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''जिस विज़न के साथ मनरेगा की शुरूआत की गई थी, वह अब कहीं नहीं है" : प्रो. ज्यां द्रेज़  

दिल्ली के जंतर-मंतर पर 13 फ़रवरी से मनरेगा मज़दूरों का 100 दिन का धरना चल रहा है, बारी-बारी से अलग-अलग राज्य के मज़दूर इसमें शामिल हो रहे हैं। इनके साथ जाने-माने अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता प्रो. ज्यां द्रेज़ भी जुड़े हैं, ये धरना क्यों ज़रूरी है इसपर ज्यां द्रेज़ ने हमसे बातचीत की।
Jean Dreze

झारखंड के पारंपरिक वाद्य यंत्र मांदर और नगाड़े की थाप पर मनरेगा मजदूर अपने स्थानीय गीत गा रहे थे, लेकिन ये गीत ख़ुशी के नहीं थे बल्कि इसमें एक पीड़ा थी कि झारखंड के अलग-अलग राज्य, ज़िला और गांव से उड़ा सुग्गा ( तोता ) दिल्ली पहुंचा है अपना दर्द बताने के लिए। 

देश की राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर से महज़ कुछ ही दूरी पर संसद है जिसमें बजट अधिवेशन का दूसरा चरण चल रहा है, लेकिन क्या झारखंड से आए इन मनरेगा मजदूरों की आवाज़ वहां तक पहुंच पा रही है? 

क्या पक्ष और क्या विपक्ष देश के गांव में बसने वाले हिन्दुस्तान के ये वे लोग हैं जिनकी दिहाड़ी 200 रुपये या उससे कुछ अधिक है वे जिन्दगी चलाने के लिए अपनी पसीने की कमाई को वक़्त पर मिलने की मांग कर रहे हैं। पर क्या सरकार को इनकी परवाह है? 

मनरेगा के बजट में कटौती

बजट पास हुआ तो टीवी और अखबार में जो लफ़्ज़ सबसे ज़्यादा इस्तेमाल हो रहे थे वे - आम आदमी, मध्यम वर्ग। बजट बहुत सुनहरा लग रहा था लेकिन धूल-मिट्टी में काम करने वाले मजदूरों से जुड़े लोगों ने जब बजट की बारिकियों पर ध्यान दिया तो पता चला मनरेगा ( MGNREGA)  के लिए वित्तीय वर्ष 2023-24 में 60 हज़ार करोड़ ही आवंटित किया गया है। जो मनरेगा के लिए आवंटित किया गया अबतक का सबसे कम बजट बताया जा रहा है।

बजट में तो कटौती की ही गई साथ ही कुछ और ऐसे नियम और क़ानून थोपने का आरोप लग रहा है जिसकी वजह से ग़रीब मजदूर मनरेगा से दूर हो रहा है।  जिस योजना को रोज़गार की गांरटी के तौर पर लाया गया था क्या वाकई वे मजदूरों के लिए मददगार साबित हो रही है? 
 
नरेगा जिसका नाम बाद में बदलकर मनरेगा ( महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना ) कर दिया गया था। ग्रामीण विकास विभाग की इस बेहद महत्वाकांक्षी समझी जाने वाली योजना को जब ड्राफ्ट कर लागू किया जा रहा था  ( 2005-2006 ) तो बहुत सी बातों में से जो सबसे अहम बात( उद्देश्य ) थी वे-  

  • ग़रीब लोगों को आर्थिक रूप से सहारा मिल सके, ग़रीब मजदूर को 100 दिनों तक काम मिले और 15 दिन में काम का भुगतान हो जाए। 
  • दूसरा और बेहद अहम उद्देश्य रोज़गार की तलाश में गांव से शहर की ओर हो रहे पलायन को रोकने की कोशिश की जाए।

पर बड़ा सवाल ये है कि जिस सोच के साथ मनरेगा को शुरू किया गया था क्या वाकई उसे पूरा किया जा रहा है? 

