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उत्तराखंड: 'अपने हक़ की' लड़ाई अंजाम तक पहुंचाने को तैयार हैं दलित भोजन माता सुनीता देवी

“...चूंकि क्रिसमस की बैठक में सभी पक्ष अभी क्षेत्र का माहौल सौहार्दपूर्ण बनाए रखने पर सहमत हुए हैं इसलिए वे जांच कमेटी की रिपोर्ट आने का इंतज़ार कर रहे हैं। नियमानुसार तो सुनीता देवी की ही भोजनमाता के पद पर नियुक्ति होनी है, इसलिए इंतज़ार में कोई दिक्कत नहीं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो संघर्ष किया जाएगा"।
officers of Edu dept eating MDM with students
सोमवार, 27 दिसंबर को सूखीढांग इंटर कॉलेज में बच्चों के साथ मिड-डे-मील खाने के लिए बैठे चंपावत के मुख्य शिक्षा अधिकारी आरसी पुरोहित और अन्य।

उत्तराखंड के चंपावत में बीते गुरुवार-शुक्रवार को एक ख़ामोश सामाजिक क्रांति के बाद सोमवार को ऐसा लगा कि सब कुछ सामान्य हो गया है। देश नहीं तो कम से कम उत्तराखंड के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि दलित छात्रों ने सवर्ण भोजनमाता के हाथों से बना मिड-डे-मील खाने से इनकार कर दिया था। इसके बाद हड़कंप मचा और प्रशासन, शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने दौड़ लगाई और आखिरकार इसमें सफलता पा ली कि सोमवार (27 दिसंबर) को सभी बच्चों ने मिड-डे-मील खाया। लेकिन क्या इससे मामले का पटाक्षेप हो गया है, स्थानीय मीडिया के दावों के बावजूद लगता नहीं कि हुआ है। पानी पड़ने से लपटें तो बुझ गई हैं लेकिन अंदर कुछ सुलग रहा है।

उलझा हुआ मामला है यह

चंपावत के सूखीढांग इंटर कॉलेज में छठी से आठवीं तक के 66 छात्र-छात्राओं के लिए मिड-डे-मील बनाने के लिए दो भोजनमाताओं के पद हैं। इनमें से एक अक्टूबर में रिक्त हुआ तो उसकी भर्ती के लिए दो बार विज्ञप्ति निकाली गईं। पहली 28 अक्टूबर को और दूसरी इसके बाद 12 नवंबर को।

दूसरी विज्ञप्ति के जवाब में 10 महिलाओं ने आवेदन किया था जिनमें से 5 सवर्ण और 5 अनुसूचित जाति की थीं। कॉलेज की एक कमेटी ने इन आवेदनों की जांच की और दलित महिला सुनीता देवी के नाम की संस्तुति की, जो बीपीएल श्रेणी की हैं।

25 नवंबर को इन आवेदनों पर चर्चा के लिए एक बैठक बुलाई गई लेकिन इसमें सवर्ण और दलित वर्ग के बीच वाद-विवाद हो गया। दलित वर्ग के लोगों ने इस बैठक का बहिष्कार किया तो सवर्णों ने एक आवेदनकर्ता पुष्पा भट्ट के नाम का प्रस्ताव पारित कर दिया लेकिन इसमें विद्यालय प्रबंधन कमेटी (एसएमसी) के सचिव, प्रिसिंपल प्रेम सिंह ने हस्ताक्षर नहीं किए।

सुनीता देवी और प्रिंसिपल प्रेम सिंह

4 दिसंबर को प्रिसिंपल ने एक और बैठक बुलाई जिसमें सवर्ण वर्ग के लोग शामिल नहीं हुए। उसके बाद दलित सुनीता देवी, जिनके नाम की संस्तुति शिक्षकों की समिति ने की थी, को चुन लिया गया। हालांकि सुनीता देवी की आधिकारिक रूप से नियुक्ति नहीं हुई थी फिर भी प्रिंसिपल के कहने पर उन्होंने 13 दिसंबर से बतौर भोजनमाता काम करना शुरू कर दिया।

