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महामारी प्रभावित भारत के लिए बर्ट्रेंड रसेल आख़िर प्रासंगिक क्यों हैं

डेढ़ सदी पहले रसेल ने चेतावनी दी थी कि जो राजनीति बेबुनियाद ख़ौफ़ और नफ़रत का सहारा लेती है, वह नेताओं को ज़िम्मेदारी और निंदा से बचने में मदद करती है।
Bertrand Russel

बर्ट्रेंड रसेल (मई 1872-फ़रवरी 1970) एक दार्शनिक, मानवतावादी, तार्किक तौर पर अतार्किक बातों पर एतराज़ जताने वाले और गणितीय प्रतिभा का एक अनूठा मिश्रण थे। हालांकि एक सामाजिक दार्शनिक के तौर पर उनके जो विचार या सिद्धांत थे, उन्हें आम लोगों के बीच व्यापक रूप से पढ़ा गया और उन विचारों या सिद्धांतों को सराहा भी गया।

जहां तक लोकप्रिय झूठे विश्वास या भ्रम पैदा करने वाली धारणाओं की बात है, तो रसेल एक ऐसे शख़्स थे जो बड़ी बेरहमी से उन ग़लत धारणाओं या झूठे विश्वास के खिलाफ़ तर्क देने वाले 20वीं सदी के व्याख्याताओं में सबसे तीक्ष्ण और साहसी व्याख्याता थे। 1970 के दशक के मध्य में उन्हें पहली बार पढ़ना मेरे लिए बेहद अहम था। उनके विचारों की स्पष्टता ने मुझे उसी तरह मोहित कर लिया था जिस तरह उनके उन चुभते अवलोकनों ने चकित कर दिया था जिनसे उन्होंने सामाजिक बकवास, पाखंड, दिखावा और कुतर्कों को ध्वस्त कर दिया था।

इसके बाद के सालों में जब कभी भी मुझे गंभीर संदेह से जूझना पड़ा, मैंने रसेल को अपनी किताब की आलमारी से बाहर निकाला और उनकी किताब पर गहरी नज़र डाली। उन्हें पढ़ना किसी पीड़ानाशक दवा लेने की तरह रहा है। इस समय देश के सामने ख़ुद से पैदा किये गये जो हृदय विदारक भयानक मंज़र अव्यवस्थित रूप में सामने दिख रहे हैं, उसने मुझे रसेल के चश्मे से इन चीज़ों को देखने के लिए विवश कर दिया है।

हमें रसेल के 1950 के नोबेल पुरस्कार ग्रहण करते समय दिये गये भाषण और 1951 में द न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित उनकी बुनियादी बातों से अलग कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है।

आइये, सबसे पहले नोबेल पुरस्कार ग्रहण करते हुए उन्होंने जो भाषण दिया था, उसमें व्यक्त उनके विचारों पर एक मुख़्तसर नज़र डालते हैं, “सदाचार और नैतिकता राजनीतिक जीवन में बहुत कम भूमिका निभाते हैं, इसके बजाय जो प्रेरित करता है, वह है-ख़ुदगर्ज़ी और लालसा…मनुष्य की तमाम गतिविधियां इच्छा से प्रेरित होती हैं। कुछ जोशीले नैतिकतावादियों की तरफ़ से इस आशय का एक पूरी तरह ग़लत सिद्धांत विकसित किया गया है कि फ़र्ज़ और नैतिक सिद्धांत के हित में इच्छा का विरोध करना मुमकिन है। लेकिन, मैं कहता हूं कि यह भ्रामक है, इसलिए नहीं कि कोई भी व्यक्ति कर्तव्य की भावना से कभी कार्य ही नहीं करता, बल्कि इसलिए कि कर्तव्य की उस पर तब तक कोई पकड़ ही नहीं होती, जब तक कि वह कर्तव्यपरायण होने की इच्छा न रखे।” 

