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गुजरात में आख़िर लाभ-साझाकरण वाली धनराशि कहां जा रही है?

गुजरात जैव-विविधता बोर्ड के क्रूर शासन ने भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के साथ-साथ जैविक विविधता अधिनियम, एवं 2014 के एबीएस नियम-कानूनों के पूरे उद्देश्य को ही विफल कर दिया है।
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प्रतीकात्मक फोटो

कुछ वर्ष पहले की बात है, जब दिसंबर 2019 में मैं गुजरात के नर्मदा जिले के देदियापाड़ा ब्लॉक में एक एनजीओ द्वारा संचालित इको-टूरिज्म प्रोजेक्ट की एक साईट का दौरा करने के लिए गया हुआ था। वापस लौटते समय, मुझे मुख्य सड़क मार्ग पर कई पट्टिकाएं देखने को मिलीं, जिनमें कुछ गाँवों में जैव विविधता बोर्डों (बीएमसी) के गठन का उल्लेख किया गया था। इन पट्टिकाओं को 2013 में लगाया गया था, लेकिन लोगों को इस बारे में कोई खबर नहीं थी कि ये किस बारे में हैं।

बाद वाले दौरे में हमने वहां के सरपंचों, पंचायत सदस्यों और स्वयंसेवकों के साथ एक छोटी सी बैठक की। मैंने उनसे उन बोर्डों पर उल्लेख की गई उन बीएमसी के बारे में पूछताछ की। उनमें से कुछ ने बताया कि उन्होंने इसके बारे सुन रखा है (और सड़क पर लगे उन बोर्डों को पढ़ा है), लेकिन अधिकांश लोग इस बात से अनभिज्ञ थे कि ये समितियां क्या हैं या इन समितियों में कौन-कौन लोग हैं, जो कि न सिर्फ अधिनियम के गैर-कार्यान्वयन का संकेत देता है बल्कि शासन के उपर से नीचे तक लाभ पहुंचाने वाले दृष्टिकोण की विफलता का एक और जीता-जागता नमूना पेश करता है। 

देदियापाड़ा मुख्यतया एक आदिवसी क्षेत्र है और अधिसूचित अनुसूची पांच क्षेत्र के अंतर्गत आता है। मैंने कुछ इसी प्रकार की कहानियों को अपने दाहोद और डंग जिलों की यात्रा में भी सुनी थीं- और वे भी पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। हम गुजरात में इस अंतर और जैव विविधता अधिनियम (बीडीए) शासन तंत्र के बारे में और जानने के लिए उत्सुक थे।

30 सितंबर, 2013 को नर्मदा जिले के देदियापाड़ा ब्लॉक के कुडीयांबा गाँव में जैव-विविधता प्रबंधन बोर्ड का गठन किया गया था। यह बोर्ड वर्तमान में सक्रिय नहीं है। स्थानीय निकाय चुनावों के कार्यक्रम के अनुरूप हर पांच साल में बीएमसी का भी गठन किया जाना चाहिए।

जैव-विविधता व्यवस्था और भारत में लाभ-में बंटवारे तक पहुँच 

जैव-संसाधनों के सतत उपयोग और इससे होने वाले लाभों के उचित एवं समान बंटवारे के लिए नीतिगत ढांचों को निर्धारित करने के लिए 2002 में बीडीए को क़ानूनी जामा पहनाया गया था। भारत उन चंद देशों में से एक था जिसने सबसे पहले जैव विविधता से संबंधित मुद्दों के संबंध में शासन तंत्र के लिए अलग से कानून बनाये थे। इस कानून के सबसे महत्वपूर्ण तत्वों में वे प्रावधान हैं जिनमें उचित एवं समान लाभ के बंटवारे के बारे में उल्लेख किया गया है। इसमें कहा गया है कि जैव-संसाधनों के व्यावसायिक इस्तेमाल से प्राप्त होने वाले मुनाफे का एक हिस्सा उन लोगों के बीच में साझा किया जायेगा जो इन जैव-संसाधनों के संरक्षण या इसके पारंपरिक ज्ञान को विकसित करने में अपना योगदान देंगे (मूलतः, स्थानीय आबादी के लिए)। यह अधिनियम स्थानीय स्व-शासन स्तर पर राज्य समितियों एवं जैव विविधता प्रबंधन समितियों की स्थापना के प्रावधान को भी मुहैय्या कराता है।

