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चांद पर सॉफ्ट लैंडिंग में सफलता : भविष्य और चुनौतियां

भारत के पास इसका मौक़ा है कि अंतरिक्ष के एक नैतिक तथा अंतर्राष्ट्रीय रूप से नियंत्रित उपयोग के पक्ष में ज़ोर लगाए।
chandrayaan

चांद पर सॉफ्ट लैंडिंग का मिशन, चंद्रयान-3 तो 23 अगस्त को सफल भी हो चुका है, अब बाकी चंद्र दिवस के दौरान यानी इसके अगले दिन से लेकर आने वाले 13 दिनों में चाहे कुछ भी हो। विक्रम लैंडर तथा प्रज्ञान रोवर, जो दोनों ही चंद्र दिवस के दौरान यानी पृथ्वी के एक पखवाड़े में उपलब्ध सौर ऊर्जा से चालित होंगे, इस दौरान अपने वैज्ञानिक काम पूरे करेंगे। वे डाटा तथा जानकारियां एकत्र करेंगे और उन्हें पृथ्वी पर बेंगलुरु स्थित मिशन कंट्रोल सेंटर में भेजते रहेंगे। अगर सब ठीक-ठाक रहा तो हमारे पास काफी समृद्घ डाटा होगा, चांद के दक्षिणी ध्रुवीय क्षेत्र के संबंध में हमारे ज्ञान में इजाफा होगा और चांद की तथा हमारी सौर प्रणाली की उत्पत्ति के संबंध में हमारी जानकारियों में भी काफी बढ़ोतरी होगी।

जैसाकि हम जानते ही हैं लैंडर और रोवर पर जो उपकरण हैं अब भी चक्कर लगा रहे और प्रोपल्शन मोड्यूल में (जो पृथ्वी की कक्षा से चांद की कक्षा तक अपने अंदर लैंडर तथा रोवर को ले गया था और करीब एक हफ्ता पहले उनसे अलग होने तक उन्हें लिए चल रहा था) भी एक उपकरण है। सब से मिलाकर चांद की सतह के इस क्षेत्र के रासायनिक प्रक्रिया के संबंध में डाटा एकत्र किया जाएगा। इसी प्रकार, चांद के बहुत ही हलके वातावरण, ताप तथा सतह से दस सेंटीमीटर की गहराई तक ताप चालकता, भूकंपीय गतिविधियों के चलते तथा यहां तक कि रोवर के चलने से भी, चांद की सतह पर होने वाले कंपनों का अध्ययन किया जाएगा। धरती तथा उसके आस-पास की संरचना का अध्ययन किया जाएगा, जिससे यह समझा जा सके कि एक बसावटवाला गृह कैसा लगता है, ताकि इसका उपयोग अन्य एक्सो-प्लेनेटों यानी हमारे अपने सौर मंडल से बाहर के गृहों से मिलने वाले इसी प्रकार के संरचना के डाटा से किया जा सके। इस डाटा के या कम से कम इसमें से ज्यादातर के विश्लेषण को बाद में समकक्ष-समीक्षित पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाएगा, जैसाकि अंतरिक्ष में जगह बनाने वाले देशों के बीच का स्वीकृत तरीका है, जिससे यह मानवजाति के संचित ज्ञान में जुड़ सके।

लेकिन, इस सब के अलावा भी, जो सब कुछ अपने आप में भी आकर्षक वैज्ञानिक तरीकें हैं, जिनमें इसी कार्य के लिए निर्मित उपकरणों का उपयोग किया जा रहा है, चंद्रयान-3 मिशन का कहीं वृहत्तर तथा मुख्य लक्ष्य और इससे पहले विफल चंद्रयान-2 मिशन का भी लक्ष्य, इसरो की वेबसाइट पर जो बताया गया है उसके अनुसार इस प्रकार है: ‘चांद की सतह पर सुरक्षित उतरने और उस पर घूमने की आदि से अंत तक (ऐंड टु ऐंड) क्षमता का प्रदर्शन करना।’ दूसरे शब्दों में विक्रम लैंडर को सुरक्षित उतारने का परफॉर्मेंस एक्सपेक्टेशन है कि उसके सारे उपकरण सुरक्षित होंगे तथा जिस काम के लिए बने हैं उसके हिसाब से काम कर रहे होंगे--और रोवर का काम पर लगाया जाना ही, इस मिशन की मुख्य उपलब्धि है और इसलिए यही वह नींव है जिस पर, आगे भविष्य के अनेक मिशनों का निर्माण किया जाएगा। विक्रम लैंडर की सॉफ्ट लैंडिंग पर जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों का जिस तरह का जश्न देखने को मिला है, उसमें जो अति-विजयीभाव तथा यहां तक कि कुछ हिस्सों में श्रेष्ठतावाद भी देखने को मिला है, जिसे तात्कालिक उत्तेजना का नतीजा मानकर हम शायद माफ कर सकते हैं। बहरहाल यह सब शोर-शराबा जल्द ही खत्म हो जाएगा और इसरो के सामने इस काम को और आगे ले जाने की कठोर चुनौती होगी।

