स्मृति शेष: इतनी क्या जल्दी थी जाने की जावेद?

10 दिसम्बर को क़रीब दिन में 2 बजे एनएसआई हिन्दी प्रदेश के वाट्सएप ग्रुप पर हम लोगों के मित्र और लेखक सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गताडे जी ने एक दुख:द सूचना दी,कि,“हम लोगों के साथी जावेद अनीस भोपाल में नहीं रहे।” यह सूचना मेरे लिए अप्रत्याशित थी। अभी उनकी उम्र केवल 43 वर्ष ही थी,पहले मुझे लगा कि कोविड महामारी के बाद नौजवानों में हार्टअटैक की घटनाएँ बढ़ गई हैं,सम्भवतः जावेद उसी के शिकार हो गए,परन्तु कुछ ही देर बाद यह सूचना सुनकर मैं हतप्रभ रह गया कि जावेद अनीस ने सुबह ट्रेन के आगे कूदकर आत्महत्या कर ली।
‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में छपी एक ख़बर के अनुसार जावेद मंगलवार की सुबह वॉक के लिए निकले थे,लेकिन वापस नहीं लौटे। उनकी पत्नी उपासना को एक सुसाइड नोट मिला,जिसमें जावेद ने लिखा था,कि “वह बहुत तनाव में था और अपनी मर्जी से जान दे रहा है।” नोट में आगे लिखा था, “मैं अपने माता-पिता की सेवा नहीं कर सका और मैं जो कर रहा हूँ,इसके लिए मैं खुद पूरी तरह से जिम्मेदार हूँ।” उपासना ने जब उनके फोन पर कॉल किया,तो वह स्विच ऑफ था। घबराकर वे मिसरोद थाने पहुँचीं और गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवाई। कुछ ही देर में मिसरोद रेलवे स्टेशन के स्टेशन मास्टर ने पुलिस को सूचना दी कि कौशल नगर के पास एक व्यक्ति ट्रेन की चपेट में आ गया है। मौके पर पहुँची पुलिस ने मृतक की पहचान जावेद अनीस के रूप में की।
जावेद अनीस के साथ बिताए गए महत्वपूर्ण पल मेरी आँखों के सामने घूमने लगे। क़रीब दो दशक पहले एक वामपंथी फोरम न्यू सोशलिस्ट इनेसेटिव (एनएसआई) के निर्माण में जावेद की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। फोरम की भोपाल में सबसे अधिक मीटिंग हुई थीं,जिसमें उनकी भूमिका हमेशा महत्वपूर्ण रहती थी। बेहद हँसमुख जावेद बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे। वे संगठन के साथियों द्वारा निकाली जाने वाली ‘क्रिटिक’ पत्रिका के सम्पादकीय विभाग में थे। हर अंक में वे लेख तो लिखते ही थे,अपितु सम्पादन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। उनकी पत्नी उपासना भी खुद वामपंथी नारीवादी आंदोलन से तो जुड़ी हुई हैं तथा वे भी एक लेखिका हैं। कुछ वर्ष पूर्व ही उनके द्वारा बच्चों के लिए लिखी गईं कहानियों का एक संग्रह भी प्रकाशित हुआ था। उन दोनों ने प्रेम विवाह किया था और हम लोग दोनों की दोस्ती और प्रेम की मिसाल देते थे। जावेद भोपाल के नागरिक समाज की जान थे,वहाँ के विभिन्न आंदोलनों में जावेद और उपासना की महत्वपूर्ण भागीदारी रहती थी। जावेद विभिन्न सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर विभिन्न वेबसाइट,समाचारपत्रों और पत्र-पत्रिकाओं में लिखते थे। प्रगतिशील पत्रिका ‘रविवार,फ़िलहाल और समयांतर’ में भी वे लगातार लिखते रहते थे और सिनेमा पर भी उन्होंने खूब लिखा।
मुझे आज भी याद है कि कुछ वर्ष पूर्व ‘सच्चर कमीशन’ की रिपोर्ट के दस वर्ष पूरे होने पर मुसलमानों के पिछड़ेपन पर लिखा गया उनका लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था और बहुत ही चर्चित हुआ था। इस तरह के उद्दाम आशा और जीवन से भरे व्यक्ति का इस तरह निराशा से भरकर आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाना हम सबको चकित करने के साथ ही सोचने के लिए भी विवश करता है।
निश्चित रूप से आज पूँजीवादी समाज में अलगाव,निराशा और आत्महंता प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं,परन्तु अगर प्रगतिशील चेतना वाला व्यक्ति इस तरह का आत्महंता क़दम उठाता है,तो हम सभी साथियों के लिए आत्मालोचना और आत्म विश्लेषण की ज़रूरत है।
फ्रांसीसी क्रांति के 40 वर्ष बीतने के बाद एक फ्रांसीसी समाजशास्त्री जाक फ्यूचे का यह कथन ; जिसे मार्क्स ने अपने एक लेख में उद्धृत किया है,आज के समाज पर भी बिलकुल सटीक बैठता है।
“सचमुच यह कैसा समाज है,जहाँ कोई व्यक्ति लाखों की भीड़ में खुद को एकान्त में पाता है,जहाँ कोई व्यक्ति अपने आप को मार डालने की अदम्य इच्छा से अभिभूत हो जाता है और किसी को इसका पता तक नहीं चलता है? यह समाज नहीं,बल्कि एक रेगिस्तान है,जहाँ जंगली जानवर बसते हैं,जैसा कि रूसो ने कहा था।”
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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