किस प्रकार से कंपनियां और व्यक्तिगत स्तर पर सारी दुनिया में स्वदेशी एवं स्थानीय आबादी द्वारा पारंपरिक ज्ञान और संसाधनों का दोहन किया जाता है यह एक आम बात हो चुकी है, जिसे शल्य चिकित्सा के घावों को भरने के लिए हल्दी के उपयोग पर संयुक्त राज्य अमेरिका में दो शोधकर्ताओं को पेटेंट प्रदान किये जाने से कुख्यात लोकप्रियता हासिल हुई थी। सभी संबंधित राष्ट्र-राज्यों के साथ वर्षों तक विचार-विमर्श करने के बाद, आनुवांशिक संसाधनों तक पहुँच पर नागोया मसविदे और जैव विविधता पर कन्वेंशन के लिए उनके इस्तेमाल से होने वाले लाभों के उचित एवं समान बंटवारे पर हस्ताक्षर किये गये। इसमें इस बात को सुनिश्चित किया गया कि हस्ताक्षरकर्ताओं को लाभ को साझा और समान पहुँच को सुनिश्चित करने के लिए विधाई, नीतियों और प्रशासनिक तंत्र को खड़ा करना होगा। वर्तमान में, इस मसविदे में 131 हस्ताक्षरकर्ता शामिल हैं। जहाँ एक तरफ इस मसविदे ने विभिन्न देशों में जैव विविधता ढांचे को स्थापित करने में महान मार्गदर्शक के तौर पर काम किया है, वहीँ भारत में इसके घरेलू कार्यान्वयन के लिए तंत्र अभी भी स्पष्ट नहीं हो सका है।

2002 में जैव विविधता अधिनियम को भारत में लागू किये हुए 12 साल बीत जाने के बाद भी इसके लाभों को साझा करने हेतु कोई तंत्र विकसित नहीं किया जा सका था। 2014 में कहीं जाकर जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) ने जैव संसाधनों तक पहुँच और संबद्ध ज्ञान और लाभों को साझा करने पर नियमों के तौर पर दिशानिर्देश जारी किये थे। इन दिशा निर्देशों के तहत, जैव-संसाधनों के व्यावसायिक उपयोगकर्ताओं के द्वारा चुकाई गई लाभ-साझाकरण राशि के 95% हिस्से को स्थानीय स्तर पर बीएमसी को दिए जाने का उल्लेख किया गया है। 

मान लेते हैं कि लाभ को साझा करने के लिए किसी बीएमसी की पहचान कर पाना संभव नहीं है। ऐसे मामले में, इस रकम का उपयोग जैविक संसाधनों के संरक्षण एवं सतत उपयोग में लगाने के लिए और स्थानीय लोगों की आजीविका को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल किया जायेगा जहाँ से इन जैव संसाधनों को हासिल किया जा रहा है।

एबीएस शासन में गैर-जवाबदेही और पारदर्शिता का अभाव 

एक आरटीआई के जवाब के माध्यम से जीबीबी ने फरवरी 2020 में कहा कि कुल 4500 कंपनियों को बीडीए, 2002 की धारा 7 के तहत अपना काम-काज करने के लिए सहमति प्राप्त हुई थी। इन 4500 में से 68 के साथ लाभ के बंटवारे के समझौतों को जीबीबी के द्वारा व्यावसायिक उपयोग के लिए जैविक संसाधनों का दोहन करने के लिए हस्ताक्षर किये गए थे। एक अन्य आरटीआई के जवाब में खुलासा हुआ है कि गुजरात जैव विविधता समिति के पास इस बात का कोई आंकड़ा नहीं है कि उसने इन कंपनियों से जो लाभ-साझाकरण का धन इकट्ठा किया है, उसे पिछले पांच वर्षों में कैसे खर्च किया है। 2021 में, जीबीबी ने 2020 में की गई अपनी घोषणा के विपरीत बताया कि जिन कंपनियों के साथ लाभ साझाकरण अभी भी सक्रिय है उनकी संख्या मात्र 9 है। 

