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कश्मीर पर बात करना ख़तरे से खाली नहीं

देश की राजधानी दिल्ली में कश्मीर के हालात पर सार्वजनिक मीटिंग करने का सवाल है, तो यहां भी स्थिति अनुकूल नहीं है। ऐसी मीटिंग को दिल्ली पुलिस रोक सकती है या उस पर पाबंदी लगा सकती है। दिल्ली में मार्च के महीने में यही हुआ।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

भारत के हिस्सेवाले कश्मीर के हालात के बारे में सार्वजनिक रूप से बात करने का मतलब है, कई मुसीबतों को दावत देना। कश्मीर में तो बात हो ही नहीं सकती—वहां सार्वजनिक मीटिंग-सभा-विचार गोष्ठी-सेमिनार-धरना-प्रदर्शन-जुलूस पर सख़्त पाबंदी है। अगर पाबंदी का उल्लंघन किया, तो सेना की बंदूकें और जेलें हाजिर हैं। वहां सिर्फ़ सरकार-प्रायोजित मीटिंगें ही हो सकती हैं। (जिन्हें भारतीय लोकतंत्र का जायजा लेना है, उन्हें कश्मीर ज़रूर जाना चाहिए!)

कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा अपवाद थी, जिसके तहत 30 जनवरी 2023 को जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में बड़ी आम सभा हुई थी। ऐसी सार्वजनिक सभा श्रीनगर में पिछली बार कब हुई थी, मुझे तुरंत याद नहीं आ रहा है। शायद आपको भी नहीं याद आ रहा होगा!

जहां तक देश की राजधानी दिल्ली में कश्मीर के हालात पर सार्वजनिक मीटिंग करने का सवाल है, तो यहां भी स्थिति अनुकूल नहीं है। ऐसी मीटिंग को दिल्ली पुलिस रोक सकती है या उस पर पाबंदी लगा सकती है। दिल्ली में मार्च के महीने में यही हुआ।

15 मार्च 2023 को दिल्ली में गांधी पीस फ़ाउंडेशन (जीपीएफ़) में एक सेमिनार होना था, जिसका विषय था, ‘कश्मीर में मीडिया ब्लैकआउट और राज्य दमन’। इसे दिल्ली पुलिस ने ऐन मौक़े पर रोक दिया। उसके सिपाही जीपीएफ़ के दोनों बाहरी गेट पर खड़े हो गये और किसी को भी अंदर नहीं जाने दिया।

दिल्ली पुलिस का कहना था कि इस सेमिनार से दिल्ली में ‘क़ानून-व्यवस्था की समस्या’ पैदा हो सकती थी! उसका यह भी कहना था कि यह सेमिनार एक ‘नामालूम ग्रुप’ कर रहा है, जिसका अता-पता हमारे पास नहीं है!

इस सेमिनार का आयोजन स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI), दिल्ली टीचर्स फ़ोरम और नेशनल एलायंस ऑफ़ पीपुल्स मूवमेंट ने मिलकर किया था। ये ‘नामालूम ग्रुप’ नहीं हैं, इनके दफ़्तर दिल्ली में हैं और इनका अता-पता पुलिस को मालूम है।

सेमिनार में इन लोगों को बोलना थाः दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर नंदिता नारायण, फ़िल्मकार संजय काक, जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज हसनैन मसूदी, सीपीआई (एम) के नेता एमवाई तारीगामी, पत्रकार अनिल चमड़िया और यूनाइटेड पीस एलायंस के अध्यक्ष मीर शाहिद सलीम।

क्या इन लोगों के बोलने से दिल्ली में ‘कानून व्यवस्था की समस्या’ पैदा हो जाती? इस सेमिनार को न होने देने में दिल्ली पुलिस का साफ़-साफ़ मक़सद था कि लोग कश्मीर की वास्तविक स्थिति से वाक़िफ़ न हों, और वे कश्मीर के बारे में सिर्फ़ सरकारी तस्वीर देखते रहें।

सेमिनार को दिल्ली पुलिस की ओर से रोक दिये जाने पर संजय काक ने कहा कि कश्मीर-जैसे हालात (राज्य दमन और मीडिया ब्लैकआउट) पूरे हिंदुस्तान के बन रहे हैं।

इस संदर्भ में ‘कश्मीर टाइम्स’ की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन के एक लेख का ज़िक्र करना ज़रूरी है, जिसे उन्होंने मार्च 2023 में ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में लिखा था। इसमें उन्होंने चेतावनी देते हुए लिखा कि भारत का बाक़ी हिस्सा भी कश्मीर-जैसा ही दिखने लगेगा। उन्होंने लिखा कि हम डर के साये में काम कर रहे हैं।

अनुराधा भसीन ने अपने इस लेख में लिखाः ‘2014 में जब [हिंदू अंधराष्ट्रवादी] नरेंद्र मोदी सत्ता में आये, उन्होंने योजनाबद्ध तरीक़े से, अदालतों और सरकारी मशीनरी का मनमाना इस्तेमाल कर, भारत के लोकतांत्रिक आदर्शों को ख़त्म किया है।’

उन्होंने लिखाः ‘अगर नरेंद्र मोदी सूचना नियंत्रण के कश्मीर मॉडल को बाक़ी देश में लागू करने में सफल हो जाते हैं, तो ख़तरे में सिर्फ़ प्रेस की आज़ादी ही नहीं होगी, बल्कि भारतीय लोकतंत्र भी ख़तरे में पड़ जायेगा।’

क्या इस चेतावनी को हम सुन पा रहे हैं?

(लेखक कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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