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बात-बेबात: एक जोड़ी जूते के नीचे दबा दबदबा

हुक्मरान भूल रहे हैं कि अब जब जूते निकल ही पड़े हैं तो रुकेंगे थोड़े ही, वे दूर तलक जायेंगे।
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फ़ोटो साभार : X

जूतों और मनुष्य समाज का साथ नया नहीं है जब से आदि मानव ने चलना सीखा होगा तभी से पंजों के निचले हिस्से के बचाव के लिए पांवों के नीचे कोई न कोई उपाय आजमाया होगा। मानव इतिहास के खोजियों की मानें तो सबसे पुराने जूते कोई पांच से साढ़े पांच हजार साल पहले के मिले हैं। चमड़े के जूते करीब साढ़े तीन हजार साल पहले चलन में आये हालांकि सैंडल्स जैसा कुछ पहने जाने का रिवाज तो और भी पहले लगभग 8 से 9 हजार साल पहले ही आरंभ होने के प्रमाण मिले हैं। धरती के इस हिस्से में भले आर्यों के साथ नहीं आये मगर लगता है यहां आकर उन्हें उसका महत्व पता चला और करीब करीब वैदिक काल से ही कहीं पादुका, कहीं खड़ाऊं के रूप में मिलने लगे थे।

बाद में मोजरी, खुस्सा, नागरा, पनहा से होते हुए चप्पल, जूते और जूती तक आ गए। अलबत्ता चमड़े के जूतों के मामले में ऊंच नीच होती रही - शुरू में आये फिर धर्मे शाकाहारी हुआ तो उन्हें धारण करना बंद कर दिया गया मगर बाद में फिर आ गए। जरूरत के अलावा इन्हें शान का भी प्रतीक माना गया - इस कदर कि बिना जूते बाहर निकलने की तौहीन से बचने के लिए जूते पहनते और उनके फीते बांधते में हुयी देरी के चलते अवध के नवाब वाजिदअली शाह मारे भी गए। हालांकि बिना जूतों के नंगे पांव जाना स्वागत सत्कार के प्रोटोकॉल का सर्वोच्च रूप भी माना गया । बहरहाल पांवों को चलने में सहूलियत देने वाले जूते धीरे धीरे इतने चलायमान हो गए कि खुद चलने लगे और चलते चलते साहित्य और वर्तनी में आ पहुंचे। संज्ञा से सर्वनाम, विशेषण से क्रिया और अक्सर प्रतिक्रिया के रूप धारण करते रहे।

मानव समाज के लिखित साहित्यिक इतिहास में जूतों ने बड़ी हैसियत हासिल कर ली। धर्म के बारे में मार्क्स के कहे की तर्ज पर कहें तो वे एक साथ शोषक वर्गों के हाथ में शोषण का हथियार और उसी के साथ शोषण के विरोध और उसके खिलाफ प्रतिवाद का जरिया भी बन गए।

भारतीय समाज जहां "हमारे पांव पांव उनके पांव चरण" का विभाजन ही विधान रहा वहां पांव नंगे ही रहे पादुकाएं सिर्फ चरण कमलों के हिस्से में आयीं और यह अतीत की बात नहीं है, देश के बड़े हिस्से में आज की भी बात है। आज भी जिनके पांव, पांव हैं वे अगर चरण कमलधारियों के सामने से गुजरते हैं तो जूते उतारकर ही गुजरते हैं। कई बार तो अपने ही जूते सर पर धर कर ही गुजर पाते हैं।

अभी इसी महीने तमिलनाडु के तिरुपुर में दलितों को जूते चप्पल पहनने से रोके जाने का मामला सामने आया है। बुन्देलखंड और चंबंल के कुछ इलाकों में यह रोज की बात है। यही वजह रही कि शुरुआती सामाजिक प्रतिरोध आंदोलनों में जूते पहनकर निकलना भी एक बड़ी विरोध कार्यवाही की तरह इस्तेमाल किया गया। जूतों से मारा गया तो प्रतिरोध में जूते उछाले भी गये हैं। जूतों ने अगर राज किया है तो राज करने वाले जुतियाये भी गए हैं।

जूतों का व्याकरण और इतिहास ही नहीं है उनकी रस्मुलखत लिपि भी होती है। इसे भाल, गाल और कपाल पर लिखा और दर्ज किया जाता है। हर कालखंड में किया जाता रहा है। जूतों का आविष्कार करने वाले शायद ही जानते होंगे कि उनके मनुष्य की चाल और उसके चलन को आसान बनाने के लिए बनाए गए ये उपकरण आगे जाकर बहुविध और बहुआयामी हो जायेंगे। उनके अनुसंधान निदान, समाधान और बयान की तरह भी काम में लाये जायेंगे। हाल के दौर में सबसे मशहूर रहा ईराकी पत्रकार मुंतजरअल जैदी का 10 नवंबर का जूता - जिसे उसने 15 वर्ष पहले 14 दिसंबर 2008 को बग़दाद में तब के अमरीकी राष्ट्रपति बुश जूनियर पर उछाला था। अल हदाद नाम की कंपनी का मॉडल नवंबर 271 जूता इस कदर मशहूर हुआ कि इसका नाम ही बुश का जूता पड़ गया। कुछ महीने की सजा जरूर उसे भुगतनी पड़ी मगर उसके बाद पूरी दुनिया ने इस जूता प्रक्षेपण करने वाले को इनाम - इकरामों से लाद दिया। लंदन के एक मूर्तिकार पावेल वानिन्सकी ने तो खांटी 24 कैरट के सोने की पॉलिश वाली कांसे की 21 किलोग्राम की कलाकृति ही बना दी। यह सचमुच में जूते के गौरवान्वित होने का पल जो इसने अपने पात्र के चयन के कारण हासिल किया था। 

