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बेरोज़गारी की ज़मीनी हक़ीक़त बताने में कारगर नहीं बेरोज़गारी दर!

बेरोज़गारी दर केवल सांख्यिकीय परिभाषा से प्राप्त एक संख्या है जो भारतीय अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी के विकराल संकट की वास्तविकता को बिल्कुल भी नहीं दर्शाती।
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हम भारत में बढ़ती बेरोज़गारी, खास तौर पर युवा बेरोज़गारी, की समस्या और उससे पैदा हो रहे सामाजिक तनाव व अशांति से वाक़िफ़ हैं। पिछले सालों में हमने बेरोज़गारी से तबाह युवाओं का आक्रोश भी एकाधिक बार विस्फोट के रूप में ज़ाहिर होते देखा है। लेकिन बेरोज़गारी दर के आधिकारिक सरकारी या निजी आंकड़े देखें तो यह उतनी विकराल समस्या नज़र नहीं आती। सरकारी पीरिऑडिक लेबरफोर्स सर्वे (पीएलएफ़एस) के आंकड़े हों या सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के, दोनों ही बेरोज़गारी की दर को अक्सर 5 से 8 फ़ीसदी के बीच ही दिखाते हैं।

सीएमआईई के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार फरवरी 2023 में बेरोज़गारी दर 7.5% थी जो मार्च में बढ़कर 7.8% हो गई। सरकार और उसके चहेते विश्लेषक भी बार-बार हमारे सामने कभी एम्प्लॉईज़ प्रोविडेंट फंड (ईपीएफओ) तो कभी एम्प्लॉईज़ स्टेट इंश्योरेंस (ईएसआई) में नए पंजीकरण के आंकड़े दिखा कर बताते रहते हैं कि रोज़गार सृजन तेज़ी से हो रहा है। 19 अप्रैल को ही ईएसआई में फरवरी माह में 16 लाख नए पंजीकरण का आंकड़ा प्रकाशित हुआ है जिसे दिखाकर यह बताया जा रहा है कि श्रमिकों के लिए रोज़गार में बहुत अधिक वृद्धि हो रही है। अतः इस बात को समझना ज़रूरी है कि बेरोज़गारी की समस्या की वास्तविकता और बेरोज़गारी के आंकड़ों के बीच दिखने वाले इस फर्क की वजह क्या है।

इसके लिए जनसंख्या में काम करने वाली उम्र संख्या, श्रम भागीदारी दर (लेबरफोर्स पार्टिसिपेशन रेट), रोज़गार दर और बेरोज़गारी दर के आंकड़ों पर गौर करना एवं उन्हें समझना होगा। साल 2016 में हुई नोटबंदी के पहले भारत में काम करने की उम्र (15-64 साल) वाली संख्या 100 करोड़ से कुछ कम थी। इसमें श्रम भागीदारी दर (रोज़गाररत व बेरोज़गार दोनों इसमें शामिल हैं) लगभग 45% थी, या कहें 45 करोड़ वास्तविक श्रम बल था अर्थात इतनी संख्या या तो किसी रोज़गार में थी या रोज़गार ढूंढ रही थी। साल 2021 में श्रम बल घटकर 42 करोड़ (लगभग 37%) ही रह गया अर्थात जनसंख्या बढ़ती रही पर 3 करोड़ काम करने लायक व्यक्ति श्रम बल से बाहर हो गए। निश्चय ही पूंजीवादी आर्थिक संकट और रोज़गार पर मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के दुष्प्रभाव के अलावा कोविड लॉकडाउन भी इस बड़ी गिरावट का एक कारण था।


मार्च 2023 में सीएमआईई के मुताबिक़ श्रम भागीदारी दर 39.8% हो गई और रोज़गार दर 36.7% हो गई। श्रम बल 44.43 करोड़ है जिसमें 41.01 करोड़ कार्यरत हैं और बेरोज़गार 3.69 करोड़ हैं। इस हिसाब से देखें तो अभी काम करने लायक उम्र की लगभग 111 करोड़ संख्या है। मगर इसमें से लगभग 40% अर्थात 45 करोड़ से भी कम ही श्रम बल में हैं। इनमें से भी 41 करोड़ को ही जैसा-तैसा, नियमित या अनियमित, रोज़गार हासिल है। साफ है कि लॉकडाउन का प्रभाव खत्म होने पर कोई दो करोड़ व्यक्ति श्रम बल में वापस लौटे हैं। लेकिन यह संख्या अभी भी 2016 में हुई नोटबंदी से कम ही है, जबकि इस बीच में भारत की आबादी बढ़ने के साथ ही काम करने लायक उम्र के नागरिकों की संख्या 11 करोड़ बढ़ गई है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था में रोज़गार के अभाव के भयावह संकट का सबसे बड़ा संकेत है।

