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टीआरपी का पूरा सिस्टम ही क्यों सवालों के घेरे में है?

टीआरपी का खेल पूरी तरह से समझने के बाद यही अंतिम निष्कर्ष निकलेगा कि न्यूज़ चैनलों की टीआरपी का सिस्टम ही बेकार है। हमारा सवाल इस पूरे सिस्टम पर ही होना चाहिए।
टीआरपी
Image courtesy: Scroll

आम जनता के बीच की बातचीत और खबरों में बहुत अधिक अंतर होता है। इनके बीच के अंतर पर पूरी की पूरी एक किताब लिखी जा सकती है। लेकिन अगर इनके बीच का अंतर एक लाइन में समझना हो तो केवल इतना समझिए कि अगर आम जन की बीच की बातचीत ही सब कुछ होती तो मीडिया की जरूरत ही क्यों पड़ती?

मीडिया की जरूरत इसलिए है क्योंकि समाज और समाज को नियंत्रित करने वाली संस्थाओं के बीच सूचनाओं का ऐसा प्रवाह बने ताकि समाज और समाज को नियंत्रित करने वाली संस्थाएं मुकम्मल बने। लेकिन यहा तो पूरी तरह से सैद्धांतिक और दार्शनिक किस्म की बात हुई।

हकीकत यह है कि मौजूदा समाज में नैतिकताओं का पूरी तरह से पतन हो चुका है। सही गलत, उचित अनुचित, जीना मरना सब कुछ तय करने का पैमाना केवल पैसा कमाना रह गया है। और इसी आधार पर मीडिया भी काम करने लगी है।

मीडिया को लगता है कि जितनी उसकी टीआरपी बढ़ेगी उतनी उसे कमाई होगी। इसलिए आम जन से जुड़े सरोकार के सारे तर्क ताक पर रखकर मीडिया के लिए सबसे बड़ा तर्क यह बन गया है कि उसकी टीआरपी की बढ़ोतरी कैसे हो? कैसे उसकी कमाई अधिक से अधिक बढ़े।

इसीलिए तकरीबन 10 साल पहले से टीआरपी में धांधली को लेकर होने वाली खबरें, मुख्य खबर के रूप में तब्दील तब हुई जब नंबर वन टीआरपी वाला इंडिया टुडे ग्रुप, रिपब्लिक टीवी से टीआरपी के मामले में पिछड़ गया। जब यह घटना घट गई तब पहली बार भारत के प्रशासनिक तबके की तरफ से बाकायदे प्रेस कॉन्फ्रेंस करके यह खबर आई कि टीआरपी रेटिंग में जानबूझकर धांधली की जाती है।

मुंबई पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह ने कहा कि ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) इंडिया के डिवाइस में छेड़छाड़ कर टेलीविजन रेटिंग पॉइंट्स (टीआरपी) बढ़ाए जा रहे हैं। उन्होंने रिपब्लिक समेत कुछ चैनल्स के नाम भी लिए।

हालांकि, रिपब्लिक टीवी का दावा है कि एफआईआर में उसका नहीं बल्कि इंडिया टुडे का नाम है। सवाल यह उठता है कि क्या कोई भी चैनल इस तरह टीआरपी प्रभावित कर सकता है? तो चलिए इस बात से ही शुरुआत करते हैं कि टीआरपी होती क्या है?

टीआरपी के खेल को सही तरह से समझने के लिए टीवी के व्यापार को समझना जरूरी है। अंग्रेजी का एक अखबार अधिक से अधिक 500 रुपए महीने में मिल जाता है। लेकिन इतने ही रुपए में अंग्रेजी के एक न्यूज़ चैनल की सब्सक्रिप्शन 4 से 5 साल तक के लिए ली जा सकती है।

इसलिए एक न्यूज चैनल के सब्सक्रिप्शन से जुड़ा सारा पैसा और इससे भी अधिक पैसा न्यूज चैनल को घरों में पहुंचाने में खर्च हो जाता है। या यह कह लीजिए कि न्यूज चैनल के डिस्ट्रीब्यूशन कॉस्ट में खर्च हो जाता है। इसलिए न्यूज चैनलों कारोबार का बहुत बड़ा हिस्सा लोगों द्वारा दिए जाने वाले पैसे से नहीं चलता। बल्कि विज्ञापन यानी धन्ना सेठ द्वारा दिए गए पैसे से चलता है। इसे आप मज़बूरी के तौर भी समझ सकते हैं और जरूरत के तौर पर।

चूंकि कम्पनी के विज्ञापन यानी एडवरटाइजमेंट का मकसद अपने माल का प्रचार करना होता है। इसलिए कंपनी यह चाहती है कि उसके विज्ञापन की पहुंच अधिक से अधिक लोगों के पास हो। ऐसा तभी संभव होगा जब जिस चैनल पर विज्ञापन आ रहा होगा उसे अधिक से अधिक लोग देखेंगे।

