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बजट 2023-24 के भारतीय शहरों के लिए क्या मायने हैं?

इस साल का बजट सरकारी ख़र्च में ग़लत प्राथमिकताओं से भरा हुआ है और शहरी विकास के सामने आने वाली कुछ प्रमुख चुनौतियों के मामले में चूक गया है।
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फ़ोटो साभार: 99acres

एनडीए सरकार का अंतिम और पूर्ण बजट इस विचार से ग्रस्त है कि "निजी पूंजी भारत की कुछ बुनियादी समस्याओं को दूर करेगी और बड़ी पूंजी-गहन प्रौद्योगिकियां समावेशी विकास के साथ-साथ विकास का आईना बनेंगी।”

यह तर्क कितना झूठा है? इसे हमने पिछले तीन दशकों में देखा और जांचा है। 1991 में मनमोहन सिंह बजट में ढांचागत बदलाव लाए थे और उन्होने बजट के माध्यम से "भारत की अर्थव्यवस्था को सरकार के हाथों से निजी उद्यम के हाथों में स्थानांतरित करना और मुक्त व्यापार को गले लगाना शुरू कर दिया था।

यह एक वैश्विक घटना थी। हालांकि, बीतते वक़्त के साथ, कई राष्ट्र-राज्य हुकूमत के  हस्तक्षेप को फिर से बढ़ाने की जरूरत महसूस करने लगे, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम ने इसे महसूस किया। हुकूमत के हस्तक्षेप को वापस बढ़ाने के कारणों में एक विशेष कारण जो था, वह शहरी दुनिया में धन सृजन में घोर असमानता थी। इस की तरफ क्विटो में हुए हैबिटेट III सम्मेलन में इशारा किया गया था, जहां कार्यकारी निदेशक, जॉन क्लॉस ने कहा था कि पिछले दशकों में हुकूमत के हस्तक्षेप को कम करने की मुहिम को छोड़ दिया जाना चाहिए और योजना/नियोजन की मूल बातों का पालन किया जाना चाहिए।

इसलिए, वर्तमान केंद्रीय बजट से अर्थव्यवस्था में मांग को बढ़ाने और इस प्रकार नीचे से विकास पर बड़े पैमाने पर सामाजिक खर्च के प्रासंगिक मुद्दे को संबोधित करने की उम्मीद की गई थी। हालाँकि, वित्तमंत्री ने अपने भाषण में कहा: "देश के आज़ादी के 75 वें वर्ष में, दुनिया भारतीय अर्थव्यवस्था को 'उज्ज्वल सितारे' के रूप देख रही है।" उज्ज्वल सितारा होने का उत्साह गंभीर चुनौतियों को ढकने का लिबास है, जिसका भारतीय अर्थव्यवस्था और बड़े पैमाने पर लोग दोनों सामना कर रहे हैं।

बजट की व्यापक दिशा, सामाजिक खर्च की कीमत पर अधिक पूंजीगत खर्च की है। ग्रामीण रोजगार गारंटी और सामाजिक क्षेत्र की अन्य खर्च योजनाओं में भारी कटौती की गई है। हालांकि, केंद्र सरकार दावा करती रही है कि पूंजीगत खर्च में वृद्धि, विशेष रूप से शहरों में, विकास को बढ़ावा देगी।

"विकास के इंजन के रूप में शहर", एक और भ्रांति जो वर्तमान व्यवस्था का मार्गदर्शन करती है, वह शहरों में विकास के संचालन के रूपों में से एक है। आइए देखें कि केंद्रीय बजट शहरी भारत और विशेष रूप से इसके लोगों के लिए क्या पेशकश करता है।

बजटीय खर्च में कमी

सकल घरेलू उत्पाद के संबंध में केंद्र सरकार के कुल खर्च में गिरावट आई है। 2009-10 से 2013-14 की अवधि में यह जीडीपी का 15 प्रतिशत होता था, जो 2014-15 से 2018-19 तक एनडीए-1 सरकार के तहत 12.8 प्रतिशत तक गिर गया था, और चालू वर्ष में यह 14.9 प्रतिशत है। इसलिए, सरकारी खर्च के बहुप्रशंसित आंकड़े, वास्तव में, लगभग वही हैं। आइए देखें कि शहरी विकास की कहानी क्या कहती है।

