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अनियोजित ढंग से लॉकडाउन उठाना किसी काम का नहीं

अभी तक जिस तरह से लॉकडाउन लागू किया गया है, उससे यह साफ़ नजर आता है कि केंद्र और राज्यों के बीच लॉकडाउन लागू करने को लेकर किसी तरह की आपसी बातचीत नहीं थी और न ही कोई ठोस योजना थी। अगर आगे भी बिना किसी पूर्व योजना के केंद्र ऐसे ही मनमानी करता रहा तो बहुत अधिक परेशानी का सामना करना पड़ सकता है।  
लॉकडाउन
Image courtesy: Yahoo News

देश में आर्थिक गतिविधियां शुरू करने के लिये मोदी सरकार ने घोषणा की कि 20 अप्रैल 2020 से लॉकडाउन को कुछ इलाकों में आंशिक रूप से उठाया जाएगा। पर पिछले पांच-छह दिनों का हिसाब-किताब देखें तो समझ आ जाएगा कि ये मात्र कहने की बात है। धरातल पर स्थितियां कुछ ठीक नहीं नज़र आतीं। बेहतर नियोजन और समन्वय के अभाव में कदम-कदम पर अड़चनें आती रहीं, और पुनर्नियोजन की जरूरत पड़ती रही। कुल मिलाकर इससे अराजकता और अव्यवस्था ही फैली। अब सरकार को चाहिये कि तत्परता के साथ तमाम दिक्कतों को हल करने के उपाय खोजे।

अब लॉकडाउन को लम्बा खींचा नहीं जा सकता, इसलिए 3 मई के बाद लॉकडाउन में और भी ढील देनी पड़ेगी। हमने पहले ही देखा था कि लॉकडाउन खोलने के तरीके पर राज्यों के साथ ढंग से न तो बातचीत हुई न ही उनके साथ ठीक से समन्वय किया गया। इसलिए तमिलनाडु ने तय कर लिया कि 3 मई तक लॉकडाउन आंशिक रूप से भी नहीं खुलेगा। कर्नाटक में भी 20 अप्रैल को आंशिक लॉकडाउन की घोषणा की गई, फिर 21 अप्रैल को इस आदेश को वापस ले लिया गया और कुछ अलग किस्म के लॉकडाउन की घोषणा की गई। यह केंद्र के आदेश से अधिक सख्त था-तुगलकी फरमान जैसा। ऐसा लगा कि भाजपा के भीतर भी समन्वय का अभाव रहा क्योंकि पार्टी का शासन अधिकांशतः ‘वन मैन शो’ बनकर रह गया है।

तो हर राज्य का अपना ‘लॉकडाउन नियम’ है और उसे आंशिक ढील देने का अर्थ भी हर राज्य में अलग है। उदाहरणार्थ, तेलंगाना में 7 मई तक के लॉकडाउन की घोषणा की गई, और कोई नहीं जानता क्यों? एक अखिल-भारतीय समेकित अर्थव्यवस्था में इन कार्यवाहियों के चलते काफी अव्यवस्था फैल रही है। यदि लॉकडाउन को आंशिक रूप से खोला जाता है, तो समझना होगा कि किन गतिविधियों के लिए छूट दी जा रही है। 22 मार्च से ही सभी स्वास्थ्य-सेवा संबंधित संस्थाओं को काम जारी रखने की अनुमति थी। 14 अप्रैल को गृह मंत्रालय ने घोषणा की कि कृषि तथा कृषि संबंधी काम-काज को लॉकडाउन से मुक्त किया जाएगा। इसी तरह से सभी किराना व खुद्रा व्यापार का काम भी शुरू होगा। पर, उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में 20 अप्रैल के बाद भी उन्हें चलने नहीं दिया गया। काफी समय बाद भी उन्हें कुछ घंटों की छूट दी गई, और समय थोड़ा भी बढ़ने पर पुलिसिया आतंक के बल पर इन्हें बंद करवाया गया।

16 विशेष किस्म के क्षेत्रों में, कई बड़े उद्योग और अधिकतर एमएसएमइ को काम करने की छूट मिली। पर बंगलुरु में शहर व शहर के 50 कि.मि. की परिधि में आने वाली समस्त औद्योगिक गतिविधियों पर रोक लग गई। फिर, हवाई यात्रा या रेल, बस, टैक्सी सहित सभी सार्वजनिक अथवा निजी वाहनों पर केंद्र ने 3 मई तक रोक लगा दी। केवल आवश्यक सेवाओं के लिए उन्हें पास दिये गए।  फिर भी बहुतों को पुलिस ने परेशान किया। यह आम समझ की बात है कि बिना परिवहन कोई अर्थिक गतिविधि नहीं हो सकती-चाहे वह कच्चा माल ढोने के लिए हो, विक्रेताओं से अर्ध-निर्मित सामान उठाने की बात हो या बने हुए माल को बाज़ार तक पहुंचाने अथवा श्रमिकों को काम पर बुलाने की बात हो। तो हमारे ‘विवेकशील’ नौकरशाहों को कैसे नहीं सूझा कि परिवहन बंद रहने पर लॉकडाउन में आंशिक ढील के कोई मायने-मतलब नहीं।

