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वैश्वीकरण और पूंजी तथा श्रम का स्थान परिवर्तन

वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में, उत्तर के उन्नत पूंजीवादी देशों से, दक्षिण के कम मजदूरी वाले देशों की ओर, पूंजी के स्थानांतरण पर तो काफ़ी चर्चा हुई है।
EUROPE LABOUR
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में, उत्तर के उन्नत पूंजीवादी देशों से, दक्षिण के कम मजदूरी वाले देशों की ओर, पूंजी के स्थानांतरण पर तो काफी चर्चा हुई है। लेकिन, एक और प्रकार का स्थानांतरण भी है, जिस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। यह है पूर्वी योरप के अपेक्षाकृत कम मजदूरी वाले देशों से श्रम का, उन्नत पूंजीवादी देशों की ओर स्थानांतरण। वास्तव में चूंकि योरपीय यूनियन के अंदर आम तौर पर श्रम की मुक्त आवाजाही संभव है, यह इन पूर्वी योरपीय देशों के लिए, योरपीय यूनियन में शामिल होने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रलोभन बन गया है।

पूर्वी व मध्य यूरोप से श्रम का पलायन 

इनमें से कुछ देशों ने तो श्रम-निर्यातक अर्थव्यवस्थाओं के शास्त्रीय लक्षण भी दिखाने शुरू कर दिए हैं। ये लक्षण हैं: देशों की कुल आबादियों का घटना; आबादी के गठन में बदलाव तथा काम करने की आयु के तंदुरुस्त युवाओं के हिस्से में कमी तथा महिलाओं, बच्चों व बुजुर्गों के हिस्से का बढऩा; अर्थव्यवस्था के चरित्र में बदलाव तथा उसका एक उत्पादक अर्थव्यवस्था से, बाहर से स्वदेश भेजी जाने वाली कमाइयां हासिल करने वाली अर्थव्यवस्था में तब्दील होना। सोवियत संघ के पराभव के बाद से, उसका पश्चिमी हिस्सा बनाने वाले देशों में आबादी घटने यानी उनके वीरान होते जाने की प्रवृत्ति सामने आयी है।

बल्गारिया में पिछले एक दशक में आबादी में 11.5 फीसद की कमी हुई है और उसकी कुल आबादी 73 लाख से घटकर, 65 लाख रह गयी है। रोमानिया की आबादी जहां 1990 में 2 करोड़ 32 लाख थी, 2019 तक घटकर 1 करोड़ 94 लाख रह गयी यानी पूरे 38 लाख या 16.4 फीसद कम हो गयी। लाटविया की आबादी 2000 में 23 लाखा 80 हजार थी, जो 2022 तक 18.2 फीसद घटकर, 19 लाख 50 हजार ही रह गयी। लिथुआनिया तथा जाॢजया की आबादी में भी तुलनीय अवधि में ऐसी ही गिरावट दर्ज हुई है। यूक्रेन के अब से 2050 के बीच, अपनी कुल आबादी का पांचवां हिस्सा इसी तरह से गंवा देने का अनुमान लगाया जा रहा था।
आबादी में इस तरह की गिरावट सिर्फ पूर्व-सोवियत गणराज्यों तक ही सीमित नहीं है। इसकी चपेट में पहले के यूगोस्लाविया से बने देश भी आये हैं। यूगोस्लाविया के बिखराव के बाद से बोस्निया तथा हर्जेगोविना ने अपनी आबादी का 24 फीसद हिस्सा खो दिया है, सर्बिया ने 9 फीसद और क्रोएशिया ने 15 फीसद। आबादी में इसी तरह की गिरावट अल्बानिया तथा माल्दोवा में भी देखने को मिली है। वास्तव में आबादी में गिरावट के मामले में टॉप-10 देशों की सूची में, सारे के सारे नाम मध्य तथा पूर्वी योरप के देशों के ही हैं। और इन 10 देशों में से सात को योरपीय यूनियन में शामिल भी किया जा चुका है। जाहिर है कि इन देशों की आबादी में गिरावट का सबसे महत्वपूर्ण कारण तो वहां से लोगों का पश्चिम की ओर पलायन ही है।