ये सवाल इसलिए उठाया जा रहा है क्योंकि 20 दिन से ज़्यादा हो गए और देश की राजधानी दिल्ली में संसद भवन से कुछ दूरी पर मौजूद जंतर-मंतर पर देशभर से आ रहे मजदूर 100 दिन के धरने पर बैठे हैं। 

इसे भी पढ़ें: संसदीय समिति ने वर्ष 2023-24 में मनरेगा के बजट अनुमान में कटौती पर चिंता व्यक्त की

जंतर-मंतर पर 100 दिन का धरना 

100 दिन की रोज़गार गारंटी के लिए 100 दिन का धरना, जिसमें कोशिश की जा रही है कि हर वक़्त धरना स्थल पर 100 मजदूर मौजूद रहें। 13 फरवरी से शुरू हुए इस धरना में कभी बिहार से आए मजदूर दिखते हैं, तो कभी पश्चिम बंगाल से आए।  आजकल झारखंड के मजदूर अपना दर्द लेकर पहुंचे हैं। जिनके साथ जानेमाने अर्थशास्त्री और सोशल एक्टिविस्ट प्रो. ज्यां द्रेज़ भी आए हैं। ज्यां द्रेज मनरेगा की डाफ्टिंग कमेटी के साथ ही नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट से भी जुड़े रहे हैं।

झारखंड या फिर देश के अलग-अलग हिस्सों से आ रहे मजदूरों से बात कर अंदाज़ा होता है कि मनरेगा को जिस सोच के साथ शुरू किया गया था वे धुंधली होती दिखाई दे रही है। 

झारखंड के मनरेगा मजदूर जंतर-मंतर पहुंचे

मनरेगा संघर्ष मोर्चा के बैनर तले हो रहे इस धरने में हिस्सा लेने झारखंड के नागरिक संगठनों का एक साझा मंच है 'झारखंड नरेगा वाच' ये अपनी कई मांगों के साथ जंतर-मंतर पर बैठा है। जो मांगे इनके बैनर पर सबसे ऊपर दिखाई दे रही हैं वे हैं- 

  • मनरेगा मद में प्रर्याप्त वित्तीय आवंटन सुनिश्चित की जाए। 
  • मनरेगा में NMMS ( National Mobile Monitoring Software ) हाजिरी प्रणाली वापस लो। 
  • आधार आधारित भुगतान प्रणाली ( ABPS) वापस लो। 
  • हर हाल में मनेरगा मजदूरों को 15 दिन के अंदर मजदूरी का भुगतान हो। 
  • योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने हेतु नियमित सामाजिक अंकेक्षण ( ऑडिट)  सुनिश्चित किया जाए। 

इनमें सबसे अहम है - ऐप बेस्ड ( NMMS ) हाजिरी को रद्द करना और आधार आधारित भुगतान प्रणाली ( ABPS ) को वापस लेना । 

देशभर से जंतर-मंतर पर आ रहे सभी मजदूर इन दो परेशानियों के अलावा समय पर काम का भुगतान न होने से भी परेशान दिखाई दे रहे हैं। इन लोगों का आरोप है कि ऐप से होने वाली हाजिरी परेशानी का सबब बन रही है।

लातेहार से प्रदर्शन में हिस्सा लेने आई मेट दीदी 

''ऐप से हाज़िरी के लिए चावल-दाल बेचकर स्मार्ट फ़ोन ख़रीदा''

झारखंड के लातेहार से आई एक मेट दीदी के तौर पर काम कर रही कृपा खाखा ने बताया कि '' मैं मेट दीदी के तौर पर काम करती हूं हमारा काम होता है काम की देखभाल करना, इसके अलावा हम मस्टर रोल( Muster roll) ( मस्टर रोल हाजिरी की शीट होती है जिसमें हर दिन हाजिरी दर्ज की जाती है और उसी के मुताबिक़ मजदूरी मिलती है) बनाते हैं'' ।

