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पश्चिमी हिंद महासागर में अमेरिकी-भारतीय रणनीति मुश्किल में फंसी

पाकिस्तान को अलग-थलग करने के भारतीय अभियान को अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने बहुत गंभीरता से नहीं लिया। लगता है भारत की पाकिस्तान नीति के पास अब बहुत ज़्यादा विकल्प नहीं बचे हैं।
पश्चिमी हिंद महासागर में अमेरिकी-भारतीय रणनीति मुश्किल में फंसी

पाकिस्तानी नौसेना 2007 से कराची और अरब सागर के क्षेत्र में हर दो साल के अंतराल में "अमन-21 नौसैनिक अभ्यास" का आयोजन कर रही है। इस आयोजन पर दुनिया की विशेष नज़र रहती है। इस बार यह अभ्यास 11 से 16 फरवरी के बीच चल रहा है। रिपोर्टों के मुताबिक़ इस अभ्यास में करीब 45 नौसेनाएं हिस्सा ले रही हैं। इस तरह यह हिंद महासागर या किसी दूसरी जगह पर अपनी तरह का सबसे बड़ा अभ्यास बन जाता है। इसमें हिस्सा लेने वालों में अमेरिका, ब्रिटेन, तुर्की, रूस, चीन, जापान, मलेशिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, श्रीलंका और पूर्वी अफ्रीका के कुछ देश शामिल हैं।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद से आज दुनिया सबसे ज़्यादा विभाजित नज़र आ रही है। लेकिन यहां पाकिस्तानी छाते के नीचे अमेरिका और रूस, अमेरिका और चीन, चीन और जापान एक साथ गलबहियां करने नज़र आ रहे हैं। इस अभ्यास में रूस की भागेदारी एक नई चीज है। पिछले एक दशक में रूस पहली बार किसी नाटो सदस्य देश के साथ सैन्य अभ्यास में हिस्सा ले रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि एक क्षेत्रीय ताकत के तौर पर पाकिस्तान का बढ़ता रणनीतिक कद यहां खुलकर दिखाई दे रहा है।

साफ़ है कि पाकिस्तान को अलग-थलग करने की भारतीय योजना को दुनिया ने बहुत गंभीरता से नहीं लिया है। अब भारत की पाकिस्तान नीति अब केवल एक ही तरफ बढ़ सकती है। भारत की पाकिस्तान नीति में साख की कमी है और इसका कोई भविष्य नहीं है। यहां इस नीति में बदलाव करना बहुत जरूरी है। 

अमन-21 भारत की हिंद महासागर में "पूर्ण सुरक्षा प्रदान करने" वाली शक्ति बनने की महत्वकांक्षांओं का मजाक बनाता है। अभ्यास में श्रीलंका और बांग्लादेश की भागेदारी अपने-आप में इसकी गवाही देती है। भारत ने हाल में 4 फरवरी को बेंगलुरू में पहला हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) के रक्षा मंत्रियों का सम्मेलन बुलाया था। लेकिन इसमें दूसरे देशों ने बहुत बढ़-चढ़कर भागीदारी नहीं ली। केवल मालदीव, ईरान और सेशेल्स ने ही मंत्रिस्तरीय प्रतिनिधिमंडल भेजा था। भारत के इस सम्मेलन की अब पाकिस्तान के अमन-21 अभ्यास से तुलना की ही जाएगी।  

साफ़ है कि भारत द्वारा खुद को हिंद महासागर की नेतृत्वकारी शक्ति घोषित किए जाने से बहुत सारे देश इत्तेफाक नहीं रखते। दूसरी तरफ अब हिंद महासागर में समुद्री सुरक्षा चुनौतियों का अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया है, यह इस क्षेत्र की नई सच्चाई है।

ट्रंप प्रशासन द्वारा हिंद-प्रशांत कमांड में हिंद महासागर को शामिल करने का कदम एक निर्धारक फ़ैसला साबित हुआ है। अब यह धारणा बन रही है कि पूर्वी अफ्रीका में सीमित उपस्थिति रखने वाली अमेरिकी नौसेना को हिंद महासागर में यातायात की स्वतंत्रता बनाए रखने और चीन की बढ़ती उपस्थिति को चुनौती देने के लिए भारत पर निर्भर रहना होगा।

वहीं भारत भी फ्रांस, ब्रिटेन, नाटो के सदस्य देशों, जापान, बहरीन और यूएई की नौसेनाओं के साथ लगातार समझौते कर रहा है। यहां जापान नया खिलाड़ी है। वहीं बहरीन फारस की खाड़ी में अमेरिका का प्रतिनिधि है। लुके-छुपे काफ़ी कुछ हो रहा है, जैसे हाल में डिएगो गार्सिया में 'महासागरीय आखेटन (शिकार)' की आड़ में भारत और अमेरिकी नौसेना ने अभ्यास किया। लेकिन सेशेल्स, मेडागास्कर औऱ कोमोरॉस की तरफ भारत के जोर ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान हिंद महासागर के बढ़ने सैन्यकरण की तरफ खींचा है।