श्रम और पूंजी स्थानांतरण के अलग-अलग पैटर्न

बेशक यह कोई पहला मौक नहीं है जब पूंजीवाद के अंतर्गत, उसके नियंत्रण के तहत आने वाले दायरे में पूंजी तथा श्रम का स्थानांतरण हुआ है। उल्टे इस तरह का स्थानांतरण तो पूंजीवाद के हरेक दौर में ही होता रहा है। हां! इतना जरूर है कि पूंजीवाद के अलग-अलग दौरों में इस तरह के स्थानांतरण के पैटर्न अलग-अलग रहे हैं। उन्नीसवीं सदी के मध्य से पहले के दौर में, श्रम के स्थानांतरण ने एटलांटिक पार गुलामों के व्यापार का दमनकारी तथा क्रूर रूप लिया था। बहरहाल, उन्नीसवीं सदी के मध्य से प्रथम विश्व युद्घ तक, पूंजी के स्थानांतरण ने ‘‘न्यू वल्र्ड’’ में योरपीय निवेशों का रूप लिया, जिसने पूंजीवाद के भारी प्रसार में योगदान दिया। यह ज्यादातर उपनिवेशों से ‘संपदा की निकासी’ से वित्त पोषित था। इसी दौर में श्रम के स्थानांतरण ने दो अलग-अलग रूप लिए। इनमें पहला था, ‘‘न्यू वल्र्ड’’ यानी गोरी बस्तियों वाले ठंडे इलाकों की ओर, योरपीय श्रम का पलायन, जो कि पूंजी के स्थानांतरण का पूरक  था। दूसरा था, दुनिया के गर्म या सम-शीतोष्ण इलाकों की ओर भारतीय तथा चीनी श्रम का स्थानांतरण। याद रहे कि गर्म या सम-शीतोष्ण इलाकों के श्रमिकों के ठंडे इलाकों की ओर इस तरह के स्थानांतरण पर, कड़ी रोक लगी रही थी।

विश्व युद्घ के बाद के दौर में कड़े पूंजी नियंत्रण लगे हुए थे और इसलिए पूंजी का स्थानांतरण खास-खास लक्ष्यों के लिए ही होता था, जैसे तीसरी दुनिया के संरक्षित बाजारों में प्रवेश करने के लिए ‘‘टैरिफ जम्पिंग’’ या विकसित पूंजीवादी दुनिया के अंदर पारस्परिक निवेश। लेकिन, इस दौर में श्रम का स्थानांतरण पूर्व-उपनिवेशों या डिपेंडेंसीज़ से तथा विकसित देशों पर आश्रित देशों से, नियंत्रित संख्या में श्रम के पलायन का रूप लिए रहा। इस तरह भारत, पाकिस्तान तथा वैस्ट इंडीज से इंग्लैंड के लिए, अल्जीरिया तथा मोरक्को से फ्रांस के लिए और तुर्की से जर्मनी के लिए श्रम का पलायन हुआ। इससे भिन्न वर्तमान दौर में, तीसरी दुनिया की ओर पंूजी का उल्लेखनीय पैमाने पर हस्तांतरण हुआ है और पूर्वी योरप से उन्नत पूंजीवादी देशों की ओर श्रम का स्थानांतरण हुआ है। पूंजी की नजर से इन दोनों ही स्थानांतरणों के  पीछे मुख्य प्रेरणा, सस्ते श्रम की तलाश ही रही है।

