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पश्चिम बंगाल: डिलीवरी बॉयज का शोषण करती ऐप कंपनियां, सरकारी हस्तक्षेप की ज़रूरत 

"हम चाहते हैं कि हमारे वास्तविक नियोक्ता, फ्लिपकार्ट या ई-कार्ट हमें नियुक्ति पत्र दें और हर महीने के लिए हमारा एक निश्चित भुगतान तय किया जाए। सरकार ने जैसा ओला और उबर के मामले में हस्तक्षेप किया, जहां एक दिन या एक महीने का न्यूनतम भुगतान निश्चित किया गया है, हमारे मामले में भी सरकार ऐसा ही करे। ''
app based wokers
फाइल फोटो।

सुभोजित बेरा (26), एक ऐप आधारित सेवा में सामान पहुंचाने का काम करते हैं। वे ऑनलाइन रिटेल की बड़ी कंपनी फ्लिपकार्ट के लिए काम करते हैं। लेकिन उनके करार में सिर्फ़ दो महीने के काम का ही नियम होता है। तृतीय पक्ष सेवा प्रदाता (थर्ड पार्टी सर्विस प्रोवाइडर) के साथ किए गए उनके करार में भत्ते को लेकर किसी भी तरह की जानकारी शामिल नहीं होती। बल्कि करार में यह अनिवार्यता है कि वे "फ्लिपकार्ट डिलेवरी एक्जीक्यूटिव" के तौर पर अपनी सेवाएं देंगे। इसे ये लोग "फ्रीलांस एग्रीमेंट" कहते हैं।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए सुभोजित ने बताया कि उन्हें एक दिन में 15-16 घंटे तक काम करना पड़ता है, जबकि उनका कोई निश्चित भुगतान, पीएफ, ईएसआई या कोई दूसरे कल्याण प्रावधान भी तय नहीं हैं। शुभोजित कहते हैं, "जब बिग बिलियन डेज़ (फ्लिपकार्ट द्वारा आयोजित एक सेल, जिसमें कुछ सामान पर छूट होती है) चल रही होती है, तब किसी अच्छे दिन हमें एक पार्सल पहुंचाने के 35 रुपये तक मिलते हैं और हमें दिन में ऐसे दस काम मिलते हैं। इस पैसे में हमें अपनी मोटरबाइक का खर्च भी निकाला होता है। फिर किसी कमज़ोर दिन फ्लिपकार्ट एक पार्सल को पहुंचाने के सिर्फ़ 20 रुपये भी देता है। तब कई बार दिन में हमें सिर्फ़ चार पार्सल ही मिल पाते हैं। अच्छे महीने में हमारी कमाई 12,000 रुपये तक की होती है, जबकि कमज़ोर वक़्त में यह कुछ हज़ार रुपये तक ही सिमट जाती है। हमारा करार भी सिर्फ़ दो महीने का होता है, बीच के वक़्त में हम खाली ही रहते हैं।"  

उन्होंने आगे कहा, "हम चाहते हैं कि हमारे वास्तविकत नियोक्ता, फ्लिपकार्ट या ई-कार्ट हमें नियुक्ति पत्र दें और हर महीने के लिए हमारा एक निश्चित भुगतान तय किया जाए। सरकार ने जैसा ओला और उबर के मामले में हस्तक्षेप किया, जहां एक दिन या एक महीने का न्यूनतम भुगतान निश्चित किया गया है, हमारे मामले में भी सरकार ऐसा ही करे। हमें कर्मचारी वर्ग की परिभाषा में शामिल करे, ताकि हमें भी सरकार की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ मिल सके और हमें मोलभाव करने के लिए संगठित होने का अधिकार मिल सके।"

प्रशांत की कहानी

बेहद गर्मी भरे महीनों में किसी को उत्तर कोलकाता में स्विगी के लिए खाना पहुंचाने का काम करते हुए प्रशांता रॉय (40) मिल जाएंगे। वे खाने के 11 पार्सल पहुंचाने के लिए 12 से 14 घंटे काम करते हैं, ताकि उन्हें न्यूनतम गारंटी के 850 रुपये मिल सकें। उनकी स्थिति ऐसी है कि वे शादी की उम्र को पार कर रहे हैं और वे इतनी उम्र में शादी भी नहीं कर सकते। उनके घर पर उन्हें माता-पिता की आजीविका भी चलानी होती है। 