रसेल का कहना है कि एक ही ऐसा अहम पहलू है, जिस वजह से मनुष्य दूसरे प्राणी से अलग है। कुछ इच्छायें अनंत होती हैं और उन्हें तृप्त कर पाना मुश्किल होता है और ये इच्छायें स्वर्ग में भी उन्हें बेचैन किये रहती हैं। “बोआ कंस्ट्रिक्टर(उष्णकटिबंधीय अमेरिका में पाया जाने वाला अजगर), जब बहुत ज़्यादा खा लेता है, तब वह सो जाता है, और तब तक नहीं उठता, जब तक उसे आगे खाने की ज़रूरत नहीं होती। मगर, मनुष्य, बहुत हद तक ऐसा नहीं होता।” उन्होंने बताया कि मुख्य रूप से चार ऐसी राजनीतिक इच्छायें हैं, जिन्हें संतुष्ट कर पाना मुश्किल है, ये इच्छायें हैं- "अर्जित करने की इच्छा, होड़ लेने की इच्छा, ग़ुरूर और सत्ता से लगाव"।

उनका कहना है कि होड़ लेने की इच्छा मक़सद को पाने का कहीं ज़्यादा एक मज़बूत कारण है, और ग़ुरूर के पीछे भी "बेहद ताक़तवर होने का अहसास" है। सत्ता को भोगने से सत्ता से लगाव बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है, जबकि वह शख़्स "सत्ता से लगाव से प्रेरित होकर सुख देने से कहीं ज़्यादा पीड़ा देने के लिए तैयार रहता है।"

रसेल कहते हैं, “अगर आपको इमारत बनाने की परमिट की ज़रूरत है, तो इससे जुड़े छोटे अफ़सर को स्पष्ट रूप से 'हां' कहने के मुक़ाबले 'नहीं' कहने में कहीं ज़्यादा ख़ुशी मिलती है। इसी तरह की चीज़ सत्ता से लगाव को इतना ख़तरनाक अभिप्राय बना देती है।”

रसेल का कहना है कि अनदेखी भी उस अफ़ीम की तरह एक ऐसी नशीली दवा है, जिसकी “अच्छी-ख़ासी मात्रा की खुराक इसलिए लेनी पड़ती है, ताकि मनचाहा असर पैदा किया जा सके।"

जैसा कि इस समय हम देख रहे हैं, क्या नज़र आ रहा ग़ुरूर, आत्ममुग्धता का सैलाब नहीं बन गया है ? मेरी मनोवैज्ञानिक दोस्त, वेरोनिका मुझे इस बात को बेहतर ढंग से समझने में मदद करते हुए कहती हैं कि किसी समाज विरोधी व्यक्ति के विकार की तरह आत्ममुग्धता भी व्यक्तित्व से जुड़ा हुआ एक विकार ही होती है। आत्ममुग्ध शख़्स ख़ुदगर्ज़, सत्तावादी, तेज़ ग़ुस्सा करने वाला, अनदेखी महसूस करने पर नाराज़ होने वाला, और इसी तरह के कुछ और विकारों से ग्रस्त होता है। हालांकि, किसी एक शख़्स में उसकी शख़्सियत से जुड़े एक से ज़्यादा विकार हो सकते हैं- ऐसे लोगों में हमदर्दी की कमी होती है, ये हिंसा की अनदेखी करते हैं, इसके अलावे जोड़-तोड़ करते हैं और दूसरों को धोखा भी देते हैं।

क्या चार घंटे की मोहलत पर अचानक नोटबंदी का उठाया गया क़दम या फिर इस तरह की समय सीमा के साथ मार्च 2020 में लगया गया लॉकडाउन आवेग में उठाये गये क़दम नहीं थे ? सवाल है कि क्या कोविड-19 महामारी के ख़िलाफ़ 21 दिन की जंग, थाली-बर्तन पीटने, भारतीय वायु सेना के विमानों से फूलों की बारिश करने, या फिर शाम को नौ बजकर नौ मिनट पर बत्ती बुझा देने से नोवल कोरोना वायरस से पीछा छुड़ाने में किसी तरह की कोई मदद मिल पायी ?

