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बदहाली: रेशमी साड़ियां बुनने वाले हाथ कर रहे हैं ईंट-पत्थरों की ढुलाई, तल रहे हैं पकौड़े, बेच रहे हैं सब्ज़ी

बनारस से ग्राउंड रिपोर्ट: विश्वविख्यात बनारस की रेशमी साड़ियों का ताना-बाना बिखर रहा है। इसी ताने-बाने में सिसक रही है बुनकरों की जिंदगी। जानने के लिए आपको लिए चलते हैं बनारस की संकरी गलियों में..
Varanasi
और कितने दिन चल पाएगा बुनकरी का धंधा

बनारस के सरैया इलाके में बुनकरों की बस्ती है इब्राहिमपुरा। बेहद संकरी गलियां और खुली नालियां ही इस बस्ती का पता बताती हैं। यहां भीषण गंदगी और सड़ांध के बीच रहते हैं हजारों बुनकर परिवार। इन्हीं में एक हैं मोहम्मद सलीम, जो हैंडलूम पर बनारस को पहचान दिलाने वाली मशहूर बनारसी साड़ियां बुनते थे। महंगी बिजली और आसमान छू रही महंगाई ने इन्हें कटोरा थमा दिया है। सलीम और इनका समूचा परिवार अब पकौड़े तल रहा है और समोसा बेच रहा है।

सरैया के हाजी कटरा में बदरुद्दीन कुछ साल पहले तक रेशमी ताने-बाने पर सोने-चांदी की साड़ियां बुना करते थे। इनके पास 20 पावरलूम और इतने ही हथकरघे थे। लॉकडाउन में सब बिक गए। बदरुद्दीन अब टॉफी-बिस्कुट बेचकर आजीविका चला रहे हैं। 

बुनकर बदरुद्दीन ने खोल ली टॉफी-बिस्किट की दुकान

इसी मुहल्ले के सूफी शहीद इलाके में रहने वाले अजीजुर्रहमान  के पास भी दर्जनों हथकरघे थे। सबके सब बंद हो गए। जिंदगी चलानी थी। कोई दूसरा काम नहीं मिला तो आटा-चक्की की दुकान खोल ली। पहले हजारों-लाखों में खेलते थे, अब दिन भर की कमाई सिर्फ डेढ़-दो सौ रुपये है।

अजीजुर्रहमान के पास थे बीस करघे, अब पीसते हैं आटा

इब्राहिमपुरा में रिजवान के पास काम नहीं। भूख बर्दाश्त नहीं हुई तो पान की दुकान खोल ली। मोहम्मद जुनैद पहले हुनरमंद बुनकर हुआ करते थे, मगर अब बुनकरी का काम छोड़कर बिस्कुट और पाव रोटी से भरा गत्ता साइकिल पर लेकर गली-गली बेच रहे हैं। काम के इंतजार में हाथ पर हाथ धरे बैठे अब्दुल कलाम और सर्फूद्दीन अंसारी से मुलाकात हुई तो उनकी आंखें छलक आईं। बोले, "पीएम नरेंद्र मोदी ने साढ़े पांच साल गुजार दिए। पुराने वादे अभी जमीन पर दिखाई नहीं पड़ रहे। फिर भी हम इंतज़ार कर रहे हैं कि आखिर कब बदलेगी हमारी सूरत? हम नाउम्मीद नहीं, उम्मीद की नाव पर सवार हैं। मुतमइन हैं कि बदहाली के इस मझधार से खुशहाली का किनारा ज़रूर आएगा।"

सरैया के रिजवान पहले थे कई करघों के मालिक, अब बेचते हैं पान

खुद की बदहाली पर रो रहे बुनकर

बदहाली के दौर से गुजर रहे हजारों बुनकरों में से एक हैं सरैया के अब्दुल हकीम। उन्होंने बुनकरी से अब तौबा कर लिया है। पहले इनके पास छह करघे थे। चार बेटों और तीन बेटियों की परवरिश नहीं कर सके तो अपने दर्जन भर करघों को बेच दिया। इनके बच्चे रोजाना मजदूरों की मंडी में खड़े होकर काम की तलाश करते हैं। खुद अब्दुल हकीम एक छोटी सी पान की दुकान चलाते हैं। अब्दुल हकीम कहते हैं, "आसमान छू रही महंगाई और मनमाना बिजली बिल थोपे जाने से जिंदगी पहाड़ बन दई है। लगता है कि अब सुनहरे दिन कभी नहीं आएंगे। मोदी सरकार के मेक इंडिया का नारा थोथा साबित हो रहा है।

