यूपी: अनियमित राशन वितरण से बच्चों में पोषण की कमी, आंगनवाड़ी व्यवस्था पर सवाल!
डेढ़ साल का रिहान एक कुपोषित बच्चा है। माता पिता गरीब हैं तो उचित पुष्टाहार की व्यवस्था नहीं कर सकते। ऐसे ही बच्चों के समुचित आहार की जरूरतों को पूरा करने के लिए आंगनवाड़ी केंद्रों तक सरकार कच्चा अनाज पहुंचाती है जो ग्राम समाज के उन घरों तक पहुंचाया जाता है जहां पांच साल तक के बच्चे हैं। इस कच्चे अनाज या सूखे राशन में पंजीरी, गेहूं का दलिया, चने की दाल, तेल और चावल शामिल हैं। अगर एक गरीब बच्चे को हर महीने जरूरत के हिसाब से इतना अनाज मिल जाए तो इतना तय है कि हम कुपोषण की जंग तो जीत ही लेंगे लेकिन तस्वीर इसके उलट है।
गरीब बच्चों तक हर महीने ये कच्चा अनाज कितना पहुंच पा रहा है और जो पहुंच भी रहा है क्या वो काफी है, इन सवालों की पड़ताल करने के लिए हम लखनऊ से सटे कुछ गांवों में पहुंचे। सबसे पहले हम बीकेटी तहसील के अंतर्गत आने वाले बीकामऊ खुर्द गांव पहुंचे जहां हमारी मुलाक़ात कुसुमा से हुई जो अपने डेढ़ साल के बेटे रिहान के साथ अपने घर के आंगन में बैठी थीं। एक नज़र से देखने में रिहान डेढ़ साल का नहीं लगता था। जब हमने उसे देखा तो लगा कि उसकी उम्र 10 से 12 महीने के बीच होगी लेकिन कुसुमा ने बताया कि रिहान 18 महीने का है। उसका वज़न भी अपनी आयु के हिसाब से कम था।
हमारे देश में स्वास्थ्य मानक के अनुसार 18 महीने के बच्चे का आदर्श वज़न 10 से 11 किलोग्राम के बीच होना चाहिए लेकिन रिहान का वज़न मात्र 7 किलो ही था। कुसुमा ने बताया कि बच्चों का वज़न लेने आज ही आंगनवाड़ी से लोग आये थे जिसमें उनके डेढ़ साल के बेटे का वज़न 7 किलो निकला। रिहान के कुपोषण का कारण था कि अपनी आयु के मुताबिक़ उसे उतना पोषण नहीं मिल पा रहा था जितनी इस उम्र में जरूरत होती है। बच्चे के उचित पोषण की जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी परिवार और आंगनवाड़ी केंद्र दोनों की है लेकिन जब परिवार बेहद गरीब हो और आंगनवाड़ी भी हर माह बच्चों तक अनाज पहुंचाने की अपनी जिम्मेदारी को बखूबी न निभाए तो बच्चा कुपोषण की स्थिति तक पहुंचेगा ही। छह माह से लेकर पांच वर्ष तक के ग्रामीण बच्चों को कुपोषण से बचाते हुए, उनकी आहार संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए आंगनवाड़ी केंद्रों की बड़ी भूमिका है लेकिन यह भूमिका शिथिल होती नज़र आ रही है।
कुसुमा से जब हमने हर महीने आंगनवाड़ी से बच्चे के लिए मिलने वाले अनाज के बारे में पूछा तो उन्होंने दावा किया कि उनके गांव में हर महीने अनाज तो कभी मिला ही नहीं। वो बताती हैं कि तीन महीने में एक बार मिल जाता है वो भी केवल पंजीरी जिसकी क्वालिटी बहुत खराब होती है। वह अंदर कमरे में जाती हैं और पंजीरी से भरा झोला ले आती है और हमेंं दिखाने लगती है। पंजीरी दिखाते हुए कुसुमा के चेहरे पर गुस्सा साफ़ देखा जा सकता था। वे बताती हैं कि एक बच्चे पर सरकार ने पंजीरी के अलावा दलिया, चने की दाल, पांच किलो चावल और तेल देने की बात कही थी लेकिन आज तक कभी पूरा अनाज मिला ही नहीं। वे दावा करती हैं कि अक्सर केवल पंजीरी दे दी जाती है, चावल बहुत कम बार मिला वो भी पूरा 5 किलो नहीं मिला। वह सवाल करती है कि क्या पंजीरी से ही बच्चों का कुपोषण दूर होगा? अनाज नियमित रूप से गरीबों तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा, शासन को इसकी पड़ताल भी करनी चाहिए।
कुसुमा को पथरी की समस्या है लेकिन आर्थिक तंगी के कारण वह ऑपरेशन नहीं करा पा रहीं। उनके तीन बेटे हैं। बड़ा बेटा नेहाल सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता है जबकि छोटा बीटा रुहान तीसरी कक्षा में पढ़ता है और सबसे छोटा रिहान अभी डेढ़ साल है। कुसुमा के पति रामखिलावन एक दिहाड़ी मज़दूर हैं। कई कोशिशों के बावजूद उन्हें प्रधानमंत्री आवास के तहत पक्का घर नहीं मिल पाया। उनके घर की हालत बेहद जर्जर हो चली है। मिट्टी की दीवारें टूट रही हैं। छप्पर में कई छेद हैं जो बरसात में घर को तालाब बना देते हैं। तेज बारिश में कब घर ढह जाए कुछ नहीं पता। घर दिखाते हुए भावुक हुई कुसुमा कहती हैं कि ऐसे हालात में बच्चों को उचित पोषण कहां से दें!
