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उत्तराखंड चुनाव : डबल इंजन सरकार में भी ऐसा गांव जो दवा-पानी और आटे तक के लिए नेपाल पर निर्भर

एक गांव है थपलियालखेड़ा जो चम्पावत ज़िले के नेपाल-भारत सीमा पर स्थित है। ये गांव तीन तरफ से नेपाल सीमा से घिरा हुआ है और एक तरफ भारत का टनकपुर डैम है। इस गांव के लोग ज़रूरी सुविधाओं के लिए पूरी तरह से नेपाल पर निर्भर हैं।
उत्तराखंड चुनाव : डबल इंजन सरकार में भी ऐसा गांव जो दवा-पानी और आटे तक के लिए नेपाल पर निर्भर

उत्तराखंड राज्य को अस्तित्व में आए लगभग 22 साल हो गए हैं लेकिन आज भी दूर दराज के कई गांव ऐसे हैं जो मूलभूत सुविधाओं के लिए भी तरस रहे हैं। ऐसा ही एक गांव है थपलियालखेड़ा जो चम्पावत ज़िले के नेपाल-भारत सीमा पर स्थित है। ये गांव तीन तरफ से नेपाल सीमा से घिरा हुआ है और एक तरफ भारत का टनकपुर डैम है। इस गांव के लोग ज़रूरी सुविधाओं के लिए पूरी तरह से नेपाल पर निर्भर हैं। जबकि नेपाल भारत से गरीब है परन्तु इस गांव के आसपास के नेपाली गांव थपलियालखेड़ा से कई गुना अधिक विकसित हैं जबकि वर्तमान में प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में डबल इंजन की सरकर चल रही है जो कह रही है कि उन्होंने विकास किया हैं और करेंगे। लेकिन इस गांव के लोग पूछ रहे हैं किसका विकासआखिर हमारा विकास कब होगा?

न्यूज़क्लिक की चुनावी यात्रा की टीम जब इस गांव में पहुंची तो देखा कि ये पानी से लेकर आटे और दवाई तक लिए नेपाल पर निर्भर हैं। कई पीढ़िया तो सड़क बनने की आस लिए इस दुनिया से चली गईं लेकिन उन्हें सड़क नहीं दिखी। ये कोई इकलौता ऐसा गांव नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में आज भी अंतर्राष्ट्राय सीमा पर बसे इलाके और पहाड़ी इलाकों में लोग ज़रुरी सुविधाओं से वंचित हैं जबकि सरकार अपने विज्ञापनों में चमकदार विकास दिखा रही है लेकिन गांवों की तस्वीर सरकारी दावों वाले विकास की पोल खोलती है।

थपलियालखेड़ा की वृद्ध माधुरी देवी ने न्यूज़क्लिक से बात की और कहा, "हमारे गांवों में सड़क तक नहीं है। चार महीने बरसात में बहुत दिक्कत होती है। यहाँ बिजली भी नहीं है जबकि दो साल पहले बिजली के नाम पर सौर ऊर्जा लगाई गई थी लेकिन एक साल पहले वो भी खराब हो गया है। उसे ठीक कराने के लिए ब्लॉक मुख्यालय जाने को कहते हैं। कौन वहां जाएगा कैसे ये ठीक होगा कुछ पता नहीं है।

इस गांव के लोगों को सरकारी सुविधाओं के लिए लगभग 10 किलोमीटर दूर टनकपुर शहर जाना पडता है। वहां जाने के लिए भी कोई सड़क नहीं है। ग्रामीणों को वहां जाने के लिए अपनी जान पर खेलकर एक नहर को पार करते हुए जंगल के रास्ते से जाना पड़ता है।

थपलियालखेड़ा ग्राम निवासी अनिल सिंह मेहरा बताते हैं कि उन्हें गैस सिलेंडर और सरकारी राशन लेने भी आठ से दस किलोमीटर दूर जाना पड़ता है।

अनिल सिंह कहते हैं कि बिजली नहीं होने के कारण इस गांव में कोई चक्की भी नहीं है और हमें गेहूं पिसवाने के लिए भी नेपाल ही जाना पड़ता है। उन्होंने कहा हमारे गांव में पहले एक डीज़ल चक्की थी लेकिन डीज़ल महंगा होने के कारण वो भी कई दशक पहले बंद हो गई।

अनिल आगे कहते हैं, "हमें अपने खेतों की सिंचाई के लिए भी नेपाल पर ही निर्भर रहना पड़ता है वो हमें 200 रुपये नेपाली और 125 रुपये भारतीय दर से पानी देते हैं।

सरकार ने इस गांव में सोलर पंप सेट तो लगाया है लेकिन वो कभी चलता है कभी नहीं क्योंकि सोलर तभी काम करता है जब मौसम साफ होता है। पहाड़ी क्षेत्र होने की वजह से इसकी संभवना कम ही रहती है।

