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अमेरिका ने स्वीडन को जल्दबाज़ी में सैन्य समझौते में घसीटा

बाइडेन ने तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन के दृढ़ संकल्प को कम करके आंका और स्वीडन को नाटो में शामिल करने की कोशिश से पैदा होने वाले भू-राजनीतिक प्रभावों की भी अनदेखी की।
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सुदूर भूमि और रूसी आर्कटिक के लोग

स्वीडन को हड़बड़ी में नाटो की सदस्यता दिलाने में बाइडेन प्रशासन के प्रयासों को तुर्की ने रोक दिया है, और शर्त रखी है कि जब तक कि कुर्द अलगाववादी तत्वों के साथ स्टॉकहोम के अतीत के संबंध के बारे में ज़रूरी मुद्दों को पूरी तरह से निपटाया नहीं जाता, तब तक उनकी सदस्यता का अनुमोदन को रोकने का उनका विशेषाधिकार रहेगा।

राष्ट्रपति बाइडेन उत्साहित थे और उन्होंने सार्वजनिक रूप से जोर देकर कहा था कि स्वीडन की नाटो सदस्यता पहले से तय है। उन्होंने ऐसा कर, राष्ट्रपति रेसेप एर्दोगन के दृढ़ संकल्प को कम करके आंका और भू-राजनीतिक प्रभावों की भी अनदेखी की है।

बाइडेन तथा नाटो के महासचिव जेन्स स्टोलटेनबर्ग को लगा था कि एर्दोगन के अहंकार को कम करने के लिए कुछ चेहरे बचाने वाले फॉर्मूले की जरूरत थी- यानी, बदले में स्वीडन कुछ कुर्द उग्रवादियों को प्रत्यर्पित कर देगा जिससे अंकारा और स्टॉकहोम के बीच सुलह हो जाएगी।

हालांकि, जैसे-जैसे वक़्त गुजरता गया, एर्दोगन भी अपना गोल पोस्ट बदलते रहे, और अपनी शर्तों को दोहराते हुए स्वीडन से संबंधित मुद्दों को शामिल किया, जैसे कि तुर्की के खिलाफ हथियार उठाना, अंकारा के खिलाफ प्रतिबंधित कुर्द आतंकवादियों द्वारा छेड़ी गई लड़ाई में शामिल होना और साथ ही अमेरिका स्थित मुस्लिम मौलवी फतुल्लाह से जुड़े लोगों का प्रत्यर्पण आदि मुद्दा इसमें शामिल है। गुलेन वह व्यक्ति है जिस पर तुर्की सरकार ने कथित तौर पर अमेरिकी समर्थन से 2016 में विफल तख्तापलट की कोशिश का मास्टरमाइंड होने का आरोप लगाया था।

जाहिर है, स्वीडन को यह एहसास नहीं था कि तुर्की को उनकी खुफिया और गुप्त गतिविधियों का इतना गहरा ज्ञान था।

उधर स्वीडिश प्रधानमंत्री उल्फ क्रिस्टरसन ने रविवार को बड़े उत्साह में यह कहते हुए बाहर निकलने का रास्ता अपनाया कि "तुर्की ने इस बात की पुष्टि की है कि हमने वह किया है जो हमने कहा था कि हम करेंगे, लेकिन यह भी कहा कि वह ऐसी चीजें भी चाहता है जो हम नहीं कर सकते हैं, और जिन्हें हम नहीं करना चाहते है।”

उन्होंने कहा, "हम आश्वस्त हैं कि तुर्की निर्णय लेगा, हम नहीं जानते कि कब," उन्होंने कहा, यह तुर्की के भीतर आंतरिक राजनीति के साथ-साथ "स्वीडन के गंभीर रुख पर भी निर्भर करेगा।"

स्टोलटेनबर्ग ने कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, "मुझे विश्वास है कि स्वीडन नाटो का सदस्य बन जाएगा। ऐसा कब होगा, मैं इसकी कोई सटीक तारीख नहीं देना चाहता हूं। अब तक, यह एक दुर्लभ, असामान्य और तेज़ सदस्यता प्रक्रिया रही है। जबकि, आम तौर पर इसमें कई साल लग जाते हैं।"

इस बीच, स्वीडन के रक्षा मंत्रालय ने सोमवार को घोषणा की कि वाशिंगटन के साथ एक द्विपक्षीय सुरक्षा समझौते के लिए बातचीत शुरू हो गई है - तथाकथित रक्षा सहयोग समझौता - जो अमेरिकी सैनिकों के लिए स्वीडन में काम करना संभव बनाता है।