वे बताती हैं कि ऐप बेस्ड हाजिरी  (NMMS) से बहुत दिक़्क़त आ रही है '' हम ऐप से ठीक से काम नहीं कर पा रहे हैं एक बेला ( वक़्त ) की तो हाजिरी लग जाती है लेकिन दूसरी बेला ( दूसरे वक़्त यानी शाम को ) को नहीं हो पाता। एक मजदूर को दिनभर की मजदूरी चाहिए लेकिन ये मजदूरी तभी पूरी दिन की मानी जाएगी जब दोनों बेला की हाजिरी लगे, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा। बहुत सी मेट दीदी हैं जिनके पास स्मार्ट फोन नहीं है, लेकिन ऐप चलाने के लिए तो स्मार्ट फोन चाहिए हम कहा से लें? मैंने ख़ुद आठ हज़ार में मोबाइल ख़रीदा और ये मैंने कृषि काम से बचाकर रखे चावल, दाल को बेच कर लिया''। 

मेट दीदी कृपा खाखा आगे कहती हैं कि ''आधार कार्ड से जॉब कार्ड ( श्रम कार्ड ) को लिंक करना है तो आधार, जॉब कार्ड और पासबुक ( बैंक)  तीनों को लिंक होना होगा तभी पैसा आएगा,  तो उससे ये दिक्कत आ रही है कि किसी का आधार लिंक नहीं है तो किसी का जॉब कार्ड नहीं है, तो ऐसे में मनरेगा के मजदूरों की पेमेंट में परेशानी हो रही है।'' 

मनरेगा मजदूरों को अपनी ही मजदूरी लेने के लिए सरकारी पेचिदगी में फंसना पड़ रहा है, मेट दीदी कृपा कहती हैं कि '' ये लोग इतने ग़रीब हैं कि इन्हें रोज मजदूरी चाहिए लेकिन वक़्त पर पेमेंट नहीं हो पा रही है कभी एक महीने की देरी, कभी छह महीने की देरी, मेरे पास ही क़रीब 10 से 12 ऐसे मनरेगा मजदूर हैं जिनकी 2021 की पेमेंट नहीं हुई है''

झारखंड से आईं मनरेगा मजदूर

''ऐप और आधार लिंक के आदेश ने पलायन बढ़ा दिया''

कृपा खाखा चिंता ज़ाहिर करते हुए कहती हैं कि इसका नतीजा ये होता है ये मजदूर मनरेगा की मजदूरी छोड़ कर चले जा रहे हैं, और फिर वे हमें याद दिलाती हैं कि नेरगा/ मनेरगा तो इसीलिए लाया गया था कि रोजगार के लिए पलायन को रोका जाए लेकिन अब तो लग रहा है कि समय पर पेमेंट न मिलने, आधार से बैंक और जॉब कार्ड को लिंक करने के आदेश और सबसे बड़ा ऐप से हाज़िरी की वजह से परेशान हो कर पहले से ज़्यादा मजदूर पलायन कर रहे हैं। 

''बिना ट्रेनिंग के कैसे ऐप इस्तेमाल करें''?

वहीं ख़ूटी से आई एक महिला ने कहा कि''  खूंटी में पलायन नहीं करना पड़ता था बहुत हुआ तो 5 किलोमीटर के दायरे में लोगों को काम मिल जाता था, तो उन्हें इस बात का संतोष था कि घर के क़रीब ही काम मिल जा रहा है, लेकिन अभी जो सिस्टम है NMMS के ऐप का इसने परेशान कर दिया है। इसके बारे में मेट दीदी को सही जानकारी नहीं है। अभी जिस तरह से काम चल रहा था तो रोज़गार सेवक ही हाजिरी बना रहे थे, लेकिन ऐप से हाजिरी के बारे में न तो मज़दूरों को सही जानकारी है, न मेट दीदी लोगों को क्योंकि उनके पास मोबाइल नहीं है, नेट नहीं है, नेट रिचार्ज करवाने के लिए पैसे नहीं है तो उनको सही तरीके से ट्रेनिंग नहीं मिली, तो ये लोग सही से काम नहीं कर पा रही मेरा सरकार से अनुरोध है कि जो ये NMMS ऐप और आधार बेस्ड पेमेंट होता है उसे रोके ताकी लोगों को इस परेशानी से न जूझना पड़े। क्योंकि आधार बेस्ड जो पेमेंट होता है तो लोगों को आधार बैंक में लिंक करना पड़ेगा, पासबुक को जोड़ना पड़ेगा, खूंटी के अधिकतर लोग पढ़े-लिखे नहीं हैं तो उन्हें ज़्यादा तक़लीफ हो रही है। 