इस लेख में हम इस उपलब्धि से इसरो तथा भारत के सामने खुलने वाले अवसरों की पड़ताल करेंगे और अन्य अंतरिक्ष में जाने वाले देशों की क्षमताओं तथा उनके संभावित मिशनों को देखते हुए, सामने आने वाली चुनौतियों की भी पड़ताल करेंगे। लेकिन, इसमें जाने से पहले हम कहीं नजदीक से इस पर नजर डाल लें कि अपने मुख्य लक्ष्यों के संदर्भ में इस मिशन ने क्या हासिल कर लिया है।

अचूक लैंडिंग

पूरा का पूरा मिशन, खासतौर पर चंद्रमा पर लैङ्क्ष डग का चरण प्रशंसनीय संयम, सटीकता और आत्मविश्वास के साथ संचालित किया गया। चंद्रयान के चांद की कक्षा में पहुंचाए जाने तक का चरण बिल्कुल योजना के अनुसार चला था, जैसे कि चंद्रयान-1 तथा चंद्रयान-2 मिशनों में भी हुआ था। इस तरह, इसरो ने दिखा दिया है कि उसने दूसरे ग्रहों की कक्षा तक पहुंचने के मिशनों में महारत हासिल कर ली है; किसी मामले में कोई दुर्घटना ही हो जाए तो कह नहीं सकते, वह तो किसी के साथ कभी भी हो ही सकती है।

लूना-25 मिशन तक फेल हुआ, जब शुरूआती डी-ऑर्बिटिंग की यानी कक्षा से नीचे उतारने की तैयारी की जा रही थी। यान को अपने इंजन फायर कर अपनी कक्षा को नीचे लाना था तथा चांद के नजदीक उतरना था। लेकिन, रूसी अंतरिक्ष एजेंसी, रोस्कोस्मोस के प्रमुख के अनुसार, ये इंजन 127 सेकेंड तक चलते रहे, जबकि योजना उनके 84 सेकेंड तक ही चलने की थी। इसके चलते, यान चांद की कक्षा से भटक गया और नीचे जाकर टकरा गया और पृथ्वी पर नियंत्रणकर्ता फिर उससे संपर्क स्थापित नहीं कर सके। अब यह तो आगे की जांच से ही पता चल पाएगा कि क्या इस मिशन की नियंत्रण प्रणालियों ने ही सही निर्देश नहीं दिए या फिर इंजनों की संकेत-ग्रहण व्यवस्थाओं ने ही, इस संकेतों पर सही तरीके से काम नहीं किया।

चंद्रयान-3 मिशन के मामले में, जो डी-ऑर्बिटिंग की कुछ कलाबाजियों के बाद, 140 गुणा 25 किलोमीटर की अपनी आखिरी कक्षा में स्थापित हो चुका था, सबसे प्रभावशाली रहा, उतारे जाने का चरण, जब लैंडर ने चांद की सतह पर उतरने तक, मिशन कंट्रोल से किसी भी तरह के और संदेशों के बिना, स्वतंत्र रूप से कई कार्य किए। इसीलिए, इसके बाद के करीब 20 मिनटों को अक्सर ‘दहशत के 20 मिनट’ कहा जाता है। टेलीमीट्री यानी लैंडर के उतरने के समय के प्रदर्शन का जो डाटा प्रदर्शित किया गया और इसरो द्वारा लाइव टेलीकास्ट किया गया, वह दिखाता था कि चंद्रयान ने अपने ऑर्बिट, क्षैतिज तथा लम्बवत गति, चांद के ऊपर ऊंचाई और उतराई के चरणों के लिहाज से, करीब-करीब पूरी तरह से योजना के अनुसार ही काम किया था।