जैसा कि रक्षा मंत्री पाल जोंसन ने कहा, "यह समझौता सैन्य आपूर्ति भंडारण, सैनिक समर्थन और बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाएगा, और स्वीडन में अमेरिकी सैनिकों की कानूनी स्थिति को मजबूत करेगा। वार्ता शुरू हो गई है क्योंकि नाटो सदस्यता के माध्यम से स्वीडन संयुक्त राज्य अमेरिका का सहयोगी बनने की राह पर है।

कहने का मतलब यह है कि अमेरिका अब स्वीडन को नाटो का सदस्य बनाने की औपचारिकता का इंतज़ार नहीं कर रहा है, बल्कि उसने मान लिया है कि यह एक वास्तविक नाटो सहयोगी है!

अमेरिकी विदेश विभाग द्वारा सोमवार को जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि द्विपक्षीय सुरक्षा समझौता "हमारी करीबी सुरक्षा साझेदारी को मजबूत करेगा, बहुपक्षीय सुरक्षा संचालन में हमारे सहयोग को बढ़ाएगा, और साथ में, ट्रांसअटलांटिक सुरक्षा को मजबूत करेगा।" इसने "साझा हितों और मूल्यों की रक्षा करते हुए आम सुरक्षा चुनौतियों का सामना करने के लिए अमेरिका की साझेदारी को मजबूत करने और पुनर्जीवित करने" की अमेरिकी प्रतिबद्धता को दोहराया है।

इस मामले की जड़ यह है कि यह सुरक्षा समझौता, तत्काल ही स्वीडन में अमेरिकी तैनाती का बुनियादी आधार प्रदान करेगी और ऐसा होने पर स्टॉकहोम औपचारिक रूप से अपनी सैन्य गुटनिरपेक्षता की अपनी दशकों पुरानी नीति को खारिज कर रहा होगा।

यह सरल रास्ता स्वीडन के लिए एक बड़े बदलाव का प्रतीक है जिसका युद्धकालीन तटस्थता का एक लंबा इतिहास रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो रूस, स्वीडन की नाटो सदस्यता का कड़ा विरोध करता है, लेकिन वाशिंगटन वैसे भी अपने उद्देश्य को हासिल कर रहा है।

दिलचस्प बात यह है कि हालांकि, फ़िनलैंड, जिसने अमेरिकी दबाव में नाटो रिंग में अपना हाथ डाला था, वाशिंगटन के साथ किसी समझौते पर बातचीत करने की हड़बड़ी नहीं दिखा रहा है, हालांकि रूस के साथ इसकी 1,340 किलोमीटर लंबी सीमा है। फ़िनलैंड का रुख यह है कि वह नाटो में उसी समय शामिल होगा जब स्वीडन होगा।

विदेश मंत्री पेक्का हाविस्तो ने रविवार को संवाददाताओं से कहा, "फिनलैंड नाटो में शामिल होने की इतनी जल्दी में नहीं है कि हम स्वीडन को हरी बत्ती मिलने तक का इंतजार भी नहीं कर सकते हैं।" फ़िनलैंड के पूर्व राष्ट्रपति तारजा हेलोनेन ने एक बार कहा था, फ़िनलैंड और स्वीडन "बहनें हैं लेकिन जुड़वां नहीं हैं।" उनमें समानताएं हैं, लेकिन उनकी प्रेरणाएं समान नहीं हैं।

स्वीडन के विपरीत, जो पूरी तरह से पश्चिम की तरफ झुक गया था और पूरे शीत युद्ध के दौरान, द्विपक्षीय और नाटो के माध्यम से, पश्चिमी शक्तियों को गुप्त खुफिया जानकारी प्रदान करता था, फ़िनलैंड का रूस के साथ एक अनूठा संबंध था, जो उसके इतिहास का परिणाम था।

फ़िनलैंड ने शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ के साथ अच्छे संबंध बनाए रखते हुए एक तटस्थ देश की भूमिका निभाई थी, उसने मास्को के साथ मित्रता, सहयोग और पारस्परिक सहायता (1948) के समझौते के सिद्धांत को माना था, जो फिनिश-सोवियत संबंधों में मुख्य साधन के रूप में बेहतर तरीके से काम किया। ये संबंध 1992 तक जारी रहे, जब तक की सोवियत संघ टूट नहीं गया।

