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ख़बरों के आगे-पीछे: भाजपा को उपचुनाव जिताने में अखिलेश और मायावती का योगदान?

हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
Akhilesh
(File Photo-PTI)

महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम से भारतीय राजनीति में एक बड़े बदलाव का संकेत मिला है। एक सप्ताह से ज्यादा चले नाटकीय घटनाक्रम में सबका ध्यान सिर्फ संख्या पर रहा। किस खेमे के पास कितने विधायक हैं, कितने विधायक गुवाहाटी पहुंचे, कितने रास्ते में हैं, कितने किसके संपर्क में हैं, कितने वापस लौटेंगे आदि पर सारी चर्चा होती रही। इस दौरान जिस एक खास बात पर कम ही लोगों का ध्यान गया, वह यह कि उद्धव ठाकरे ने मीडिया को बुला कर उसके सामने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़े का ऐलान नहीं किया। उन्होंने इस्तीफ़े की घोषणा फ़ेसबुक लाइव के जरिए की। बुधवार को रात नौ बजे के करीब दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ठाकरे सरकार को 30 जून को बहुमत साबित करना होगा और आधे घंटे बाद मुंबई में उद्धव ठाकरे ने फेसबुक पर लाइव प्रसारण शुरू किया। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर इस्तीफ़े का ऐलान किया और राज्यपाल से मिलने गए। यह भारतीय राजनीति में एक बड़े बदलाव का संकेत तो है ही, साथ ही सत्ता प्रतिष्ठान और एक विशेष राजनीतिक दल के ढिंढोरची बन चुके मीडिया के लिए भी यह एक बड़ी चुनौती और सबक है। गौरतलब है कि ठाकरे ने अपने विधायकों की बगावत के बाद भी फ़ेसबुक लाइव के जरिए ही देश और प्रदेश के लोगों को संबोधित किया था। उन्होंने बागी विधायकों से वापस लौटने की अपील भी फेसबुक लाइव के जरिए ही की थी। इसका मतलब है कि राजनीति अब पारंपरिक मीडिया से शिफ्ट होकर सोशल और वैकल्पिक मीडिया की ओर जा रही है। नेताओं को अपनी बात कहने के लिए न्यूज चैनलों या अखबारों की जरूरत नहीं है। अब रैलियां भी डिजिटल प्लेटफॉर्म पर हो जाएंगी। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से राजनीति का फायदा यह है कि वहां नेता को अपनी पूरी बात कहने का मौका मिलेगा और टीवी चैनलों व अखबारों की तरह उसे कोई तोड़-मरोड़ कर पेश नहीं कर सकेगा।

नया अटॉर्नी जनरल नहीं खोज पा रही है सरकार

केंद्र सरकार एक बार फिर अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल को एक साल का सेवा विस्तार देने जा रही है। वे 91 साल के हैं और दो साल से ज्यादा समय से इस जिम्मेदारी से मुक्त होना चाह रहे हैं। उनको केंद्र सरकार ने 2017 में देश का सबसे बड़ा कानूनी अधिकारी अटॉर्नी जनरल नियुक्त किया था। उनका कार्यकाल 2020 में पूरा हुआ तो उन्होंने रिटायर होने की इच्छा जताई थी। केंद्र सरकार की जिद पर उन्होंने कहा था कि वे एक सेवा विस्तार ले सकते हैं यानी 2021 में उनको हर हाल में रिटायर होना था। लेकिन 2021 में भी उनको सेवा विस्तार मिला और अब 2022 में भी फिर एक साल के लिए उनको सेवा विस्तार दिया जाना है। सवाल है कि केंद्र सरकार को वेणुगोपाल का विकल्प नहीं मिल रहा है या न्यायपालिका में वेणुगोपाल के सम्मान को देखते हुए सरकार उनको हटाना ही नहीं चाह रही है? वेणुगोपाल पिछले 67 साल से वकालत कर रहे हैं और पूरे देश में उनसे वरिष्ठ कोई नहीं है। योग्यता और उम्र की वजह से उनका बहुत सम्मान है। उनके होने से सरकार को अपना कई एजेंडा लागू करने में आसानी होती है। दूसरा कारण यह बताया जा रहा है कि सरकार हरीश साल्वे को अटॉर्नी जनरल बनाना चाह रही है लेकिन वे इंतजार करा रहे हैं। उन्होंने विदेश का बहुत काम ले रखा है। बताया जा रहा है कि उन सबको निपटाने में बहुत समय लग रहा है।

