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सावधान: यूं ही नहीं जारी की है अनिल घनवट ने 'कृषि सुधार' के लिए 'सुप्रीम कमेटी' की रिपोर्ट 

कारपोरेटपरस्त कृषि-सुधार की जारी सरकारी मुहिम का आईना है उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित कमेटी की रिपोर्ट। इसे सर्वोच्च न्यायालय ने तो सार्वजनिक नहीं किया, लेकिन इसके सदस्य घनवट ने स्वयं ही रिपोर्ट को सार्वजनिक कर दिया है। दरअसल MSP पर किसान-आंदोलन के नए चरण की पेशबंदी को देखते हुए सार्वजनिक की गई है यह रिपोर्ट
kisan andolan
फाइल फोटो। साभार: गूगल

मोदी सरकार ने जब 3 कृषि कानून वापस लिए थे, उसे इन कानूनों पर उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित विशेषज्ञ कमेटी के सदस्य अनिल घनवट ने दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया था और कमेटी की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग की थी। 3 सदस्यीय कमेटी के 2 अन्य सदस्य अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी तथा कृषि विशेषज्ञ डॉ. प्रमोद जोशी थे।

सर्वोच्च न्यायालय ने तो रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया, लेकिन हाल ही में घनवट ने स्वयं ही रिपोर्ट को सार्वजनिक कर दिया है। सारतः इस रिपोर्ट में 3 कृषि कानूनों को defend किया गया है, MSP पर सरकारी खरीद को कम करने की वकालत की गई है और PDS  द्वारा सस्ते दर पर अनाज वितरण की व्यवस्था को खत्म कर कैश ट्रांसफर ( DBT ) का सुझाव दिया गया है। घनवट द्वारा सार्वजनिक की गई रिपोर्ट के ये विचार सरकार की line of thinking से मेल खाते हैं।

रिपोर्ट दावा करती है कि कृषि-कानूनों की वापसी से किसानों की silent majority के साथ अन्याय हुआ है। 

इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के पीछे क्या कोई hidden एजेंडा है ? क्या यह विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत से बने अनुकूल माहौल में कृषि के कारपोरेटीकरण के अभियान को फिर से छेड़ने और कृषि कानूनों को किसी नए रूप में ले आने की तैयारी का हिस्सा है? 

घनवट बताते हैं कि कमेटी ने 266 संगठनों से सम्पर्क किया था जिनमें से कई किसान-आंदोलन में शामिल थे। उनका कहना है कि कमेटी ने 73 संगठनों से बात की जिसमें से 61 संगठनों ने अर्थात लगभग 86% संगठनों ने कृषि कानूनों का समर्थन किया । इस तरह उनका दावा है कि अधिकांश किसान संगठन दरअसल कृषि कानूनों के पक्ष में थे।

वे यह नहीं बताते कि जब 266 संगठनों से सम्पर्क किया गया तो उसमें मात्र 73 ने ही क्यों बात की और जब 61 संगठनों ने ही समर्थन किया, तो फिर वे इसे अधिकांश कैसे कह रहे हैं ?  आंदोलन कर रहे 450 से ऊपर संगठनों में से कितने संगठनों की राय ली गयी ? 

मजेदार यह है कि रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के लिये बुलाई गई प्रेस वार्ता में जब उनसे समर्थन करने वाले संगठनों का नाम पूछा गया तो वे नहीं बता पाए, क्योंकि उनके अनुसार रिपोर्ट को short रखने के लिए उनका नाम नहीं दिया गया है ! अब अगर 92 पेज  की रिपोर्ट में एक-आधा पेज में कानून समर्थक संगठनों का नाम आ जाता तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता ?