पश्चिमी हिंद महासागर में सोमालिया, कीनिया, मेडागास्कर, कोमोरॉस, मॉरीशस, मोजाम्बिक, सेशेल्स, दक्षिण अफ्रीका और तंजानिया आते हैं। अब यह क्षेत्र तेजी से बढ़ते अमेरिकी-भारतीय भू-रणनीतिक हितों का केंद्र बनने वाला है। अमेरिका के 2020 के वित्तीय वर्ष के लिए बनाए गए राष्ट्रीय रक्षा अनुमति कानून में कई तरह के उन्नत संशोधन किए गए हैं, ताकि पश्चिमी पूर्वी हिंद महासागर में मौजूदा अमेरिकी-भारतीय रणनीतिक संबंधों को एक ज़्यादा उन्नत ढांचे में ढाला जा सके, जिससे दोनों देशों का सैन्य समन्वय तेज हो सके। 

दिलचस्प है कि यहां अमेरिकी कानून में 'पश्चिमी हिंद महासागर' को हिंद महासागर का वह इलाका बताया गया है जो भारत के पश्चिमी तट से शुरू होकर अफ्रीका के पूर्वी तट तक आता है, जिसमें पूरा पूर्वी अफ्रीकी तट, ईरान और पाकिस्तान का समुद्री तट आता है।

भारतीय रणनीतिज्ञ खुश हैं कि पेंटागन पश्चिमी हिंद महासागर के रूप में हिंद-प्रशात अवधारणा का एक नया स्वरूप विकसित कर रहा है, जिसका आधार भारत है और जिसमें अरब सागर, फारस की खाड़ी और अफ्रीका शामिल हैं। ऐसा लग रहा है कि भारत इस पर पूरी प्रतिबद्धता से काम भी कर रहा है। एस जयशंकर के बहरीन, यूएई और सेशल्स के हालिया दौरों से तो ऐसा ही लगता है। यहां भारतीय रणनीतिक चिंताओं के दो आयाम- हिंद महासागर में चीन की बढ़ती उपस्थिति और पााकिस्तान का बढ़ता पनडुब्बी बेड़ा है।

हिंद महासागर का सैन्यकरण 16 दिसंबर, 1971 को पारित किए गए संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रस्ताव संख्या 2832 का सीधा उल्लंघन है। इस प्रस्ताव में हिंद महासागर को शांति का क्षेत्र बताया गया था और बड़ी ताकतों से इस क्षेत्र में सैन्य उपस्थिति को आगे बढ़ाने से मना किया गया था। इस सैन्य उपस्थिति में नौसैनिक अड्डे, आपूर्ति सुविधाएं और सैन्य तैनातियां शामिल थीं।

इस प्रस्ताव को श्रीलंका ने प्रायोजित किया था, जिसमें इस बात की गारंटी दी गई थी कि जंगी जहाज़ और सैन्य हवाईजहाज़ों द्वारा ताकत के इस्तेमाल या किसी तरह के डर को पैदा करने के लिए हिंद महासागर का उपयोग नहीं किया जाएगा; प्रस्ताव में सभी राष्ट्रों के जहाज़ों को इस क्षेत्र का मुक्त और निर्बाध उपयोग करने की अनुमति सुनिश्चित की गई; साथ ही हिंद महासागर को शांति क्षेत्र बनाए रखने के लिए एक समझौते पर पहुंचने को भी कहा गया था। 

साफ़ है कि अमेरिका द्वारा पश्चिमी हिंद महासागर की परिभाषा तय करना एक बाहरी ताकत द्वारा थोपी गई अवधारणा है, जिसके ज़रिये संयुक्त राष्ट्रसंघ के कई प्रस्तावों का उल्लंघन होता है और हिंद महासागर के भीतरी क्षेत्रों में इससे पारंपरिक और परमाणु शक्ति की तैनाती को प्रोत्साहन मिलता है। भारत को इससे कोई मतलब नहीं रखना चाहिए था। 

आगे की बात करें तो भारत का अमेरिका और नाटो शक्तियों के साथ गठबंधन इस इलाके में मान्य नहीं होगा, खासकर पाकिस्तान और ईरान इसे कहीं से पसंद नहीं करेंगे। आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि रूस और चीन भी इसका विरोध करेंगे। 2019 में रूस और चीन ने क्रमश: दक्षिण अफ्रीका और ईरान के साथ एक संयुक्त नौसैनिक अभ्यास किया था। इस महीने के अंत में उत्तरी हिंद महासागर में रूस, चीन और ईरान का एक और नौसैनिक अभ्यास बाकी है।