दो टाइम की हाज़िरी बनी परेशानी 

ऐप से हाजिरी ने मनरेगा से जुड़ी सहायक मेट दीदी को तो उलझन में डाला ही है साथ ही मजदूरी के लिए आ रही महिला मजदूरों को भी परेशान कर दिया है पश्चिमी सिंहभूम से आई एक मनरेगा मजदूर ने बताया कि ''बहुत दिक्कत हो रही है, पेमेंट नहीं हो रही है और मोबाइल सिस्टम हाजिरी हो रही है उसमें एक ही टाइम का हाजिरी अपलोड हो रही है, दूसरा टाइम की नहीं हो रही है, जिसकी वजह से पूरे दिन की हाजिरी नहीं बन पा रही । दो बार फोटो लिया जा रहा है अगर हम अपने गांव से 2 किलोमीटर दूर जा रहे हैं तो सुबह पांच बजे निकलते हैं और वापस आते-आते डेढ़ बज जाते हैं और शाम को हमें सिर्फ़ फोटो खिचवाने के लिए इतनी दूर जाना होता है, मतलब दो-दो बार जाना पड़ रहा है ये बहुत परेशान कर रहा है, हमारी मांग है कि मोबाइल से हाजिरी को तुरंत बंद कर दिया जाए''। 

मनरेगा मजदूरों को क्या परेशानी पेश आ रही है?

मनरेगा के मजदूरों को ऐप बेस्ड हाजिरी के लिए दो-दो बार जाना पड़ रहा है इसका असर क्या हो रहा है ये हमें समझाने की कोशिश की सभील नाथ ने जो झारखंड के लातेहार में 'मनरेगा वाच' के साथ काम करते हैं वे बताते हैं कि'' पहले मस्टर रोल ( Muster roll) ( हाजिरी की शीट ) में एक बार ही हाजिरी लगती थी जिसकी वजह से लोग आते थे अपना काम पांच से छह घंटे में ख़त्म कर दूसरा काम भी कर सकते थे लेकिन अब उन्हें काम ख़त्म होने के बाद भी दूसरी हाजिरी के लिए रुकना पड़ेगा और बिना काम के वो सात से आठ घंटे एक ही जगह बैठे रह जाएंगे, दूसरा जिन जगहों पर काम हो रहा है वहां नेटवर्क की समस्या रहती है, मान लीजिए मनरेगा मजदूर आए हैं, उन्होंने काम भी किया है लेकिन अगर समय पर फोटो के साथ हाजिरी अपलोड नहीं कर पाए तो वे बेकार चला जाएगा''  दूसरा वे बताते हैं कि ''आधार आधारित भुगतान प्रणाली ( ABPS) के तहत कई गड़बड़ी हो जा रही हैं जैसे अगर किसी का ग़लती से आधार या जॉब कार्ड किसी दूसरे के बैंक से लिंक हो जा रहा है तो काम करने वाले मजदूर को तो लगेगा कि हमारा पैसा आ रहा है जबकि वे पैसा तो किसी दूसरे के खाते में जा रहा है और जब उसे पता चलता है और वे उसे ठीक करवाने पहुंचता है तो पेपर वर्क में ही महीनों गुज़र जाता है ये लोग इतने जानकार नहीं है।  ये मजदूरी करें या फिर बैंक के चक्कर लगाएं''?  