लैंडर ने पहले अपने चार इंजनों को फायर किया जिससे अपनी घूर्णन की गति को घटाना शुरू कर सके। इस समय पर यह गति करीब 1.7 किलोमीटर प्रति सेकेंड या करीब 6,100 किलीमीटर प्रति घंटा थी और यह गति करीब-करीब पूरी तरह तिर्यक या क्षैतिज दिशा में थी और लैंडर की दिशा चांद की सतह के समांतर थी। इससे रफ्तार में करीब 80 फीसद कमी हो गयी और धीमी रफ्तार का नतीजा यह हुआ कि लैंडर चांद की सतह की ओर करीब 61 मीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से उतरते हुए, 7.4 किलोमीटर ऊंचाई तक आ गया। अगले चरण में लैंडर ने 8 थस्र्टरों का उपयोग कर, अपनी क्षैतिज गति को और धीमा कर, करीब 336 किलोमीटर प्रति घंटा कर लिया और वह उतर कर सतह से 6.8 किलोमीटर की ऊंचाई पर आ गया। फिर भी वह मोटे तौर पर क्षैतिज यानी चांद की सतह के समानांतर ही बना हुआ था। अगली उतराई में लैंडर करीब 1 किलोमीटर की ऊंचाई पर आ गया। इस क्रम में धीरे-धीरे उसकी दिशा बदलती गयी और उसके पांव चांद की सतह की ओर होते गए और उसकी क्षैतिज गति अब शून्य हो गयी। अब लैंडर उस जगह के ऊपर मंडराता रहा और अपने सेंसरों से लैंडिंग की जगह के संबंध में डाटा हासिल करता रहा तथा लैंडिंग के लिए उस जगह की उपयुक्तता का आकलन करता रहा। ऐसा समझा जा सकता है कि यह जगह उसे उतरने के लिए उपयुक्त लगी क्योंकि वह वहां से दूसरी जगह पर नहीं गया, जबकि उसे इस हिसाब से प्रोग्राम किया गया था कि अगर जगह उपयुक्त नहीं लगे तो दूसरी जगह देखे। इसके बाद लैंडर करीब 150 मीटर और नीचे उतरा। इस क्रम में उसने अपनी दिशा बदलकर पूरी तरह से लम्बवत कर ली, जिसमें उसके लेग पूरी तरह से सीधे चांद की सतह की ओर हो गयीं। इसके बाद कई सेकेंड तक और वह मंडराता रहा, एक बार फिर उतरने की जगह की उपयुक्तता को पक्का करते हुए। उसके बाद जल्दी से नीचे उतरने लगा, इस क्रम में उसने अपनी उतराई की रफ्तार घटाकर महज 2 मीटर प्रति सेकेंड या करीब 7 किमोमीटर प्रतिघंटा कर ली और चांद की सतह को स्पर्श करते ही अपने इंजनों तथा थ्रस्टरों को बंद कर दिया।

वैज्ञानिक पद्घति की जीत

कहने की जरूरत नहीं है कि मिशन चंद्रयान-2 में लेंडर के जाकर टकरा जाने के बाद, यह अचूकता कोई आसानी से हासिल नहीं कर ली गयी होगी। पिछे एक हफ्ते में या उससे भी ज्यादा के दौरान, चंद्रयान-2 के बाद से लिए गए सुधार के कदमों पर होती रही चर्चा के बाद, इस बार लैंडिंग की सफलता के बाद से मीडिया में इसरो की समूची टीम की और उससे संबद्घ एजेंसियों तथा कंपनियों की इसके लिए प्रशंसाएं हो रही हैं कि 2019 की विफलता और इस बार की सफलता के बीच के अर्से में, उन्होंने इस सफलता के लिए जबर्दस्त काम किया है। यहां हम दुरुस्ती के इन कदमों पर विस्तार से चर्चा नहीं कर के सिर्फ इतना कहना चाहेंगे कि इस दौरान कोई भी कसर नहीं रहने दी गयी थी।