तेहरान का चीन के प्रति आकर्षण और 'बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई)' को समर्थन भी अब समझा जा सकता है। यह केवल वक़्त की ही बात है जब ईरान के हित पाकिस्तान और चीन के हितों के साथ BRI के रास्ते साझा हो जाएंगे। (2019 में पाकिस्तान को भी ईरान-रूस-चीन के त्रिपक्षीय नौसैनिक अभ्यास के लिए आमंत्रित भी किया गया था।)

अमन-21 की पृष्ठभूमि में चीन के अख़बार ग्लोबल टाइम्स के साथ एक इंटरव्यू में पाकिस्तान के नौसैनिक प्रमुख एडमिरल एम अमजद खान नियाजी ने कहा था, "पाकिस्तान हिंद महासागर में खुद को जटिल भूराजनीतिक और भूआर्थिक प्रतिस्पर्धा के बीच में पाता है। पाकिस्तान की समुद्री सुरक्षा हिंद महासागर क्षेत्र के समुद्री माहौल से जुड़ी हुई है, जबकि यह क्षेत्र लगातार बदल रहा है। विस्तारवादी मानसकिता के साथ भारत इस क्षेत्र को अस्थिर कर रहा है, जिससे यहां की क्षेत्रीय सुरक्षा ख़तरे में पड़ सकती है।'

एडमिरल नियाजी ने यह भी कहा कि पाकिस्तान और चीन की नौसेनाएं "अपने लंबे और लगातार व्यापक हो रहे समन्वय के साथ समुद्र में कानून-व्यवस्था बनाए रखने में अहम भूमिका निभा सकती हैं। इसलिए चीन की नौसेना की हिंद महासागर में तैनाती क्षेत्र के शक्ति संतुलन को बनाए रखने और समुद्री सुरक्षा को प्रोत्साहन देने में अहम भूमिका निभा सकती है।"

नियाजी ने यह भी इशारा किया कि ग्वादर नौसैनिक अड्डे पर चीन के जंगी जहाज़ों का स्वागत किया जा सकता है। फिलहाल ग्वादर CPEC (चीन-पाकिस्तान इक्नॉमिक कॉरिडोर) में केंद्रीय भूमिका में है। एडमिरल ने कहा, "पाकिस्तान के चीन के साथ करीबी संबंध हैं, जो लगातार प्रगाढ़ हो रहे हैं, चीन इस क्षेत्र में शांति के लिए सबसे भरोसेमंद साझेदार है.... चीन की नौसेना अब दो विमानवाहक पोतों (एयरक्रॉफ्ट कैरियर) का संचालन करती है.... पाकिस्तानी नौसेना इनके साथ जब भी मौका मिलेगा, तब अभ्यास करना चाहती है.... पाकिस्तानी नौसेना आगे भी चीन के विमानवाहक पोतों समेत दूसरे नौसैनिक जहाजों की यात्रा का स्वागत करेगा।"

यहां तक कि भारत का पुराना दोस्त रूस भी हमसे असहमत है। रूस ने हाल में सूडान में एक नौसैनिक अड्डे की स्थापना की घोषणा की है। इस अड्डे के ज़रिए पश्चिमी हिंद महासागर में तैनात परमाणु पंडुब्बियों को मदद दी जाएगी। भारत द्वारा हाल में अमेरिकी जहाजों को अंडमान और निकोबार के अपने नौसैनिक अड्डों तक पहुंच उपलब्ध करवाए जाने की पृष्ठभूमि में रूस ने म्यांमार के साथ अपनी एक ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए बातचीत की है, जिसके ज़रिए उसके जहाजों की बंगाल की खाड़ी में नियमित यात्राएं सुनिश्चित करवाई जा सकेंगी। (बता दें बंगाल की खाड़ी चीन के लिए अहम मालवाहक रास्ता बनने वाली है)।

यहां 'समुद्री सुरक्षा' के नाम पर भारत की रणनीतिक दिशा इस क्षेत्र में भारत को अकेला पड़ने पर मजबूर करने वाली है। यह समझना मुश्किल है कि कैसे पश्चिमी शक्तियों के साथ गठबंधन से साथ भारत के दीर्घकालीन हितों की पूर्ति होगी। यहां निकट भविष्य में अमेरिका के 'स्वेज आंदोलन' की संभावना से इंकार नहीं करना चाहिए।

भारत अपनी भौगोलिक स्थित का चुनाव नहीं कर सकता, ना ही वह पेंटागन में बनी पश्चिमी हिंद महासागर की संकल्पना में गोते लगाने के लिए क्षेत्रीय रणनीतियां बना सकता है। भारत इस क्षेत्र में रहता है और यहां उसे पाकिस्तान और चीन के साथ अपनी दिक्कतें सुलझाना चाहिए, ना कि हिंद महासागर में नाटो के इशारे पर भारत को चीन के खिलाफ़ काम करना चाहिए या पाकिस्तान के मकरान तट की घेराबंदी करनी चाहिए।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

US-Indian Strategic Construct of Western Indian Ocean Runs into Headwinds

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