शहरी विकास में, केंद्र सरकार का कुल व्यय 2021-22 में जीडीपी के 0.5 प्रतिशत से गिरकर 2023-24 के बजटीय अनुमानों में 0.3 प्रतिशत हो गया है। 2021-22 में सकल घरेलू उत्पाद के 2.5 प्रतिशत से बजटीय अनुमानों में केवल 3.3 प्रतिशत तक पूंजीगत व्यय में वृद्धि हुई है।

6 प्रतिशत की मामूली मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए पूंजीगत खर्च में वृद्धि का बहुत अधिक मूल्य नहीं होगा। हालांकि पूंजीगत खर्च में वृद्धि पर जो जोर दिया गया है, वह विशेष रूप से शहरों में, अधिक पूंजी-गहन प्रौद्योगिकियों को धक्का देना है, न कि सामाजिक क्षेत्र पर खर्च को बढ़ाया गया है। आइए देखें कि यह सेक्टर-वार कैसे हुआ है।

आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के लिए कुल बजट परिव्यय में गिरावट देखी गई है। 2022-23 का प्रस्ताव 76,549.46 करोड़ रुपये (पूंजी 27,341.01 करोड़ रुपये और राजस्व 49,208.45 करोड़ रुपये) था, और 2023-24 के लिए प्रस्ताव 76,431 करोड़ रुपये है। इसमें महंगाई को भी जोड़ दें तो यह गिरावट 6 प्रतिशत से ज्यादा है।

बड़े कॉर्पोरेट्स के लाभ के लिए प्रतिबद्ध, वर्तमान बजट मेट्रो रेल निर्माण पर कुल शहरी बजट का लगभग 30.32 प्रतिशत खर्च का इरादा रखता है। यह कुछ शहरों तक ही सीमित है और अधिकांश शहर भारी घाटे में चल रहे हैं। शहर बसों के एक बड़े बेड़े और बहु-मॉडल परिवहन की मांग कर रहे हैं। हालांकि, पूंजी-गहन प्रौद्योगिकियों पर जोर दिया गया है, और मेट्रो उनमें से एक है। 23,056 करोड़ रुपये के पूंजीगत खर्च के साथ इस मद में कुल परिव्यय 23,175 करोड़ रुपये है।

पीएमएवाई (शहरी) - परिव्यय में भारी गिरावट

कुछ शहरों के कुछ मास्टर प्लान (विकास योजनाओं) पर एक सरसरी नजर डालने से पता चलता है कि लैंड पूलिंग पर जोर दिया जा रहा है और बाजार आवास के मामले में प्रमुख भूमिका निभा रहा है। इसमें एक अवधारणा काम कर रही है जिसे 'ट्रांजिट-ओरिएंटेड डेवलपमेंट' (TOD) कहा जाता है। वित्तमंत्री ने अपने भाषण में कहा, "...इसका मतलब भूमि संसाधनों का कुशल इस्तेमाल, शहरी बुनियादी ढांचे के लिए पर्याप्त संसाधन, पारगमन-उन्मुख विकास, शहरी भूमि की उपलब्धता और सामर्थ्य में वृद्धि, और सभी के लिए अवसर शामिल है।"

एक बार फिर भाषण में सामाजिक आवास प्रदान करने का उल्लेख तक नहीं है। 'ट्रांजिट-ओरिएंटेड डेवलपमेंट' यानि टीओडी, पूरी दुनिया में, शहरी आबादी के एक छोटे से वर्ग के लिए निजी भागीदारी का एक मॉडल है। यह लोगों की बड़ी आबादी की मदद नहीं कर पाएगा। ठीक इसी कारण से, पीएमएवाई (शहरी) के लिए आवंटन में 2021-22 में 59,963 करोड़ रुपये से 2022-23 में 28,708 करोड़ रुपये के साथ भारी कमी आई है और 2023-24 के बजट में यह 25,103 करोड़ रुपये तक गिर गया है।