निश्चित रूप से, 1948 के समझौते ने फिनलैंड को एक समृद्ध लोकतंत्र बनने में पर्याप्त स्वतंत्रता प्रदान की थी, जबकि तुलनात्मक रूप से, शीत युद्ध के अधिकांश समय में स्वीडन की तटस्थता की सार्वजनिक मुद्रा के बावजूद, बंद दरवाजों के पीछे यह उत्तरी यूरोप में नाटो का एक प्रमुख भागीदार बन गया था।

जाहिर है, फ़िनलैंड के लिए तटस्थता अभी भी एक आकर्षक विकल्प बना रह सकता है। बेशक, यूरोप में बड़े पैमाने पर संघर्ष की स्थिति में क्षेत्र में शक्ति संतुलन नाटकीय रूप से बदल जाता है तो यह अलग बात है।

स्वीडन (या फ़िनलैंड) की नाटो सदस्यता बिल्कुल परस्पर नहीं है। स्वीडन तुर्की की मांगों को पूरा करने में या तो असमर्थ है या अनिच्छुक है। इसके अलावा, इसमें कुछ अन्य समस्याएं हैं।

सबसे महत्वपूर्ण, अंकारा और दमिश्क के बीच वर्तमान रूसी मेल-मिलाप की धुरी इस क्षेत्र में कुर्द समूहों-और सीरिया में कुर्द-अमेरिका धुरी के भाग्य पर गहरा प्रभाव डालेगा। वाशिंगटन ने राष्ट्रपति बशर अल-असद के साथ मेल बढ़ाने के खिलाफ एर्दोगन को चेतावनी दी है।

मामले को जो और उलझा दे रहा है वह यह कि जून में तुर्की में राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव होने वाले हैं और एर्दोगन की राजनीतिक दिशा निर्धारित है। उसके मामले में कोई भी बदलाव जल्द से जल्द 2023 की दूसरी छमाही में ही हो सकता है।

अब, पश्चिम एशियाई राजनीति में 6 महीने का समय बहुत लंबा होता है। इस बीच, यूक्रेन युद्ध भी गर्मियों तक अभूतपूर्व रूप से बदल जाएगा।

फ़िनलैंड, गर्मियों तक इंतज़ार करने को तैयार है, लेकिन स्वीडन (और अमेरिका) ऐसा नहीं कर सकते हैं। इस मामले की खास बात यह है कि स्वीडन की नाटो सदस्यता वास्तव में यूक्रेन में युद्ध के बारे में नहीं है, बल्कि आर्कटिक और उत्तरी ध्रुव में रूसी उपस्थिति और रणनीति को शामिल करने के बारे में है। फिर, इसका व्यापक आर्थिक आयाम भी है।

जलवायु परिवर्तन के कारण आर्कटिक तेजी से नौगम्य समुद्री मार्ग बनता जा रहा है। विशेषज्ञयों की राय है कि आर्कटिक (जैसे, स्वीडन) की सीमा से लगे देशों की इस ऊर्जा-और खनिज-समृद्ध क्षेत्र के संसाधनों तक पहुंच और नियंत्रण के साथ-साथ वैश्विक वाणिज्य के लिए नए समुद्री मार्गों में बहुत बड़ी हिस्सेदारी होगी, जहां तेजी से बर्फ पिघल रहा है।

यह अनुमान लगाया गया है कि आर्कटिक में खोजे गए लगभग 60 बड़े तेल और प्राकृतिक-गैस क्षेत्रों में से तैंतालीस रूसी क्षेत्र में हैं, जबकि ग्यारह कनाडा में, छह अलास्का [अमेरिका] और एक नॉर्वे में हैं। सीधे शब्दों में कहें तो अमेरिका को जो भूत सता रहा है वह "रूसी आर्कटिक का है।"

जरा ऊपर के नक्शे को देखें। नाटो के माध्यम से आर्कटिक को सुरक्षित बनाने पर स्वीडन काफी कुछ कर सकता है। फ़िनलैंड में एक मजबूत आइसब्रेकर-जहाज निर्माण उद्योग हो सकता है, लेकिन यह स्वीडन का अत्यधिक प्रभावी पनडुब्बी बेड़ा है जो इसमें महत्वपूर्ण होगा – दोनों, ध्रुवीय रक्षा के लिए और विश्व महासागरों में रूस की ताक़त को रोकने के लिए जरूरी है।

एम॰के॰ भद्रकुमार पूर्व राजनयिक हैं। वे उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

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