एक न्यूनतम भुगतान की गारंटी, कामग़ारों को लुभाने की योजना है। इस योजना के तहत अगर कर्मचारी 11 पार्सल पहुंचाता है, तो उन्हें 850 रुपये का इकट्ठा भुगतान कर दिया जाता है, मतलब उन्हें फिर 15 रुपये प्रति पार्सल के हिसाब से नहीं दिए जाते। लेकिन यह न्यूनतम गारंटी निश्चित नहीं होती, क्योंकि नियोक्ता शुरुआत में काम देने के बाद अगले आर्डर देने में देर करता है। कई बार इन कर्मचारियों को यह 11 पहुंचाने के लिए 15 घंटे तक काम करना पड़ता है।  

कोविड महामारी के बाद से उन्हें हर पार्सल पहुंचाने के सिर्फ़ 15 रुपये मिल रहे हैं, ऐसे में न्यूनतम गारंटी ही अच्छा भुगतान पाने का एकमात्र जरिया बचता है। प्रशांत कहतें हैं कि कई बार 12 घंटे काम करने के बाद भी उन्हें न्यूनतम गारंटी का पैसा नहीं मिल पाता, क्योंकि नौवें पार्सल के बाद नियोक्ता कंपनी का सर्वर धीमा हो जाता है। फिर अगले दो पार्सल पहुंचाने के लिए उन्हें घंटों काम करना पड़ता है। 

अपने चेहरे से पसीना साफ़ करते हुए प्रशांत कहते हैं कि यह व्यवहार कोई नया नहीं है, बल्कि लाखों डिलेवरी करने वाले और गिग कर्मचारी (सेवा क्षेत्र में स्वतंत्र काम करने वाले, अस्थायी कर्मचारी), राज्य के भीतर खासतौर पर कोलकाता, सिलिगुड़ी, आसनसोल, बर्दवान, दुर्गापुर आदि जैसे बड़े शहरों में इसका सामना करते हैं।

प्रशांत ने विस्तार से अपनी बात न्यूज़क्लिक से साझा करते हुए बताया कि कैसे गिग कर्मचारी पेट्रोल की कीमतों की गणना करते हैं। प्रशांत ने बताया कि गिग कर्मचारियों को वह भुगतान किया जा रहा है, जो पेट्रोल की कीमत 70 रुपये लीटर रहने के दौरान किया जा रहा था। सौभाग्य से प्रशांत साइकिल से काम करते हैं। उनके मुताबिक़ लाखों मोटरसाइकिल के मालिक कर्मचारियों को अतिरिक्त दबाव सहना पड़ता है, क्योंकि उन्हें अपनी गाड़ी की किश्त भी चुकानी होती है। दिन में 120 से 150 किलोमीटर चलने के बाद उनकी मोटरसाइकिल का ह्रास भी होता है और वह तीन साल के बाद काम नहीं करती। ऐप आधारित काम को करने के लिए किसी कर्मचारी को 10 से 15 हजार रुपये के मोबाइल की जरूरत होती है। जो इन "मुंह-बोले" मज़दूरों के लिए किसी विलासिता से कम नहीं होता। किसी भी तरह की असहमति में इन कर्मचारियों की आईडी को ब्लॉक कर दिया जाता है। एक बार अगर कोई ब्लॉक हो गया, तो इन कर्मचारियों की उम्मीद वहीं खत्म हो जाती है, क्योंकि एक ही आईडी को दोबारा चालू नहीं करवाया जा सकता। 

गिग कर्मचारियों (स्वतंत्र काम करने वाले कर्मचारियों) का शोषण

कोलकाता में ऐप आधारित डिलेवरी और अस्थायी (गिग) कर्मचारी संघ के अध्यक्ष सौम्याजीत रजक कहते हैं, "बिना लाग लपेट के यह ऐप राज्य की लाखों की अनिश्चित श्रम शक्ति का भविष्य तय करते हैं, जो मुनाफ़े के अंधाधुंध लालच वाली नवउदारवादी अर्थव्यवस्था की पैदाइश है।"