इसके साथ ही जातिगत भेदभाव भी सतह पर आ गया। पहले दिन से ही कुछ बच्चों ने खाना खाने से इनकार कर दिया और 20 दिसंबर (जब तक सुनीता देवी ने बतौर भोजनमाता मिड-डे-मील बनाया) तब तक सभी सवर्ण बच्चों ने मिड-डे-मील खाना बंद कर दिया था। आखिरी दिन सिर्फ़ 16 दलित बच्चों ने ही सुनीता देवी के हाथ का बना खाया। सवर्ण बच्चे या तो मिड-डे-मील लेकर आ रहे थे या भूखे रह रहे थे।

सुनीता देवी के बतौर भोजनमाता काम करने के दौरान सवर्ण अभिभावकों ने स्कूल में पहुंचकर यह कहकर हंगामा भी किया कि उनके बच्चों को मिड-डे-मील खाने के लिए धमकाया और मारा-पीटा जा रहा है।

'नौकरी' रहने तक तो सुनीता देवी चुपचाप रहीं लेकिन उसके बाद उन्होंने कई लोगों के ख़िलाफ़ जातिसूचक शब्द कहने, अपमान करने की शिकायत दर्ज करवा दी।

इस मामले में दूसरा हंगामा तब शुरू हुआ जब बीते गुरुवार को पता चला कि दलित बच्चे भी अब सवर्ण भोजनमाता के हाथ का बना मिड-डे-मील नहीं खा रहे हैं। क्रिसमस की छुट्टी से पहले शुक्रवार को तो दलित समाज के किसी भी बच्चे ने मिड-डे-मील नहीं खाया।

स्कूल में मिड-डे-मील खाने की तैयारी करते बच्चे

इसके बाद प्रशासन हरकत में आया और टनकपुर के एसडीएम, चंपावत के एसपी, ज़िले के मुख्य शिक्षा अधिकारी शनिवार को छुट्टी के बावजूद स्कूल में पहुंचे और स्थानीय जनप्रतिनिधियों, अभिभावकों से बातचीत कर सुलह करवाई। इसके तहत भोजनमाता की नियुक्ति के विवाद की जांच के लिए एक तीन सदस्यीय समिति बनाने का ऐलान किया गया। इसमें अनुसूचित जाति का एक सक्षम अधिकारी, एक राजपत्रित अधिकारी और एक महिला अधिकारी होंगे।

स्थानीय अख़बारों ने फिर एलान किया कि मामले का पटाक्षेप हो गया है लेकिन सुनीता देवी का कहना है कि जब तक उन्हें नौकरी नहीं मिलती, उनने लिए यह मामला हल नहीं होगा।

मामले के साइड-इफ़ेक्ट्स

इस मामले के सामने आने के बाद सूखीढांग इंटर कॉलेज से लगे गांवों में सवर्णों और दलितों के बीच की दरार चौड़ी हो गई। 25 नवंबर की बैठक में ही दोनों पक्ष आमने-सामने हो गए थे। गांव सियाला के प्रधान ने तो आरोप लगाया कि बैठक में सुनीता देवी का नाम सामने आने के बाद पीटीए अध्यक्ष नरेंद्र जोशी ने साफ़ कह दिया था कि उनके (दलितों के) हाथ का खाना कोई नहीं खाएगा, बच्चे टिफ़िन लेकर आएंगे।

नरेंद्र जोशी और बीडीसी मेंबर दीपा जोशी ने जातिवाद के आरोपों का खंडन तो किया था लेकिन हुआ वही जिसकी धमकी कथित रूप से 25 तारीख की बैठक में दी गई थी।

फ़िलहाल विमलेश उप्रेती पर ही 66 बच्चों के लिए मिड-डे-मील बनाने की ज़िम्मेदारी है

लेकिन सिर्फ़ इतना ही नहीं हुआ। सूखीढांग इंटर कॉलेज जॉल ग्राम सभा में स्थित है। उसके प्रधान दीपक राम हैं, जो दलित हैं। उन्होंने कहा कि यह मामला सामने आने के बाद ग्राम सभा के सवर्ण सदस्यों ने उनके ख़िलाफ़ ग्राम सभा में होने वाले कामों में अनियमितता बरतने का आरोप लगाते हुए प्रशासन में शिकायत कर दी।