रोज़गार के उपरोक्त आंकड़ों को कैसे समझा जाए?

इन सरकारी/गैर सरकारी आंकड़ों हेतु आय के लिए काम में लगे व्यक्ति को रोज़गाररत माना जाता है जबकि ऐसे काम में नहीं लगे हुए पर ऐसा काम ढूंढ रहे व्यक्ति को बेरोज़गार माना जाता है। उदाहरण के लिए काम करने की उम्र के 100 व्यक्ति हैं जिनमें से 36 आय वाले काम में लगे हैं और 4 व्यक्ति ऐसा ही काम ढूंढ रहे हैं तब इन 40 के आधार पर रोज़गार की दर 90% व बेरोज़गारी की दर 10% होगी। इन 40 को श्रम बल कहा जाता है। लेकिन बाक़ी 60 का क्या जो न रोज़गार में हैं न बेरोज़गार में? वे कहां गए? स्पष्ट है कि बेरोज़गारी दर मात्र सांख्यिकीय परिभाषा से प्राप्त एक संख्या है जो भारतीय अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी के विकराल संकट की वास्तविकता को बिल्कुल भी नहीं दर्शाती। इस विकरालता को समझने के लिए हमें रोज़गार के आंकड़ों में अदृश्य इन ‘60' के विस्तार में जाना होगा।

निश्चय ही ये सभी 60 व्यक्ति श्रम बल का हिस्सा नहीं हो सकते। इनमें से एक अंश उच्च/माध्यमिक शिक्षा व प्रशिक्षण में होता है। एक और छोटा हिस्सा शारीरिक अस्वस्थता/अपंगता की वजह से काम करने में असमर्थ होता है। कुछ थोड़े से अमीरज़ादों को रोज़गार की वास्तविक ज़रूरत नहीं होती। वे दूसरों की मेहनत पर जीते हुए ‘एन्जॉय’ कर सकते हैं। जिन देशों में रोज़गार की पूर्ण सामाजिक गारंटी वाली व्यवस्था अर्थात समाजवाद रहा है वहां तीसरी अर्थात ‘एन्जॉय’ वाली श्रेणी की तो गुंजाइश नहीं थी पर वहां भी 15 से 20 फ़ीसदी संख्या शेष दो श्रेणियों में होती थी। अर्थात काम करने वाली उम्र के 80% से अधिक लोग श्रम बल में शामिल होते हुए किसी न किसी उत्पादक काम में लगकर स्वाभिमान व मर्यादा का जीवन जीते हुए समाज के विकास में योगदान करते थे।

हालांकि निजी संपत्ति व मुनाफे की पूंजीवादी व्यवस्था में ऐसा मुमकिन नहीं। बेरोज़गारों की एक रिज़र्व फौज पूंजीवाद के लिए अनिवार्य है। पूर्ण रोज़गार की स्थिति में पूंजीवादी व्यवस्था जीवित नहीं रह सकती। सबको रोज़गार मिल जाए तो पूंजीपतियों को कम मज़दूरी पर दिन-रात काम करने को तैयार मजबूर श्रमिक कहां से मिलेंगे? ऐसे बेरोज़गार मज़दूरों की लंबी लाइन न रहे तो पूंजीपति अपने यहां काम करने वाले श्रमिकों को कम मज़दूरी पर अधिक घंटे काम करवा कर उन्हें अपने लिए उच्चतम अधिशेष मूल्य अर्थात मुनाफा उत्पादित करने के दबाव में कैसे रखेंगे?