संगठन के महासचिव सागनिक सेनगुप्ता ने यूनियन को बनाने का अपना अनुभव साझा करते हुए बताया, "हमने ऐसे एक हजार से ज़्यादा कर्मचारियों से मुलाकात की। उन सभी ने संगठित होने के अधिकार की अपील की। यह बेहद शानदार रहा कि हमें उन्हें एक बार भी यह नहीं बताना पड़ा कि उन्हें संगठित होने की जरूरत क्यों है। बल्कि उन्होंने कहा कि हम उन्हें तेजी से संगठित करें और उन्हें उनकी भयावह स्थिति से बाहर निकालने के लिए संघर्ष शुरू करें। श्रम कानूनों को बॉयपास करने के लिए उन्हें "डिलेवरी पार्टनर" का तमगा दिया गया है, जबकि बुनियादी स्तर पर उनकी स्थिति समाज के सबसे ज़्यादा शोषित वर्ग से भी ज़्यादा बदतर है।"

उन्होंने आगे कहा कि महामारी के दौरान इन कर्मचारियों ने अपने कल्याण की चिंता किए बिना ही सेवा प्रदान कीं और कंपनियों ने जमकर मुनाफ़ा कमाया। इसके बावजूद इन कर्मचारियों को प्रति डिलेवरी का भुगतान 35 रुपये से गिरकर 15-20 रुपये पर आ गया। इसके बावजूद इन्हें अब भी डिलेवरी पार्टनर कहा जाता है। 

सेंटर ऑफ़ ट्रेड यूनियन की राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य और कोलकाता जिला समिति के महासचिव देबाशीष रॉय कहते हैं कि यूनियन कर्मचारियों के संगठित होने के वैधानिक अधिकार, उन्हें सामाजिक सुरक्षा तंत्र में शामिल किए जाने के लिए संघर्ष कर रही है। जरूरत आधारित इस बाज़ार की प्रवृत्ति को समझने के लिए यह देखना दिलचस्प है कि यह ऐप मानवीय हस्तक्षेप की जगह लेते हैं, फिर यह स्वचलित ऐप श्रमशक्ति का ऊंची दर से ज़्यादा शोषण भी करते हैं। यहां ऐप कहते हैं कि पूरी प्रक्रिया मानवीय हस्तक्षेप से मुक्त है, जबकि वास्तविकता में इस ऐप के दायरे में अपनी मर्जी से लोग आते हैं और ऐप का मालिक, ऐप के उपयोगकर्ताओं (कर्मचारियों) की आईडी ब्लॉक कर उन्हें खुद पृथक करता है।  

भविष्य की उम्मीद

किसी भी न्यायालय में इन कर्मचारियों के अधिकारों को स्थापित नहीं किया गया है, लेकिन सामाजिक सुरक्षा संहिता (2020) में ऐप प्लेटफॉर्म के काम को इस तरह परिभाषित किया गया है, "ऐसा काम जो पारंपरिक नियोक्ता-कर्मचारी संबंध की परिधि के बाहर प्रबंधित किया गया हो, जिसमें संगठन या व्यक्ति किसी समस्या के समाधान या किसी विशेष सेवा के लिए, जिसे केंद्र सरकार ने एक भुगतान के ऐवज में संसूचित किया हो, उसके लिए एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का उपयोग, दूसरे संगठन या व्यक्ति तक पहुंचने के लिए करते हैं।" 

यह पहली बार है जब देश में इस अदृश्य श्रमशक्ति को पहचानने के लिए कोई कदम उठाया गया हो, जिसमें उन्हें प्लेटफॉर्म कर्मचारी के तौर पर संबोधित किया गया है, लेकिन अब भी सरकार ने गजट नोटिफिकेशन के बावजूद इस संबंध में बोर्ड गठित करने के स्तर का काम नहीं किया है। 

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें:-

WB: App-Based Delivery Workers Seek Govt Intervention on Employment Conditions

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