झारखंड से आई महिला की समस्या हल करने की कोशिश करती सामाजिक कार्यकर्ता

कुछ इसी तरह की परेशानी से जूझ रही एक महिला से मुलाक़ात हुई वे जंतर-मंतर पर LibTech India की टीम से बात कर रही थीं पूछने पर वे अपनी समस्या भी ठीक से नहीं बता पा रही थीं लेकिन जब हमने पता किया तो पता चला कि उनका आधार कार्ड और बैंक अकाउंट लिंक नहीं है लेकिन मनरेगा में काम करने के लिए उनका जॉब कार्ड बन गया है पर जब वे काम मांगने जाती हैं तो उन्हें कहा जाता है कि कोई फायदा नहीं है क्योंकि आधार कार्ड और बैंक अकाउंट लिंक नहीं है तो दिहाड़ी नहीं बनेगी। 

बिचौलिए बने परेशानी

वहीं लातेहार के महुआडांड से अपने तीन साल के बच्चे के साथ धरने में आई प्रसन्ना किंडो भी कुछ ऐसे ही परेशानी बयां करती हैं वे बताती हैं कि ''काम मांगने जाते हैं तो काम नहीं मिलता, समय पर पेंमेंट नहीं मिलता, नियम है कि 15 दिन में पेमेंट हो जाना चाहिए लेकिन महीनाभर से ज़्यादा हो जाता है पेमेंट नहीं मिलता, कभी-कभी तो अपना गांव छोड़कर दूसरे गांव जाकर काम करने की नौबत आ जाती है हम बच्चे छोड़कर इतनी दूर कैसे जाएं, बिचौलिए बहुत परेशान करते हैं मान लीजिए हम चार दिन काम करते हैं तो दो दिन का पेमेंट बिचौलिया लोग ले लेते हैं ऐसे में कैसे हमारा घर चलेगा? 15 दिन में पैसे मिले तो ठीक है एक महीना हो जाता है तो घर की रोजी रोटी चलाना मुश्किल हो जाता है, क्या करें छोड़कर कुछ और काम तलाश करना पड़ेगा''

झारखंड के अलग-अलग ज़िलों से पहुंचे मजदूरों की क़रीब-क़रीब एक सी ही परेशानी दिखाई दे रही थी। 

''मजबूरी में कम मजदूरी पर काम करना पड़ रहा है''

गोड्डा से आए एक युवक कहता है कि ''हमारे यहां भी नरेगा की स्थिति बहुत ख़राब है, लोग नरेगा में काम नहीं करना चाहते क्योंकि ज़्यादातर मजदूर बहुत ग़रीब हैं और इस साल तो खेती भी ठीक नहीं हुई है तो ऐसे परिवार हैं जिन्हें रोज़ काम चाहिए, पेमेंट भी चाहिए लेकिन नरेगा में जो पेमेंट सिस्टम है उसमें कहने को 15 दिन के बाद पेमेंट मिलता है पर उसमें भी देरी हो जाती है इसलिए मजदूर कम मजदूरी में भी  ठेकेदार के पास ही काम करना पसंद करते हैं और जो निर्धारित मजदूरी दर 237 रुपया है उससे भी कम दर पर काम करवाते हैं।  तो इस सिस्टम को ठीक करने की ज़रूरत है ताक़ी लोगों को इतनी परेशान न झेलनी पड़े, लोगों को समय पर मजदूर मिल सके। 

क्यों ज़रूरी है ये धरना? 

