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जनादेश—2022: वोटों में क्यों नहीं ट्रांसलेट हो पाया जनता का गुस्सा

यूपी को लेकर अभी बहुत समीक्षा होगी कि जाट कहां गया, मुसलमान कहां गया, दलित कहां गया। महिलाओं का वोट किसे मिला आदि...आदि। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या ग्राउंड ज़ीरो से आ रहीं रिपोर्ट्स, लोगों की परेशानी, ज़मीन पर दिख रहा गुस्सा झूठा था? अगर नहीं तो क्यों नहीं वोटों में ट्रांसलेट हुआ!
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यूपी समेत पांच राज्यों का जनादेश आ चुका है और सब इसकी अपने-अपने ढंग से व्याख्या करेंगे। लेकिन मैं एग्ज़िट पोल और ईवीएम से निकले रिजल्ट, जो लगभग आसपास ही रहे और ज़मीन पर दिख रही हक़ीक़त की तुलना करुंगा कि ग्राउंड ज़ीरो की रिपोर्ट कितनी सच थीं और कितनी झूठ। क्या लोगों ने कैमरे पर झूठ बोला और एग्ज़िट पोल वालों को सच बताया!

यूपी से पहले गोवा और मणिपुर की बात करें तो वहां पहले से तय था कि नतीजा कुछ भी हो, कोई भी हारे जीते, अगर किसी को बहुमत नहीं भी मिलता तब भी सरकार तो बीजेपी ही बना लेगी। जैसा पिछली बार 2017 में हुआ था, बीजेपी ने कांग्रेस से कम सीटें पाकर भी जोड़-तोड़ कर गोवा और मणिपुर दोनों राज्यों में अपनी सरकार बना ली थी। इस बार तो ख़ैर उसे बहुमत ही मिल गया है। मणिपुर में आमतौर पर लोग कहते मिले थे कि वे केंद्र के साथ ही जाएंगे। यानी जिस दल की केंद्र में सरकार वह राज्य में भी उसकी सरकार चाहते हैं। मणिपुर में इस बार बीजेपी ने 60 सीटों में से 32 हासिल कर ली हैं। यानी पूर्ण बहुमत। कांग्रेस महज़ 5 सीटों पर सिमट गई है।

गोवा में वोटर में थोड़ी नाराज़गी थी, लेकिन लग रहा था उन्हें किसी दल या प्रत्याशी पर कोई विश्वास नहीं कि कौन जीत के बाद कहां जाएगा। इसलिए जीत के बाद विधायक बीजेपी में शामिल हों, इससे बेहतर है कि उन्होंने बीजेपी को ही समर्थन दे दिया। हालांकि अपने दम पर बहुमत इस बार भी नहीं मिला है। 40 सदस्यीय गोवा विधानसभा में बीजेपी ने 20 सीटें हासिल की हैं। और कांग्रेस 11 सीटों पर सिमट गई है।

पंजाब का चुनाव भी बिल्कुल साफ़ था। ग्राउंड रिपोर्ट्स में वहां से जो आवाज़ें सुनाईं दे रहीं थीं, वही परिणाम में भी झलकीं। पंजाब के तीनों रीजन माझा, मालवा और दोआबा तीनों में झाड़ू की गूंज थी। लोग कांग्रेस और अकाली दोनों से दुखी और पेरशान थे। भाजपा का वहां पहले से ही कोई ख़ास वजूद नहीं है, लोग उसे पसंद नहीं करते, क्योंकि अन्य राज्यों की तरह वहां उसका हिंदू-मुस्लिम कार्ड य़ा पाकिस्तान विरोधी एजेंडा उस तरह नहीं चल पाता, इसलिए उसके आने का कोई सवाल ही नहीं था। यही हुआ भी जिस अमरिंदर सिंह के कंधे पर उन्होंने बंदूक चलाई वे खुद हार गए। ख़ैर पंजाब में आप की गूंज थी और उसने वाकई पूरे राज्य में कांग्रेस समेत अन्य सभी पार्टियों के अरमानों पर झाड़ू फेर दी। पंजाब में 42 फ़ीसदी वोटों के साथ आप ने 117 सीटों में से 92 सीट हासिल कीं। सत्तारूढ़ कांग्रेस महज़ 18 सीट पर सिमट गई है।   

