक्रम का बोझ कम करने के लिए यह अभ्यास ज़रूरी है जिसमें अनावश्यक या "डुप्लिकेट" अनुच्छेदों को निकालकर पाठ्यक्रम को "तर्कसंगत" करने का प्रयास है, और इससे छात्रों को मदद मिलती है। वे आसानी से यह भूल जाते हैं कि अब कोविड के बाद के हालात सामान्य हो गए हैं और कक्षाएं वापस सामान्य हो गई हैं और ऑनलाइन कक्षाओं की तरह पाठ्यक्रमों को कम करने की अब कोई ज़रूरत नहीं है। उनके विचार में, इस कवायद के पीछे न तो कोई "राजनीतिक एजेंडा" था और न ही मुग़लों को मिटाने का प्रयास, जिनका पाठ्यपुस्तकों में बहुत कुछ ज़िक्र अभी भी है।

रहस्य तभी खोला जाता है जब कोई बहिष्कृत विवरण पर ध्यान देता है और राजनीतिक प्रवक्ताओं की आवाज़ों की कर्कशता को सुनता है - कुछ इतिहासकारों के नाम पर समाचार चैनल और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स इस किस्म की आवाज़ बनते हैं। कोरियोग्राफी उसी किस्म की है जिसमें हिंदुत्व माहिर है: डबलस्पीक। कई तरह के विचार सामने रखकर मुद्दों को भ्रमित करने की कोशिश की जाती है, और जो कुछ कहा जाता है वह एनसीईआरटी के अधिकारियों के विपरीत होता है। इस प्रकार, कुछ लोगों के लिए, यह अभ्यास पाठ्यक्रम के "असंतुलन" को ठीक करने के लिए है, जो उन पहलुओं पर ज़ोर देता है जिन्हें इतिहास में अनुचित महत्व दिया गया था, और उन तत्वों को पेश करता है जिन्हें अब तक पाठ्यक्रम में कोई स्थान नहीं मिला था।

बाक़ी कुछ का कहना है कि जो इतिहास पढ़ाया जा रहा है उसे विजेताओं ने लिखा था, और अब समय आ गया है कि "पीड़ितों" के दृष्टिकोण को सामने लाया जाए। अभी भी अन्य लोगों के लिए, सभी मुस्लिम शासक "विदेशी" थे, और उनकी जीत की "प्रशंसा" करने के बजाय, एक "राष्ट्रवादी" दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। इन विरोधाभासी आवाज़ों में वे लोग शामिल हैं जो भारतीय इतिहास की "दबी हुई वास्तविकताओं का पता लगाने" के एक ठोस प्रयास का हिस्सा हैं। दरअसल, इन दिनों एक मुखर आवाज़ सुनाई दे रही है, वह एक संस्था के तथाकथित प्रिंसिपल ट्रस्टी की है, जिसे हिंदुस्तानी इतिहास की दमित वास्तविकताओं का पता लगाने के लिए एक संगठन के रूप में जाना जाता है, जिसका घोषित मिशन "भारत के प्रामाणिक इतिहास को सभी लोगों के लिए उपलब्ध कराना" है!

इन हो रहे बदलावों के वास्तविक महत्व को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। यदि हम यह याद करने की कोशिश करें कि हमारे प्रधानमंत्री ने 26 दिसंबर 2022 को छात्रों को "मनगढ़ंत कथा" पढ़ाए जाने के बारे में क्या कहा था, जिन्हे ठीक करने की ज़रूरत है। एक महीने पहले 24 नवंबर 2022 को केंद्रीय गृह मंत्री ने वाकपटुता से ऐलान किया था कि भारत को अपना इतिहास दोबारा लिखने से कोई नहीं रोक सकता है!

ये सभी मामले और भी स्पष्ट तब हो जाते हैं जब हम देखते हैं कि पाठ्यक्रम में कौन से तत्व बरकरार रखे गए हैं और क्या हटा दिए गए हैं। इससे पहले, एनईपी के तहत बीए पाठ्यक्रम में शाहजहां (ताजमहल के निर्माण के संदर्भ में), दारा शिकोह और औरंगज़ेब को छोड़कर अधिकांश मुग़लों के सभी संदर्भों को हटा दिया गया था। एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में किए गए बदलावों में अकबर पर कुछ चर्चा बरकरार है, जैसे कि चित्तौड़ की घेराबंदी और राजपूतों का परिणामी नरसंहार, लेकिन मुग़ल पक्ष से लड़ाई का नेतृत्व किसने किया और सभी धर्मों के प्रति अकबर की सहिष्णुता की नीति के सभी संदर्भ, और सभी राजपूतों और मुग़ल साम्राज्य के बीच मौजूद सहयोग से संबंधित पाठों को हटा दिया गया है।