चंद्रयान-2 के मामले में लैंडर के जा टकराने के पीछे सभी संभव कारणों की विस्तारित जांच-पड़ताल के बाद, इस बार संबंधित हार्डवेयर तथा सॉफ्टवेयर में अनेक परिवर्तन किए गए थे। हेलीकोप्टरों तथा क्रेनों के सहारे, लैंडर के उतरने के समय के आखिरी कार्य के कहीं ज्यादा कोल्ड तथा हॉट टेस्ट किए गए थे, न कि सब कुछ कंप्यूटर सिमुलेशनों के भरोसे छोड़ दिया गया। लैंडिंग के स्थल को 400 गुणा 400 मीटर से बढ़ाकर, 2.5 किलोमीटर गुणा 4 किलोमीटर कर दिया गया, ताकि लैंडिंग स्थल का चुनाव करने के मामले में लैंडर को ज्यादा छूट मिल सके। अब भी कक्षा में चक्कर लगा रहे चंद्रयान-2 द्वारा एकत्र की गयी तस्वीरों तथा डाटा की विपुल राशि को विक्रम लैंडर के कंप्यूटर में तथा सुधारी गयी एल्गोरिद्मों में डाला गया था, जिसमें संबंधित क्षेत्र में क्रेटरों तथा 30 सेंटीमीटर या उससे बड़ी चट्टानों की निशानदेही भी शामिल थी, ताकि लैंडर को सिर्फ अपेक्षाकृत छोटी चट्टानों का ही सामना करना पड़े। सुधरे हुए एल्गोरिद्मों से लैंडर के लिए यह संभव हुआ कि अपने नीचे उतरने की पूरी अवधि के दौरान थ्रस्टरों को नियंत्रित कर सके, जैसाकि हमने पहले बताया, दो बार ठहरकर मंडराने के जरिए, लैंडिंग की जगह के संबंध में बेहतर तरीके से सोचकर तय कर सके और अगर उसका एल्टीमीटर यानी ऊंचाई मापक काम नहीं करे तो, एक तयशुदा गति से नीचे उतर सके।

लैंडर में अपने भौतिक बदलाव भी किए गए थे। अनेक संभव विफलताओं का हिसाब किताब किया गया था, जैसे खतरा पहचान करने तथा उससे बचाव के कैमरों व प्रणालियों को लगाया गया था। दो ऑनबोर्ड कंप्यूटरों को लगाया गया था, ताकि विफलता की सूरत में विकल्प रहे। लैंडर को तीन दिशाओं से गति का माप करने के लिए एक डॉप्लर वेलोसिमीटर से लैस किया गया था, उस पर अतिरिक्त ईंधन रखा गया था ताकि रफ्तार तथा उपयुक्त जगह को लेकर ज्यादा समायोजन कर सके। ईंधन का कहीं बड़ा टैंक रखा गया था, जिसमें भीतर तेल के छलकने से बचाव की व्यवस्था की गयी थी (रॉकेटों के साथ यह एक जानी-पहचानी समस्या रही है, जिसे चंद्रयान-2 के क्रैश करने के पीछे के संभावित कारणों में से एक माना जाता है), कहीं बड़े सोलर पंख लगाए गए हैं और लैंडर के पांवों को कहीं मजबूत बनाया गया है, जिससे वह कहीं ज्यादा झटके झेल सके।

इनमें से कुछ बदलाव अधिक लग सकते हैं। लेकिन, साफ तौर पर इसरो ने सब पहले से पक्का करने का रास्ता अपनाया था। इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि इसरो की टीम के हेड और नियंत्रण कक्ष में, इस पूरे चंद्र मिशन के दौरान एक शांत आत्मविश्वास देखा जा सकता था।

सफल लैंडिंग के बाद से मीडिया में, पिछले क्रैश के बाद के दौर में इसरो की टीम द्वारा प्रदर्शित धीरज, दृढ़संकल्प तथा लगनशीलता की काफी प्रशंसा हो रही है। बहरहाल, उन्होंने अपने बेहतरीन योग्यता को दिखाया है, पिछली बार के क्रैश में योगदान देने वाले संभावित कारकों की मुकम्मल तथा पारदर्शी तरीके से छानबीन में, समस्याओं के कारणों तक पहुंचने के लिए साक्ष्य-आधारित तर्क-व्यवस्था का सहारा लेने में और इन प्रश्नों में से हरेक को और इनके अलावा भी कई प्रश्नों को व्यवस्थित तरीके से हल करने में। यही वैज्ञानिक पद्घति का सटीक उदाहरण है। काश मीडिया पर इस प्रसंग में हुई चर्चाओं में इतनी प्रशंसाओं तथा सराहनाओं के बजाए, इन प्रक्रियाओं पर कहीं ज्यादा बात हुई होती।

