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वैश्विक मंदी पर आईएमएफ़ की राय विडंबनापूर्ण क्यों है ?

यूक्रेन युद्ध शुरू होने से काफ़ी पहले ही, विश्व अर्थव्यवस्था के कोविड के प्रभाव से उबरना शुरू करने के साथ ही, मुद्रास्फीति ने अपना सिर उठाना शुरू कर दिया था।
World Recession

अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की प्रबंध निदेशिका, क्रिस्तालिना ज्योर्जिएवा ने अब खुलेआम यह क़बूल कर लिया है कि 2023 में विश्व अर्थव्यवस्था की रफ़्तार इस हद तक धीमी हो जाने वाली है कि उसके पूरे एक-तिहाई हिस्से में तो, सकल घरेलू उत्पाद में वास्तविक संकुचन ही होने वाला है। यह इसलिए है कि विश्व की तीनों प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं--अमेरिका, यूरोपीय यूनियन तथा चीन--में अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी होने जा रही है। इनमें से आख़िरी यानी चीन में ऐसा, कोविड में नये सिरे से उछाल आने के कारण ही होने जा रहा है। ज्योर्जिएवा का मानना है कि इन तीनों में से अमेरिका का प्रदर्शन, अन्य दोनों के मुक़ाबले अपेक्षाकृत बेहतर रहेगा, क्योंकि उसके श्रम बाज़ारों में एक जीवंतता नज़र आ रही है। वास्तव में अमेरिका के श्रम बाज़ार में अपेक्षाकृत ज़्यादा जीवंतता का नज़र आना, समग्रता में विश्व अर्थव्यवस्था के लिए कुछ उम्मीद बंधाता है।

तो अब मुद्रा कोष ने भी माना मज़दूरी और संवृद्धि का रिश्ता

बहरहाल, ज्योर्जिएवा की इन टिप्पणियों में विडंबना के दो तत्व हैं। पहला तो यही कि अब तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तक, चाहे निहितार्थत: ही सही, यह स्वीकार तो कर रहा है कि वर्तमान स्थिति में विश्व अर्थव्यवस्था के लिए बेहतरीन संभावनाएं तो इसी में निहित हैं कि अमेरिका में, मज़दूरों की आय में ज़्यादा गिरावट नहीं हो। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एक ऐसी संस्था है जो अपनी आर्थिक स्थिरीकरण-सह ढांचागत समायोजन नीतियों के अभिन्न हिस्से के तौर पर, बड़े व्यवस्थित तरीक़े से मज़दूरियों में कटौतियां करने की वकालत करती आयी है, चाहे वह वेतन के रूप में मज़दूरी का सवाल हो या फिर सामाजिक मज़दूरी के रूप में। ऐसी संस्था का अब मज़दूरों के वेतन की भूमिका की इस सच्चाई को स्वीकार करना, स्वागत योग्य होते हुए भी, हैरान तो करता ही है।

बेशक, कई लोग यह कह सकते हैं कि ज्योर्जिएवा तो, अमेरिका के मज़दूरी के बाज़ार की जीवंतता को, अमेरिका के आर्थिक प्रदर्शन के परिणाम के रूप में ही देख रही हैं, उसके कारण के रूप में नहीं। फिर भी उनका इसे एक ‘आशीर्वाद’ के रूप में देखना (हालांकि वह इसे एक ख़ालिस आशीर्वाद के रूप में भी नहीं देखती हैं, जिसके कारणों पर हम आगे नज़र डालेंगे) इसमें किसी संदेह की गुंजाइश नहीं छोड़ता है कि वह, मज़दूरों की आमदनियों की मांग को थामे रखने वाली भूमिका को भी पहचान रही हैं।

