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धांधली जब लोगों के दिमाग़ के साथ हो जाती है, तभी उत्तर प्रदेश के नतीजे इस तरह आते हैं

विपक्ष साल के सातों दिन और चौबीसो घंटे के लिए वैचारिक लड़ाई में लगे संघ को भारत के दिमाग़ी हेरफेर करने से रोक पाने में नाकाम रहा है। धांधली कभी उत्तर प्रदेश के किसी ईवीएम में नहीं हुई है,बल्कि धांधली तो इस सूबे के सामूहिक दिमाग़ के साथ हुई है।
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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की इस जीत से यह पता चलता है कि पिछले पांच सालों में इस राज्य के बाहर के लोगों ने जो कुछ देखा, इस सूबे के लोगों ने जो कुछ भोगा,यह जीत उससे काफ़ी अलग है।

ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश के लोग कोविड-19 की बेरहम दूसरी लहर से पस्त नहीं थे; ऐसा लगता है कि गंगा में तैरती लाशें कभी मिली ही नहीं थीं या गंगा के उथले किनारों पर दफ़्न होती लाशें कभी पायी ही नहीं गयी थीं; ऐसा लगता है कि महज़ चार घंटे के नोटिस परगये 2020 के उस लॉकडाउन के बाद उत्तर प्रदेश में अपने घरों तक पहुंचने के लिए सैकड़ों किलोमीटर की दूरी को पैदल नापने वाले मजबूर प्रवासी मज़दूर कभी भूख और मौत के शिकार हुए ही नहीं थे।

ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश के किसान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से किसानों के हितों के ख़िलाफ़ बनाये गये क़ानून से भी नाराज नहीं थे,जबकि इस तरह के विरोध भारत या किसी सूबे में पहले कभी देखे ही नहीं गये थे; ऐसा लगता है कि रात भर आवारा जानवरों के चर जाने से भी किसानों की फ़सलें कभी बर्बाद हुई ही नहीं।

ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की ओर से ख़ुद के राजपूत समुदाय का पक्ष लेने को लेकर लोगों के मन में कोई  कड़वाहट थी ही नहीं, उनके शासन को बतौर एक "ठाकुर राज"  बताते हुए लोगों के मन के भीतर कोई बेचैनी भी नहीं थी; ऐसा लगता है कि आदित्यनाथ सरकार ने सहायक शिक्षकों की नियुक्ति में अन्य पिछड़े वर्ग को 27% कोटा देने से कभी इनकार ही नहीं किया था; ऐसा लगता है कि ओबीसी को उप-वर्गों में बांटने का वादा कभी किया ही नहीं गया था; ऐसा भी लगता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को कमज़ोर करने के विरोध में जब दलित सड़कों पर बाहर निकल गये थे, तो उन्हें जेल में डाला ही नहीं गया था।

और हां,ऐसा भी लगता है कि आदित्यनाथ की पुलिस ने हाथरस की उस दलित लड़की का बलात्कार के बाद हुई मौत के तुरंत बाद अंधेरे की आड़ में अंतिम संस्कार किया ही नहीं था।

लोगों से इतनी तरह से रार लेने वाली किसी भी सरकार को तो बाहर का दरवाज़ा दिखा दिया गया होता। हां, यह दलील ज़रूर दी जा सकती है कि सभी सरकारों को उन लोगों के विरोध और प्रतिकार का सामना करना ही पड़ता है, जिन्हें लगता है कि उन्हें हुक़ूमत से कोई फ़ायदा नहीं हुआ है। लेकिन, आर्थिक स्थिति को दिखाने वाले संकेतों से पता चलता है कि आदित्यनाथ के कुशासन ने उत्तर प्रदेश की आबादी के हर तबक़े पर प्रतिकूल असर डाला है।

भारतीय रिज़र्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि 2011 और 2017 के बीच उत्तर प्रदेश का सकल राज्य घरेलू उत्पाद 6.9% की औसत वार्षिक दर से बढ़ा था। 2017 और 2021 के बीच यह घटकर 1.2% हो गया। ग़ौरतलब है कि आदित्यनाथ 19 मार्च 2017 को मुख्यमंत्री बने थे। इसमें कोई शक नहीं कि कोविड-19 के दो सालों ने इस सूबे की विकास दर को बुरी तरह से प्रभावित किया है। लेकिन, SARS-CoV-2 वायरस ने जब देश को लॉकडाउन के फ़रमान को जारी करने के लिए मजबूर कर दिया था, उससे पहले ही डीएसडीपी 5.6% तक कम हो गयी थी।