उत्तराखंड में ज़रूर इस बार कांग्रेस की बारी लग रही थी, लेकिन वो शायद इसी गुमान में हार गई कि इस बार तो उसकी बारी है। लेकिन राजनीति गुमान या बारी से नहीं चलती। पंजाब की तरह यहां भी कांग्रेस में काफी झगड़े थे। सत्ता से पहले ही सत्ता के बंटवारे के लिए विवाद था। जो मुख्यमंत्री का चेहरा थे हरीश रावत उन्होंने मुख्यमंत्री का चेहरा बनने के लिए क्या-क्या किया, कैसे रूठे-माने सब जानते हैं, और ख़ुद ही चुनाव हार गए।

हालांकि जानकारों के मुताबिक जीत का मौका यहां बीजेपी के लिए भी नहीं था, तभी तो उसे पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदलने पड़े थे और अंत में जिस मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ा गया वही अपनी सीट नहीं जीत पाए।

अब आप देखेंगे कि जल्दी ही आप यानी आम आदमी पार्टी भी वहां कांग्रेस को रिप्लेस करने पूरी ताक़त से पहुंचने वाली है। गोवा में भी उसकी यही कोशिश है। आप को लोग कांग्रेस का ही विकल्प मानते हैं, हालांकि उसे बीजेपी के ज़्यादा क़रीब देखा जाता है। आप की रणनीति हर छोटे राज्य में अपने पैर जमाना है ख़ासकर वहां जहां कांग्रेस सत्ता में है या मुख्य विपक्ष की भूमिका में।    

अब आते हैं उत्तर प्रदेश पर। इसे इसलिए आख़िरी में रखा क्योंकि इसी पर सबसे ज़्यादा बात करनी है और इसके ही नतीजों या राजनीति को डिकोड करना ज़रूरी है।

उत्तर प्रदेश के संदर्भ में मैं बता दूं कि मैं इसे लेकर कॉरपोरेट मीडिया या गोदी मीडिया को criticize नहीं करुंगा। न ईवीएम को दोष दूंगा। न स्थापित वैकल्पिक/जनवादी मीडिया का नज़रिया रखूंगा। मैं नहीं कहूंगा कि न्यूज़क्लिक की रिपोर्ट यह थी या वायर, कारवां, न्यूज़लॉड्री आदि ने ये दिखाया-बताया था। मैं बात करुंगा ग्राउंड रिपोर्ट की, ग्राउंड ज़ीरो से की गई लाइव रिपोर्टिंग की। ज़िलों के रिपोर्टर्स की और अन्य सोशल मीडिया की।

सभी जानते हैं कि पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया का दखल किस तरह बढ़ा है। और यह सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ढंग से है। ख़ैर में यहां जिस बात को फोकस करना चाह रहा हूं वह यह कि इस बार के चुनाव में ख़ासकर यूपी चुनाव में कॉरपोरेट या गोदी मीडिया के अलावा भी हज़ारों कैमरे और माइक गली-गली घूम रहे थे। इसमें नये और पुराने सभी तरह के पत्रकार थे। दिग्गज जानकार थे तो बिल्कुल नये लड़के-लड़कियां भी थे जो कहीं भी randomly यानी सड़क चलते किसी भी व्यक्ति महिला, पुरुष सभी से बात कर रहे थे। किसी भी बस्ती में पहुंच जा रहे थे, वहां का हाल दिखा रहे थे। ऐसी ग्राउंड रिपोर्ट्स से यू-ट्यूब, फेसबुक, ट्विटर भरा पड़ा है।

इन लोगों ने मतदान से पहले भी और मतदान के बाद भी लोगों से बात की। आम लोगों की इस बातचीत में सरकार के ख़िलाफ़ गुस्सा साफ़ तौर पर दिखाई दे रहा था। नाराज़गी साफ़ झलक रही थी। बीजेपी का वोटर तो हमेशा ही मुखर रहता है लेकिन पहली बार इस चुनाव में बीजेपी का विरोधी वोटर भी बहुत मुखर होकर बोल रहा था।

और इस तरह की रिपोर्ट सिर्फ़ सोशल मीडिया या बाहर ख़ासकर दिल्ली से पहुंचे ये पत्रकार या पत्रकारिता के छात्र ही नहीं कर रहे थे, बल्कि ज़िला स्तर के संवाददाता यानी स्थानीय रिपोर्टर्स जिनकी उंगलियों पर एक-एक बूथ का हिसाब रहता है, उनकी राय/रपट भी यही बता रही थी कि लोगों में योगी सरकार के ख़िलाफ़ काफ़ी गुस्सा है। और हिन्दू-मुस्लिम से हटकर इस बार मुद्दों पर बात हो रही है और मुद्दों पर ही वोट होगा।