कुसुमा से मिलने के बाद हम पहुंचे मदारीपुर गांव। यहां हमारी मुलाक़ात सोनू से हुई। सोनू भी एक दिहाड़ी मज़दूर हैं। उनके तीन बच्चे हैं। बड़ी बेटी सरकारी स्कूल और मंझली बेटी आंगनवाड़ी जाती है जबकि बेटा अभी बहुत छोटा है। सोनू बताते हैं कि उनके गांव में भी हर महीने आंगनवाड़ी केंद्रों के द्वारा कभी पूरे अनाज का वितरण नहीं किया जाता। तीन महीने में मिलता है वो भी किसी महीने केवल पंजीरी दे दी जाती तो कभी बस चावल। वे कहते हैं, "हम गरीब लोग हैं। बच्चों के लिए दूध का इतज़ाम भी करना मुश्किल है। हर रोज काम मिल ही जाए, ऐसा जरूरी नहीं। जब काम मिलता है तभी पैसा भी हाथ में आता है तो बच्चों को पौष्टिक खाना कैसे खिलाएं।”
सोनू कहते हैं, "जब आंगनवाड़ी से अनाज वितरण के लिए लोग आते हैं तो हमने कई बार पूछा कि हर महीने क्यों नहीं दिया जाता। उनका एक ही जवाब होता है कि जब खुद उनके केंद्र तक नियमित पूरा अनाज पहुंचेगा, तभी हर महीने वितरण हो पायेगा। गरीबों के लिए ऐसी योजनाओं का क्या फायदा जब वे ढंग से लागू ही न हो पाए।"
सोनू और कुसुमा के सवाल वाजिब ही हैं। खैर मदारीपुर के बाद हमारी अगली मंज़िल थी बन्नौर और बरगदी मंगठ गांव। इन दोनों गांव में भी आंगनवाड़ी योजना का वही बुरा हाल दिखा जो पहले दो गांव में था। बन्नौर की सुशीला और बरगदी की लक्ष्मी ने बताया कि उनके गांव में भी कभी तीन तो कभी चार महीने में बच्चों के हिस्से का राशन मिलता है और कभी बहुत जल्दी मिला तो तब भी दो महीने में मिलता है। हालांकि ऐसा कम ही होता है कि दो महीने के भीतर राशन मिल जाए। यानी दावों के मुताबिक़ नियमित तौर पर हर महीने यहां भी राशन वितरण का अभाव दिखा और जब मिला भी तो कभी पूरा नहीं मिला।
इन गांवों में घूमते हुए हमारी मुलाक़ात एक आंगनवाड़ी कार्यकत्री से हुई। अपना नाम न छापने की शर्त पर उसने बताया कि "लोग सोचते हैं कि केंद्रों में राशन भरा पड़ा है और हम ही बांटने में कोताही कर रहे लेकिन सच यह है कि केंद्र को कम ही राशन उपलब्ध कराया जा रहा है तो यह सरकार की कमी है उनकी नहीं।" वह कहती हैं कि कम राशन आने पर उन्हें भी तो परेशानियों का सामना करना पड़ता है और लोगों की नाराजगी अलग से झेलनी पड़ती है। उन्होंने बताया कि इस कमी को कुछ इस तरह समझा जा सकता है कि जैसे उनके कार्यक्षेत्र के अंतर्गत आने वाले इलाके में छोटे बच्चे, कुपोषित और गर्भवती महिलाओं को मिलाकर 85 लोग हैं और उन्हें राशन उपलब्ध हुआ केवल 45 लाभार्थियों का तो बाकी 40 लाभार्थियों की आहार की पूर्ति कैसे करें, ऐसे में इस पूर्ति के लिए सभी लाभार्थियों के राशन में कटौती करनी ही होगी। और जब कटौती होगी तो तय मानक के अनुसार प्रत्येक दिन जो छोटे बच्चों, कुपोषित, अतिकुपोषित और गर्भवती महिलाओं को केलौरी, प्रोटीन चाहिए उसमें कमी आयेगी ही।