बचपन से बुनकरी करने वाले जुनैद के पास पहले 14 करघे थे, जो बिक गए। अब अपने ही मकान में दूसरों के करघे पर दूसरों की साड़ियां बुनते हैं। जुनैद बताते हैं, "लॉकडाउन के दौरान जब कोई काम नहीं मिला तो करघे बिकते चले गए। अब सौ-पचास रुपये की मजूरी नहीं मिल पाती। बाढ़ की मार झेल रहे हजारों बुनकर भी हमारे तरह ही बगैर काम के जहां-तहां पड़े हुए हैं।"

बनारस की पहचान बनारसी साड़ी से है। इसी बनारसी साड़ी को तैयार करने वाले बुनकर आज खुद की बदहाली पर रो रहे हैं। हालात ये है कि पहले नोटबंदी, बाद में जीएसटी और अब लॉकडाउन की मार के बाद बिजली के तारों ने बुनकरों को जोर का झटका दिया है। बनारस के हजारों बुनकरों ने हालात को देखते हुए अपना पुश्तैनी धंधा छोड़ दिया है। किसी ने सब्जी, तो किसी ने टॉफी-बिस्किट बेचना शुरू कर दिया।

बुनकरी छूटी अब दिन काटना मुश्किल

एक दौर वह भी था जब बनारस की गलियों में हुनरमंद बुनकरों के हथकरघों की आवाज गूंजा करती थी। लेकिन वक्त के साथ हथकरघों की आवाज पहले पावरलूम के शोर में दबी और बाद में पावरलूम की सांसें भी उखड़ती चली गईं। आज हालत यह है कि करीब एक लाख की आबादी वाले सरैया इलके में जुनैद अहमद सरीखे गिने-चुने हथकरघा बुनकर ही बचे हैं, जो अभी भी हाथ से साड़ियां बुनते हैं। इस मोहल्ले के बाकी सभी बुनकर हैंडलूम को छोड़कर पावरलूम अपना चुके हैं। पूरे बनारस की बात करें तो बुनकरों की कुल आबादी में से सात-आठ फीसदी ही अब ऐसे हैं जो हैंडलूम चलाते हैं। जो हैंडलूम बचे हैं वह इसलिए कि वो पावरलूम के महंगी बिजली का बिल अदा करने की स्थिति में नहीं हैं।

बुनकरों के हितों की आवाज उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता दिनेश विश्वकर्मा बनारसी साड़ी उद्योग की बदहाली के लिए सीधे तौर पर भाजपा सरकारों को दोषी ठहराते हैं। वह कहते हैं, "बनारस के सांसद नरेंद्र मोदी देश के पीएम हैं। साड़ी उद्योग को संरक्षण देने की जिम्मेदारी उनकी थी, लेकिन उन्होंने राहत के बजाय सिर्फ झूठे वादे किए। बनारस में सिर्फ बनारसी साड़ी की बुनकरी के हुनर को बचाने का ही मामला नहीं है, बल्कि रोजगार का भी सवाल है।"

विश्वकर्मा बताते हैं, "बनारसी साड़ी उद्योग की कमर तो तभी से टूटनी शुरू हो गई थी जब देश के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। उस दौर में करीब 1400 ऐसे उत्पादों को बनाने की अनुमति बड़े पूंजीपतियों को दे दी गई जो पहले तक सिर्फ लघु उद्योग में ही बनाए जा सकते थे। हैंडलूम पर बनने वाली बनारसी साड़ी भी इन्हीं में से एक थी। भाजपा सरकार के इस फैसले के साथ हैंडलूम की मौत होने लगी और पावरलूम का चलन बढ़ता चला गया। बुनकरों को पावरलूम से थोड़ी संजीवनी मिली तो सरकार ने बिजली के फ्लैट रेट की कहानी खत्म कर दी। पहले हथकरघे डूबे और अब पावरलूम चलाने वालों का दिवाला पिट रहा है।"

