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26 जनवरी की जींद किसान सभा के मायने?

यह किसान सभा पंजाब और हरियाणा के किसानों की एकता को बनाए रखने और इसे मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
Kisan Sabha
फाइल फोटो। PTI

दिल्ली में ऐतिहासिक किसान संघर्ष की समाप्ति के बाद अपनी बाकी मांगों को लेकर किसान संगठनों ने अलग-अलग तरीकों से अपना संघर्ष जारी रखा है। संयुक्त किसान मोर्चे के बैनर तले किसान संगठनों द्वारा एमएसपी (MSP) की कानूनन गारंटी, लखीमपुर हत्याकांड के लिए  न्याय और अन्य लंबित मुद्दों के लिए संघर्ष का सिलसिला एक साल से चल रहा है। बीते वर्ष के दौरान, संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा विभिन्न स्तरों पर संघर्षपूर्ण लड़ाइयां लड़ी गईं हैं। इन्हीं मुद्दों पर आवाज़ बुलंद करने के आह्वान पर 26 जनवरी को जींद (हरियाणा) में पंजाब और हरियाणा समेत अन्य पड़ोसी राज्यों की एक बड़ी सभा होने जा रही है।

26 जनवरी की इस सभा का महत्व किसानों के मुद्दों को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ चल रहे संघर्षों की निरंतरता के रूप में है। यह विशाल किसान सभा पंजाब और हरियाणा के किसानों की एकता को बनाए रखने और इसे मजबूत करने की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम है। इस सभा का महत्व केवल किसानों की मांगों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसकी तुलना किसानों की एकता को तोड़ने के लिए गढ़े जा रहे विभिन्न झूठे आख्यानों से भी की जानी चाहिए। पंजाब और हरियाणा के किसानों की एकता और मुद्दों के सच्चे संघर्ष को मजबूत करने और इसे समग्र राजनीतिक पटल पर उभारने की दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण है।

दिल्ली किसान संघर्ष के दौरान भी 26 जनवरी का दिन विशेष महत्व रखता है। यह दिन किसानों के संघर्ष को विफल करने के लिए मोदी सरकार द्वारा रचे गए एक बड़े षड़यंत्र का दिन था जिसे सही दिशा में डटे रहकर संघर्ष के नेतृत्व ने परास्त कर दिया। मोदी सरकार ने किसानों के संघर्ष में घुसपैठ करने की कोशिश की और अपनी अवसरवादी राजनीतिक और सांप्रदायिक ताकतों का इस्तेमाल करते हुए लालकिले की घटना के माध्यम से किसान आंदोलन को धार्मिक रंग देने, किसानों के बीच दरार डालने, आंदोलन विरोधी कहानी बनाने और उस पर हमला करने की साजिश रची।

ये ताकतें शुरू से ही किसान संघर्ष में घुसपैठ करके अपने संकीर्ण राजनीतिक और सांप्रदायिक एजेंडे को किसानों के संघर्ष पर थोपना चाहती थीं और इस बड़े किसान रोष का इस्तेमाल अपने जनविरोधी राजनीतिक उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए करना चाहती थीं। किसान संघर्ष के नेतृत्व में सतर्कता की कमी ने इन ताकतों के लिए एक अवसर पैदा कर दिया था और इस तरह के षड्यंत्रों के निर्माण ने मोदी सरकार के लिए जगह बना दी थी, लेकिन किसानों की सजग चेतना और विशाल किसान एकता ने इन षड्यंत्रों पर काबू पा लिया।

किसान संघर्ष के धर्मनिरपेक्ष चरित्र की मजबूती से रक्षा की गई और सभी प्रकार के सांप्रदायिक राजनीतिक उद्देश्यों से इसे दूर रखा गया।  इस मौके पर यूपी और हरियाणा के किसानों की भारी लामबंदी ने भाजपा के सांप्रदायिक कार्ड को हराने में बड़ी भूमिका निभाई। आंदोलन के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हुए और किसानों की एकता की रक्षा करते हुए संघर्ष आगे बढ़ा और आखिरकार मोदी सरकार को एक लंबे, कठिन और अनुकरणीय संघर्ष के सामने घुटने टेकने पर मजबूर होना पड़ा।

अब दो साल बाद भी किसान आंदोलन के इन पाठों को याद रखने की ज़रूरत है क्योंकि मोदी सरकार की देश-स्तरीय किसान एकता को कमज़ोर करने की मंशा थमी नहीं है बल्कि नए-नए भेष में सामने आती रही है।  किसानों की देशव्यापी एकता को मजबूत करने के लिए सभी जातियों, धर्मों और क्षेत्रों से ऊपर उठकर शासक वर्ग के राजनेताओं को संघर्ष से दूर रखकर, सभी प्रकार के अवसरवादी सांप्रदायिक तत्वों को दरकिनार करने और किसान मुद्दों को केंद्र में रखने की इस सीख को गांठ बांधकर ही किसानों के संघर्ष को सफलता के साथ आगे बढ़ाया जा सकता है।

इन पाठों का वर्तमान में भी विशेष महत्व है। इन दिनों पंजाब और हरियाणा के बीच नदियों के पानी के बंटवारे का मुद्दा एकबार फिर चर्चा में है।  सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मुताबिक एसवाईएल के मुद्दे पर केंद्र सरकार की मध्यस्थता से दोनों राज्यों की सरकारों के बीच दो बैठकें हो चुकी हैं और बेनतीजा रही हैं। इस मुद्दे पर आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की तारीख भी निश्चित हो चुकी है। ऐसे माहौल में दोनों पक्षों के नेताओं द्वारा पानी के मुद्दे पर राजनीतिक अभिनय करने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है।