उन्होंने कहा कि उन संगठनों का नाम उच्चतम न्यायालय के पास है, वह बाद में उनको शेयर करेगा, फिर उन्होंने कहा कि उन्हें नहीं मालूम कि data किसके पास है। आप RTI कर सकते हैं ! उन्होंने यह भी बताया कि ऑन-लाइन पोर्टल पर जिन 19 हजार लोगों ने अपने विचार और सुझाव दिए, उसमें दो तिहाई लोगों ने कानूनों का समर्थन किया। मजेदार यह है कि 19 हजार में किसान महज 5 हजार थे, बाकी 14 हजार व्यापारी, एक्सपोर्टर्स, मिलर्स आदि थे।  

विडम्बना यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने यह कमेटी " कृषि कानूनों और सरकार की सोच को लेकर किसानों की शिकायतों/आपत्तियों को सुनने और उस पर राय देने के लिए " बनाई थी। लेकिन घनवट द्वारा सार्वजनिक की गई रिपोर्ट से साफ है कि किसानों से अधिक, कमेटी की रुचि, गैर-किसान stake-होल्डर्स, मसलन व्यापारियों, एक्सपोर्टर्स, कारपोरेट की राय में थी और  असंतुष्ट किसानों से अधिक कानून समर्थकों की राय जानने में थी। 

जब उनसे पूछा गया कि आंदोलनकारी किसान संगठनों से बात करने उनके बीच क्यों नहीं गए तो उन्होंने Republic day के आसपास security issues का हवाला दिया ( जबकि रिपोर्ट 19 मार्च 2021 को SC को सौंपी गई थी ), उन्होंने कोविड तथा नेटवर्क की समस्या के कारण सम्पर्क न हो पाने की बात की। जाहिर है, वे सच को स्वीकारने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहे हैं, सच्चाई यह है आन्दोलनकारी किसानों के बीच इस कमेटी की कोई साख नहीं थी क्योंकि इसके सब सदस्य घोषित रूप से कारपोरेट कृषि के समर्थक थे। 

स्वाभाविक है किसान नेताओं ने अब सार्वजनिक की गई इस रिपोर्ट पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। योगेन्द्र यादव ने इसके द्वारा बनाये जा रहे माहौल को खतरे की घण्टी बताया है। राकेश टिकैत ने  कहा, " तीन कृषि कानूनों के समर्थन में घनवट ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी रिपोर्ट सार्वजनिक कर साबित कर दिया कि वे केंद्र सरकार की ही कठपुतली थे.  साथ ही उन्होंने कहा इसकी आड़ में अगर इन बिलों को फिर से लाने की केंद्र की मंशा है तो देश में और बड़ा किसान आंदोलन खड़े होते देर नहीं लगेगी. " 

MSP पर किसान-आंदोलन के नए चरण की पेशबंदी को देखते हुए सार्वजनिक की गई है उच्चतम न्यायालय में दाख़िल रिपोर्ट

रिपोर्ट इस समय जारी करके निरस्त हो चुके कृषि कानूनों को लेकर एक बार फिर चर्चा शुरू कर दी गयी है। जाहिर है इसे लेकर किसान नेताओं की चिंता बिल्कुल वाजिब है। नए सिरे से यह  नैरेटिव बनाया जा रहा है कि मोदी सरकार द्वारा लाये गए कानून किसानों के लिए बहुत फायदेमंद थे, किसान उसके पक्ष में थे, लेकिन दबाव बनाकर आंदोलनकारियों ने कानून वापस करवा दिया जिससे किसानों का नुकसान हुआ है।

गौरतलब है प्रधानमंत्री मोदी ने कृषि कानूनों को वापस लेने के बावजूद, अपने वक्तव्यों में कभी भी उनमें कोई गलती नहीं मानी। वे हमेशा छोटे किसानों के नाम पर इन कानूनों को सही साबित करने की कोशिश करते रहे।  किसानों को  समझा न पाने के लिए माफी मांगते हुए उन्होंने कानून-वापसी का एलान भले कर दिया, पर वे अंत तक उन्हें पवित्र और सत्य बताते रहे, " हो सकता है हमारी तपस्या में कुछ कमी रह गयी हो कि हम दीये की लौ की तरह पवित्र, सत्य को कुछ किसान भाइयों को समझा न सके। "

दरअसल कृषि में pro-corporate सुधारों के पक्ष में तथा MSP के खिलाफ लगातार एक सघन अभियान चलाया जा रहा है। इन्हीं श्रीमान अनिल घनवट ने कहा था कि 23 खाद्यान्नों के लिए MSP गारण्टी कानून अगर लागू हो गया तो देश की अर्थव्यवस्था दिवालिया हो जाएगी। यह तर्क देते हुए कि  हमारी बफर स्टॉक की limit 41 लाख टन है जबकि सरकार को 110 लाख टन की खरीद करनी पड़ रही है, सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गई कमेटी की रिपोर्ट में संस्तुति की गई है कि MSP पर सरकारी खरीद की upper limit तय की जाय। PDS बंद कर direct cash transfer की वकालत की जा रही है, फिर सरकारी खरीद की जरूरत ही क्या रह जायेगी ? 