स्मार्ट सिटीज मिशन, नरेंद्र मोदी सरकार का प्रमुख कार्यक्रम है, वित्तमंत्री के भाषण में इसका  उल्लेख तक नहीं किया है। स्मार्ट सिटीज मिशन पर आवंटन में पिछले साल के बजट से 800 करोड़ रुपये की गिरावट देखी गई है। शहरी कायाकल्प मिशन के तहत अमृत और स्मार्ट सिटीज मिशन दोनों का कुल परिव्यय 16,000 करोड़ रुपये है (पिछले वर्ष 15,300 करोड़ रुपये था, जो 6 प्रतिशत की मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए परिव्यय पिछले वर्ष की तुलना में कम है), जो एक बार फिर बढ़ती हुई समस्या को हल करने में विफल रहा और देश में शहरी बुनियादी ढांचे की मांग की एकमात्र उल्लेखनीय विशेषता यह है कि सभी कस्बों में यांत्रिक सीवर सफाई मशीन उपलब्ध कराने का वादा किया गया है।

गलत प्राथमिकताएं और चूक

'भविष्य के सतत शहर' शीर्षक के तहत, केंद्रीय बजट स्थिरता की व्याख्या करता है। तदनुसार, स्थिरता टीओडी, नगरपालिका बांड, शहरी भूमि की बढ़ी हुई उपलब्धता, भूमि संसाधनों के कुशल इस्तेमाल आदि से आती है। यह 17 सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने का तरीका नहीं है, उनमें से अधिकांश शहरों से जुड़े हुए हैं।

शहरों में राजस्व संसाधन उत्पन्न करने के माध्यम के रूप में नगरपालिका बांड की कल्पना करना भी हास्यास्पद है, जब अधिकांश शहर एक गैर-योजना मद के तहत अपना खर्च वहन करने में भी सक्षम नहीं हैं। ऐसे शहरों में म्युनिसिपल बॉन्ड कौन खरीदेगा?

शहरी रोजगार गारंटी

केंद्र सरकार जो सबसे महत्वपूर्ण हस्तक्षेप कर सकती थी, वह भारत भर के शहरों में न्यूनतम रोजगार गारंटी योजना की शुरुवात करना था। महामारी ने दिखाया है कि यह मांग कितनी महत्वपूर्ण है।

इसी तरह, शहरों में प्रवासी श्रमिकों से संबंधित मुद्दों को संबोधित करने में बजट विफल रहा है। संबंधित पोर्टल के तहत 28 करोड़ से अधिक लोग अपना पंजीकरण करा चुके हैं। सरकार कम से कम यह घोषणा कर सकती थी कि शहर के मेहनतकश लोगों के लिए घरों का निर्माण, विशेष रूप से किराये और श्रमिक छात्रावासों का निर्माण किया जाएगा।

प्रदूषण और शहरों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर भी बजट पूरी तरह मौन है। दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले शहरों में से हमारे शहर हैं। इससे निपटने के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण होना चाहिए था। वास्तव में, महानगरों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय शहरी गतिशीलता इस सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए थी। आपदा जोखिम में कमी और न्यूनीकरण और अनुकूलन रणनीतियाँ शहरों में क्षमता निर्माण के महत्वपूर्ण क्षेत्र हो सकते थे और ऐसे कार्यक्रमों से जुड़े अनुदान अत्यधिक लाभकारी होंगे।

हालाँकि, वर्तमान बजट, केवल बढ़ते पूंजी निवेश की अपनी बहुत ही अदूरदर्शी दृष्टि के साथ आया है (चाहे वह होगा या नहीं, यह एक और सवाल है), मानव जीवन के सामाजिक पहलू को पूरी तरह से नकार दिया गया है!

लेखक हिमाचल प्रदेश के शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Budget 2023-24: What it Means for Indian Cities

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