मुझे तो बस इतना पता है कि ये विज्ञान सम्मत क़दम नहीं थे, बल्कि इसके ठीक उलट टोटके जैसे क़दम थे। रसेल ने अपने नोबेल पुरस्कार ग्रहण करने के मौक़े पर जो व्याख्यान दिया था, उसमें उन्होंने ऐसे बकवासों का भी ज़िक़्र किया था। “अगर राजनीति को विज्ञान सम्मत बनना है, और अगर चल रहे घटनाक्रम को हैरतअंगेज़ नहीं बनने देना है, तो यह बेहद ज़रूरी है कि हमारी राजनीतिक सोच मानवीय क्रियाओं के स्रोत और उसकी गहराई से प्रवेश करे।”

उन्होंने अपने उस व्याख्यान में आपस में गुंथे हुए उस आवेग का भी ज़िक़्र किया है, जिससे मनुष्य अफ़सोसनाक तौर पर बेबुनियाद ख़ौफ़ और नफ़रत की तरफ़ प्रवृत्त होता है। “हम जिस चीज़ से डरते हैं, उससे नफ़रत करना आम बात है, और अक्सर यही होता है...बहुत कुछ जिसे आदर्शवाद के रूप में दिखाया जाता है, वह असल में छुपी हुई नफ़रत या सत्ता के प्रति छुपी हुई लालसा होता है।”

1922 में "मुक्त चिंतन और सरकारी दुष्प्रचार" पर दिये गये अपने कॉनवे व्याख्यान में रसेल और भी उग्रता से अपनी बात रख रहे थे। “उन्होंने कहा था, "विज्ञान से जुड़ा हर वह शख़्स, जिसका नज़रिया सही में वैज्ञानिक है, यह स्वीकार करने के लिए तैयार रहता है कि इस समय जो कुछ भी वैज्ञानिक ज्ञान सामने है, उसमें भी खोज के होते जाने के साथ-साथ सुधार की ज़रूरत होती है। " हालांकि, ऐसा बस विज्ञान में ही होता है कि वास्तविक ज्ञान का अनुमान लगाया जा सके, “विज्ञान में जहां वास्तविक ज्ञान के आस-पास कुछ पाया जाना होता है, वहां भी लोगों का नज़रिया अस्थायी ही होता है और संदेह से भरा हुआ होता है।लेकिन, धर्म और राजनीति में इसके ठीक उलट होता है, हालांकि अभी तक वैज्ञानिक ज्ञान के आस-पास कुछ भी नहीं ठहरता है, हर कोई इसे एक निर्विवाद सच तक पहुंचने का एक सही रास्ता मानता है।”

हमारे सामने देश एक ख़ौफ़नाक नियति के आगोश में है, और इसने दुनिया को भयभीत कर दिया है। इसका दोष "काम के उपयुक्त होने के चलते" उन लोगों के चुने जाने पर नहीं मढ़ा जाता है, बल्कि इस पर आधारित होता है कि "उन्होंने सत्ता में रह रहे लोगों के तर्कहीन सिद्धांतों में हां में हां मिलायी "।

आइये, इसे हाल फिलहाल की एक और घटना से समझते हैं। अपने स्कूल की पाठ्यपुस्तकों के ज़रिये छात्रों को पूरी एकग्रता के साथ यक़ीन दिलाने की कोशिश की जा रही है कि हमारे लोकतंत्र के सम्मानित स्तंभ या तो सुस्त पड़े हुए हैं या पूरी तरह ध्वस्त हो गये हैं। महामारी के बावजूद चुनावी प्रचार अपने चरम पर था, और इस चुनावी प्रचार के बीच से एक अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ आयी-"दीदी, ओ दीदी"। और इसके अलावा, मुख्यधारा के मीडिया ने इसे चटखारे लेकर परोसना शुरू कर दिया।

