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समलैंगिक विवाह: हाई कोर्ट के सभी लंबित मामलों की सुनवाई अब सुप्रीम कोर्ट में, सरकार से जवाब मांगा

समलैंगिक शादियों को क़ानूनी मान्यता देने की मांग करने वाली दिल्ली उच्च न्यायालय, गुजरात उच्च न्यायालय और केरल उच्च न्यायालय सहित देश के अलग-अलग उच्च न्यायालयों के समक्ष लंबित याचिकाओं पर अब सुप्रीम कोर्ट में एक साथ सुनवाई होगी।
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फ़ोटो साभार: Dawn

सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालयों की सभी समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिलाने वाली याचिकाओं को अपने पास ट्रांसफर कर लिया है। यह मामला मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया गया था। पीठ ने इस मामले में केंद्र सरकार को नोटिस भेजते हुए 15 फरवरी तक जवाब भी मांगा है। वहीं अब इस मामले की सुनवाई 13 मार्च को होगी।

बता दें कि स्पेशल मैरिज एक्ट 1954,हिंदू मैरिज एक्ट 1955 और फॉरेन मैरिज एक्ट 1969 के तहत अपने विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग करने वाले कई समलैंगिक जोड़ों की 8 याचिकाएं दिल्ली उच्च न्यायालय, गुजरात उच्च न्यायालय और केरल उच्च न्यायालय सहित देश के अलग-अलग उच्च न्यायालयों के समक्ष लंबित थीं। इन्हें सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर करने के लिए भी एक याचिका दायर की गई थी, जिस पर शीर्ष अदालत ने आज शुक्रवार, 6 जनवरी को अपनी मुहर लगा दी। अब ये सभी याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट के पास सुनवाई के लिए सूचीबद्ध की जाएंगी।

क्या है पूरा मामला?

सुप्रीम कोर्ट ने छह सितंबर, 2018 को एक अहम फैसला सुनाते हुए समलैंगिकता को अवैध बताने वाली भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को रद्द कर दिया था। तब अदालत ने कहा था कि अब से सहमति से दो वयस्कों के बीच बने समलैंगिक यौन संबंध अपराध के दायरे से बाहर होंगे। हालांकि, उस फैसले में समलैंगिकों की शादी का जिक्र नहीं था। अब इसी समलैंगिक विवाह को मान्यता दिलाने के लिए एलजीबीटी समुदाय का कोर्ट में संघर्ष जारी है।

समलैंगिक जोड़ों ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। कोर्ट ने सरकार से जवाब मांगा है। हालांकि, पूर्व में कानून मंत्रालय ने समलैंगिक विवाह का विरोध करते हुए कहा था कि भारत में विभिन्न समुदायों में विवाह 'सदियों पुराने रीति-रिवाजों' पर आधारित है और समलैंगिक संबंधों को 'भारतीय परिवार' के बराबर मान्यता नहीं दी जा सकती। इस बारे में कानून बनाना संसद का काम है, इसलिए अदालतों को इससे दूर रहना चाहिए।

ध्यान रहे कि हाल ही में बीजेपी के सांसद सुशील मोदी ने राज्यसभा में था कहा कि केवल ‘दो जज’ एक साथ बैठ कर समलैंगिक विवाह जैसे सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण विषय पर फैसला नहीं ले सकते हैं। सुशील मोदी का कहना था कि समलैंगिक शादियों को वैध बनाने की मांग 'वेस्ट की ओर झुकाव वाले लेफ्ट-लिबरल्स' की ओर से आ रही है और इसे कानूनी मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए। ये देश के सांस्कृतिक लोकाचार और मूल्यों के खिलाफ है। शून्यकाल के दौरान इस मामले को उठाते हुए सुशील मोदी ने कहा था कि यह देश में व्यक्तिगत कानूनों के नाजुक संतुलन को देखते हुए पूर्ण विनाश का कारण बनेगा।

समलैंगिक शादियों को मान्यता क्यों ज़रूरी है?

विकास और प्रगति के तमाम दावों के बीच आज भी एलजीबीटी कम्युनिटी के लोग देश में भेदभाव का सामना करते हैं। इनकी शादी को कानूनी मान्यता मिलने से इन कपल्स को वसीयत, मेनटेंनेंस, गोद लेने, सेहत, बीमा, टैक्स लाभ, पेंशन, घरेलू हिंसा से बचाव और ऐसी कई चीजों में बाकी कपल्स की तरह अधिकार मिल सकेंगे। ऐसे जरूरी कानूनी अधिकारों के बिना समलैंगिक देश में दोयम दर्जे के नागरिक ही बने रहेंगे और देश में नागरिकों को मिले अधिकारों से वंचित रह जाएंगे।

ट्रांस एक्टिविस्ट ऋतुपरना सुप्रीम कोर्ट से बदलाव की उम्मीद करती हैं। वो कहती हैं कि विवाह का अधिकार नहीं मिलने से समलैंगिकों के कई और अधिकार भी प्रभावित हो रहे हैं। वे अपने सारे हक़ों से महरूम है, जो अपनी शादी का क़ानूनी तौर पर रजिस्ट्रेशन करा चुके स्त्री-पुरुष को मिलते हैं।