कुछ लोग यह कह सकते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थिरीकरण-सह ढांचागत समायोजन नीतियां तो सामान्यत: संकट में फंसी अर्थव्यवस्थाओं के लिए ही और इस संकट से निकलने के उपाय के तौर पर ही पेश की जाती हैं, न कि विकास के लिए किसी रामबाण औषधि की तरह। इसलिए, इसके आधार पर, विकास के संबंध में आइएमएफ़ की समझदारी में बदलाव आने की बात कहना सही नहीं होगा। फिर भी, आइएमएफ़ आज जो कुछ कह रहा है, उसका निश्चित रूप से उससे मेल नहीं बैठता है, जो वह आम तौर पर कहता आया है। वह व्यावहारिक रूप से तो यही कह रहा है कि अमेरिका में श्रम के बाज़ार का जीवंत होना, उसकी आर्थिक संवृद्धि के लिए लाभदायक है। इससे यह सवाल तो उठता ही है कि तब दूसरी अर्थव्यवस्थाओं को भी, भले ही वे संकट का सामना क्यों नहीं कर रही हों, अपने यहां श्रम के बाज़ार को जीवंत बनाए रखने की और अपने संकट से दूसरे, कहीं ज़्यादा प्रत्यक्ष उपायों, जैसे आयात नियंत्रण तथा मूल्य नियंत्रणों से ही, निपटने की कोशिश क्यों नहीं करनी चाहिए? इस प्रकार, आइएमएफ़ का यह स्वीकार करना कि अमेरिका में श्रम बाज़ार का जीवंत होना, उसकी अपनी अर्थव्यवस्था के लिए और इसलिए समग्रता में विश्व अर्थव्यवस्था के लिए भी लाभकर है, बुनियादी तौर पर उस सबके ख़िलाफ़ जाता है, जिसकी आइएमएफ़ आम तौर पर वकालत करता आया है और कम से कम वर्तमान नवउदारवादी दौर में तो वकालत करता ही आया है।

विश्व मंदी की बहुत ही निराशाजनक भविष्यवाणी

आएएमएफ़ की शीर्ष अधिकारी की टिप्पणियों में दूसरा विडंबनात्मक तत्व, उनका यह स्वीकार करना है कि श्रम बाज़ार का इस तरह जीवंत होना जहां अमेरिका में संवृद्धि के लिए लाभदायक होगा, वहीं यह अमेरिका में मुद्रास्फीति की दर को ऊंचा रख रहा होगा, जो उसके फेडरल रिज़र्व बोर्ड को ब्याज की दरें और बढ़ाने पर मजबूर कर रहा होगा। इसके स्पष्ट रूप से दो निहितार्थ हैं। पहला, यह कि इसका अर्थ यह है कि अमेरिका में वृद्धि दर, फौरी तौर पर तो आर्थिक सुस्ती से कम प्रभावित होगी, फिर भी आने वाले महीनों में अपरिहार्य रूप से इस वृद्धि दर पर अंकुश लगा रहने वाला है क्योंकि फेडरल रिज़र्व बोर्ड द्वारा ब्याज की दरों को बढ़ाया जा रहा होगा। इस प्रकार, 2023 में अमेरिका का बेहतर आर्थिक प्रदर्शन भी कोई ज़्यादा चलने वाली परिघटना नहीं है। और चूंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन में किसी भी कमज़ोरी का, समग्रता में विश्व अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, यह तो एक तरह से यही क़बूल करना हुआ कि अगर चीन में कोविड की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार नहीं हो जाता है तो, आने वाले महीनों में विश्व मंदी की स्थिति बदतर होने वाली है। दूसरे शब्दों में यही मानना हुआ कि भले ही 2023 में विश्व अर्थव्यवस्था के एक-तिहाई में ही मंदी चल रही हो, आगे चलकर अर्थव्यवस्था का और भी बड़ा हिस्सा मंदी का शिकार हो रहा होगा। यह तो निश्चित रूप से वर्तमान मुकाम पर विश्व पूंजीवाद के विकास की संभावनाओं को लेकर, उसके किसी शीर्ष प्रवक्ता के मुंह से सुनने को मिली, सबसे निराश करने वाली भविष्यवाणी है।

विश्व बैंक भी पूंजीवादी दुनिया के सिर पर गंभीर मंदी के मंडरा रहे होने की चेतावनी देता आ रहा है और विशेष रूप से तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं के लिए इसके निहितार्थों पर चर्चा करता आ रहा है। 2022 के सितंबर के महीने में उसने एक आलेख प्रकाशित किया था, जिसमें उसने 2023 में विश्व अर्थव्यवस्था में वृद्धि के 1.9 फीसद ही रहने का अनुमान प्रस्तुत किया था। लेकिन, आइएमएफ़ और विश्व बैंक, दोनों ही सिर पर मंडराती मंदी के लिए मुख्यत: यूक्रेन युद्ध को तथा इसके चलते पैदा हुई मुद्रास्फीति को ही और चलताऊ तरीक़े से कोरोना की महामारी को भी ज़िम्मेदार ठहराते हैं। इस तरह वे मंदी के वर्तमान ख़तरे के पीछे, वर्तमान मुद्रास्फीति के जवाब में, हर जगह ब्याज की दरें बढ़ाए जाने का ही हाथ देखते हैं। लेकिन, ये संस्थाएं इसे पहचानने के लिए किसी तरह तैयार ही नहीं हैं कि सिर पर इस मंडराते संकट के पीछे, नवउदारवादी अर्थव्यवस्था से पैदा हुए किसी संकट का भी कोई हाथ हो सकता है।