पादुकाओं के अस्त्र बनने की इस घटना ने बाद में इतनी ख्याति प्राप्त कर ली कि अधिकांश नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के दफतरों के बाहर बाकायदा बोर्ड्स लगाए जाने लगे कि जूते बाहर उतारकर ही अन्दर आयें। मगर जूते तो बने ही चलने के लिए थे उन्हें कोई बोर्ड या सूचना क्या ख़ाक रोक पाती।

जूतों पर इत्ता विशद विमर्श इसलिए है क्योंकि पिछले सप्ताह से चरणकमलों और पादुकाओं वाले देश में एक खिलाड़िन के जूते चर्चा का विषय बने हुए हैं। मरहूम अकबर इलाहाबादी साहब के एक लोकप्रिय शेर को मौजूं बनाने के लिए थोड़ा बदल कर कहें तो;

"जाल शकुनि ने बिछाया, साक्षी ने जूता रखा / शकुनि का पांसा रह गया, साक्षी का जूता चल गया।"

ओलंपिक मेडल जीतकर आने वाली अब तक की अकेली महिला कुश्ती खिलाड़ी साक्षी मलिक ने भारत की महिला खिलाड़ियों की प्रतिनिधि के रूप में टेबल पर रखे अपने जूतों के बिम्ब से तेल और पानी में भीगे जूतों की मार को असरदार बताने वाले मुहावरे को नया रूप दे दिया और बता दिया कि उनसे भी ज्यादा ताकतवर मारकता आंसुओं से भीगे जूतों में होती है। यह भी दिखा दिया कि कुछ जूते हजार जूतों के बराबर होते हैं।

जो हुआ उसे अब सारा देश जानता है और वह यह है कि यौन उत्पीड़न के आरोपी भाजपाई सांसद बृजभूषण शरण सिंह की अध्यक्षता वाली भारतीय कुश्ती संघ की मान्यता जब अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक एसोसिएशन ने समाप्त कर दी। दुनिया के कुश्ती महासंघ ने भी उसके लिए सारे दरवाजे बंद कर दिए तब इस आरोपी का इस्तीफा और नया चुनाव कराना मजबूरी हो गया था। कथित रूप से "कराये गए" इन नए चुनावों में ब्रजभूषण शरण सिंह का खडाऊं-उठाऊ संजय सिंह अपने पूरे पैनल के साथ न सिर्फ "जीत कर" आ गए बल्कि उनके जीतते ही अहंकारी निर्लज्जता के साथ खुद यौन आरोपी गा बजाकर महिला खिलाड़ियों को धमकाने लगा। अपने चुनवाये गए प्यादे के साथ खड़े होकर, आतिशबाजी और पटाखों के बीच भाजपा के इस अतिप्रिय सांसद ने कहा कि "जिसको संदेश लेना है वह ले ले, दबदबा था, दबदबा है, दबदबा रहेगा।"

11 महीने से अपने आत्मसम्मान और यौन उत्पीड़न के मामलों में न्याय पाने की लड़ाई लड़ रही महिला खिलाड़ियों और बाकी पहलवानों के लिए यह जीत और उसके बाद की यह बेहूदगी बर्दाश्त की सारी हदों को पार करने वाली थी। उनकी प्रतिनिधि के रूप में साक्षी मलिक, बजरंग पूनिया और विनेश फोगाट के साथ प्रेस क्लब में आयीं और पत्रकारों के बीच महज 1 मिनट 9 सेकंड में अपनी हताशा जताकर आंसुओं के बीच अपने जूते टेबल पर रखकर खेल छोड़ने का एलान कर दिया। खिलाड़ियों का कहना था कि खेल मंत्री ने वादा किया था कि बृजभूषण शरण सिंह या उसका कोई आदमी नहीं चुना जायेगा जबकि उसके सबसे ख़ास व्यक्ति को अध्यक्ष चुनवाया गया है। खिलाड़ियों की मांग थी कि किसी महिला को अध्यक्ष बनाया जाए मगर हालत यह है कि पूरी कमेटी में एक भी महिला नहीं है। हर नियम, विधान, आश्वासन, वायदे को अंगूठा दिखाकर हुए चुनाव और उसके बाद खिलाड़ियों की इस कार्यवाही ने पूरे देश को हिला दिया। लोगों की प्रतिक्रिया इतनी जबरदस्त थी कि तीन दिन के बाद अचानक खेल मंत्रालय ने इस "नवनिर्वाचित" कुश्ती संघ को निलंबित करने का एलान कर दिया। सरकार की इस घोषणा को कई तरीके से पढ़ने और उसके निहितार्थों के बारे में कयास लगाने की कोशिश की जा रही है।