कक्षा छह से बारह तक के छात्र जो अब इस तरह का पाठ्यक्रम पढ़ेंगे, वे इस बात से बेखबर रहेंगे कि मुग़ल शासन, राजपूतों और मुग़लों के बीच के भारत में एक आपसी सहयोग का प्रशासन था। दोनों राजस्व इकट्ठा करते थे और आम जनता, यानि हिंदुओं और मुसलमानों दोनों का शोषण करते थे। ऐसे छात्रों को यह जानने का कोई मौका नहीं मिलेगा कि राजा टोडर मल और राजा रघुनाथ राय शायद भारत के अब तक के सबसे कुशल वित्त मंत्री थे। वे उन सभी सकारात्मक तकनीकी विकास के बारे में अनभिज्ञ रहेंगे, जैसे कागज़ का उत्पादन (जिनमें से भारत कुछ सर्वोत्तम किस्मों का उत्पादक बनकर उभरा था), सिविल इंजीनियरिंग क्षेत्र में प्रगति, कपड़ा प्रौद्योगिकी में विकास और यहां तक कि पानी बढ़ाने और इसे लंबी दूरी तक ले जाने की तकनीक भी इसमें शामिल है - जिस तकनीक से फव्वारे काम करते हैं, इसके अलावा कांच बनाने का उद्योग, शराब आसवन, नील उत्पादन, रेशम उत्पादन और कई अन्य विकास युवा प्रभावशाली दिमागों के दायरे से बाहर रहेंगे। वे केशव, मनोहर या कान्हा जैसे कलाकारों के बारे में कभी नहीं सुन पाएंगे!

हालांकि, उनके दिमाग में हमेशा, युद्धों, सांप्रदायिक दंगों, पूजा के धार्मिक स्थलों को तोड़ने और दुश्मनी के माहौल की कहानी बनी रहेगी। शायद हम अपने नागरिकों को इस तरह बांटने में कामयाब हो जाएं जिसमें हमारे औपनिवेशिक आका भी नाकाम रहे थे।

पाठ्यक्रम से चयनात्मक विलोपन या मिटाने से ये हमें ऐसे काल्पनिक अतीत की ओर ले जाएगा, जैसे कि "स्वर्णिम" प्राचीन काल जिसमें कोई जाति-प्रथा (जाति व्यवस्था) या भेदभाव नहीं थे, कोई ब्राह्मणवादी अत्याचार या ज्ञान नहीं था, यह भी नहीं जान पाएंगे कि बौद्ध धर्म को इस देश से हिंसक रूप से भगा दिया गया था। मध्यकालीन युग केवल युद्धों और असंतोष के साथ एक अंधकार युग के रूप में उभरेगा। मध्यकालीन भारत की पाठ्यपुस्तकों के खंडों में जातिगत भेदभाव, शूद्र के रूप में पैदा होने का दंश, सती प्रथा आदि के संदर्भ इस विचार को पुष्ट करेंगे कि ये सभी नकारात्मक पहलू मध्यकालीन समाज की देन हैं। किसान अशांति, दलित आंदोलनों आदि के सभी संदर्भों को हटाने से हमें सभी असहज सच्चाइयों से दूर होंगे। इस प्रकार वास्तव में असंतुलित काल्पनिक अतीत एक हक़ीक़त बन जाएगा।

इसके अलावा, समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान जैसे संबद्ध विषयों की पाठ्यपुस्तकों से खंडों, गद्यांशों और वाक्यों को हटाने से इस काल्पनिक अतीत की पुष्टि करने में मदद मिलेगी। 2002 के गुजरात सांप्रदायिक दंगों के सभी संदर्भों को मिटा दिया गया है, जबकि 1984 के समान रूप से भयानक सिख दंगों के संदर्भों को बरकरार रखा गया है। गांधीजी की हत्या को जगह मिली है, लेकिन हत्यारों के वैचारिक झुकाव के संदर्भों को सुविधापूर्वक हटा दिया गया है। कुछ पाठ्यपुस्तकों में, इस्लामी संस्कृति के संदर्भ हटा दिए गए हैं, जैसा कि उन सभी घटनाओं के संदर्भ में होता है जो धर्म के आधार पर विभाजित राष्ट्र के "आधिकारिक" आख्यान को बाधित या चुनौती देते हैं।

इस तरह के "कांट-छांट" वाले पाठ्यक्रम के ज़रिए तैयार की जाने वाली भावी पीढ़ियां उन पारस्परिक संबंधों को कभी नहीं समझ पाएंगी जो वास्तव में भारत के निर्माण में मददगार थे। इस बनावटी आख्यान में सहनशीलता पराई होगी। इसलिए लोगों को एक फासीवादी राज्य के आदर्श नागरिकों में बदल दिया जाएगा।

याद रखें, आधा सच कभी-कभी पूरे झूठ से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होता है। गढ़ी हुई सच्चाइयों के साथ मिलकर, हम 'अज्ञानियों' का समाज बनाएंगे। जहां मूल फासीवादी और नाज़ी विफल हुए, वे यहां सफल होने का प्रयास कर रहे हैं।

लेखक, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एड्वान्स स्टडीज़ सेंटर में इतिहास के प्रोफेसर हैं, भारतीय इतिहास कांग्रेस के सचिव और अलीगढ़ सोसाइटी ऑफ हिस्ट्री एंड आर्कियोलॉजी के अध्यक्ष हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Rewriting History: Sowing Discord in the Past for Petty Gains Today

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