मनरेगा मजदूरों की इन तमाम परेशानियों पर हमने झारखंड में नागरिक संगठनों का एक राज्यव्यापी मंच है 'झारखंड नरेगा वाच' उसके संयोजक जेम्स हेरेंज( James Herenj)  से बात की उन्होंने बताया कि क्यों उन्हें जंतर-मंतर पर आना पड़ा और सौ दिन का ये धरना क्यों ज़रूरी है। वे कहते हैं कि - 

जेम्स हेरेंज, 'झारखंड नरेगा वाच' के संयोजक

''झारखंड से हम 60 से अधिक लोग आए हुए हैं, इनमें मजदूर ही नहीं बल्कि मजदूरों के लिए काम करने वाले, मनरेगा में एक मेट सिस्टम होता है तो मेट लोग भी शामिल हैं, साथ ही मजदूरों के लिए काम करने वाले अलग-अलग जन संगठनों के प्रतिनिधि भी हैं'' 

वे आगे कहते हैं कि ''1 फरवरी को भारत सरकार ने बजट रिलीज किया है जिसमें मनरेगा के लिए वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए महज़ 60 हज़ार करोड़ ही आवंटित किया गया है जो बड़ी कटौती है जो ये बिल्कुल इशारा कर रहा है कि हम नरेगा मजदूरों के प्रति गंभीर नहीं है साथ ही ये भी इशारा कर दिया है कि हर साल 1 अप्रैल को नरेगा की मजदूरी दर बढ़ती है लेकिन ये साफ़ इशारा कर रहा है कि हम मजदूरी या तो नहीं बढ़ाएंगे या बढ़ाएंगे तो बहुत मामुली बढ़ाएंगे क्योंकि हम लोगों का अनुभव रहा है कि किसी-किसी साल इन्होंने 2015-16 के आस-पास एक रुपया भी बढ़ाया है पांच रुपया भी बढ़ाया है, तो मनरेगा मजदूरी न बढ़ने से मनरेगा में जो लोग काम करते हैं उनके लिए पहले से भी परेशानी रही है और अगर मजदूरी नहीं बढ़ती तो रुचि और भी कम हो जाएगी । 

दूसरा ये है कि इसी तरह से 1 फरवरी से NMMS  के तहत अब मजदूरों को सुबह और शाम दो बार मोबाइल में फोटो के साथ हाजिरी बनाने पड़ेगी तो एक तरफ़ मनरेगा में सिस्टम है कि 'टास्क बेस्ड काम' है कहने का मतलब है कि अगर कोई काम हम पांच घंटे में पूरा कर लेते हैं तो मेरा टास्क पूरा हो गया, दूसरी बार हम क्यों जाना पड़ेगा सिर्फ़ फोटो खिंचवाने के लिए?  तो ये तो बंधुआ मजदूर की तरह हांकना है। 

झारखंड में स्टेट पॉलिसी के मुताबिक महिलाएं ही मनरेगा मेट होती हैं, लेकिन उनके पास Android  मोबाइल नहीं है, अगर android मोबाइल हो भी जाए तो उसे चलाने के लिए उन्हें अभ्यास करना होगा जिसमें लंबा वक़्त लगेगा, मोबाइल का नेटवर्क ठीक से काम नहीं करता है, बिजली नहीं है, फिर इसके रिचार्ज के लिए लोगों को पैसा ख़र्चा करना पड़ेगा जबकि उनकी रेगुलर इनकम इतनी नहीं हैं तो ये सब खर्चे उठा सकें। 

तीसरी बात ये है कि 1 फरवरी से भारत सरकार ने आधार आधारित भुगतान प्रणाली शुरू कर दी है तो सरकार का ये अपना डाटा बोलता है कि 30 तारीख़ को जो इन्होंने लेटर निकाला है उस दिन तक 41 प्रतिशत मजदूर ही ऐसे थे जिनका आधार बेस्ट पेमेंट के लिए पूरे डाक्यूमेंट रेडी है तो अब एक दम से 59 प्रतिशत मजदूरों के लिए अचानक आप ऐसा आदेश निकाल देते हैं नोटबंदी की तरह कि कल से सबको आधार बेस्ट पेमेंट ही करना है तो ये परेशानियों से भरा है, और ये सब मजदूरों को सिर्फ परेशान करने के लिए क्या जा रहा है टेक्नोलॉजी  पर आधारित ये तो जो तरीकें हैं ये ग़रीब आदिवासी इलाकों में लोगों को समझने में दिक्कत हो रही है। 