इस बात पर ध्यान देना उचित होगा कि यथोचित एवं न्यायसंगत लाभ साझा करने के संबंध में कोई अलग से अनुबंध का प्रावधान नहीं है, बल्कि इसे सिर्फ धारा 7 के तहत संचालन के लिए सहमति को मान्यता देने वाले अनुबंध के हिस्से के तौर पर रखा गया है। इन अनुबंधों में स्थानीय समुदायों या बीएमसी का भी कोई जिक्र भी नहीं है। इन समझौतों से हम यह अंदाजा लगा सकते हैं कि इन कंपनियों ने धारा 7 के तहत अपने संचालन के लिए सहमति हासिल करने के लिए सीधे जीबीबी से संपर्क किया था और स्थानीय लोगों को इसमें शामिल नहीं किया।

इसके साथ-साथ, जिन दस्तावेजों को जीबीबी द्वारा मुहैय्या कराया गया है वे इस बारे में खामोश हैं कि क्या गुजरात जैव विविधता नियम, 2010 के नियम 16 के तहत प्रक्रिया का पालन किया गया है या नहीं। नियम 16 स्थानीय बीएमसी या स्थानीय निकाय के साथ अनिवार्य परामर्श को निर्धारित करता है, जिसमें प्रस्ताव और संरक्षण एवं आजीविका पर इससे पड़ने वाले प्रभावों के बारे में पर्याप्त जानकारी प्रदान करने के बाद स्थानीय निकाय की सभा से इसकी औपचारिक सहमति हासिल करने के बाद एक सार्वजनिक सूचना जारी करना शामिल है। यह प्रावधान महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि स्थानीय बीएमसी, जैसा कि जीबीबी के द्वारा दावा किया गया है, सक्रिय थीं और अपना कामकाज कर रही थीं, तो वे उन लाभ-साझाकरण मॉडल पर सौदेबाजी कर रहे होंगे, जिससे स्थानीय आबादी को लाभ हो सकता है। जीबीबी और कंपनियों के बीच के नौ समझौतों की पड़ताल करने के बाद यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि इन सभी संविदाओं में एबीएस विनियमन 2014 से हासिल किये गए लाभ के बंटवारे के लिए ही एक अनुच्छेद को नमूने के तौर पर उठा लिया गया है।

जब उन बीएमसी की सूची मांगी गई जिन्हें लाभ-साझाकरण राशियाँ प्राप्त हुई हैं, तो इस पर जीबीबी ने स्पष्ट रूप से घोषणा की, “जीबीबी ने 2014 के नियमों के विनियमन 15(2) के तहत किसी भी बीएमसी को कोई भी लाभ-साझाकरण राशि हस्तांतरित नहीं की है।” जिन लोगों को केंद्र में रखकर इन कानूनों को तैयार किया था था, उन्हें ही जीबीबी के द्वारा इस पूरी प्रकिया से अलग-थलग कर दिया गया है।

जैसा कि उपर कहा गया है, नियम 15(2) के मुताबिक, राज्य जैव विविधता समितियों को अनिवार्य रूप से अर्जित संपूर्ण लाभ-साझाकरण का 95% हिस्सा बीएमसी के साथ साझा करना होगा। यदि समिति बीएमसी या व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूहों के बारे में तय करने की स्थिति में नहीं है कि जिनके साथ उसे लाभ को साझा करना है, तो समिति को इस धनराशि को जैविक संसाधनों के सतत विकास एवं संरक्षण और स्थानीय लोगों की आजीविका को प्रोत्साहित करने पर खर्च करना होगा जहाँ से इन जैव संसाधनों को हासिल किया जा रहा है। किसी भी स्थिति में, राज्य जैव विविधता बोर्ड के पास इस बात के अधिकार या क़ानूनी आदेश नहीं हैं कि वह लाभ-साझाकरण के माध्यम से अर्जित समूचे धन को अपने पास ही रख ले। 