ये चीज़ें दोनों राज्यों की जनता को बांटने की भूमिका निभाएगी जैसा अब तक होता आया है। अब तक दोनों पक्षों के नेताओं और केंद्रीय सत्ताधारियों ने इस मुद्दे को अपनी दलगत वोट की राजनीति को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया है।  इस मुद्दे के ज़रिए पंजाब और हरियाणा के किसानों के बीच दशकों तक एक दरार रखी गई जिसे बीते किसान आंदोलन ने एक बार ज़रूर खत्म करने का काम किया और अधिकारों की लड़ाई के लिए एक बड़ी एकता की आवश्यकता जगा दी।

दोनों पक्षों के किसानों ने इस एकता के महत्व को समझा और आंदोलन के दौरान उन्होंने मोदी सरकार की विभाजनकारी रणनीति को नकारते हुए इस एकता की रक्षा की है। अब एक बार फिर जल वितरण के मुद्दे पर इस एकता को नष्ट करने का प्रयास हो सकता है, जिसे पहले की तरह संरक्षित करने की आवश्यकता है।

यह वह समय भी है जब पंजाब के भीतर से सांप्रदायिक नारे उठ रहे हैं और 80 के दशक के सांप्रदायिक आंदोलन को एकबार फिर उभारने की कोशिश की जा रही है। पंजाब के किसानों को दूसरे राज्यों के किसानों से बांटने के लिए सांप्रदायिक नारों के इस्तेमाल किया जा रहा है जैसे 80 के दशक में इस्तेमाल होने वाले 'धोती टोपी जमुना पार' जैसे सांप्रदायिक नारों ने प्रवासी मजदूरों को निशाना बनाया। धार्मिक और सांप्रदायिक मुद्दों के इर्द-गिर्द लामबंदी करने की कोशिश की जा रही है। और सांप्रदायिकता के हथियार से किसानों की एकता को खत्म करने की योजनाएं भी शुरू की जा रही हैं।

ऐसे मौके पर किसानों की जींद रैली दोनों तरफ के किसानों की एकता को बुलंद करने के लिए एक बेहद अहम मौके के तौर पर हमारे सामने है। यहां किसानों को समझना है कि नदी जल बंटवारे के मुद्दे को नेताओं के लिए राजनीतिक हथकंडा नही बनने देना है और आपसी सौहार्द से इसके समाधान के लिए सही दृष्टिकोण अपनाना है, इस लिहाज़ से ये किसान सभा बेहद महत्वपूर्ण है। जींद की संयुक्त सभा इस जुड़ाव को व्यक्त करने का अवसर होगी।  सभी किसान संगठनों को इस महत्व को समझने की ज़रूरत है और इन चुनौतियों से कृषि संकट की वास्तविक चिंताओं के ढांचे के तहत निपटने की ज़रूरत है।

यहां ये बात उठानी भी ज़रूरी है कि दोनों तरफ के किसान हरित क्रांति के किसान विरोधी और जनविरोधी कृषि मॉडल के घातक प्रभावों की मार झेल रहे हैं जिसने दोनों राज्यों के पानी को लूट लिया है। इससे कृषि संकट गहरा गया है। राजनैतिक पार्टियां इस संकट से पैदा हुई बेचैनी को वोटों में बदलने के लिए तरह-तरह के मुद्दे उठाती हैं और मामूली मुद्दों को अधिक प्रमुखता देती हैं। दोनों राज्यों में जल बंटवारे का मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जो राजनीतिक हथकंडों की वजह से दशकों से उलझा हुआ है। इसका न्यायोचित और तर्कपूर्ण समाधान किया जाना चाहिए क्योंकि फसलें बर्बाद हो रही हैं। दोनों तरफ फसलों की यह बर्बादी केवल पानी के कारण नही है क्योंकि सिर्फ सूखी नहीं बल्कि पकी हुई फसलों को भी कई तरफ से लूटा गया है। यह लूट कई कारणों से हुई है जिसमें फसलों की कीमत से लेकर माल की कीमत में वृद्धि, महंगा कर्ज़, बड़ी संख्या में किसानों की ज़मीन का नुकसान आदि शामिल है।

अब साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लालची योजनाओं को जल स्रोतों पर भी लागू किया जाने लगा है। अब समय है जब दोनों राज्यों सहित पूरे देश के किसानों को इन साम्राज्यवादी कंपनियों से पानी की रक्षा करनी है। कृषि क्षेत्र पर काॅर्पोरेटों के छापों से भूमि को बचाना भी ज़रूरी है इसलिए बड़ी-बड़ी काॅर्पोरेट कंपनियों के साथ संघर्ष को मजबूती से जारी रखते हुए, जल बंटवारे को लेकर आपसी विवादों को भाईचारे से निपटाया जाना चाहिए।  विभिन्न भ्रामक मुद्दों के बीच किसान संगठनों पर यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वे कृषि संकट के जनहितैषी समाधानों की पहचान करें और उनके लिए एक बड़ा संघर्ष स्थापित करने की दिशा में अडिग रहें।
 

जींद की सभा में शामिल होने वाले किसान एक ऐसी एकता की प्रतिध्वनि बन सकते हैं, जिससे मोदी सरकार काफी घबराई हुई है और इस एकता को तोड़ने की साजिश रच रही है। एसवाईएल को एमएससी की लड़ाई से ध्यान भटकाने का ज़रिया न बनने देने की ज़िम्मेदारी अब किसान संगठनों की है और वे यकीनन इन हथकंडों को नाकाम करने की स्थिति में हैं। 26 जनवरी को जींद में होने जा रही विशाल किसान सभा में इस प्रावधान की घोषणा होनी चाहिए।

( लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। )

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