जिस दौरान जंतर-मंतर पर झारखंड से आए इन लोगों का प्रदर्शन चल रहा था, बारी-बारी से राज्य के अलग-अलग हिस्सों से आए मजदूर अपनी-अपनी परेशानी रख रहे थे इस दौरान प्रो. ज्यां द्रेज़ पर नज़र पड़ी, वे बहुत  ध्यान से मजदूरों को सुन रहे थे, उनके गीतों में शामिल हो रहे थे, नारों में साथ दे रहे थे, कुछ बातों को नोट कर रहे थे और साथ ही बीच-बीच में आकर मजदूरों को समझा रहे थे कि किन और मुद्दों पर बात होनी चाहिए, किन मुद्दों को उठाना ज्यादा ज़रूरी है।

जंतर-मंतर पर ज्यां द्रेज़ और 'नरेगा वाच' के कार्यकर्ता सभील नाथ और दूसरे कार्यकर्ता

हमसे अनौपचारिक बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि मेरे लिए सबसे ज़रूरी है कि इन मजदूरों को समय से मजदूरी मिलती रहे।

लेकिन जब हमने ज्यां द्रेज़ से विस्तार से मनरेगा और धरने पर बातचीत की तो उन्होंने कहा कि- ''हम यहां धरना क्यों कर रहे हैं इसके कुछ कारण हैं''

पहला कारण- आजकल हम देख रहे हैं कि केंद्र सरकार नरेगा( मनरेगा)  मजदूरों को थकाने की कोशिश कर रही है, ये कोई नई बात नहीं है, जैसा कि हम देख रहे हैं कि 12 साल से मजदूरी नहीं बढ़ी ( या मामूली बढ़त हुई )  जबकि महंगाई लगातार बढ़ रही है। याद रखिए जब 2008 में नरेगा के मजदूर प्रतिदिन 80 रुपये कमाते थे तब दूसरे मजदूरों को 40 रुपये मिलते थे मतलब नरेगा के मजदूरों की मजदूरी ज़्यादा थी, उस वक़्त नरेगा मजदूर ख़ुश थे, योजना ठीक से चल रही थी। लेकिन वक़्त के साथ बहुत सी परेशानियां आ रही हैं। 

दूसरा कारण - मजदूरी समय पर नहीं मिलती 10- 12 साल से हमेशा देरी से मजदूरी मिल रही है कभी एक सप्ताह की देरी, कभी-कभी एक महीना तो कभी छह महीने देरी से, मज़दूरों को पता नहीं कि उनकी मजदूरी कब आएगी? अगर 15 दिन के अंदर आ जाती (क़ानून के मुताबिक़ ) तो अभी भी मजदूरों का हाल ठीक रहता वे इसे करके खुश रहते। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। 

और अब तो परेशान करने का सबसे बड़ा हथियार लाया गया है- Inappropriate Technology जिसमें डिजिटल अटैंडेंस ऐप (NMMS ) और आधार बेस्ड पेमेंट (ABPS) है। ये दोनों ही अच्छी तरह से काम नहीं कर रहे हैं और इसका नतीजा ये हो रहा है कि मजदूर काम तो कर रहे हैं लेकिन उनका पेमेंट नहीं हो रहा है, तो समझा जा सकता है कि पेमेंट की गारंटी नहीं होगी तो मजदूर काम करना नहीं चाहेगा। तो मरनेगा को लेकर आज ये सबसे बड़ा ख़तरा है इसका विरोध करने के लिए हम 100 दिन तक बैठेंगे हमारी मांग है कि इस ऐप को वापस लिया जाए और जो आधार बेस्ड पेमेंट है इसको अनिवार्य ( Compulsory) न करें, अभी तक दो विकल्प थे, अकाउंट बेस्ड पेमेंट और आधार बेस्ड पेमेंट, अकाउंट बेस्ड पेमेंट में ज़्यादा दिक्कत नहीं है, लेकिन आधार बेस्ड पेमेंट में दिक्कत है और अगर इसे अनिवार्य कर देंगे तो दिक्कत बहुत ज़्यादा बढ़ जाने वाली है, तो हम कह रहे हैं कि इसे अनिवार्य न करें, और डिजीटल अटैंडेंस भी अनिवार्य न करें।  