मुद्रास्फीति का संकट यूक्रेन युद्ध से पहले से है

पहली बात तो यही है कि उनका यह विश्लेषण ही ग़लत है। यूक्रेन युद्ध शुरू होने से काफ़ी पहले ही, विश्व अर्थव्यवस्था के कोविड के प्रभाव से उबरना शुरू करने के साथ ही, मुद्रास्फीति ने अपना सिर उठाना शुरू कर दिया था। उस समय इस मुद्रास्फीति के लिए महामारी के चलते आपूर्ति शृृंखलाओं में बाधा पड़ने को ही ज़िम्मेदार माना जा रहा था, हालांकि बहुत से लोगों ने तभी इस विश्लेषण से असहमति जतायी थी। उन्होंने तभी यह ध्यान दिलाया था कि आपूर्तियों में किसी वास्तविक बाधा से कहीं ज़्यादा, यह मुद्रास्फीतिकारी उछाल बड़े-बड़े कॉर्पोरेशनों द्वारा तंगियों की प्रत्याशा में अपने मुनाफ़े के अनुपात के बढ़ाए जाने से ही पैदा हो रहा था। यूक्र्रेन युद्ध तो पहले से चल रही इस मुद्रास्फीति की पृष्ठभूमि में आ पड़ा था और पश्चिमी ताक़तों द्वारा रूस के ख़िलाफ़ पाबंदियां लगाए जाने ने, बड़ी उदारता से मुद्रास्फीति में योगदान किया था।

कच्चे तेल की क़ीमतों के उतार-चढ़ाव से हमारे इस निष्कर्ष की ही पुष्टि होती है कि यह मुद्रास्फीतिकारी उछाल, यूक्रेन युद्ध से पैदा नहीं हुआ है। कच्चे तेल के मानक ब्रेन्ट मूल्य में बढ़ोतरी, मुख्यत: 2021 में तब हुई थी, जब विश्व अर्थव्यवस्था ने महामारी से उबरना शुरू किया था। 2021 की शुरूआत और इसी साल के अंत के बीच, कच्चे तेल के दाम में 50 फीसद से ज़्यादा बढ़ोतरी हुई थी और यह दाम 50.37 डालर प्रति बैरल से बढ़कर, 77.24 डालर प्रति बैरल पर पहुंच गया था। लेकिन, 2022 में, यूक्रेन युद्ध होने के बावजूद, यह दाम 78.25 डॉलर से बढ़कर 82.82 डॉलर तक ही पहुंचा यानी इसमें 5.8 फीसद की ही बढ़ोतरी हुई। याद रहे कि मूल्य वृद्धि की बाद वाली दर तो, सबसे विकसित पूंजीवादी देशों में चल रही मुद्रास्फीति की वर्तमान दर से कम ही है, जबकि आम तौर पर यह दावा किया जाता है कि तेल की क़ीमतों के बढ़ने से ही मुद्रास्फीति बढ़ रही है। बेशक, रूस के ख़िलाफ़ पाबंदियां लगाए जाने के फौरन बाद विश्व बाज़ार में तेल की क़ीमतों में उछाल आया था और 2022 के दौरान ये क़ीमतें 133.18 डॉलर प्रति बैरल के स्तर तक भी चली गयी थीं, लेकिन उसके बाद से ये क़ीमतें काफ़ी तेज़ी से नीचे भी आ गयी थीं। इसलिए, वर्तमान मुद्रास्फीति के लिए सिर्फ़ यूक्रेन युद्ध को ही ज़िम्मेदार ठहराना न सिर्फ़ भ्रामक है क्योंकि तेल की क़ीमतों में बढ़ोतरी के लिए भी अपने आप में युद्ध नहीं बल्कि पश्चिमी देशों द्वारा लगायी गयी पाबंदियां ही ज़िम्मेदार हैं, इसके साथ ही उक्त धारणा ग़लत भी है क्योंकि ऐसा नहीं होता तो, उक्त पाबंदियों के चलते पैदा हुई क़ीमतों में बढ़ोतरी के नीचे आने के साथ, आम तौर पर मूल्य वृद्धि को नीचे आ जाना चाहिए था, जो कि नहीं हुआ है।