जबकि शुरू से कृषि व कृषि-संबंधित गतिविधियों को लॉकडाउन से मुक्त रखा गया, कृषि उत्पाद के परिवहन को 20 अप्रैल के बाद ही छूट मिली, वह भी तब, जब किसानों का कटा फसल सड़ने लगा और इसपर भारी शोर मचा। इससे भी बुरा हुआ कि कुछ राज्यों में जब 20 अप्रैल के कुछ दिनों बाद परिवहन चालू हुआ तो शहरी बाज़ार बंद थे। अब शहर के आस-पास के लघु किसान अपनी उपज को भला कैसे बेचते या कहां रखते? सब्ज़ी उगाने वाले किसान ‘डिस्ट्रेस सेल’ के लिए मजबूर हुए- 7-10 रु किलो के भाव खीरा बिकने लगा क्योंकि किसान सब्ज़ियों को दूर की मंडियों तक ढुलवाकर पहुंचा नहीं पाया। पटना के वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार प्रणव कुमार चौधरी ने न्यूज़क्लिक को बताया कि आंशिक लॉकडाउन के दौर में केवल बड़े किसानों को लाभ हुआ क्योंकि उनके पास ढुलाई के लिए ट्रैक्टर हैं, वे पुलिस को घूस देकर पटा सकते हैं और पास बनवा सकते हैं; उनकी थोक व्यापारियों के साथ अच्छी सांठ-गांठ भी है, सो वे अपना उत्पाद आसानी से बेच पाते हैं। छोटे-मझोले किसान को कोई सुविधा नहीं मिली। उनका उत्पाद या तो सड़ गया या कौड़ी के मोल स्थानीय स्तर पर ‘डिस्ट्रेस सेल’ में चला गया। कोल्ड स्टोरेज और भण्डारघर भी खुले नहीं कि उत्पाद को बचा लिया जाता।  
   
20 अप्रैल को अन्तर-राज्यीय परिवहन पर प्रतिबंध हटाने की आधिकारिक रूप से कोई घोषणा नहीं हुई। नतीजतन, तमिल नाडू के धर्मपुरी और होसूर जिलों के किसान, जो बंगलुरु को सब्जि़यां, खासकर टमाटर, सप्लाई करते थे, अपनी उपज बेच ही नहीं पाए। शहर के उपभोक्ताओं को अब अधिक दाम पर सब्ज़ियां खरीदना पड़ रही हैं, दूसरी और किसान का उत्पाद सड़ रहा है। गृह मंत्रालय ने इस विसंगति को इंगित करते हुए सभी राज्यों के प्रमुख सचिवों को सर्कुलर भेजा, पर इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ा।

राज्य सरकारों ने, खासकर पुलिस प्रशासन ने अपने मन-मुताबिक प्राथमिकताएं तय कर लीं। अब तो स्वयंसेवी संस्थाओं और समाजसेवियों का गरीब व प्रवासी मज़दूरों के लिए कुछ इमदाद बांटना भी मुश्किल हो गया है, जबकि वे भूख से मर रहे हैं। प्रयागराज में बसपा के पूर्व पार्षद, शिवसेवक सिंह ने बताया कि उन्होंने प्रतिदिन 250 मज़दूरों-गरीबों को खिलाने का बीड़ा उठाया था पर शासन के नियमों के चलते अब उनका काम ठप्प हो गया। खाना पकाने वाले की फोटो और आधार कार्ड और सारे वालंटीयर्स के नाम व आधार कार्ड मांगे गए। बताया गया तभी उन्हें खाना बांटने की अनुमति मिल सकेगी, तो बड़े संस्थान ही अनुमति ले पाए। इनकी टीम के सभी लोगों के पास आधार कार्ड न होने के चलते उन्हें फिलहाल  भोजन वितरण बंद कर देना पड़ा। कई पार्षदों द्वारा सरकारी राहत वितरण के मामले में भारी धांधली के बारे में भी शिवसेवक ने बताया, जिसके कारण जरूरतमंदों को राहत नहीं मिल पाती।