टीवी बिजनेस की दुनिया में इससे दो अवधारणाएं निकलती हैं। पहली को रीच कहते हैं और दूसरी को 'एवरेज टाइम स्पेंट' कहते हैं। रीच का मतलब हुआ कि कितने लोगों तक चैनल की पहुंच है और इस टाइम स्पेंट का मतलब हुआ एक दर्शक कितने समय तक चैनल देख रहा है। TV व्यूअरशिप के लिए इन दोनों गणनाओं की जरूरत होती है।

ऐसा हो सकता है कि एक चैनल को बहुत अधिक लोग देखते हो लेकिन बहुत जल्दी ही चैनल बदल भी देते हो। जबकि विज्ञापन देने वाले को मालूम है कि जब तक उसके सामान का विज्ञापन दर्शक कई बार नहीं देखेगा तब तक वह उपभोक्ता में नहीं बदलेगा। इसलिए टीवी व्यूअरशिप की दुनिया में रीच और एवरेज टाइम स्पेंट दोनों को मिलाकर टीवी रेटिंग तय की जाती है।

इसलिए ऐसा बिल्कुल मुमकिन है कि जिन चैनलों की रीच बहुत अधिक हो उनकी रेटिंग कम हो। क्योंकि उन पर एवरेज टाइम स्पेंट कम हो। चूंकि न्यूज़ चैनल का व्यापार विज्ञापनदाता तय करते हैं इसलिए उनके लिए एवरेज टाइम स्पेंड का महत्व कितने लोगों ने देखा इससे अधिक होता है। क्योंकि विज्ञापनदाता को पता है कि अगर उसका विज्ञापन बार-बार दिखेगा तभी उसका माल बिकेगा।

इसलिए रेटिंग टीवी बिजनेस के केंद्र में है। जितनी अधिक रेटिंग होगी उतनी अधिक कमाई होगी। रेटिंग का निर्धारण रेटिंग मीटर से होता है। रेटिंग मीटर पूरे भारत में बंटे होते हैं।

रेटिंग से छेड़छाड़ करने के लिए टीवी न्यूज़ चैनल कैसा तरीका अपनाते हैं इसे एनडीटीवी के पूर्व मैनेजिंग एडिटर और वरिष्ठ पत्रकार औनिंद्यो चक्रवर्ती ने न्यूज़क्लिक के अपने ख़ास कार्यक्रम ‘Economy का हिसाब किताब'  और अपने टि्वटर अकाउंट के एक लंबे थ्रेड में समझाया है। औनिंद्यो चक्रवर्ती बताते हैं कि भारत में तकरीबन 40 हजार रेटिंग मीटर है। यह रेटिंग मीटर भारत की तकरीबन 80 करोड़ आबादी को कवर करते हैं।

इसलिए तकरीबन 1 रेटिंग मीटर से 20 से से 21 हजार दर्शकों द्वारा देखे गए चैनल का अनुमान लगता है। अंग्रेजी चैनल देखने वाले बहुत कम लोग होते हैं। कुल रेटिंग मीटर में इनका आंकड़ा 1 फ़ीसदी के आसपास बैठता है। इसलिए 400 से 450 मीटर अंग्रेजी चैनल देखने वालों का अनुमान लगाते हैं। भारत में अंग्रेजी चैनल देखने वालों का हर दिन का एवरेज टाइम स्पेंट 8 मिनट के आसपास बैठता है। यानी हर दिन भारत में औसतन केवल 8 मिनट अंग्रेजी न्यूज़ चैनल देखा जाता है।

देखिए पूरा कार्यक्रम : 'रेटिंग चोरी करना है बहुत ही आसान'

पहले कई बार यह बात लीक हुई है कि कि किस एरिया में मीटर लगा हुआ है। जब यह बात पता चल जाती है तो टीवी चैनल का आदमी उस एरिया के किसी स्लम में जाता है। कुछ घरों को नई टीवी थमा देता है। और जिस टीवी में मीटर का कनेक्शन होता है उसके लिए हिदायत देता है कि वह कुछ चैनलों को वह देखते रहे। इसके लिए उन्हें पैसे दिए जाएंगे। इसलिए अचानक यह होता है कि जिस घर में अंग्रेजी देखने समझने वाला कोई नहीं है वहां चार-पांच घंटे अंग्रेजी का कोई न्यूज़ चैनल देखा जा रहा है।

जरा सोच कर देखिए कि जिस अंग्रेजी चैनल को देखने वाले लोग महज 400 से 450 मीटर तक सीमित होते हैं, जिसकी एवरेज टाइम स्पेंट पर डे 8 मिनट के आसपास रहता है, अगर वहां गिन कर 4 से 5 मीटर से जुड़े एरिया में छेड़छाड़ कर दी जाए, लोग घंटे किसी अंग्रेजी न्यूज़ चैनल को देखने लगे तो किसी अंग्रेजी न्यूज़ चैनल की रेटिंग मैं कितना बड़ा उछाल आ सकता है। तकरीबन रेटिंग एक बार में ही 6 से 7 गुना बढ़ जाती है।