झारखंड में भाजपा की हार का बड़ा मतलब

दिल्ली की राजेंदर नगर और झारखंड की मांडर विधानसभा सीट पर उपचुनाव में भाजपा की हार का बड़ा मतलब है। इसमें भी झारखंड की मांडर सीट का खास महत्व है। राज्य में 2019 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद यह चौथी सीट का उपचुनाव था, जिस पर भाजपा हारी है। इससे पहले दुमका, बेरमो और मधुपुर सीट पर उपचुनाव में भाजपा हार चुकी है। मांडर की सीट आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित सीट है। द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित करने के बाद इस सीट पर मतदान हुआ था। सोचने वाली बात है कि, देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति बनाने का कितना बड़ा प्रतीकात्मक महत्व हो सकता है? द्रौपदी मुर्मू झारखंड की राज्यपाल भी रही हैं। इसके बावजूद आदिवासी बहुल इस सीट पर भाजपा की गंगोत्री कुजूर को कांग्रेस उम्मीदवार शिल्पी नेहा तिर्की ने 11 हजार से ज्यादा वोट के बड़े अंतर से हरा दिया। खास बात यह है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व झारखंड के आदिवासी नेताओं को खूब आगे बढ़ा रहा है। तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे अर्जुन मुंडा केंद्र सरकार में जनजाति कल्याण मंत्री हैं। झारखंड में विकास पुरुष के नाम से मशहूर राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी भाजपा विधायक दल के नेता हैं। भाजपा के अनुसूचित जनजाति मोर्चा के अध्यक्ष भी झारखंड के राज्यसभा सांसद समीर उरांव हैं। इस सबके बावजूद भाजपा आदिवासी सीट से हार गई, वह भी भारी अंतर से!

क्या प्रियंका बनेंगी कांग्रेस अध्यक्ष    

कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नजदीक आ रहा है। उदयपुर के नव संकल्प शिविर में तय हुआ था कि अगस्त तक कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हो जाएगा। यह भी कहा जा रहा है कि राहुल गांधी एक बार फिर कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएंगे। लेकिन कांग्रेस के जानकार सूत्रों का कहना है कि राहुल गांधी अब भी हिचक रहे हैं और अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं हैं। कई स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि कांग्रेस को एक जेपी नड्डा की जरूरत है। यानी जिस तरह से भाजपा में सुप्रीम कमांड नरेंद्र मोदी और अमित शाह की है लेकिन पार्टी अध्यक्ष के रूप में नड्डा को रखा गया है उसी तरह कांग्रेस में सोनिया गांधी का परिवार कमान अपने हाथ में रखे और किसी दूसरे नेता को अध्यक्ष बना दे। लेकिन कांग्रेस के नेता ही इसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। वे चाहते हैं कि अध्यक्ष सोनिया गांधी के परिवार का कोई सदस्य ही बने। तभी ऐसा लग रहा है कि अगर राहुल गांधी तैयार नहीं होते हैं तो अंत में कांग्रेस अध्यक्ष का पद प्रियंका गांधी वाड्रा के पास जा सकता है। वे पार्टी की महासचिव हैं और तीन साल से ज्यादा समय से सक्रिय राजनीति कर रही हैं। राहुल के मुकाबले वे पार्टी नेताओं से ज्यादा सहज रूप से मिलती-जुलती हैं और उनका टेंपरामेंट 24 घंटे राजनीति करने वाला है। हालांकि पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश तक अभी तक की राजनीति में वे बुरी तरह से फेल हुई हैं लेकिन कांग्रेस नेताओं को उनमें संभावना दिख रही है।

बसपा की मदद जारी है भाजपा को!

उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने भाजपा की मदद का जो सिलसिला शुरू किया था वह अब भी जारी है। भाजपा के नेता आजमगढ़ और रामपुर सीट पर जीत को ऐतिहासिक बता रहे हैं तो वह इतिहास मायावती के प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन से ही बना है। मायावती ने आजमगढ़ सीट पर उम्मीदवार उतार कर भाजपा की मदद की तो रामपुर सीट पर उम्मीदवार नहीं उतार कर मदद की। ध्यान रहे बहुजन समाज पार्टी का उपचुनाव नहीं लड़ने का इतिहास रहा है। लेकिन इस बार पार्टी ने आजमगढ़ सीट पर मुस्लिम उम्मीदवार उतार कर सपा की हार सुनिश्चित की। बसपा छोड़ कर जा चुके गुड्डू जमाली ने कुछ दिन पहले ही बसपा में वापसी की थी और पार्टी ने उनको आजमगढ़ से उम्मीदवार बनाया। गुड्डू जमाली को दो लाख 66 हजार से ज्यादा वोट मिले और समाजवादी पार्टी के धर्मेंद्र यादव साढ़े आठ हजार से कुछ ज्यादा वोट से हारे। उधर रामपुर सीट पर बसपा ने उम्मीदवार नहीं उतारा। वहां भाजपा के घनश्याम लोधी 42 हजार के करीब वोट से जीते। अगर बसपा का उम्मीदवार होता और त्रिकोणात्मक मुकाबला होता तो भाजपा का उम्मीदवार नहीं जीत पाता। बसपा और कांग्रेस सहित किसी और बड़ी पार्टी का उम्मीदवार नहीं होने से सीधा मुकाबला भाजपा और सपा का बना, जिसमें ध्रुवीकरण आसान हो गया और भाजपा जीत गई।

अखिलेश भी मायावती की राह पर!

उत्तर प्रदेश में सिर्फ बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो ही भाजपा की मदद नहीं कर रही हैं, बल्कि समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी उसी राह पर ही चल रहे हैं। दोनों के बीच होड़ लगी हुई है कि कौन भाजपा की ज्यादा मदद कर सकता है। इसलिए आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा की जीत पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। 2019 के लोकसभा चुनाव में ये दोनों सीटें समाजवादी पार्टी ने जीती थीं। आजमगढ़ से खुद अखिलेश यादव जीते थे, जबकि रामपुर से मोहम्मद आजम खान। दोनों नेताओं ने विधानसभा का चुनाव जीतने पर लोकसभा से इस्तीफा दे दिया, जिसकी वजह से उपचुनाव हुआ और दोनों सीटों पर भाजपा ने कब्जा कर लिया। दोनों ही सीटों पर भाजपा की जीत में अखिलेश यादव और मायावती ने अपनी-अपनी तरह से योगदान दिया। अखिलेश यादव दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार के लिए चुनाव प्रचार करने ही नहीं गए। अखिलेश यादव अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, इसलिए शायद वे राष्ट्रीय नेताओं की तरह बर्ताव कर रहे हैं। जैसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने उपचुनाव में प्रचार नहीं किया, उसी तरह अखिलेश ने भी उपचुनाव से अपने को दूर रखा। लेकिन मोदी और शाह के पास तो राजनीति करने के लिए पूरा देश है, जबकि अखिलेश के पास सिर्फ उत्तर प्रदेश है। उन्होंने अगर इसी तरह अपने राष्ट्रीय नेता होने का भ्रम पाले रखा तो उत्तर प्रदेश की राजनीति भी उनके हाथ से निकलने से कौन रोक पाएगा?