चेन्नई के एक छोटे उद्योगपति बताने लगे कि लॉकडाउन को आंशिक रूप से उठाने से उद्योगों  का काम नहीं चलेगा। एक औसत एसएमई को एक दर्जन विक्रेताओं से कम्पोनेंट लेने पड़ते हैं और वे उपने उत्पाद को अलग-अलग खरीददारों को बेचते हैं। फिर, कई श्रमिक, जो काम करते थे, पास के गांवों में चले गए, जब उन्होंने देखा कि उद्योग का काम रुका पड़ा है। उधर, प्रशासन को समझ ही नहीं है कि सप्लाई चेन कैसे काम करता है। कोइम्बाटूर के कम्प्रेसर मैनुफैक्चररर्स ऐसोसिएशन के एक नेता ने बताया कि जब 3 मई को तमिल नाडू सरकार लॉकडाउन खोलेगी तभी स्थिति साफ होगी; फिर भी स्थितियों को सामान्य होने में कई महीने लग सकते हैं।

एमएसएमई को काम करने के लिए तुरंत पूंजी की आवश्यकता होती है। पर बड़े उद्योगों ने, जिन्हें उन्होंने कम्पोनेंट बेचे थे, उनके बिल भुगतान नहीं किये तो उन्हें काम चालू करने के लिए कर्ज लेना होगा। पर यहां तक स्थिति पहुँच चुकी है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को बेचे गए माल के इन्वायस दिखाने पर भी बैंक कर्ज नहीं दे पा रहे। वे बहुत कम कर्मचारियों के बल पर केवल दो घंटे के लिए बैंक खोलते हैं, पर रोज़ जन धन खाताधारियों की लम्बी कतार 500 रु निकालने के लिए खड़ी रहती है। फिर 2500 रु निकालने वाले किसान भी जुट जाते हैं।

बंगलुरु में निर्माण कार्य के लिए 20 ता. से अनुमति मिली, पर सिमेंट, स्टील के छड़ और बालू या मौरन आदि के दुकानों को 25 ता. के बाद खुलना था। वह भी तब जब कई बिलडरों ने ज्ञापन दिये। तब तक मज़दूर घर जा चुके हैं और लौटे नहीं। दरअसल  हर साल बंगलुरु और हैदराबाद के श्रमिक, जो शहर के सरहदों पर रहते हैं, उगादी पर्व या दक्षिण के नव वर्ष पर घर जाते हैं। 24 मार्च को युगादी पड़ा और 25 मार्च से लॉकडाउन हो गया। अब वर्तमान अनिश्चितता को देखते हुए वे लौटना नहीं चाहते।

ई-कॉमर्स को अनुमति तब मिली जब केंद्र ने राज्यों को विशेष सर्कुलर जारी करके ऐसा करने का आदेश दिया। स्विगी और ज़ोमैटो ने काम चालू तो किया पर कम ही रेस्टोरेंट खाना सप्लाई कर रहे थे। बाद में निर्देश दिये गए कि रेस्टोरेंट खाना पैक करके घरों को भिजवा सकते हैं, ग्राहकों को वहां खिला नहीं सकते। उधर दिल्ली के एक डिलिवरी बाॅय द्वारा 72 ग्राहकों को करोना संक्रमित करने की सनसनीखेज खबर ने लोगों को इतना भयभीत किया कि प्रतिदिन डिलिवरी 10-15 प्रतिशत् तक गिर गई। कई कम्पनियों में आई टी कर्मी 3000 रु प्रतिमाह कम पा रहे हैं।

एक और विडम्बना-उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जब नौएडा में फंसे प्रवासी मज़दूरों को बस भेजकर घर भेजना चाहा, गृह मंत्रालय ने तुरंत रोक लगाई। पर, बाद में इसी मंत्रालय ने राज्यों को निर्देशित किया कि घर गए मजदूरों को उनके कार्यस्थल पहुंचाने की व्यवस्था करे। यदि मजदूरों को घर ले जाने में संक्रमण का खतरा है, तो काम पर वापस लाने में क्यों नहीं? चयनात्मक तरीके से लॉकडाउन में ढील देना मनमानेपन के अलावा क्या है? और, जमीनी सच्चाई की ऐसी अनभिज्ञता भी चिंताजनक है।

याद करें कि मोदीजी ने 14 अप्रैल के अपने भाषण में कहा था कि लॉकडाउन में आंशिक ढील का उद्देश्य होगा लॉकडाउन को सस्टेनेबल बनाना, और यह इसपर निर्भर करेगा कि किसी क्षेत्र में कितने कोविड-19 केस पाए जाते हैं। यह तो ठीक है पर इसे कैलिब्रेटेड तरीके से और समझदारी के साथ किया जाए, तथा राज्यों के साथ समन्वय के साथ ताकि अव्यवस्था न फैले।

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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