विडंबना यह है कि मुख्यधारा का पूंजीवादी अर्थशास्त्र, पूंजी और श्रम के स्थानांतरण को पहचानता तक नहीं है। वास्तव में वह तो पूंजी तथा श्रम के स्थानांतरण की इस नामौजूदगी को ही मालों व सेवाओं के व्यापार के कारण की तरह देखता है। उसकी दलील होती है कि जिस देश में इकाई श्रम पर पूंजी कहीं ज्यादा होती है, चूंकि वह किसी ऐसे देश के लिए पूंजी का निर्यात नहीं कर सकता है, जहां इकाई श्रम पर पूंजी कहीं कम हो, वह दूसरे बेहतरीन उपाय का सहारा लेता है और उस देश के लिए पूंजी-सघन उत्पादों का निर्यात करता है और बदले में उससे श्रम सघन उत्पादों का आयात करता है। वास्तव में, व्यापार के पैटर्नों की इस तरह की व्याख्या, जो पूंजी तथा श्रम के स्थानांतरण को हिसाब से ही बाहर रखती है, व्यापार की वास्तविक प्रकृति की पर्दापोशी की ही भूमिका अदा करती है।

स्वतंत्र व्यापार नहीं साम्राज्यवाद की भुमिका

अगर मुख्यधारा का पूंजीवादी अर्थशास्त्र, इस सचाई को पहचाने कि पूंजीवाद के अंतर्गत पूंजी तथा श्रम का स्थानांतरण होता है, तब उसे उत्पादों के व्यापार को पूंजी तथा श्रम के स्थानांतरण के एवजीदार के तौर पर नहीं बल्कि किसी और ही तरीके से व्याख्यायित करना होगा। और यह दूसरा तरीका इसे व्यापार का आधार मानना होगा कि भौगोलिक रूप से अलग-अलग क्षेत्रों में, क्या पैदा हो सकता है क्या नहीं। इसका अर्थ यह होगा कि ऐसे क्षेत्र, जो किसी अन्य क्षेत्र की बड़ी जरूरत की चीज पैदा कर सकने के बावजूद, उसका व्यापार करने के लिए अनिच्छुक हो, उनके दरवाजे व्यापार के लिए बलपूर्वक खुलवाने होंगे। यह संक्षेप में हमें साम्राज्यवाद की परिघटना से दो-चार कराएगा। यही वह चीज है जिसका रास्ता, पूंजीवादी अर्थशास्त्र की मुख्यधारा का पर्दापोशी करने वाला व्यापार सिद्घांत रोकता है।

मिसाल के तौर पर ब्रिटेन ऐसा देश है जिसने औद्योगिक क्रांति की शुरूआत की थी और इस क्रांति की शुरूआत हुई थी सूती कपड़ा उद्योग से। लेकिन, ब्रिटेन में कपास तो पैदा हो ही नहीं सकता था। इसके चलते, इस औद्योगिक क्रांति के अगुआ देश को सुदूरवर्ती गर्म तथा समशीतोष्ण क्षेत्रों पर नियंत्रण हासिल करने की जरूरत थी, जहां कपास पैदा हो सकता था और जहां से वह आवश्यक मात्रा में कपास की आपूर्तियां हासिल कर सकता था। इस तरह, एक बार जब हम इसकी परी-कथाओं से बाहर निकल आते हैं कि व्यापार तो ‘‘फैक्टर एंडाउमेंट्स’’ या विशिष्टïताओं के हिसाब से होता है और वह भी ऐसी स्थिति में जहां ये विशिष्टïताएं कथित रूप से अचल होती हैं तथा देशों की सीमाओं को पार कर के जा ही नहीं सकती हैं, तो साम्राज्यवाद को अनदेखा करना असंभव हो जाता है। लेकिन, मुख्यधारा का अर्थशास्त्र ठीक इसी का रास्ता रोकता है। वह साम्राज्यवाद की ओर से आंखें मूंद लेता है और व्यापार को, पूंजी तथा श्रम का लेन-देन न किए जा सकने या उनका स्थानांतरण न हो सकने के नतीजे के तौर पर, व्याख्यायित करता है।

संकटग्रस्त पश्चिम में श्रम पलायन कैसे?