कुछ भले मानुष इसके साथ दिए उस नत्थी बयान को सच मानने के मुगालते में हैं जिसमे चुनाव गलत तरीके से होने, नयी समिति का काम पुराने पदाधिकारियों के नियंत्रण वाले परिसर से चलने और बिना किसी पूर्व तैयारी के 15 और 20 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों और लड़कों की राष्ट्रीय चैंपियनशिप का आयोजन बृजभूषण शरण सिंह के घर नंदिनी नगर गोंडा में करने की घोषणा को आधार बताया गया है। मगर ऐसा है नहीं - यदि ऐसा होता तो निलंबन के लिए छुट्टी का दिन रविवार नहीं चुना जाता। ऐसा होता तो साक्षी मलिक के जूते रख देने के बाद संघी आईटी सेल और गोदी मीडिया उसके खिलाफ जहरीली मुहिम छेड़ने के काम में नहीं लगता।

जिस बृजभूषण शरण सिंह को बचाने के लिए मोदी सरकार ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी जिसके लिए खुद गृहमंत्री अमित शाह खिलाड़ियों को बहलाकर आंदोलन स्थगित करवाने के लिए वार्ता करने उतरे थे उस यौन अपराधी के कुकर्मों के बारे में यह अचानक से जागना नहीं है। आहत खिलाड़ियों के जाट समुदाय से होने के चलते जाटों के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई है। इतनी तीखी कि उपराष्ट्रपति से खिलवाये गये जाट कार्ड के प्रहसन की भी खाट खड़ी हो गयी है और इसकी कीमत कुछ महीनों बाद होने वाले लोकसभा और हरियाणा विधानसभा के चुनाव में चुकानी पड़ सकती है। इसलिए यह डैमेज कंट्रोल की हताश कोशिश है।

यही सत्ता पार्टी और उसका मीडिया इन खिलाड़ियों के आंदोलन के दौरान पूरे जाट समुदाय को गरियाता रहा है। यौन अपराधी के पक्ष में कथित क्षत्रियों की अयोध्या में हुई महापंचायत को जनता की आवाज बताता रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि साक्षी के खेल छोड़ने के एलान के बाद बजरंग पूनिया और वीरेंदर सिंह द्वारा अपनी अपनी पदमश्री वापस करने और विनेश फोगाट द्वारा अपना खेल रत्न और अर्जुन अवार्ड लौटाने से सरकार को लगा कि कहीं यह सिलसिला तूल न पकड़ ले और रायता इतना ज्यादा न फैल जाए कि समेटते न बने। यह बात भी सच है लेकिन कुछ जानकारों के मुताबिक़ "दबदबा था और दबदबा रहेगा" के अहंकारी बयान में बृजभूषण द्वारा मोदी और अमित शाह की बजाय भगवान को इस दबदबे का श्रेय देने से मौजूदा प्रभुओं के ईगो का आहत होना इस निलंबन की वजह है। यह नामुमकिन नहीं है - जिन्होंने 11 महीने तक कंगारू की तरह गोद में रखकर इस यौन आरोपी को बचाया, खिलाड़ियों को ठोक पीट कर जन्तर मन्तर से कई बार भगाया, उन्हें टुकड़े टुकड़े गैंग और राष्ट्रद्रोही तक बताया। गरूर में आकर बंदे द्वारा उन्ही का नाम न लिया जाए तो बुरा तो लगेगा ही।

जूता सम्मान को पादुका पूजन भी कहा जाता है और इसका एक आयाम और है और वह यह कि "पड़त पड़त पादुकाओं से जड़मत होत सुजान" की स्थिति भी आ जाती है। जूते खाने वाले उसके निशाने से बचने के लिए पल भर के लिए झुकना भी सीख जाते हैं। बगदाद में बुश और तबके इराकी प्रधानमंत्री इस कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। इधर वाले कुछ लोग तो सौ जूते और सौ प्याज खाते खाते इस कला में पारंगत हो चुके हैं। इसलिए देश के ज्यादातर लोग मानते हैं कि जो दिखावा हुआ है वह एक झांसा है - असली तमाशा अभी बाकी है। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ हुए किसान आंदोलन के साथ उत्तर प्रदेश के चुनाव के पहले यही तरीका आजमाया गया था, उनके साथ किये गए वायदों पर अमल आज तक नहीं हुआ। उसी काठ की हांडी को फिर चढ़ाया जा रहा है।

लोकसभा चुनाव को देखते हुए निलंबन का दिखावा किया जा रहा है। कृपया ध्यान दें, सिर्फ निलंबन हुआ है, इतना सब कहने के बाद भी भंग नहीं किया गया है। एक पतली गली बचा कर रखी गयी है। मगर हुक्मरान भूल रहे हैं कि अब जब जूते निकल ही पड़े हैं तो रुकेंगे थोड़े ही वे दूर तलक जायेंगे।

(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्‍त सचिव हैं। विचार व्‍यक्तिगत हैं।)

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