बाढ़ में डूबे करघे के साथ जिंदगी बनी पहाड़

बनारस के बुनकर आज किस स्थिति में हैं? यह सवाल करने पर मोहम्मद जुनैद अंसारी कोई जवाब नहीं देते और चुपचाप अपने उस कमरे का दरवाजा खोल देते हैं जहां उनके हैंडलूम रखे हुए हैं। ये कमरा ही सारे सवालों का जवाब दे रहा है। धूल की चादर, कुछ हथकरघे यहां उसी समय से सुस्ता रहे हैं जब कोरोना महामारी के दौर में सरकार ने लॉकडाउन किया था। तभी से हथकरघों पर मकड़ियों ने अपने जाल बना लिए हैं। तभी से आधी बनी हुई एक साड़ी करघे से लिपटी हुई है जिसे अप्रैल महीने में जुनैद ने बनाना शुरू किया था। लेकिन लॉकडाउन ने उनके काम को इस हद तक प्रभावित किया कि इस अधूरी साड़ी को पूरा करने भर का ताना-बाना भी वह जुटा नहीं सके।

भारी पड़ रही सरकार की नाइंसाफी 

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बनारस में आज करीब सवा चार लाख बुनकर हैं। बनारसी साड़ी का कारोबार तक़रीबन एक हज़ार करोड़ का रहा है, जिसमें 300 से 400 करोड़ की साड़ियां हर साल एक्सपोर्ट होती रही हैं। कभी ये आंकड़ा इससे कई गुना ज़्यादा था, क्योंकि तब इससे जुड़े रॉ मैटेरियल बनारस और देश के कई हिस्सों में ही बनाए जाते थे। आज हालत ये है कि ज्यादातर यार्न चीन से आने लगा है। इस यार्न पर 12 फीसदी टैक्स थोपा गया है, जिससे बनारसी साड़ी के काराबारियों की रीढ़ टूटती जा रही है। बुनकर नेता हाजी मंजूर कहते हैं, "टैक्स विदेशों से आने वाले रेशमी कपड़ों पर होना चाहिए, लेकिन मोदी सरकार रेडीमेड कपड़े वालों पर ज्यादा मेहरबान है। यार्न पर टैक्स ज्यादा और कपड़ों पर काफी कम है। यह नाइंसाफी बनारसी साड़ी उद्योग को तबाह कर रही है।"

साल 2007 के सर्वे के मुताबिक़ बनारस में तकरीबन 5255 छोटी बड़ी इकाइयां थी, जिनमें साड़ी ब्रोकेड, ज़रदोज़ी, ज़री मेटल, गुलाबीमीनाकारी, कुंदनकारी, ज्वेलरी, पत्‍थर की कटाई, ग्लास पेंटिंग, बीड्स, दरी, कारपेट, वॉल हैंगिंग, मुकुट वर्क जैसे छोटे मंझोले उद्योग थे। इनमें तक़रीबन 20 लाख लोग काम करते थे। इनके जरिए करीब 7500 करोड़ का कारोबार होता था। इनमें से करीब 2300 इकाइयां पूरी तरह बंद हो चुकी हैं और बाकी बची भी बंद होने की कगार पर हैं।

मोदी सरकार के आने के बाद और उनके मेक इन इंडिया और स्किल डेवेलपमेंट पर जोर देती उनकी बातों ने इन बनारसी साड़ी उद्योगों से जुड़े लोगों में बड़ी उम्मीदें जगाईं थीं। बजट में इनके लिए कोई ठोस उपाय न होने की वजह से ये लोग बेहद निराश हैं। बनारस में काम करने वाले बुनकरों की एक बड़ी आबादी अपने पारंपरिक धंधे से मुंह मोड़ती जा रही है। पावरलूम के खटर-पटर में बनारसी साड़ियों का ताना-बाना मटियामेट होता जा रहा है।

बुनकर अब्दुल कलाम अंसारी के पास अब काम नहीं

दरअसल ताना और बाना जब आपस में सटीक बुनावट में बैठते हैं तभी प्योर सिल्क की साड़ियां निकलती हैं। आसमान छूती महंगाई, बढ़ती बिजली दर और सरकार की दोषपूर्ण नीतियों के चलते हथकरघा चलाने वालों का पूरा ताना-बाना लगभग बिखर चुका है। लॉकडाउन ने पहले ही बुनकरों की हालात बेहद खराब कर रखी है और ऊपर से यूपी की योगी सरकार ने बुनकरों को मिलने वाली बिजली सब्सिडी को खत्म कर दिया है।

