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क्या फीस बढ़ोतरी के ख़िलाफ़ छात्रों का संघर्ष किसान आंदोलन की राह पर बढ़ रहा है ?

अपने संघर्ष, धीरज और स्पष्ट दृष्टि से किसान आंदोलन की याद दिलाता इलाहाबाद का फीस वृद्धि विरोधी आंदोलन।
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फ़ोटो साभार: GNT

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फीसवृद्धि के ख़िलाफ़ एक महीने से अनवरत जारी छात्र-आंदोलन ने  बड़े पैमाने पर ध्यान आकर्षित किया है। मीडिया में विशेषकर सोशल मीडिया में इसकी व्यापक चर्चा हुई है।

विश्वविद्यालय में हुई 400 % की अकल्पनीय फीस वृद्धि के ख़िलाफ़ हिम्मत और धैर्य से लड़ते छात्र दूर-दूर तक इस सन्देश को पहुंचाने में सफल रहे कि सरकार गांव-गरीब-कमजोर तबकों के बेटे-बेटियों को शिक्षा से बाहर करना चाहती है। विश्वविद्यालय प्रशासन शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक आंदोलन की न्यायसंगत मांग मानने को तैयार नहीं है और उनके आंदोलन को ताकत का इस्तेमाल कर कुचल रहा है।

ऐसे दौर में जब सत्ता के दमनात्मक रुख ने न्याय के लिए सड़क पर उतरना और आवाज उठाना तकरीबन असम्भव बना दिया है, उस समय लगातार 1 महीने से जारी यह आंदोलन, छात्र-छात्राओं के अदम्य साहस और जज्बे का प्रतीक तो है ही, इस बात का भी संकेत है कि युवाओं को एक ऐसी स्थिति में धकेल दिया गया है, जहां अब लड़ने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा है, उसकी कीमत चाहे जो हो।

छात्र आमरण अनशन कर रहे हैं, जो लोकतान्त्रिक आंदोलन का सबसे शांतिपूर्ण लेकिन कष्टसाध्य रूप है, यहां तक कि गूंगी-बहरी सरकार और निर्मम प्रशासन की संवेदना को झकझोरने के लिए सामूहिक आत्मदाह की भी उन्होंने कोशिश की। प्रशासन ने एक महीने तक उपेक्षा और दमन द्वारा आंदोलन से निपटने की कोशिश की लेकिन जब वह कामयाब नहीं हुई तो अब चौतरफा हो रही थू-थू के बाद छात्र-प्रतिनिधियों से बातचीत शुरू की है, हालांकि प्रशासन अपनी हठधर्मिता और अड़ियल रुख पर कायम है।

छात्र अपनी उसूली स्थिति पर दृढ़ हैं कि शिक्षा मुहैया कराना सरकार का संवैधानिक दायित्व है, ऐसे में विश्वविद्यालय द्वारा फीस बढ़ाकर संसाधन जुटाने का तर्क अनुचित है, इसलिए प्रशासन फीस बढ़ोत्तरी को वापस ले। इसके साथ ही वे छात्रसंघ बहाली की मांग पर भी जोर दे रहे हैं, उन्हें यह बात अब और भी शिद्दत से समझ में आ रही है कि सत्ता और शासन-प्रशासन की मनमानी और निरंकुशता का मुकाबला करने के लिए एक स्वतंत्र और मजबूत छात्रसंघ का रहना कितना जरूरी है। दरअसल शिक्षा और रोजगार के सवाल पर छात्र-युवा उभार की संभावनाओं के पूर्वानुमान (anticipation ) में छात्रों के लोकतान्त्रिक मंच-छात्रसंघ को पहले ही भंग किया जा चुका है।

आज जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हो रहा है, कल वह दूसरी जगहों पर होगा। AMU, IIT Bombay और अनेक संस्थानों में यह पहले ही शुरू ही चुका है।

