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भारत को विकलांगता न्याय के बारे में दोबारा से विचार करने की ज़रूरत क्यों है?

पूजा खेडकर मामले के बाद नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत और आईएएस अधिकारी स्मिता सभरवाल का सकारात्मक कार्रवाई के ख़िलाफ़ दिया गया बयान, वर्चस्ववादी की अभिव्यक्ति है।
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तेलंगाना में दिव्यांग व्यक्तियों द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शन की फोटो। (फ़ाइल फ़ोटो क्रेडिट: एनपीआरडी फ़ेसबुक)

विकलांगता गौरव माह अभी-अभी ख़त्म हुआ है। हर साल जुलाई महीने को विकलांगता गौरव माह के रूप में मनाया जाता है। इसकी शुरुआत 1990 में अमेरिकी विकलांगता अधिनियम, जिसे एडीए (ADA) के नाम से जाना जाता है, के पारित होने से हुई। इस तथ्य पर विशेष रूप से वैश्विक दक्षिण (Global South) में ख़ासी नाराजगी हो सकती है कि एक ऐसे देश का कानून जिसने अभी तक विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर कन्वेंशन की पुष्टि नहीं की है, एडीए को दुनिया के बाकी हिस्सों में विकलांगों के लिए गर्व का कारण माना जाता है। हालांकि, इस पर बहस बाद में की जा सकती है।

भारत में इस साल के विकलांगता गौरव माह के दौरान कई ऐसी घटनाएं घटीं जो विकलांग नागरिकों के लिए चिंता का विषय बन कर उभरी हैं। ये घटनाएं बहुत गंभीर हैं और हमें सामूहिक रूप से इन पर ध्यान देने की ज़रूरत है क्योंकि ये इस गणतंत्र में हमारी नागरिकता की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकती हैं।

यह संयोग ही रहा होगा कि, जुलाई के इस गौरव माह में, विकलांगता अधिकारों को रेखांकित करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने विकलांगों को कमतर आंकने और उनका अपमान करने वाले हास्य पर रोक लगाने के लिए कहा और ऐसा न करने पर कड़ी फटकार लगाई, और इसके साथ ही, सोशल मीडिया पर कई पोस्ट सामने आईं, जिनमें आरोप लगाया गया कि कई सिविल सेवकों ने विकलांगता प्रमाण पत्रों में जालसाजी करके पीडब्ल्यूडी (विकलांग व्यक्ति) कोटे का लाभ उठाया है।

दुख की बात है कि पूजा खेडकर की कहानी, जिससे विभिन्न सरकारी एजेंसियों की पारदर्शिता और जवाबदेही के बारे में बहस शुरू होनी चाहिए थी, ने अखिल भारतीय सेवाओं में विकलांगों के पक्ष में सकारात्मक कार्रवाई के खिलाफ कुछ वरिष्ठ सिविल सेवकों, जिनमें नीति आयोग के पूर्व सीईओ अमिताभ कांत और आईएएस अधिकारी स्मिता सभरवाल शामिल हैं, ने खुले तौर पर विकलांगों के बारे में ऑनलाइन अपमानजनक बयानबाजी की। वे विकलांग नागरिकों की सुरक्षा में बने आरक्षण के खिलाफ़ रूढ़िवादी विचारों से भरे अपने चिरपरिचित विचार के साथ सामने आए। ये घटनाक्रम, सुप्रीम कोर्ट के स्वागत योग्य फैसले और इस साल के विकलांगता गौरव माह में विकलांग नागरिकों के लिए सकारात्मक कार्रवाई के खिलाफ़ विरोध पर कुछ कठिन और असहज सवाल पूछने की जरूरत महसूस करता है।

आज़ाद भारत में, सिविल सेवा ने उपनिवेशवाद के तर्क को महत्व दिया है, भले ही इस में वंचित तबकों का प्रवेश भी खुला था। हालांकि, इस प्रणाली ने वंचित तबकों को केवल सीमित और अनिच्छा से प्रवेश दिया, जैसा कि सिविल सेवकों के इन ट्वीट्स से स्पष्ट है। विकलांगों के लिए सकारात्मक कार्रवाई के खिलाफ कांत और सभरवाल की शिकायत विश्वदृष्टि के पूर्वाग्रहों से आती है, जिसमें सक्षम पुरुष (और, एक सीमित सीमा तक, सक्षम महिलाएं) ही अखिल भारतीय सेवाओं के प्रतिष्ठित पदों पर काबिज हैं, यहां तक कि आज़ाद भारतीय लोकतांत्रिक गणराज्य में भी कुछ ऐसा ही है।