बनारस के बुनकर बाहुल्य बड़ी बाजार, रसूलपुरा, काजीसहदुल्लापुरा, बुनकर कालोनी, दोषीपुरा में अनगिनत ऐसे लोग हैं जिनकी बिजली कटी हुई है। मुंसी के हाता निवासी मोहम्मद इब्राहिम कहते हैं, "मेरे पास तीन पावरलूम हैं और बिजली कटी हुई है। लॉकडाउन के 20 दिनों बाद से मैंने बुनकरी का काम छोड़ टॉफी-बिस्किट की दुकान खोल ली। मुसीबत दो थीं, एक परिवार का खर्च कैसे चलाएं, दूसरी-बढ़ते बिजली बिल को कैसे चुकाएं। परिवार पर आई मुश्किलों को देखते हुए बुनकरी का काम छोड़ दुकान चलाने में ही अपनी भलाई समझी।

बड़ी बाजार के मोहम्मद नियाज की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। वह कहते हैं, मंदी के समय मे जब नियाज को कोई रास्ता नहीं सूझा तो उसने भी इस धंधे को छोड़ सब्जी की दुकान सजा ली। जब फिर से हालात सुधरेंगे और सरकार फ्लैट रेट पर बिजली के साथ बुनकरों को सुविधा मुहैया कराएगी तभी वह बुनकरी का काम शुरू करेंगे।

पहले यह मिलती थी सुविधा

साल 2006 में समाजवादी सरकार ने बुनकरों को फ्लैट रेट पर बिजली की सुविधा मुहैया कराई थी। उस समय एक पॉवरलूम के लिए 71.50 रुपये देने पड़ते थे जो बाद में 15 सौ रुपये तक बढ़ाई गई, लेकिन योगी सरकार ने बुनकरों को मिलने वाली इस सुविधा पर ही रोक लगा दी, जिससे अब बुनकरों में नाराजगी है। बुनकरों का आरोप है कि बिजली विभाग का पहड़िया डिविजन बुनकरो को बहुत परेशान कर रहा है।

सीएम योगी आदित्यनाथ से भी मिली निराशा (फाइल फोटो)

बनारस की जिन गलियों से पूरे दिन पावरलूम की आवाजें उठती थीं, इन दिनों उन सभी गलियों में लगभग सन्नाटा पसरा हुआ मिलता है। इस सन्नाटे को तोड़ते कुछ पावरलूम अब भी चल रहे हैं, लेकिन उन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है। कई बुनकरों की बिजली काटी जा चुकी है। सरकार ने बिजली की जो नई दरें तय की हैं, उनके अनुसार भुगतान बुनकरों ने अब तक नहीं किया है।

काजी सहदुल्लापुरा के मुबारक अली के पास चार पावरलूम थे। पहले रोजी-रोटी चल जाती थी। इस साल मार्च महीने में अचानक हजारों का बिल आ गया। फ्लैट रेट से कई गुना अधिक बिल भेजा गया तो वह चुकता नहीं कर पाए। जिस दिन जनता कर्फ्यू लगा, उसी दिन लाइनमैनों ने हमारे लूम की धड़कन बंद कर दी। नतीजा, समूचे कारोबार का भट्ठा बैठ गया। अब वह परिवार का पेट भरने के लिए पान की दुकान चला रहे हैं।"

महंगी बिजली के चलते बाकराबाद के अनीर्रहमान के सभी पावरलूम बंद हैं। घर का खर्च चलाने के लिए वह अपने कारखाने के दरवाजे पर पान की दुकान लगा रहे हैं। मार्च से ही इनकी भी बिजली काटी जा चुकी है। तभी से इनका काम ठप है। अनीर्रहमान कहते हैं, "हमारे पास कच्चा माल खरीदने का भी पैसा नहीं है। लॉकडाउन के समय से ही काम पूरी तरह बंद है। अब बिजली का जो रेट तय हुआ है उसके बाद तो इस धंधे में मजदूरी भी नहीं निकलेगी। बिजली बिल पर सरकार ने फैसला वापस नहीं लिया तो ये सारी पावरलूम मशीनें हमें कबाड़ के भाव बेचनी पड़ेंगी।"

कैसे संवारे बच्चों का भविष्य?