संकट तो नवउदारवादी व्यवस्था में ही निहित है

लेकिन, बात सिर्फ़ ब्रेटन वुड्स संस्थाओं का विश्लेषण ग़लत होने की ही नहीं है। इससे भी ज़्यादा उल्लेखनीय यह तथ्य है कि खुद अपने विश्लेषण के दायरे में भी, उनके पास इसका कोई परिप्रेक्ष्य भी नहीं है कि यह विश्व मंदी खत्म कैसे होगी? अगर उनका वाकई यह मानना होता कि हमारी ओर बढ़ते आ रहे मंदी के संकट के लिए यूक्रेन युद्ध ही ज़िम्मेदार है, तब उन्होंने कम से कम इसकी कामना तो की होती कि यह युद्ध जल्द ख़त्म हो जाए। लेकिन, यह तो पश्चिमी साम्राज्यवाद को मंज़ूर ही नहीं है, जो इस लड़ाई को लंबा खींचना चाहता है, जिससे रूस को धीरे-धीरे कमज़ोर करके, झुकने के लिए मजबूर कर सके। इसीलिए, इन जुड़वां संस्थाओं ने इस युद्ध के मामले में अपनी कोई राय ही नहीं रखी है। बहरहाल, इस युद्ध के ख़त्म होने के मुद्दे पर वे अगर चुप ही रहना चाहते थे, तब भी मुद्रास्फीतिकारी संकट से निपटने के लिए, ब्याज की दरें बढ़ाने तथा इस तरह मंदी को उन्मुक्त करने के अलावा, दूसरा कोई रास्ता तो सुझा ही सकते थे। लेकिन, आइएमएफ़ और विश्व बैंक की, मुक्त बाज़ार के प्रति वफ़ादारी तो इतनी पक्की है कि वे ब्याज की दरों में बढ़ोतरी के मंदी पैदा करने वाले प्रभावों पर खेद तो जताते हैं, लेकिन मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए, सीधे मूल्य नियंत्रण जैसे किसी अन्य क़दम पर विचार करने के लिए भी, तैयार ही नहीं होते हैं।

इसी प्रकार, हालांकि विश्व बैंक के अध्यक्ष, डेविड मालपास ऋण के बोझ से दबे तीसरी दुनिया के देशों के साथ सहानुभूति जताते हैं, जिन्हें आने वाले महीनों में इस मंदी की मार झेलनी पड़ेगी और इतना स्वीकार भी करते हैं कि उनके सिर पर लदे ऋण के बोझ का बड़ा हिस्सा तो इन ब्याज की ऊंची दरों की वजह से ही चढ़ा है, फिर भी उनके भाषण में ख़ुद ब्याज की दरों को घटाने पर एक शब्द तक नहीं है। दूसरे शब्दों में ब्रेटन वुड्स की दोनों संस्थाएं, दुनिया के ग़रीबों की चिंता की बातें तो बहुत करती हैं, लेकिन उनकी मदद के लिए कोई ठोस क़दम उठाने के लिए तैयार नहीं होती हैं।

यह सिर्फ़ इन संस्थाओं के दब्बूपन को ही नहीं दिखाता है बल्कि यह एक और गहरी सचाई को दिखाता है और वह यह कि विश्व पूंजीवाद आज वाक़ई एक वास्तविक गतिरोध में फंसा हुआ है। पिछले अनेक वर्षों में पश्चिमी साम्राज्यवाद का जो ढांचा विकसित हुआ है, उसे अगर सुरक्षित बनाए रखना है तो, विकसित पूंजीवादी देशों को यूक्रेन युद्ध को खींचते रहना होगा और उस सूरत में जब तक मंदी तथा उसके चलते बेरोज़गारी पैदा नहीं की जाती है, मुद्रास्फीति की वर्तमान ऊंची दर से नहीं बचा जा सकता है। इसलिए, विश्व पूंजीवाद के यह रास्ता लेने में किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। लेकिन, असली मुद्दा यह है कि इसका प्रतिरोध होना चाहिए।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why IMF’s Take on Looming World Recession is Ironical

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