अब, जब करोड़ों में इकट्ठा लाभ-साझाकरण राशि के माध्यम से हासिल धन के बरे में सटीक दस्तावेजों और आंकड़ों की मांग करने पर, जवाब में जीबीबी ने बोर्ड की वार्षिक प्राप्तियों एवं भुगतान विवरण को पेश कर दिया, जिसमें जैव विविधता बोर्ड के वार्षिक खर्चों का विवरण शामिल था। इसके उपरांत एक अपील दायर की गई जिसमें विशिष्ट विवरण की मांग की गई कि एबीएस धनराशि को कैसे खर्च किया गया। हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उनके जवाब में कहा गया कि जिस प्रारूप में जानकारी मांगी गई है उसके बारे में उनके पास कोई जानकारी नहीं है।

जबकि उन्हें स्पष्ट कर दिया गया था कि वे उपलब्ध जानकारी को किसी भी प्रारूप में मुहैय्या करा सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जीबीबी द्वारा खर्च की गई या प्राप्त की गई एबीएस धनराशि के संबंध में एकमात्र डेटा उनके पास वार्षिक विवरण के प्रारूप में ही उपलब्ध था, और एबीएस के धन को किसी भी विशिष्ट माध्यम से खर्च किया जा रहा है, इस बारे में कोई हिसाब नहीं रखा जा रहा था। जीबीबी के पास यह बताने के लिए कोई भी आंकड़ा, ढांचा या दस्तावेज उपलब्ध नहीं है कि कैसे इस धन को विनियमन 15(2) के मुतबिक खर्च किया जा रहा है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि कैसे कंपनियां स्थानीय आबादी का शोषण करती हैं और उनके योगदान को मान्यता दिए बगैर उनके पारंपरिक ज्ञान को अपने फायदे के लिए उपभोग में लाती हैं, इसे देखते हुए यह मामला काफी समस्याग्रस्त है और असंवेदनशील शासन का संकेत है। जीबीबी का क्रूर शासन भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के साथ-साथ जैव विविधता अधिनियम एवं 2014 के एबीएस नियम-कानूनों के समूचे उद्देश्य को ही निष्फल बना देता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें गैर-पारदर्शी सरकारी कामकाज की भावना परिलक्षित होती है, जिसमें हमारे पर्यावरण के संरक्षण और इसे चिरस्थायी बनाये रखने के लिए जिम्मेदार समुदायों के प्रति सजा और रूखेपन का भाव नजर आता है। जीबीबी ने अपने आरटीआई के जवाब में, उन स्थानों के बारे में आंकड़े नहीं दिए हैं जहाँ जैव-संसाधनों को व्यावसायिक उपयोग में लाया जा रहा है। इसके चलते उनके लिए कंपनियों को जवाबदेह ठहरा पाना या उन स्थानीय लोगों या बीएमसी की पहचान कर पाना असंभव हो जाता है, जिनके साथ उन्हें इन लाभों को साझा करना चाहिए।

गुजरात जैव विविधता बोर्ड का कुशासन 

राज्य जैव-विविधता बोर्डों को जैव विविधता अधिनियम की धारा 33 एवं सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 4(1) (बी) (xi) के तहत अपने-अपने वार्षिक रिपोर्टों को प्रकाशित और सार्वजनिक करना अनिवार्य है। जहाँ भारतीय विभागों के कुशासन का मुद्दा देखने में घिसीपिटी बात लग सकती है, किंतु इस सन्दर्भ में इस बात को देखना विशेष महत्व का हो जाता है क्योंकि इस कानून पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है और इसका सीधा प्रभाव पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी पर पड़ता है, जो स्थानीय समुदायों और देश की जैव-विविधता पर भारी दुष्प्रभाव डाल सकते हैं।

जब जीबीबी से सवाल किया गया कि गुजरात में इस समय कितने बीएमसी अपना कामकाज कर रहे हैं, तो उनके जवाब में कहा गया कि कुल 13,578 जैव-विविधता समितियों का गठन किया गया था। जबकि जमीनी हकीकत कुछ और ही बयाँ कर रही है। जिन गांवों में बीएमसी के गठन की बात कही गई थी, वहां के स्थानीय निकायों के सदस्यों को इसके गठन का कोई अंदाजा नहीं था और न ही समिति के सदस्यों को इस बात की ही खबर थी कि ऐसी किसी कमेटी के सदस्य हैं।