अगला कदम

जैसाकि बार-बार और शायद, कुछ ज्यादा ही बार कहा गया है, भारत अब ऐसे देशों के छोटे से ग्रुप में शामिल हो गया है, जिनके पास अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उन्नत क्षमताएं हैं और यह आने वाले दशकों में देश के लिए महत्वपूर्ण होगा और दुनिया भर के लिए भी। अंतर्राष्ट्रीय सहकार महत्वपूर्ण हैं क्योंकि तभी विज्ञान ज्यादा तेजी से प्रगति करेगा और संकीर्ण राष्ट्रीय स्तर पर परिभाषित मिशनों के मुकाबले में, समग्रता में मानवता के लिए कहीं ज्यादा योगदान कर सकेगा। बेशक, अंतर्राष्ट्रीय सचाइयों को देखते हुए, ऐसे राष्ट्रीय स्तर पर परिभाषित मिशनों की भी जरूरत रहेगी ही। अंतरिक्ष मिशनों के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहकार के मामले में भारत खुद को कहीं बेहतर स्थिति में पाता है, फिर भी उसे अपनी क्षमताओं का आकलन करने, उनमें रह गयी खाली जगहों को भरने और उन्हें अद्यतन बनाने की जरूरत होगी, ताकि इन क्षमताओं में उल्लेखनीय योगदान कर सके और गंभीर महत्व के राष्ट्रीय उद्यमों में जुट सके।

इसके लिए भारत को हैवी लाइफ लॉन्चरों की जरूरत होगी, ताकि विभिन्न अंतरित स्टेशनों के लिए कहीं ज्यादा सीधी उड़ानें संभव हों और वैज्ञानिक साज-सामान या चालक दल व मददगार प्रणालियों का कहीं बड़ा बोझ ढोकर पहुंचाया जा सके। मानवयुक्त मिशनों की लागतों व लाभों का पहले सावधानीपूर्वक आकलन किया जाना चाहिए। उससे पहले भारत को अनेकानेक, महंगे मानवयुक्त मिशनों से खुद को नहीं बांधना चाहिए, जबकि इस तरह के महंगे मिशनों से रोबोटिक मिशनों के मुकाबले कम लाभ हासिल होते हैं, जब दोनों ही तरह के मिशनों से कमोबेश एक जैसे ही लक्ष्य हासिल होते हैं। रोबोटिक मिशनों के लिए भारत को कहीं बड़े तथा बेहतर साज-सामान संपन्न लैंडरों की तथा मानवयुक्त मिशनों के लिए लौटने में सक्षम लैंडरों की जरूरत होगी। साथ ही और कहीं बेहतर रोवरों की जरूरत होगी।

सबसे महत्वपूर्ण यह कि अंतरिक्ष में यात्रा करने वाले देशों के छोटे से क्लब के महत्वपूर्ण तथा नेतृत्वकारी सदस्य के नाते, भारत एक बड़ी जिम्मेदारी है। अंतरिक्ष को और अन्य गृहों आदि को समूची मानवता के लिए एक सर्वजन हित की चीज की तरह देखा जाना चाहिए, न कि राष्ट्रीय या कॉरपोरेट लाभ के लिए दोहन करने वाली चीज की तरह। मीडिया में, अति-राष्ट्रवादी लफ्फाजी से प्रेरित होकर इसकी कुछ ज्यादा ही चर्चा हुई है कि किस तरह चंद्रमा पर पानी, खनिज आदि हैं, जिनका दोहन किया जा सकता है, खनन किया जा सकता है, आदि, आदि। भारत के पास इसका मौका है कि अंतरिक्ष के एक नैतिक तथा अंतर्राष्ट्रीय रूप से नियंत्रित उपयोग के पक्ष में जोर लगाए। उसे अपनी नयी-नयी अर्जित क्षमताओं का, अपना घर भरने के लिए इस्तेमाल करने के लालच में नहीं पडऩा चाहिए। दुर्भाग्य से अमेरिका के नेतृत्व वाले आर्टिमिस समझौते, जिनमें भारत शामिल हो गया है और भारत की अपनी अंतरिक्ष नीति, जिसे विधान बनाने के लिए संसद के सामने पेश नहीं किया गया है, इससे उल्टी ही दिशा की ओर इशारा करते हैं। लैंडिंग की सफलता के बाद प्रधानमंत्री ने इस मिशन के समूची मानवता के लाभ के लिए होने की बात कही है। अगर इसे यथार्थ में तब्दील होना है तो भारत को, अपनी अंतरिक्ष नीतियों तथा कार्यक्रमों को उपयुक्त, भिन्न दिशा की ओर मोडऩा होगा।

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