लंबे समय से गरीब ग्रामीणों के बुनियादी अधिकारों के लिए काम कर रहीं, अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिशन (ऐपवा) की नेत्री कमला गौतम से जब इस सिलसिले में हमारी बात हुई तो उन्होंने बताया कि केवल कुछ गांव ही नहीं बल्कि अमूमन हर गांव का यही हाल है। आंगनवाड़ी केंद्र तो हैं लेकिन हर महीने नियमित तौर पर सूखा राशन वितरण का घोर अभाव है। वे कहती हैं, "न केवल 6 महीने से 6 साल तक के बच्चों को उचित पोषण के लिए सूखा राशन मिलना चाहिए बल्कि गर्भवती महिलाओं को भी आंगनवाड़ी से हर महीने डेढ़ किलो गेहूं दलिया, एक किलो चावल, एक किलो चना दाल और 500 मिलीलीटर खाद्य तेल मिलना चाहिए जो फिलहाल हर महीने कभी नहीं मिलता।"
कमला बताती हैं कि "बाल विकास एवं पुष्टाहार विभाग के मानक के अनुसार अतिकुपोषित बच्चे को हर दिन 800 कैलोरी और 20 से 25 ग्राम प्रोटीन मिलना चाहिए। गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माओं को 600 कैलोरी और 18 से 25 ग्राम प्रोटीन मिलना चाहिए जो आंगनवाड़ी व्यवस्था होने के बावजूद नहीं मिल रहा और ये बेहद शर्मनाक बात है जिसपर प्रदेश सरकार को गंभीरता से सोचना होगा और आंगनवाड़ी व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा।"
कमला कहती हैं, "जब आंगनवाड़ी से अनुपूरक पुष्टाहार ही तीन महीने में एक बार मिलेगा तो मानक कैसे पूरा होगा। प्रदेश में यह योजना अनियमितताओं की शिकार है। आंगनवाड़ी केंद्रों से इस बाबत बात करो तो वे बताते हैं कि उन तक ही लाभार्थियों की संख्या के मुकाबले राशन बहुत कम मात्रा में पहुंचता है तो भला वे नियमित तौर पर पूरा राशन वितरण कैसे करें और संबधित अधिकारियों से पूछो तो उनका एक ही जवाब होता है वितरण पूरा होता है बस डाटा एंट्री नियमित नहीं होती। लेकिन जो आंखों देखा हाल है वो कैसे झूठलाया जा सकता है।"
कमला सीधे तौर पर आरोप लगाती हैं कि "जब ऊपर से नीचे तक सूखे राशन की बंदरबाट मची है तो जरूरतमंदों तक कैसे पहुंचे।" वह कहती हैं कि करोना के बाद से आंगनवाड़ी केंद्रों में पका अनाज मिलना बंद हुआ तो बच्चों को सूखा अनाज दिया जाने लगा लेकिन इस व्यवस्था की गड़बड़ी यह है कि पहले पका भोजन नियमित मिलता था अब सूखा राशन मिलने के कारण उसमें कमी आई है।
पूरे हालात का जायज़ा लेने के बाद एक बात जो स्पष्ट तौर पर सामने आई कि आंगनवाड़ी केंद्रों से बंटने वाले राशन की स्थिति उतनी बेहतर नहीं जितना प्रचार किया जाता है। आंगनवाड़ी केंद्रों का सवाल भी वाजिब है कि अगर हर महीने गरीब बच्चों और गर्भवती महिलाओं तक आवश्यकता के अनुसार राशन पहुंचेगा ही नहीं तो केंद्र कैसे व्यवस्था करेगा। उत्तर प्रदेश में तो खासकर इस व्यवस्था को इसलिए बहुत मजबूत करने की जरूरत है क्योंकि कुपोषण के मामले में प्रदेश की स्थिति कई राज्यों से भी खराब है।
एक आंकड़े के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में 1 लाख 89 हज़ार आंगनवाड़ी केंद्र हैं जो अपने आप में बहुत बड़ा नेटवर्क है। अगर यह नेटवर्क बेहतर तरीके से काम करे तो इसमें दो राय नहीं कि हम न केवल प्रदेश बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी कुपोषण और भुखमरी पर काबू पर सकते हैं।
(लेखिका एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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