दीपक राम ने कहा कि उन्होंने अधिकारियों के सामने कहा कि उन्हें भोजनमाता प्रकरण में सुनीता देवी का साथ देने की वजह से निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने अपने कार्यकाल में करवाए गए कामों की जांच करवाने के साथ ही पूर्व प्रधानों के कार्यकाल की जांच करवाने की भी मांग कर दी।

क्रिसमस में हुए समझौते में एक बिंदु यह भी शामिल था कि सभी ग्राम पंचायत सदस्य अपनी शिकायत वापस लेंगे।

सोमवार (27 दिसंबर) को कॉलेज खुला तो ज़िले के मुख्य शिक्षा अधिकारी आरसी पुरोहित भी अन्य लोगों के साथ स्कूल पहुंचे और बच्चों के साथ बैठकर मिड-डे-मील खाया। अधिकारियों और शिक्षकों के समझाने पर सभी बच्चों ने मिड-डे-मील खाया, जिनमें सुनीता देवी के दो बेटे भी शामिल थे।

सूखीढांग इंटर कॉलेज में क्रिसमस से पहले मासिक परीक्षा देते बच्चे

अकेली पड़ गईं सुनीता देवी?

नाम न बताने की शर्त पर (क्योंकि वह नहीं चाहते कि समझौते के उल्लंघन का आरोप उन पर आए) सूखीढांग इंटर कॉलेज के क्षेत्र में रहने वाले दो दलितों ने न्यूज़क्लिक के लिए बातचीत में कहा कि अभी मामले का पटापेक्ष नहीं हुआ है और यह तब तक नहीं होगा, जब तक सुनीता देवी को इंसाफ़ नहीं मिल जाता।

उन्होंने कहा कि चूंकि क्रिसमस की बैठक में सभी पक्ष अभी क्षेत्र का माहौल सौहार्दपूर्ण बनाए रखने पर सहमत हुए हैं इसलिए वे जांच कमेटी की रिपोर्ट आने का इंतज़ार कर रहे हैं। नियमानुसार तो सुनीता देवी की ही भोजनमाता के पद पर नियुक्ति होनी है, इसलिए इंतज़ार में कोई दिक्कत नहीं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो संघर्ष किया जाएगा।

नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर ही सवर्ण वर्ग के एक पक्षकार ने न्यूज़क्लिक को कहा कि उन्हें प्रशासन पर पूरा भरोसा है। वे लोग तो कोई बवाल भी नहीं चाहते।

इस सवाल पर कि अगर फिर सुनीता देवी ही भोजनमाता बनीं तो?

जवाब मिला... तो, फिर समय आने पर देखा जाएगा।

संघर्ष किया तो हक़ मिला... पहले भी

दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और भारत संवैधानिक अधिकार संरक्षण मंच के राष्ट्रीय संयोजक दौलत कुंवर कहते हैं कि इस मुद्दे पर लगातार नज़र रखे हुए हैं।

सूखीढांग इंटर कॉलेज

वह बताते हैं कि 2005 में टिहरी ज़िले के जौनसार क्षेत्र में भी ऐसे ही मामले सामने आए थे। 5 दलित भोजनमाताओं को ऐसी ही परिस्थितियों में नौकरी से हटा दिया गया था। इसके बाद वे देहरादून में धरने पर बैठ गई थीं तो उन्हें वापस नौकरी पर रखवाया गया।

कुंवर बताते हैं कि इन सभी स्कूलों से सवर्णों ने अपने बच्चों को निकलवा लिया था। लेकिन धीरे-धीरे फिर सवर्ण बच्चे इन स्कूलों में जाने लगे और अब वे मिड-डे-मील खाने भी लगे हैं। 2005 से वे सभी दलित महिलाएं उन्हीं स्कूलों में बतौर भोजनमाता काम कर रही हैं।