NDTV चैनल ने रेटिंग को लेकर कई बार शिकायत की है। लेकिन इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। क्योंकि सभी रेटिंग छेड़छाड़ का हिस्सा थे। अब जब रिपब्लिक टीवी उनको उन्हीं के खेल में मात देकर आगे निकल चुका है। तो वे अचानक से अंधकार से रोशनी में ले जाने की बात कह रहे हैं। जबकि हकीकत यही है कि उन्होंने भी यह सारे हथकंडे पहले अपनाए हैं।

लेकिन इन सबके साथ यह भी समझिए की हिंदी न्यूज़ चैनल की रेटिंग में खिलवाड़ करना थोड़ा मुश्किल काम होता है। क्योंकि यह बहुत बड़े स्तर पर देखा जाता है। तकरीबन 18 से 20 फ़ीसदी मीटर हिंदी न्यूज़ चैनलों की वजह से एक्टिव रहते हैं। इसलिए इनके द्वारा कवर होने वाला एरिया बहुत बड़ा होता है। यहां पर रेटिंग से छेड़छाड़ करना मुश्किल होता है।

लेकिन असली सवाल कुछ दूसरा है। असली सवाल है कि क्यों कुछ न्यूज़ चैनलों की स्थिति सामान्य तौर पर देखने पर बढ़िया दिखाई देती है लेकिन रेटिंग में वह बहुत कमजोर होते हैं। जैसे एनडीटीवी में रवीश कुमार के प्राइम टाइम को यूट्यूब पर लाइव तकरीबन 35000 लोग देखते हैं और यूट्यूब पर एक वीडियो का व्यू 8 से 10 लाख से ऊपर होता है। फिर भी रेटिंग कम क्यों रहती है। इसकी वजह यह है कि कई इलाकों में एनडीटीवी दिखाया ही नहीं जाता है।

कई शहरों के केबल नेटवर्क 7 दिन में से 4 दिन एनडीटीवी दिखाते ही नहीं है। अगर दिखाते भी हैं तो वह कभी झिलमिल आने लगता है तो कभी आवाज आनी बंद हो जाती है। तो कभी कोई समस्या तो कभी कोई समस्या.....

अब जरा सोचिए कि अगर वैसे इलाके में जहां मीटर का कंसंट्रेशन है वहां एनडीटीवी इंडिया नहीं दिखाया जा रहा है तब एनडीटीवी इंडिया की रेटिंग क्या होगी? तब एनडीटीवी रेटिंग इंडिया की रेटिंग पूरी तरह से गिर जाएगी। भले ही सच्चाई यह हो की एनडीटीवी देखने वाले बहुत लोग हैं लेकिन मापने के तरीके में छेड़छाड़ की वजह से निष्कर्ष निकलेगा कि एनडीटीवी की रेटिंग बहुत कम है।

इस तरह की छेड़छाड़ की जांच होना बहुत अधिक जरूरी है। इसमें केवल किसी एक चैनल का हाथ नहीं है। यह बहुत बड़े लेवल पर खेला जाने वाला खेल है। इसका असल मकसद यह है कि मीडिया का एजेंडा सेट किया जाए। ऐसे निष्कर्ष दिए जाएं जिससे यह लगे कि जनता अपने सरोकार से जुड़ी बातों को नहीं देखना चाहती है।

इस निष्कर्ष के आधार पर ही एडवर्टाइजमेंट बिकते हैं। तो अगर सरोकार से जुड़ी बातें दिखाई जाएंगी तो कंपनियां एडवर्टाइजमेंट नहीं देंगे और ठीक-ठाक काम करने वाला चैनल बंद होने के कगार पर आ जाएगा।

अगर सही तरीके से रेटिंग दिखाई जाने लगे और मीडिया हाउस को यह पता चले कि सरकार से सवाल पूछने के बाद भी उन्हें ठीक-ठाक रेटिंग मिल रही है तो वे सरकार से सवाल पूछना शुरू कर देंगे। खेल का असली मैदान यही छुपा हुआ है जहां पर कई तरह की धांधलियां कर कई तरह के गलत लोगों ने कब्जा जमाया हुआ है।

चलते चलते एक और बात समझिए। टीआरपी के पूरे सिस्टम पर रवीश कुमार ने बहुत जरूरी सवाल उठाया है। यह सवाल ऐसा है जो कि पूरे टीआरपी के सिस्टम को खारिज करता है। TRP का एक फ़्राड यह भी होता है कि आप मीटर किन घरों या इलाक़े में लगाते हैं।

मान लें आप किसी कट्टर समर्थक के घर मीटर लगा दें। आप उसे पैसा दें या न दें वो देखेगा नहीं चैनल जिन पर सांप्रदायिक प्रसारण होता है। आज कल किसी व्यक्ति की सामाजिक प्रोफ़ाइल जानने में दो मिनट लगता है। क्या यह मीटर दलित, आदिवासी और मुस्लिम घरों में लगे हैं? क्या ये मीटर सिर्फ़ भाजपा समर्थकों के घर लगे हैं? हम कैसे मान लें कि TRP का मीटर सिर्फ़ एक सामान्य दर्शक के घर में लगा है। सवाल ये कीजिए।

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