यहां रसेल के उन दस सलाहों में से छह सलाहों का ज़िक़्र किया गया है, जो हमारे देश के सिलसिले में इनकी प्रासंगिकता को बहुत मज़बूती से समाने रखते हैं:

1.     किसी भी चीज़ को लेकर पूरी तरह से निर्विवाद महसूस न करें।

2.     सबूत छुपाकर आगे बढ़ना मुनासिब न समझें, क्योंकि सबूत का सामने आना तो तय है।

3.     जब आप विरोधी से मिलते हैं...तो रौब से नहीं, बल्कि उसे तर्क से जीतने की कोशिश करें, क्योंकि रौब पर आधारित जीत झूठी और भ्रामक होती है।

4.     उन विचारों को दबाने के लिए ताक़त का इस्तेमाल न करें, जिन्हें आप नुकसानदेह समझते हैं, क्योंकि अगर आप ऐसा करते हैं, तो वे विचार आपको दबा देंगे।

5.     बिना किसी विरोध वाली सहमति के मुक़ाबले बुद्धिमानी वाली असहमति से ज़्यादा ख़ुश रहें।

6.     बहुत ही सतर्कता के साथ सच्चे बने रहें, भले ही सच्चाई थोड़ी परेशान करने वाली ही क्यों न हो, क्योंकि जब आप सच को छुपाने की कोशिश करते हैं, तो यह बेहद दुखदायी हो जाता है।

आज के आक्रोश की संस्कृति से उपरोक्त में से हर सलाह नदारद है। गंगा पर तैरते या उसके किनारे दबे शवों में से यह सच्चाई बाहर झांकती दिख रही है। हमें कोई सचाई नहीं, बल्कि नंगा झूठ दिख रहा है, कोई स्पष्टता नहीं, बल्कि कफ़न दिख रहे हैं, किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं, बल्कि चकाचौंध और भव्यता दिखायी जा रही है, कोई तार्किक असहमति नहीं, बल्कि ख़ुशामदी सहमति दिखायी जा रही है। आत्ममुग्धता का पूरा-पूरा स्तुतिगान चल रहा है।

अंतत:रसेल के भाषण के मायने सभी के कानों तक ज़ोरदार तरीक़े से पहुंच सके, इसके लिए मैं 1903 में उनके एक मशहूर निबंध, "ए फ़्री मैन्स वर्शिप" में पहली बार व्यक्त उनके विचारों को फिर से यहां रखना चाहता हूं। मिल्टन के अलंकृत गद्य शैली से सराबोर उनके शब्द मूंदे हुए आंखों के बीच से कुछ इस तरह गूंजते हैं, 

“मनुष्य का जीवन छोटा और बेबस है; उस पर और उसकी सारी प्रजाति पर मंद, लेकिन अवश्यंभावी तबाही उसे निष्ठुर और स्याह कर जाती है।भला-बुरा से आंखें मुंद लेना, विध्वंस से बेपरवाह, सर्वशक्तिमान तत्व अपने पथ पर चला जा रहा है; अपने प्रियजनों के खोने को लेकर आज जिसकी मलामत हो रही है, कल वह ख़ुद अंधेरे के द्वार से गुज़रेगा, महज़ यादें ही रह जायेंगी…उदात्त विचार जो उसके छोटे दिन को उदात्त बना देते हैं; भाग्य के इस दास के डरे हुए संत्रास को तुच्छ समझने...मन को प्रचंड अत्याचार से बचाये रखने...अचेतन शक्ति के रौंदने के बावजूद, उसने अपने ही आदर्शों के हिसाब से इस दुनिया को गढ़ लिया है।”

अद्भुत् तर्क, अद्भुत अभिव्यक्ति !

लेखक एक पूर्व सिविल सर्वेंट हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Why-Bertrand-Russell-Relevant-Pandemic-Struck-India

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