लेकिन, पश्चिमी यूरोप तो खुद ही बेरोजगारी की ऊंची दरों से ग्रसित है। इसलिए, उसमें पूर्वी योरप के कम मजदूरी वाले पड़ौसी देशों से श्रम के पलायन की परिघटना, पहली नजर में हैरान करने वाली लग सकती है। लेकिन, इस तरह का पलायन सिर्फ ऐसे क्षेत्रों तथा देशों की ओर ही नहीं होता है, जो श्रम की तंगी झेल रहे हों। ऐसी दुनिया में भी, जिसकी पहचान चौतरफा बेरोजगारी से होती हो, कम मजदूरी वाले क्षेत्रों से, ज्यादा मजदूरी वाले क्षेत्रों की ओर श्रम का पलायन होगा। इसके कारण दो हैं। पहला यह कि इस तरह के पलायन के पीछे प्रेरणा, वर्तमान आय की तुलना में बेहतर आय की प्रत्याशा होती है और इसमें बेरोजगारी की संभावनाओं को भी पहले ही हिसाब में लिया जा चुका होता है। दूसरा कारण यह कि प्रवासी आमतौर पर, स्थानीय आबादी के मुकाबले एक हद तक कमतर मजदूरी या बदतर सेवा शर्तों पर काम करने के लिए तैयार होते हैं। इसलिए, उनकी रोजगार की संभावनाएं, स्थानीय आबादी से कुछ न कुद बेहतर ही होती हैं। इसी से हम इस विडंबना को समझ सकते हैं कि संकट का मारा पश्चिमी योरप तक, पूर्वी योरप से प्रवासी मजदूर खींच पा रहा है। पूर्वी योरप में तो समाजवाद के पराभव के बाद से ही, आर्थिक विकास करीब-करीब अवरुद्घ है।

संकट तो गहरा ही रहा है

विकसित देशों से पूंजी के तीसरी दुनिया के कुछ हिस्सों में स्थानांतरण और पहले कभी की दूसरी दुनिया से विकसित दुनिया की ओर श्रम के पलायन की इस समकालीन वैश्वीकरण के साथ जुड़ी हुई इस जुड़वां परिघटना का नतीजा, हर जगह मजदूर वर्ग के आंदोलन के कमजोर होने के रूप में सामने आ रहा है। ये परिघटनाएं, विकसित दुनिया में मजदूर वर्ग के आंदोलन को कमजोर करती हैं। ये परिघटनाएं मजदूर वर्ग के आंदोलन को उन देशों में भी कमजोर करती हैं, जहां पूंजी का स्थानांतरण हो रहा होता है। वर्ना यह पूूंजी कोई और ठिकाना खोज लेगी! ये परिघटनाएं प्रवासी मजदूरों की भी स्थिति को कमजोर करती हैं क्योंकि उनको रोजगार मिलने की संभावनाएं ठीक इसी पर टिकी होती हैं कि वे संगठित नहीं होंगे। इस तरह वैश्विक स्तर पर वर्गीय ताकतों का संतुलन, मजदूर वर्ग के पलड़े के हल्का होने तथा पूंजीपतियों के पलड़े के भारी होने को दर्शाता है।

लेकिन यह सब पूंजीवाद के सामने उपस्थित संकट को और तीखा करने का ही काम करता है। पूंजी तथा श्रम के इस स्थानांतरण का कुल मिलाकर नतीजा विश्व उत्पाद में अधिशेष का हिस्सा बढ़ाने वाला ही होता है। इससे सकल मांग घटती है क्योंकि आर्थिक अधिशेष की तुलना में मजदूर वर्ग की आय का ही कहीं बड़ा हिस्सा, उपभोग पर खर्च किया जाता है। समकालीन पूंजीवाद की विडंबना यही है कि कम से कमतर श्रम लागतों की अंधी तलाश ने पूरी पूंजीवादी व्यवस्था को ही, एक लंबे संकट के गतिरोध में फंसा दिया है।                              
 
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