इस बहस के दौरान कुछ जानी-पहचानी प्रतिक्रियाएं भी सामने आईं हैं। अपने विकालंग शरीर से अपने अनुभवों को व्यक्त करने के बजाय, जो आम प्रतिक्रिया विकलांग सर्जनों, सिविल सेवकों और अन्य विकलांग नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं की सफलता की कहानियों के बारे में आई हैं वे क़ाबिल-ए-तारीफ़ हैं। हालांकि ये सफलता की कहानियां, सक्षम शरीर वाले सिविल सेवकों द्वारा प्रस्तुत रूढ़िवादिता को खारिज करती हैं, लेकिन वे विकलांगता न्याय के सवालों को मौलिक रूप से पूछने में विफल रहती हैं।

विकलांग कोरियाई कार्यकर्ता मिया मिंगस का कहना है कि विकलांगता न्याय के लिए, असली सवाल यह नहीं होना चाहिए कि हम विकलांग लोगों को कैसे सामने लाते हैं, बल्कि हमें अलग-अलग तरह से विकलांग लोगों के शरीर के अंतर को स्वीकार करते हुए सबके के बारे में अलग तरह से सोचना चाहिए। ऐसा करते हुए, मिंगस विकलांगता न्याय के ‘हम आपके जैसे ही हैं’ मॉडल को नकारते हैं और जोर देते हैं कि, ‘हम केवल विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की श्रेणी में शामिल नहीं होते हैं; हम उन श्रेणियों को बनाने और उन्हें बनाए रखने वाली प्रणालियों को खत्म करना चाहते हैं।’

जुलाई में हुए ये घटनाक्रम इस तथ्य को उजागर करते हैं जैसा कि कानूनी विद्वान उपेंद्र बक्सी ने इसे ‘अन्याय का भूगोल’ कहा है, उसमें उदार हस्तक्षेप अपनी अंतर्निहित सीमा तक हस्तक्षेप कर पाता है। संरचनाओं और सक्षम शरीर वाले गैसलाइटिंग द्वारा बनाई गई व्यवहार/मनोवृत्ति संबंधी बाधाओं और हमारी असुरक्षाओं को दूर करने के लिए, हमारे विकलांगता आंदोलन को मौलिक रूप से कल्पना करने की जरूरत है।

भारत के विकलांगता आंदोलन में जनवादी हस्तक्षेप की कमी जगजाहिर है। प्रमुख नारीवादी विकलांगता विद्वान अनीता घई बताती हैं कि विकलांगता अधिकारों का एजेंडा उन एजेंडों को समाहित कर लेता है जो दिखने में तो बहुत कम मध्यम वर्ग के विशेषाधिकार प्राप्त विकलांगों से जुड़े हैं, जबकि अधिकांश विकलांग ‘न्यूनतम’ सुविधा पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

दुख की बात है कि विकलांगता पर इस तरह की चर्चा और आंदोलन विकलांगता के सवाल को ‘गैर-राजनीतिक’ के रूप में पेश करते हैं और केवल रियायतों और समायोजन के लिए संघर्ष करते हैं। विकलांगता न्याय के सवाल पर इस तरह का ‘गैर-राजनीतिक’ दृष्टिकोण इस तथ्य की सराहना करने में विफल रहता है कि भौतिक परिस्थितियां हमारे जीवन के अनुभवों को आकार देती हैं। निर्मला एरेवेल्स ने संक्षेप में बताया कि ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां विकलांगों के हमारे जीवन के अनुभवों को आकार देती हैं, और नस्ल, जातीयता, लिंग और राष्ट्र के सवाल इन अनुभवों की मध्यस्थता करते हैं।

इसलिए, भारत के विकलांगता न्याय को आज़ाद भारत के वर्चस्ववादी मर्दवादी की विभिन्न अभिव्यक्तियों को चुनौती देनी होगी। ऐसा करने के लिए, विकलांगता आंदोलन को गर्व और सशक्तिकरण के उदारवादी विमर्श से परे की यात्रा के लिए खुद को फिर से तैयार करना होगा। यह शब्द की नई कल्पना करने वाला आंदोलन होना चाहिए, हमारे गैर-मानक अवतार को इस गणतंत्र विमर्श के मूल में रखना चाहिए, और यह वास्तव में लोकतांत्रिक होना चाहिए। इसे सक्षम शरीर वाले मानदंड और उसके गैसलाइटिंग को अस्वीकार कर देना चाहिए।

विजय के. तिवारी, पश्चिम बंगाल राष्ट्रीय विधि विज्ञान विश्वविद्यालय, कोलकाता में सहायक प्रोफेसर हैं। मुरलीधरन, विकलांगों के अधिकारों के लिए बने राष्ट्रीय मंच (एनपीआरडी) के महासचिव हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Why India Needs to Re-Imagine Disability Justice

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