बुनकर परवेज अहमद कहते हैं कि बिजली का भारी-भरकम बिल अदा कर पाना मुमकिन नहीं है। वह कहते हैं, "पावरलूम चलाने वाले बुनकर एक मशीन से मुश्किल से पांच-सात हजार रुपये ही बचा पाते हैं। वह भी तब जब वह लूम पर खुद काम करता है। बढ़ी दरों पर बिल अदा कर पाना बुनकरों के बस में नहीं है। अगर एक महीने मे एक पावरलूम के बिजली का बिल तीन-चार हजार आएगा तो क्या बचाएगा और क्या खाएगा। आखिर हम अपने बच्चों का भविष्य कैसे संवार पाएंगे?"

सिर्फ बुनकर ही नहीं, बनारसी साड़ी पर बनने वाला डिजाइन तैयार करने वाले नक्शेबंद भी खासे परेशान हैं। वह लोग भी मुश्किल के दौर से गुजर रहे हैं जो रेशम के धागों पर रंग चढ़ाने का काम करते हैं अथवा खराब साड़ियों की मरम्मत करते हैं। सिर्फ बुनकर ही नहीं, पूरा समाज ही आज अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। हाजी मंजूर कहते हैं, "हर बार चुनाव में सरकार बुनकरों के लिए बड़े-बड़े वादे करती है। जब सत्ता में सरकार आती है तो बुनकरों को मिलने वाली सुविधा भी बंद कर दी जाती हैं। लॉकडाउन में बंद पड़े कारखानों को भी बिजली विभाग ने लाखों रुपये के बिल थमा दिए। अब समझ नहीं आ रहा है कि हथकरघे और पॉवरलूम को फिर से शुरू करें या उसे बेचकर बिजली का बिल भरें।"

जुलाई महीने में बनारस के बुनकरों का एक प्रतिनिधिमंडल कपड़ा मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह से भी मिला। मंत्री ने इस ओर आवश्यक कदम उठाने का आश्वासन भी दिया, लेकिन नतीजा निकला वही "ढाक के तीन पात"।  मदनपुरा, लमही, बड़ी बाजार, बजरडीहा, लोहता पहड़िया, खेड़ी तालाब, पीलीकोठी आदि इलाकों में बुनकरी करने वाले तमाम कारीगर योगी सरकार के आश्वासन को भूखे के हाथ में झुनझुना भर मानते हैं। हालांकि सभी बुनकर सरकार का ही मुंह देख रहे हैं और उम्मीद की टकटकी लगाए हैं।


कपड़ा मंत्री सिद्धार्थनाथ से वार्ता करने पहुंचे बनारस के बुनकर (फाइल फोटो)

बुनकर बिरादराना तंजीम बारहो के सरदार हासिम कहते हैं, "बनारस की शान साड़ी बुनकर आज गहने और घर गिरवी रखकर गुजारा करने को मजबूर हैं। लॉकडाउन के दौरान उनका पूरा काम ठप हो गया। छोटे व्यवसायियों और कारीगरों की हालत बहुत खराब है। बनारस में कोई नया पॉवरलूम नहीं लग रहा है। जो हैं वो लगातार बिकते जा रहे हैं। बिजली अब यूनिट पर हो गई है। अब बिजली का बिल भी देना मुश्किल हो गया है। सरकार ने स्थिति साफ नहीं की तो हमें अपनी मशीनें कबाड़ में बेचनी पड़ेंगी।"

हाथ में रिक्शा है, फावड़ा है या भीख का कटोरा

सरदार हासिम कहते हैं, "मोदी सरकार की दोषपूर्ण नीतियों से धंधा सिसकलने लगा था। कोरोना संकट के बीच बिजली बिलों की मार ने कराहते बनारसी साड़ी उद्योग पर छाए आफत के बादलों ने बुनकरों को बेरोज़गार और तबाह कर दिया। हुनरमंद हाथों में अब हथकरघे का हत्था नहीं है। किसी के हाथ में रिक्शा है, फावड़ा है या फिर भीख का कटोरा है।"