इसके अलावा, राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण द्वारा 2013 में जैव विविधता प्रबंधन कमेटी के संचालन के बारे में दिशानिर्देशों को अधिसूचित कर दिया गया था, जिसमें स्थानीय बीएमसी को जारी किये जाने वाले स्टार्ट-अप फंड को निर्धारित किया गया था। पंचायत स्तर पर मौजूद बीएमसी को स्टार्ट-अप फंड के तौर पर 60,000 रूपये मिलने चाहिए थे। यह फण्ड निहायत जरुरी है क्योंकि इसके जरिये दस्तावेजीकरण एवं संरक्षण के प्रयासों को गति प्रदान होती जबकि इसके साथ ही गाँवों में जरुरी फंड भी आता, जिसका उपयोग आबादी के और भी हितों के लिए किया जा सकता है।  

जीबीबी के शुरूआती जवाब के मुताबिक, कुल 13,578 में से 674 बीएमसी को शुरूआती रकम मुहैय्या कराई गई थी। बाद में एक आरटीआई अपील के जवाब में जीबीबी ने बताया कि एनबीए दिशानिर्देशों में “प्रारंभिक फंड” के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है। जीबीबी का कहना था, “एनबीए के दिशानिर्देशों में कहीं भी शुरूआती फंड दिए जाने का उल्लेख नहीं किया गया है, यही वजह है कि इस बारे में हमारे पास कोई जानकारी नहीं है।” यह बेहद असामान्य बात है, क्योंकि एनबीए के दिशानिर्देशों में बीएमसी के संचालन के लिए स्टार्ट अप फंड को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया है। यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उन्होंने अपील के इस जवाब को दिया है क्योंकि दिशानिर्देशों में प्रारंभिक फंड के बजाय स्टार्ट अप फंड का उल्लेख है। वैसे दोनों ही शब्दावली का अनिवार्य रूप से आशय एक ही है, और यदि उन्होंने वैकल्पिक अर्थ निकालकर उसके आधार पर प्रश्न को परे हटाने का प्रयास किया है, तो यह सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की भावना के खिलाफ है। धारा 4(1)(बी) के तहत सक्रिय खुलासों को शासन को पारदर्शी और जवाबदेह बनाये रखने के लिए किया जाता है, जिसकी जीबीबी को गहराई से अवलोकन करने की आवश्यकता है।

इसके साथ ही यह और भी व्यापक प्रश्न को खड़ा करता है कि क्या इन विभागों के नेतृत्वकर्ता जैव विविधता बोर्ड को किस प्रकार से देख रहे हैं। मेरे विचार में, वे किसी पोस्ट-ऑफिस के तौर पर कार्य कर रहे हैं, जो तभी बेहद मुस्तैदी से काम करने लगते हैं जब किसी आरटीआई आवेदन को दायर किया जाता है। जीबीबी के पास जहाँ कंपनियों को जवाबदेह ठहराने के लिए असीमित शक्तियाँ हैं वहीँ जैव विविधता के संरक्षण और प्रारंभिक निधि के साथ आजीविका के विकल्प को पैदा करने में स्थानीय आबादी को मदद पहुंचाने के उपाय मौजूद हैं, जिसे इस विभाग को चला रहे लोगों ने लगता है पूरी तरह से नजरअंदाज कर रखा है। यदि बीएमसी को अधिनियम के तहत अपने यथोचित हक़ प्राप्त नहीं हो रहे हैं, और जीबीबी के खातों में लाभ साझाकरण तक पहुँच वाले खाते में क्रेडिट दिखाया जा रहा है, तो सवाल खड़ा होता है कि लाभ-साझाकरण में माध्यम से अर्जित किया गया धन असल में किसके पास गया?

आदित्य गुजराती एक वकील हैं जो अहमदाबाद स्थित सेंटर फॉर सोशल जस्टिस में रिसर्च एसोसिएट के तौर पर सम्बद्ध हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।

 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Where-Does-the-Benefit-Sharing-Money-Gujarat-go

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