दरअसल यह कोई localized, किसी विशेष संस्थान का मामला नहीं है बल्कि एक आम परिघटना है जो मोदी जी की नई शिक्षा नीति का सीधा परिणाम है। जैसे-जैसे यह नीति जमीन पर उतर रही है, विशेषज्ञों और शैक्षणिक समुदाय की यह आशंका सही साबित होती जा रही है कि  मोदी सरकार की यह कथित राष्ट्रीय शिक्षानीति शिक्षा के निजीकरण और  कारपोरेटीकरण का औजार है। यह सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित तबकों के छात्रों को उच्च शिक्षा से बाहर कर देगी।

प्रो0 प्रभात पटनायक के शब्दों में, " बहिष्करण ( exclusion ) नई शिक्षानीति की केंद्रीय विशेषता है। बहिष्कृत लोग ज्यादा से ज्यादा किसी skill में ट्रेनिंग हासिल कर सकते हैं लेकिन वे शिक्षा नहीं पा सकते। पूरा विजन यह है कि चंद लोग ऐसी शिक्षा पाएंगे जो उन्हें नवउदारवादी पूंजीवाद की जरूरत के अनुरूप एग्जीक्यूटिव और ऑफिसियल के योग्य बनाएगी। शिक्षा से बाहर किये गए लोग स्किल हासिल करेंगे और वे उस विराट श्रमशक्ति का हिस्सा बन जाएंगे जिनके बीच सीमित संख्या में मौजूद काम-धंधों के लिए प्रतिस्पर्धा होगी, जहां प्रति व्यक्ति आय समय के साथ घटती जाएगी। इस तरह अर्थव्यवस्था में मौजूद द्वैत (dualism) अब शिक्षा व्यवस्था की भी विशेषता बन जाएगा, वास्तविक जीवन में ही नहीं, कानूनी तौर पर भी ( defacto ही नहीं dejure भी )। "

" स्नातक कोर्स को 4 साल का बनाकर और उसमें मल्टिपल एग्जिट पॉइंट की व्यवस्था करके ड्राप-आउट को वैधता प्रदान कर दी गयी है। 1 साल का ड्राप-आउट सर्टिफिकेट या 2 साल का ड्राप-आउट डिप्लोमा  लेकर जब छात्र रोजगार-बाजार में निकलेगा तो यह तय है कि उसे कोई काम मिलने वाला नहीं है, न ही न्यूनतम सामान्य शिक्षा से वंचित होने के कारण वह अच्छा नागरिक ही बन पायेगा। "

" NEP के पूरे ड्राफ्ट में सामाजिक रूप से वंचित तबकों के लिए आरक्षण का कहीं जिक्र तक नहीं है।"

इस विनाशकारी नीति के खिलाफ मुखर AIFRTE के अनुसार ," भारत सरकार प्रशासनिक आदेशों  के माध्यम से शिक्षानीति को लागू कर रही है और संस्थानों को धमकी दे रही है कि अगर समग्रता में नीतियों को लागू नहीं किया गया तो उनके वित्तीय संसाधनों को रोक दिया जाएगा।.....उच्च शिक्षण संस्थानों में जो भारी फीसवृद्धि हो रही है, जिस तरह सरकारी स्कूलों का मर्जर और क्लोजर हो रहा है ताकि कारपोरेट को सौंपने के लिए तमाम प्राइम लैंड अधिगृहीत की जा सके, सरकारी और निजी स्कूलों की ट्विनिंग के नाम पर जिस तरह सार्वजनिक संपदा का धूर्त्तापूर्वक दोहन करने का प्रस्ताव है, हमारी बदतरीन आशंकाएं सच साबित हो रही हैं।

संस्थानों के रोजमर्रे के जरूरी खर्चों और छात्रवृत्ति के लिए अनुदान बंद होने से तथा जरूरी खर्चों के लिए लोन लेने के दबाव के कारण हालात बदतर हो गए हैं। संस्थान फीस बढ़ाने के लिए मजबूर हो रहे हैं जबकि वैश्विक अनुभव यह बताता है कि फीस बढ़ाकर खर्च पूरे नहीं किये जा सकते। कुल मिलाकर होगा यह कि कमजोर तबकों के प्रतिभावान छात्र भी शिक्षा से वंचित हो जाएंगे और ये संस्थान केवल विशेषाधिकार प्राप्त ( privileged ) लोगों के हितों की सेवा करेंगे। "