फिर भी घनवट जी चाहते हैं कि किसान यह मानते रहें कि सरकार सभी किसानों को भरपूर MSP देना चाहती है और कृषि कानूनों में कहीं उसके ख़िलाफ़ कोई बात नहीं थी। आंदोलनकारी किसानों के खिलाफ अपनी भड़ास निकालते हुए वे कहते हैं, " सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों ने यह झूठ बोलकर कि कृषि कानूनों से MSP खत्म हो जाएगा, कुछ किसानों को बरगला लिया। " ( वे अपने परिचय में बताते हैं कि उनका शेतकारी संघटना 4 दशक से अधिक समय से socialist oppression के खिलाफ लड़ रहा है ! )

मोदी द्वारा कृषि कानून निरस्त करने के तुरंत बाद CVoter के यशवंत देशमुख ने कहा कि " 50% से अधिक लोग कानूनों को लाभप्रद मानते थे। केवल 42% लोग ही MSP गारण्टी कानून के पक्ष में हैं, जबकि 46% लोग इसके खिलाफ हैं।" 

यह तो उनका सर्वे था। अब उनका स्वयं का विचार भी इस पर पढ़ लीजिए, " अगर MSP की गारंटी हुई तो देश के बजट का 50% इसी पर खर्च हो जाएगा। बाकी सभी खर्चों के लिए मात्र 50% बजट बचेगा। यह तो armchair सोशलिस्ट भी मानेंगे कि यह देश की आर्थिक तबाही और विनाश का नुस्खा है।" 

जबकि किसान नेता बारम्बार यह स्पष्ट कर चुके हैं कि MSP गारण्टी कानून का कत्तई यह अर्थ नहीं है कि सरकार सारा अनाज खरीदे, वह केवल यह सुनिश्चित करने के लिए है कि कोई और भी उससे कम पर न खरीदे अथवा MSP और बाजार मूल्य के अंतर के बराबर सरकार किसान को सब्सिडी दे दे, ताकि किसान को अपनी उपज की वाजिब कीमत मिल जाय। 2017-18 के लिए योगेन्द्र यादव के आंकलन के अनुसार इस पर 47,764 करोड़ खर्च आता जो केंद्रीय बजट का 1.6% और GDP का 0.3% होता। यदि MSP स्वामीनाथन आयोग की संस्तुति के अनुरूप होती तो कुल खर्च 2.28 लाख करोड़ अर्थात केंद्रीय बजट का 7.8% या GDP का मात्र 1.2% होता। 

यह तय है कि "कृषि-सुधार " का एजेंडा सरकार की कार्यसूची में प्राथमिकता में बना हुआ है। कृषि सुधारों पर फिर से शुरू की गई बहस का उद्देश्य MSP के सवाल पर किसान आन्दोलन के अगले चरण की जो तैयारी चल रही है, उसके खिलाफ पेशबन्दी है। 

इसी रणनीति के तहत यह भी जोर शोर से प्रचारित किया जा रहा है कि किसान-आंदोलन का चुनावों पर कोई असर नहीं पड़ा। यह सच नहीं है। सच यह है कि किसान-आंदोलन ने अनेक तरह से भाजपा विरोधी अभियान को मदद पहुंचाई, इसकी पुष्टि CSDS-लोकनीति के post-poll सर्वे के आंकड़ों से भी होती है। यह जरूर है कि यह पर्याप्त नहीं था और कोई भी आंदोलन  राजनीतिक दल की भूमिका का विकल्प नही हो सकता।

जाहिर है किसान-आंदोलन के समक्ष चुनौती जटिल होती जा रही है, पर भारत में कृषि-विकास के किसान-रास्ते और कारपोरेट-रास्ते के बीच की लड़ाई जारी है। किसानों के पास इस लड़ाई से पीछे हटने का विकल्प नहीं है। इस लड़ाई से किसानों और मेहनतकशों की आजीविका ही नहीं, हमारे लोकतन्त्र का भविष्य भी जुड़ा हुआ है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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