भाजपा ने तेलंगाना के जरिए दक्षिण की रणनीति बनाई 

तेलंगाना में विधानसभा चुनाव अगले साल के अंत में होने वाले हैं, लेकिन उससे पहले ही भाजपा ने तेलंगाना की राजनीति शुरू कर दी है और इसके जरिए दक्षिण भारत की राजनीति पर भी मंथन शुरू कर दिया है। इस समय हैदराबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक चल रही है, जो शनिवार को शुरू हुई है। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी भाग ले रहे हैं। तेलंगाना में सरकार चला रही तेलंगाना राष्ट्र समिति और भाजपा के बीच पोस्टर वार तो पहले से जारी है ही। गौरतलब है कि साल 2020 में भाजपा ने हैदराबाद नगर निगम का चुनाव भी पूरी ताकत से लड़ा था और अच्छी खासी संख्या में सीटें जीती थीं। उस चुनाव में गृह मंत्री अमित शाह भी प्रचार करने गए थे। भाजपा तेलंगाना में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को निशाना बना कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का दांव चल रही है। इस राजनीति का उसको फायदा हो सकता है। बहरहाल, बताया जा रहा है कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाजपा दक्षिण भारत की राजनीति पर विचार कर रही है। अगले साल मई में कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, जहां भाजपा को अपनी सरकार बचानी है। तमिलनाडु में अन्ना डीएमके के दोनों खेमों के बीच चल रहे झगड़े से भी भाजपा को वहां अपना राजनीतिक दांव साधने का मौका मिल रहा है। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार पर भी चर्चा हुई है। जानकार सूत्रों के मुताबिक भाजपा दक्षिण भारत से उप राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार दे सकती है।

भगवंत मान की अथॉरिटी नहीं बन पा रही

पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बने चार महीने होने वाले हैं लेकिन अभी तक मुख्यमंत्री भगवंत मान की कोई ऑथोरिटी नहीं बन पा रही है। वे मुख्यमंत्री तो हैं लेकिन ऐसा लग रहा है कि कोई उनको गंभीरता से नहीं ले रहा है। उनको पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल का रबर स्टाम्प माना जा रहा है। उन्होंने भी दिल्ली दरबार में हाजिरी लगा कर और केजरीवाल के रोड शो में उनके बॉडीगार्ड के साथ गाड़ी के गेट पर लटक कर अपनी हैसियत गिराई है। पंजाब के प्रशासन में यह भी मैसेज है कि सारे बड़े फैसले पार्टी के राज्यसभा सांसद राघव चड्ढा की सहमति से होने हैं। इसी बीच मान की जीती हुई संगरूर सीट पर उपचुनाव में आम आदमी पार्टी हार गई। इसे लेकर दो तरह का चर्चाएं हैं। एक तो मान के कमजोर होने की है लेकिन दूसरी यह कि मान अपनी पारंपरिक सीट पर अपनी बहन को चुनाव लड़ाना चाहते थे, जिसके लिए केजरीवाल तैयार नहीं हुए। उनकी बहन की बजाय गुरमेल सिंह को टिकट दी गई, जिनके लिए मान ने जोर नहीं लगाया। बहरहाल, कारण चाहे जो हो राज्य में मान प्रशासन की धमक नहीं बन रही है। इसका एक कमाल का नमूना पिछले दिनों देखने को मिला। मान प्रशासन ने 16 जून को राज्य के 216 तहसीलदारों और नायब तहसीलदारों के तबादले किए लेकिन इनमें से ज्यादातर ने न तो अपना चार्ज छोड़ा और न नई जगह का चार्ज लिया। इसकी शिकायत मिली तो सभी जिलों के कलेक्टरों को चिट्ठी भेजी गई कि वे तहसीलदारों और नायब तहसीलदारों से कार्यालय खाली कराएं और दूसरी जगह भेजें।

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