पहले शिक्षण संस्थान अकादमिक मामलों में स्वायत्त होते थे, वे बिना किसी सरकारी, प्रशासनिक-राजनीतिक हस्तक्षेप के अपने अकादमिक फैसले लेने के लिए स्वतंत्र होते थे, जबकि उनके आर्थिक व्यय राज्य वहन करता था। क्योंकि शिक्षा को नागरिकों का अधिकार और सरकार का दायित्व माना जाता था।

लेकिन अब स्वायत्तता का सीधा अर्थ है कि सरकारी फंड में कटौती होगी और संस्थान सेल्फ फाइनेंसिंग मॉडल पर चलाये जाएंगे। जाहिर है इसके माध्यम से शिक्षण-संस्थान कारपोरेट घरानों के वाणिज्यिक हितों का अखाड़ा बन जाएंगे।  

शिक्षा अब अधिकार नहीं विशेषाधिकार ( Right नहीं, privilege ) बन जाएगी।

प्रो0 प्रभात पटनायक इस रोचक तथ्य की ओर इशारा करते हैं : " NEP के शुरुआती ड्राफ्ट में शिक्षा के अधिकार ( Right to Education ) की बात की गई थी, लेकिन फाइनल ड्राफ्ट में इसे हटा दिया गया। ठीक इसी तरह निजी गैर-परोपकारी (non-philanthropic ) शिक्षण संस्थानों को शुरू में खारिज किया गया था, लेकिन बाद में नीति-निर्माता इससे पीछे हट गए। "

क्या शिक्षा के दायित्व से सरकार के पीछे हटने का कारण संसाधन का अभाव है ?

प्रो0 प्रभात पटनायक के अनुसार GDP का 10 % अतिरिक्त संसाधन जुटाकर हमारी जनता की 5 बुनियादी जरूरतों-भोजन, रोजगार/रोजगार मिलने तक पूरा वेतन, विश्वविद्यालय स्तर तक शिक्षा, स्वास्थ्य-सुरक्षा, डिसेबिलिटी भत्ता व वृद्धावस्था पेंशन-की गारंटी की जा सकती है। इसके लिए आबादी के 1% super rich तबके पर 2% सम्पत्ति कर और 25% उत्तराधिकार कर लगाना होगा। ज्ञातव्य है कि जापान में उत्तराधिकार कर 50% है, जबकि अमेरिका में 40% और यूरोपीय देशों में भी 40% के आसपास है।

साफ है कि मामला संसाधनों के अभाव का नहीं, सरकार की वर्गीय प्रतिबद्धता, नीतिगत दिशा और प्राथमिकताओं का है।

महामारी के बीच पूरी तरह गैर-लोकतान्त्रिक ढंग से थोपे गए कृषि कानूनों के फलस्वरूप जैसे किसानों का पूरा अस्तित्व दांव पर लग गया था, उन्हें यह लगने लगा था कि यह उनकी जमीन छीन कर कारपोरेट के हवाले करने का षड्यंत्र है और वे एक ऐतिहासिक आंदोलन में उतरने को मजबूर हो गए थे, ठीक उसी तरह नई शिक्षानीति के फलस्वरूप आम परिवार से आने वाले छात्रों का भविष्य आज दांव पर लग गया है और उच्च शिक्षा तथा रोजगार से वंचित होने का वास्तविक खतरा उनके सामने खड़ा हो गया है।

आज किसानों की ही तरह और शायद उनसे सीखते और प्रेरणा लेते हुए छात्र-नौजवान भी लंबी और निर्णायक लड़ाई में उतरने के लिए मजबूर हैं।

उम्मीद है आने वाले दिनों में फीस वृद्धि-नई शिक्षा नीति के विरुद्ध, रोजगार के अधिकार तथा लोकतन्त्र के लिए छात्र-नौजवान बड़े एकताबद्ध आंदोलन की ओर बढ़ेंगे ! वे मोदी सरकार को तो सजा देंगे ही, विपक्ष को भी शिक्षा-रोजगार के सवाल पर महज सदिच्छा नहीं ठोस नीतिगत विकल्प के साथ सामने आने के लिए मजबूर करेंगे।

(इस लेख के लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके हैं।)

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