सामाजिक क्षेत्र में 2017 और 2020 के बीच आदित्यनाथ सरकार का ख़र्च 14.3 प्रतिशत की वार्षिक औसत दर से बढ़ा था, जो कि 2011 और 2017 के बीच राज्य की ओर से किये गये ख़र्च के मुक़ाबले 2.6% कम है। सामाजिक क्षेत्र में किया गया यह कम ख़र्च बताता है कि कोविड-19 के सालों के दौरान उत्तर प्रदेश की दिल तड़पा देने वाली परेशानियां क्यों थीं। शुक्र है कि इससे आदित्यनाथ को सामाजिक क्षेत्र के ख़र्च में इज़ाफ़ा करना पड़ा, जिससे उनकी सरकार को उनके पांच साल की हुक़ूमत में औसतन 17.13% की दर दर्ज करने में मदद मिली।

आदित्यनाथ की हुक़ूमत के दौरान रोज़गार के मौक़े सिकुड़ गये। 2011-2012 में शहरी उत्तर प्रदेश में हर 1,000 लोगों में से 41 लोग बेरोज़गार थे। 2017-2018 में यह आंकड़ा बढ़कर 97 हो गया और 2018-2019 में बढ़कर 106 हो गया था।  जबकि 2011-2017 में उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों में हर 1,000 व्यक्ति में से महज़ नौ लोग ही बेरोज़गार थे। 2017-2018 में यह आंकड़ा बढ़कर 55 हो गया था और 2018-2019 में यह 43 पर आ गया। हालांकि, 2019 के बाद सर्वेक्षण तो नहीं कराये गये, लेकिन बाद में कोविड -19 के कारण लगाये गये लॉकडाउन के चलते रोज़गार की हालत और भी गंभीर हो गयी।

उत्तर प्रदेश के इन पिछले पांच सालों को देखते हुए और चुनाव नतीजों पर नज़र डालने पर तो यही लगता है कि  इस सूबे के लोग आदित्यनाथ को उनके कुशासन के लिए माफ़ करने और उन्हें एक और मौक़ा देने के लिए तैयार थे। या फिर कहा जा सकता है कि लोगों ने अपने सामने उन विचारों और मुद्दों को ज़्यादा अहमियत दी, जिनके बारे में उनका मानना रहा हो कि उनके लिए उनकी अपनी उन समस्याओं के मुक़ाबले ज़्यादा अहम थे, जिनके लिए आदित्यनाथ काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार थे।

चुनाव प्रचार से पहले और चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक पंडितों ने आदित्यनाथ के कुशासन के बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में एक और कार्यकाल के मिलने की भविष्यवाणी करने के पीछे दो कारणों का हवाला दिया था। एक कारण तो भाजपा की तरफ़ से उठाये गये कल्याणकारी क़दम थे, ख़ासकर इस महीने के अंत में होली के त्योहार तक 15 करोड़ लोगों को दिये जाने वाले मुफ़्त राशन का फ़ैसला। उन्होंने यह फ़ैसला उन लाखों लोगों को ख़ुश करने के लिए लिया था, जिन्होंने उस धीमी अर्थव्यवस्था और उस लॉकडाउन के चलते ख़ुद के सामने पेश होने वाले संकट के कारण रोज़गार के अवसरों को कम होते देखा था, जिसकी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से भाजपा की रही थी।

राजनीतिक पंडितों की यह भविष्यवाणी कि आदित्यनाथ अपने विरोधियों को पछाड़ सकते हैं, इसके पीछे की दलील का दूसरा आधार उत्तर प्रदेश की क़ानून और व्यवस्था की स्थिति में सुधार था, जिसे भाजपा अपनी अहम उपलब्धि बताती रही। आदित्यनाथ का क़ानून और व्यवस्था में सुधार का मतलब पुलिस की ओर से की जाने वाली गैंगस्टरों की कथित मुठभेड़, अंगभंग और मार गिराने से था। जैसा कि मीडिया रिपोर्टों से साफ़ होता है कि लोगों ने सुरक्षा मुहैया कराने वाले न्यायिक तरीक़ों से अलग रास्ता अपनाने को लेकर उनकी और पुलिस की सराहना और वाहवाही की। इन तारीफ़ करने वालों में से कई लोगों के लिए यह उन मुसलमानों को ठीक करने वाली हुक़ूमत की ताक़त का इस्तेमाल था, जिनके बारे में उनका मानना है कि वे हिंसा के लिए ज़िम्मेदार हैं।

लेकिन, जैसा कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि आदित्यनाथ के कार्यकाल के दौरान उत्तर प्रदेश के सबसे कमज़ोर सामाजिक समूह,यानी दलितों के लिए तो जीवन और भी ख़तरनाक हो गया। दरअसल, राज्य में दलितों के ख़िलाफ़ सभी अपराधों की दर 2017 में 27.7% से बढ़कर 2020 में 30.7% हो गयी।