ऋतुपरना के अनुसार, “हम अभी-अभी महामारी के दौर से बाहर निकले हैं, और इस समय ने हमें अपनों के साथ और जरूरत का सही मायने में एहसास करवाया है। लेकिन कानूनी तौर पर समलैंगिक जोड़ा एक-दूसरे को अपना परिवार नहीं बना सकता। ऐसे में अगर किसी के भी साथ कोई अनहोनी हो जाए तो दूसरा जो उस पर आश्रित है, उसकी पूरी जिंदगी रुक जाती है। शादीशुदा का टैग नहीं होने की वजह से आप मेडिक्लेम, इंश्योरेंस, जॉइंट बैंक अकाउंट, प्रॉपर्टी कार्ड और अन्य दस्तावेज में भी अपने पार्टनर का नाम नहीं लिख सकते, न ही कुछ क्लेम कर सकते हैं।

ग्रेस एक गे हैं, समानाधिकार कार्यकर्ता और पेशे से अधिवक्ता भी हैं इसलिए तमाम कानूनी दांव-पेच को समझाते हुए कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि अदालत से समलिंगी शादियों को क़ानूनी मंज़ूरी मिलते ही समाज में सब कुछ ठीक हो जाएगा या तुरंत बदल जाएगा लेकिन कम से कम उन तमाम लोगों को बराबरी से रहने का हक तो मिल जाएगा जो आज छुप-छुप कर अपना जीवन बिता रहे हैं।

बराबरी की शुरुआत समानता और क़ानून से होती है

ग्रेस के अनुसार, बराबरी की शुरुआत समानता से ही होती है, जिसे कानून के जरिए बल मिलता है। क्योंकि समलिंगी शादियों को भारत में क़ानूनी मान्यता नहीं है, इसलिए यहां इन रिश्तों में कुछ भी आधिकारिक नहीं है। और इसका मुख्य कारण है कि ये शादी की व्यवस्था एक तरह से पितृसत्ता से भरी हुई है। इसमें सिर्फ एक पुरुष और एक महिला का ही कॉन्सेप्ट है। इसमें अलग-अलग धार्मिक क़ानूनों का हिसाब अलग-अलग हैं लेकिन सब में शादी को स्त्री और पुरुष के बीच का ही संबंध माना गया है। साथ ही इनसे जुड़े अन्य क़ानूनों जैसे घरेलू हिंसा, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार और मैरिटल रेप आदि में भी इसी आधार का इस्तेमाल होता है। ऐसे में बदलाव के लिए कई सवाल और जटिलताएं सामने आती हैं। अगर इसमें बदलाव होता है तो वो बहुत व्यापक और क्रांतिकारी बदलाव होगा। जिसके बाद थर्ड जेंडर को सिर्फ क़ानूनी मान्यता ही नहीं उनके अधिकार भी मिल सकेंगे।

सुप्रीम कोर्ट से न्याय की उम्मीद

गौरतलब है कि हाल ही में अमेरिका ने सेम सेक्स मैरिज को कानूनी मान्यता दी है। दुनिया भर में करीब 29 देश ऐसे हैं जहाँ समलैंगिक विवाह को तमाम कानूनी दिक्कतों के बावजूद कोर्ट के ज़रिए या क़ानून में बदलाव करके या फिर जनमत संग्रह करके मंज़ूरी दे दी गई है। प्यू रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार नीदरलैंड दुनिया का पहला ऐसा देश है जहां साल 2000 में सेम सेक्स शादी को मंजूरी मिली थी। उसके बाद से तकरीबन 17 यूरोपीय देश ऑस्ट्रिया, ब्रिटेन, बेल्जियम, फिनलैंड, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, आयरलैंड, आइसलैंड, लक्जमबर्ग, माल्टा, नॉर्वे, पुर्तगाल, स्पेन, स्वीडन, स्लोवेनिया और स्विटजरलैंड सेम सेक्स मैरिज को वैध बना चुके हैं।

साल 2019 में ताइवान एशिया का पहला ऐसा देश बन गया है, जहां सेम सेक्स मैरिज को कानूनी मान्यता दी गई। इसी साल मेक्सिको के सभी राज्यों में समलैंगिक विवाह अब क़ानूनी रूप से मान्य करार दे दिए गए हैं। इसके अलावा अन्य कई देश भी धीरे ही सही लेकिन इस दिशा में आगे बढ़ चुके हैं। हालांकि भारत में इसकी मान्यता को लेकर केंद्र सरकार के नकारात्मक रुख के बाद इस समुदाय के लोगों को भी अपने हकों के लिए और कितना लंबा रास्ता तय करना होगा, ये गंभीर सवाल है। फिलहाल इस समुदाय और पूरे देश की नज़र सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं, जहां से न्याय की उम्मीद की जा रही है।

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