शिल्पकार ही हैं उत्तराखंड के मूल निवासी

वरिष्ठ पत्रकार दिनेश जुयाल कहते हैं उत्तराखंड के इतिहास में ही ये विसंगतियां मौजूद हैं। उत्तराखंड के दलित दरअसल यहां के शिल्पकार हैं। जो भी शिल्प का काम करता है, चाहे वह सोने-चांदी, तांबे, लोहे, लकड़ी, चमड़े, कपड़े से सामान-हथियार बनाने का काम हो वह शिल्पकार हैं।

राज्य के ब्राह्मण-ठाकुर अलग-अलग कालखंड में यहां आए और उन्होंने इन शिल्पकारों को अपना गुलाम या दास बना लिया। इसके बाद इन्हें हद में रखने के लिए बंदिशें बना दी गईं, जिन्हें संस्कार का नाम दे दिया गया। अब यही संस्कार सदियों से लोगों की दिलो-दिमाग में बसे हुए हैं।

जुयाल कहते हैं कि यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पहाड़ में जो भी शिल्प है इन्हीं के भरोसे ज़िंदा है और संस्कृति तो इनके बिना पूरी होती ही नहीं है। तो अगर यह आवाज़ उठ रही है हम (दलित) ही नहीं खाते तुम्हारे (सवर्णों के) हाथ का खाना, तुम क्या तोप चीज़ हो... तो यह एक नई क्रांति है और यह समझ लीजिए कि इतिहास का पहिया पीछे घुमा रहे हैं कुछ लोग... अच्छी बात है कि पहाड़ से, हिमालय से आवाज़ उठ रही है इसकी।

ख़ामोशी तो है लेकिन ख़त्म नहीं हुआ है मामला

दलित चिंतक दिलीप मंडल सूखीढांग के भोजनमाता विवाद को अश्वेत आंदोलन को ट्रिगर करने वाली अश्वेत महिला रोज़ा पार्क्स के बस में श्वेत की सीट पर बैठ जाने की घटना से जोड़कर देख रहे हैं। उन्हें यह भी लगता है कि सुनीता देवी भी रोज़ा पार्क्स की तरह इतिहास की टेढ़ी लाइन को सीधा करने वाला एक नाम बन सकती हैं।

क्या इस घटना में इसकी संभावना है?

दलित समाज के कई ग्राम प्रधान सुनीता देवी के साथ खड़े तो हैं लेकिन उन्हें अपनी राजनीति का भी ख़्याल है।

हालांकि इस घटना से सुनीता देवी में परिवर्तन दिख रहा है। इस संवाददाता को भेजी एक वीडियो रिकॉर्डिंग में अपनी बात उन्होंने 'जय भीम, जय भारत' के साथ समाप्त की।

सुनीता देवी को कभी रोज़ा पार्क्स की तरह याद किया जाएगा या नहीं यह तो भविष्य बताएगा लेकिन इतिहास की टेढ़ी लाइन को सीधी कर देने की हिम्मत तो उनमें आती दिखती है।

जातिगत भेदभाव के कीचड़ को फ़िलहाल प्रशासन ने सामाजिक सौहार्द के कालीन से ढक तो दिया है लेकिन इसका बाहर आना तय है। सर्दियों की छुट्टियों के बाद 15 जनवरी को स्कूल खुलेंगे और सामाजिक सौहार्द के नाम पर एक ही भोजनमाता पर 60 से ज़्यादा बच्चों का खाना बनाने का बोझ ज़्यादा दिन तक नहीं डाला जा सकता।

जब नए सिरे से भोजनमाता का चयन की प्रक्रिया शुरू होगी तब लाइन में सबसे आगे सुनीता देवी खड़ी होंगी... तब क्या कोई भी उन्हें बाहर करने की हिम्मत जुटा सकेगा?

सभी तस्वीरें सौजन्य: राजेश डोबरियाल 

(लेखक देहरादून स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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