इस तरह बेरोज़गारों की यह रिज़र्व फौज हर पूंजीवादी मुल्क में होती है पर भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था में इसकी विकरालता बड़े भयानक स्तर पर जा पहुंची है। दुनिया भर के पूंजीवादी देशों में औसतन काम योग्य उम्र के 100 में से 60 से अधिक व्यक्ति श्रम बल में हैं। बाक़ी 20 से 25 फ़ीसदी लोग बेरोज़गारी से मजबूर और हताश होकर काम ढूंढना तक छोड़ देते हैं और या तो वे दूसरों पर निर्भर हो परमुखापेक्षी बन कर रह जाते हैं (इनमें स्त्रियों की एक बड़ी संख्या होती है) या फिर अपराधी, भिखारी, आदि बनने को विवश हो समाज के तलछट में पहुंच जाते हैं।

लेकिन भारत में काम करने योग्य उम्र के सिर्फ़ 40% ही श्रम बल में शामिल हैं। इनमें से ही औसतन 6 से 8 फ़ीसदी व्यक्ति बेरोज़गारी दर गणना की पद्धति अनुसार बेरोज़गारों में गिने जाते हैं। इन 40% लोगों को जो रोज़गार मिलते हैं उनकी गुणवत्ता की बात अभी छोड़ भी दें तो भी भारतीय पूंजीवाद द्वारा जनित आर्थिक संकट व उसके संपूर्ण दिवालियापन ने अन्य पूंजीवादी देशों के मुकाबले भी उत्पादक उम्र की आबादी के लगभग 20% अर्थात 20 से 25 करोड़ अधिक संख्या को इस परमुखापेक्षी व तलछट की श्रेणी में रहने को मजबूर कर दिया है। स्वाभिमान के साथ जीने और सामाजिक विकास में भागीदारी करने में सक्षम जनसंख्या में इतनी बड़ी तादाद की यह विवशता भारतीय समाज में मौजूदा राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व नैतिक पतन का प्रमुख कारण है। और इसके ही एक बड़े राजनीतिक चेतना विहीन हिस्से को आज दक्षिणपंथी शक्तियां अपनी फासीवादी प्रवृत्ति की मुहिम में इस्तेमाल कर पा रही हैं।

निश्चय ही इसमें एक बड़ी संख्या स्त्रियों की है जिनमें से अधिकांश दिन-रात घरेलू या पारिवारिक दायरे में कड़ी मेहनत से अपने काम में जुटी रहती हैं पर इससे उनकी अपनी कोई स्वतंत्र आय न होने की वजह से इतनी सख्त मेहनत के बाद भी परमुखापेक्षी बनकर गुलामी का जीवन बिताती हैं। यह उनके पिछड़ेपन का मुख्य कारण है और इसके समाधान के बिना उनकी वास्तविक मुक्ति व समानता संभव नहीं। हालांकि कुछ लोग ‘तर्क’ देंगे कि महिलाओं का पिछड़ापन व पितृसत्ता की गुलामी उनकी बेरोज़गारी का कारण है अर्थात इस पिछड़ेपन की वजह से वे रोज़गार के बाज़ार से बाहर हैं पर वास्तविकता इससे ठीक उलटी है। असल में हमारी चेतना हमारे अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती बल्कि हमारी सामाजिक वास्तविकता ही हमारी चेतना को निर्धारित करती है। क्योंकि भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था स्त्रियों की इस बड़ी संख्या हेतु रोज़गार सृजन में पूर्णतया असमर्थ है, अतः इन्हें चेतना के स्तर पर पिछड़ा रखना उसकी अनिवार्य ज़रूरत है। जहां जितने रोज़गार उपलब्ध हैं, वहां उतनी बल्कि उससे भी अधिक स्त्रियां रोज़गार के लिए उपलब्ध हैं। उदाहरण के तौर पर दिन का अधिकतम आठ घंटे काम व न्यूनतम मात्र 20 हज़ार रुपये महीना वाले रोज़गार का मौका देकर देखिए, फिर देखें किस धर्म-जाति के कितने पितृसत्तात्मक परिवार स्त्रियों को काम पर जाने से रोकते हैं या रोक पाते हैं? अर्थात समस्या का मूल व्यक्तियों के पिछड़ेपन में नहीं, बल्कि  कालातीत हो चुकी पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था के पिछड़ेपन में है।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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