सोलर पर चलने वाला पानी का पंप ज़्यादातर ख़राब मौसम होने के कारण काम नहीं करता इसलिए यहां के लोग पड़ोस के नेपाली गांव से 125 भारतीय रुपया प्रति घंटे के हिसाब से अपने खेतों की सिंचाई करते हैं।

नरेश सिंह कहते हैं कि इस गांव में एक ही प्राथमिक विद्यालय है उसपर भी छत नहीं है और बच्चे खुले आसमान के नीचे पढ़ते थे जिसके बाद सीमा सुरक्षा बल एसएसबी ने टीन शेड दिया है जिसके नीचे बच्चे पढाई करते हैं।

वो कहते हैं, "हमें 2017 में आई बीजेपी सरकार से काफ़ी उम्मीद थी कि डबल इंजन की सरकार हमारे लिए कुछ करेगी परन्तु उन्होंने भी कुछ नहीं किया। पीने के लिए पानी तक नहीं है। लोगों को मजबूरन हैंडपंप का पानी पीना पड़ता है जो काफी गंदा है।"

नरेश जब ये सब कह रहे थे वो सरकार के उस दावे को पूर्णतः खारिज कर रहे थे जिसमें वो हर घर नल से जल पहुँचाने का दावा करती है।

नरेश आगे कहते हैं, "सरकार कहती है वन भूमि होने की वजह से विकास कार्य नहीं हो रहा है। लेकिन इसी वन भूमि पर डैम बना है। जिसकी बिजली नेपाल को जाती है। सामने नेपाल में सड़के और पक्के मकान हैं। लेकिन हम अपने मकानों पर पक्की छत नहीं डाल सकते ऐसा क्यों?

इस गांव के लोग स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए लिए नेपाल में एक प्राइवेट अस्पताल जाते हैं। ग्रामीणों ने बातचीत में बताया कि उन्हें किसी भी तरह के इलाज के लिए नेपाल की ही आस है।

इस पूरे इलाके में बारिश और जलजमाव एक गंभीर समस्या है। कई बार बारिश में बच्चों को स्कूल से आना-जाना मुश्किल हो जाता है। अगर बच्चे स्कूल चले जाते है तो उन्हें जंगल में ही रहना पड़ता है।

अनिल कहते हैं, "सरकार देश में स्वच्छ भारत की बात करती है लेकिन हमारे गांव में शौचालय तक नहीं दिया गया और न ही प्रधानमंत्री आवास दिया गया है।"

स्थानीय अखबारों में छपी ख़बर में टनकपुर के SDM हिमांशु कफल्टिया ने बयान दिया कि वन भूमि होने के वजह से गांव में विकास प्रभावित हो रहा है।

वहीं गांव के लोगों का कहना है कि टनकपुर डैम से नेपाल के लिए नहर बनाई गई है वह भी इसी वन भूमि में आती है। और टनकपुर डैम की बिजली भी नेपाल जाती है पर ये भारतीय गांव के लोगों के लिए नहीं है।

इस गांव के प्रमुख लोगों में शामिल मोहन सिंह मुखिया ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा कि वोट वाले (राजनीतिक दल) आते हैंवादा करते हैं लेकिन करते कुछ नहीं हैं।

ग्रामीणों ने बताया कि इस गांव में सरकारी योजना के नाम पर केवल मतदान केंद्र समय से आता है। लेकिन विकास आज भी एक सपना है।

चम्पावत जनपद की 128 किमी की सीमा नेपाल से लगी हुई है। भारत और नेपाल में रोटी-बेटी का रिश्ता होने और पारागमन संधि के चलते दोनों देशों की सीमाएं खुली हुई हैं जिससे आवाजाही पर किसी भी तरह की रोक नहीं है। लेकिन अगर कभी भारत नेपाल की सीमा किसी भी कारण से बंद हो जाए तब इस गांव का जीवन क्या होगा ये भी अकल्पनीय है।

 14 फरवरी को उत्तराखंड विधानसभा का चुनाव है पर यहाँ के लोगों ने राजनीतिक पार्टी और नेताओं से अब आस छोड़ दी है। कई ग्रामीणों ने गुस्से में कहा मतदान करने से भी क्या होगाये जवाब किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए शर्मनाक है जहाँ लोग अपने सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार को भी छोड़ने को तैयार हों क्योंकि उन्हें अपने शासन से कोई उम्मीद ही नही बची। ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत के दावों पर भी गंभीर चोट करता है क्योंकि वे कैसा आत्मनिर्भर भारत बना रहे हैं जहाँ भारत का एक गांव अपनी मूलभूत सुविधाओं के लिए अपने पड़ोसी देश पर निर्भर है।

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