बनारस पावरलूम वीवर्स एसोसिएशन के महामंत्री अतीक अंसारी कहते हैं, "हाल के कुछ सालों में सरकारों की निर्यात नीतियां बहुत ग़लत थीं और ऊपर से पॉवरलूम ने हैंडलूम के बुनकरों की कमर तोड़ दी। पॉवरलूम ने रफ्तार पकड़ी तो बिजली की मार पड़ने लगी। वह कहते हैं, "शुरुआत में एक पावरलूम का रेट 65 रुपये महीना था। बीच-बीच में बढ़ता-घटता रहा। अब योगी सरकार ने साफ-साफ कर दिया है कि उद्योगों की तरह सभी बुनकरों को बिजली का बिल यूनिट के हिसाब से देना होगा और बिजली का रेट सात रुपये प्रति यूनिट होगा। महीनों चले आंदोलन-प्रदर्शन के बाद भी सरकार पुरानी दरों पर बिजली का बिल लेने पर रजामंद नहीं हुई है। सिर्फ मौखिक तौर पर कहा गया है कि लूम चलाने वाले पुरानी दर पर बिल अदा करें। कुछ इलाकों में पावरलूम के बिल जमा हो रहे हैं तो कई जगहों पर बिजली काटी जा चुकी है। अगर योगी सरकार अपना फैसला वापस नहीं लेती तो हमें ये काम छोड़ना पड़ेगा।"

फिलहाल बनारस के सभी इलाकों में पुरानी दरों पर बिजली के बिल फ्लैट रेट पर जमा हो रहे हैं, लेकिन पहडिया में मीटर रीडिंग की दरों से बिल थमाया जा रहा है। बुनकरों के मुताबिक एमएलसी अशोक धवन की पहल पर बनारस शहर में पहले की तरह फ्लैट रेट पर वो बिजली का भुगतान कर रहे हैं। बिजली बिल कम करने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आश्वासन तो दिया, लेकिन अभी तक संशोधित राजाज्ञा आज तक जारी नहीं की गई। नतीजा, कई बुनकर अब खून के आंसू रो रहे हैं।

बुनकर नेता हाजी मंजूर बताते हैं, "पिछले छह सालों में बुनकारों की हालत बहुत ज्यादा ख़राब हुई है। हमारे पास काम नहीं हैं, बाज़ार में पड़ा माल वापस आ रहा है, छोटे-व्यापारी व कारीगरों को बहुत घाटा हुआ है और अब तो लोग ग़रीबी के चलते आत्महत्या कर रहे हैं।"

...तब संग्रहालयों में दिखेंगी साड़ियां

पूर्वांचल पॉवरलूम एसोसिएशन के सचिव अनवारुल हक अंसारी कहते हैं, "अगर बिजली की सब्सिडी खत्म हो गई तो तय मानिए कि बनारस का बुनकर समुदाय हमेशा के लिए मिट जाएगा। सिर्फ बुनकर ही नहीं, दुनिया भर में अपनी कारगरी का जादू बिखेरने वाली उन साड़ियों का वजूद भी मिट जाएगा। बनारस में हजारों ऐसे  बुनकर हैं जिनके यहां बिजली का बिल तीन-चार लाख रुपये तक आया है। हर महीने 20-25 हजार रुपये कमाने वाले बुनकर इतना भारी बिल कैसे चुकाएंगे, वह भी तब जब पिछले कई महीनों से काम बंद पड़ा है, ये लोग खुद भी नहीं जानते।"

अनवारुल यब भी कहते हैं, "पहले नियोजित तरीके से हैंडलूम खत्म किए गए। हथकरघे अब बहुत खोजने से ही कहीं मिलते हैं। अब बड़े पूंजीपतियों के हित साधने के लिए पावरलूम को भी खत्म किया जा रहा है। ये फैसला एक झटके में सिर्फ लाखों बुनकरों को ही हमेशा के लिए खत्म नहीं करेगा बल्कि सदियों पुरानी बनारस की पहचान को ही हमेशा के लिए मिटा देगा। एक पूरी संस्कृति आज विलुप्त हो जाने के मुहाने पर खड़ी है। अगर समय रहते सरकार अपनी आंखें नहीं खोलती है तो हाथ के काम वाली असली बनारसी साड़ियां सिर्फ संग्रहालयों में होंगी या घरों की दादी मां के पास। तब बनारस के बुनकर सिर्फ इतिहास में पढ़ाए जाएंगे।"

सभी तस्वीरें -विजय विनीत

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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