पिछले अनुभव से तो हमें यही पता चलता है कि कल्याणकारी उपाय और क़ानून और व्यवस्था में सुधार के दावे, भले ही यह बहस का विषय हो,इतनी बड़ी जीत तो नहीं दे सकते। जिस समय उत्तर प्रदेश में भाजपा के सुशासन के दावों को आंकड़े नकार रहे हों, जिस समय सालों के सामाजिक और आर्थिक संकट गंगा में तैरती लाशों और साल भर चलने वाले किसानों के विरोध के रूप में सामने दिखायी दे रहे हों, उस समय भाजपा की इस तरह की जीत का श्रेय तो लोगों की चेतना में आये बदलाव को ही दिया जाना चाहिए।

यह बदलाव वही हिंदुत्व का है, जिसका इस समय हम सामना कर रहे हैं। चेतना में आया यह बदलाव ख़ासकर उत्तर प्रदेश में तेज़ी से आम होता जा रहा है, जिसके चलते यहां के लोग आदित्यनाथ के कुशासन को भी अनदेखा करने के लिए तैयार थे। या फिर जैसा कि आलोचक कहते हैं कि लोग इस कुशासन के एक और पांच साल का जोखिम उठाने के लिए तैयार हैं और जो लोकप्रिय रूप से निरंकुश सत्तावादी प्रतीत होता है। उत्तर प्रदेश के लिए तो बस उम्मीद ही की जा सकती है कि आचोलक सही साबित न हों।

हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि उत्तर प्रदेश का एक असाधारण बड़ा सा हिस्सा अब हिंदुत्व कुनबे का मूल बन चुका है, जिसे विभाजित कर पाना मुश्किल है। जो ज़्यादातर परिवारों का सच है, वही हिंदुत्व कुनबे का भी सच है और यह सच है-लोगों को उनके सबसे गंभीर दोषों के लिए भी हमेशा माफ़ कर दिया जाना। जब तक भाजपा मुसलमानों को अपने निशाने पर रखना जारी रखेगी, जैसा कि आदित्यनाथ ने भी पिछले पांच सालों में किया है, जब तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के नेता धार्मिक अल्पसंख्यकों को जाल में फांसते रहेंगे और सार्वजनिक जीवन का हिंदूकरण करते रहेंगे, तबतक यह हिंदुत्व कुनबा कमोबेश एक साथ मिलकर टिका रहेगा।

हिंदुत्व कुनबे की यह एकता मुसलमानों के ख़िलाफ़ पिछले पूर्वाग्रहों को पोषित करने और नये-नये पूर्वाग्रहों की तलाश करते रहने से मज़बूत बनी हुई है। इस तबक़े का दावा है कि हिजाब भारत के सार्वजनिक जीवन की एकरूपता को कमज़ोर करता है।यह एक ऐसा दावा है,जिस पर हम हंस तो सकते हैं, लेकिन इसके संभावित दुखद नतीजों के लिए भी तैयार रहना पड़ सकता है। इस एकता को मज़बूती देने के लिहाज़ से नागरिकता संशोधन अधिनियम जैसे मुसलमान विरोधी कानून  और उनके विरोध को कुचलने और उन्हें जेल में डालने के लिए राज्य की शक्ति का इस्तेमाल कम अहम कारक नहीं है।

बेशक, मीडिया पर भाजपा का नियंत्रण इसके ख़ुद की गढ़ी गयी कहानियों को बढ़ावा देने के लिहाज़ से पर्याप्त गुंज़ाइश देता है, जो कि अक्सर हक़ीक़त के मुक़ाबले मनगढ़ंत होती हैं। ये कहानियां काफ़ी हद तक बिना चुनौती के चलती रहती हैं। जिस तरह से मीडिया ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन- II को निशाना बनाया था,उस तरह से वह भाजपा को निशाने पर नहीं लेता है।

इसका मतलब यह भी नहीं है कि भाजपा उत्तर प्रदेश या उत्तर भारत में अजेय है। लेकिन, यह भी सच है कि जब तक भारत के आम लोगों की धारणा नहीं बदलेगी, तबतक विपक्ष के लिए मुश्किल होगी। और यह बदलाव हर चुनाव से क़रीब उन चार या पांच महीने पहले ला पाना मुमकिन नहीं है, जो आम तौर पर यही वह समय होता है, जब विपक्ष भारत के संवैधानिक विचार को लेकर लोगों को शिक्षित करने के लिए सामने आता है और भाजपा को हराने के लिए जातिगत गणित का गुणा-भाग करता है।

यही वजह है कि विपक्ष साल के सातों दिन और चौबीसो घंटे के लिए वैचारिक लड़ाई में लगे संघ को भारत के दिमाग़ी हेरफेर करने से रोक पाने में नाकाम रहा है। धांधली कभी उत्तर प्रदेश के किसी ईवीएम में नहीं हुई है,बल्कि धांधली तो इस सूबे के सामूहिक दिमाग़ के साथ हुई है। यही वजह है कि हमारे सामने ये नतीजे हैं।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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