सवाल- मनरेगा मजदूरों को जंतर-मंतर पर बैठे 20 दिन से ज़्यादा हो गए बात सरकार तक पहुंच नहीं पा रही ?

ज्यां द्रेज का जवाब-  ऐसा लग रहा है कि सरकार सुनने की कोशिश ही नहीं कर रही, पता चला है कि केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने मनरेगा पर कुछ कहा है, हम लगातार बात करने की कोशिश कर रहे हैं, सोशल मीडिया के माध्यम से उन्हें टैग किया जा रहा है लेकिन लग रहा है कि सरकार ये स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि शिकायतें आ रही हैं, वो पूरी तरह से Denial Mode में है, लेकिन अगर इन्होंने हमारी बात नहीं सुनी और इस ऐप बेस्ड हाजिरी के सिस्टम को नहीं हटाया तो अगले साल चुनाव में इन्हें दिक़्क़त होने वाली है। 

सवाल: जिस सोच के साथ नरेगा को शुरू किया गया था उसे 2023 में आप कैसे देखते हैं? 

ज्यां द्रेज का जवाब- मेरे मुताबिक़ नरेगा अब भी प्रसांगिक ( Relevant ) है। भारत में नरेगा का अनुभव देखते हुए  कई देशों में इस तरह की योजना या क़ानून लाने के बारे में सोचा जा रहा है जैसे साउथ अफ्रीका, इथोपिया, यूरोप और USA में भी इस तरह की चर्चा हो रही है कि मनरेगा जैसा कुछ लाकर बेरोज़गारी को ख़त्म किया जाए, तो इसकी सोच तो बहुत सही है लेकिन दुख की बात है कि ये जो सोच थी और शुरुआत में जो विज़न था वे मुझे लगता है कि अब नहीं रहा।  उदाहरण के लिए इसकी सोच ये थी कि बहुत ही डीसेंट्रलाइज़ प्रोग्राम रहे हर स्टेट और यहां तक की ग्राम पंचायत तक जुड़े लेकिन उसके विपरीत पूरी तरह से सेंट्रलाइजेशन ट्रेंड हो रहा है ये कोशिश कर रहे हैं कि दिल्ली में बैठकर इस पूरी योजना पर कंट्रोल रखें जो इसको नुकसान पहुंचा रहा है, हम चाहते थे इसमें सबकी भागीदारी हो, काम करने वालों की, सुपरवाइज़र, सोशल ओडिटर्स, एंटी करप्शन एजेंट सब इसका हिस्सा हों लेकिन अब ये हो रहा है कि आओ काम करो अगर आप भाग्यशाली हो तो आपका पेमेंट डिजिटल ऐप से आ जाएगा।

प्रो. ज्यां द्रेज ने जिस तरह से अपनी बात ख़त्म करते हुए योजना के तहत पेमेंट के भाग्यभरोसे मिलने की बात कही तो लगा शायद सरकार भी इस योजना को भगवान भरोसे छोड़ने के मूड में है क्योंकि जिस तरह से बजट में भारी कटौती की गई और ग़रीब मजदूरों को ट्रांसपेरेंसी के नाम पर टेक्नोलॉजी के भंवर में फंसाया जा रहा है वैसे में उनके रोज़गार की गारंटी के साथ पेमेंट की गारंटी कौन लेगा? 

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