अलग-अलग शहरों में बैठे स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीवी जो राजनीति की नब्ज़ जानते हैं, लगातार लिख रहे थे कि इस बार बदलाव की हवा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर अवध और पूर्वांचल तक इसी तरह की ख़बरें और आकलन थे।

और इन सब लोगों को छोड़िए आम लोग, ख़ासकर युवा खुद ही न जाने कितने वीडियो बनाकर अपनी और अपने साथियों की आवाज़ हम सबके सामने रख रहे थे। अपने घर-परिवार और खेती की दुर्दशा दिखा रहे थे। बता रहे थे कैसे खेतों में कंटीले तार लगाने पड़ रहे हैं, कैसे रात-रात भर जागकर छुट्टा जानवरों को भगाना पड़ रहा है। ये नौजवान अपनी बेरोज़गारी, अपनी बदहाली की कहानी सुना रहे थे। अपनी पीठ पर पड़ी लाठियों के निशान दिखा रहे थे। और ऐलानिया तौर पर कह रहे थे कि “नहीं चाहिए ऐसी सरकार”, “अबके बाबा को मठ में वापस भेजना है”।  

हर आदमी खुद में एक रिपोर्टर बना हुआ था। और हर जगह से यही आवाज़ आ रही थी कि वे योगी सरकार को बदलना चाहते हैं, बेदखल कर देना चाहते हैं।

लेकिन नतीजा क्या आया...

अब इसकी क्या वजह हो सकती है कि लोगों ने इन कैमरों पर जो बोला, खुद अपने वीडियो बनाकर अपनी जो परेशानी बताईं, जो ज़ख़्म दिखाए, हाय-हाय मचाई, वो सब झूठ था या वोट देते जाते समय ये सब बातें बेमानी हो गईं।

हम-आप सब जानते हैं कि इस चुनाव में उत्तर प्रदेश में क्या मुद्दे चल रहे थे।

सरकार ने भले ही अस्सी-बीस (हिंदू-मुस्लिम) या हिजाब जैसे मुद्दे जनता के बीच ठेलने की कोशिश की लेकिन माना जा रहा था कि कमोबेश चुनाव ज़मीनी मुद्दों पर ही हो रहा है। यूपी चुनाव में यूक्रेन तक को लाने की पूरी कोशिश की गई। प्रधानमंत्री ने यूक्रेन का हवाला देते हुए मजबूत सरकार के नाम पर वोट तक मांग लिए, लेकिन फिर भी जिस तरह का माहौल था, जो मुद्दे थे वो बहुत मजबूत दिख रहे थे।

मुद्दे क्या थे?

मुद्दे थे—

किसान आंदोलन

जाटलखीमपुर कांड/छुट्टा पशु

न्यू पेंशन बनाम पुरानी पेंशन

हाथरस कांड

ओबीसी फैक्टर

ओमप्रकाश राजभर से लेकर स्वामी प्रसाद मोर्य तक अखिलेश यादव के साथ चले गए। यह वही कॉम्बिनेशन था जिसने 2017 में बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाया और शानदार जीत दिलाई थी।

कोरोना काल की अव्यवस्था

आप कह सकते हैं कि अब इसे सब भूल गए हैं कि कैसे मज़दूर मुंबई-दिल्ली से पैदल, मार खाते हुए अपने गांव घर पहुंचे।

आप कह सकते हैं कि किस तरह गंगा में लाशें बहती मिलीं, किनारें पर लाशें दफ़नाईं गईं इसे लोग भूल गए हैं।

आप कह सकते हैं कि हमारी याददाश्त बहुत कमज़ोर होती है, इसलिए लोगों ने ऑक्सीजन संकट को भी भुला दिया।

चलो मान लेते हैं।

लेकिन... 

युवा/बेरोज़गारी फैक्टर

बेरोज़गारी का जो हाल देश और उत्तर प्रदेश में है वो किसी से छिपा नहीं। नई भर्तियां नहीं निकल रही। समय पर एग्ज़ाम नहीं हो रहे। जो हो रहे हैं उनके रिजल्ट नहीं आ रहे। लड़कों की उम्र निकली जा रही है। रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षाओं को लेकर जो बवाल हुआ सबने देखा। सबने देखा कि किस तरह इलाहाबाद में छात्र-युवाओं पर लाठीचार्ज हुआ। कैसे उनकी लॉज से दरवाज़े तोड़कर उन्हें निकाला गया, पीटा गया। कहा गया कि ये सभी युवा आख़िरी चरण में बीजेपी को हराने के लिए अपने गांव-घर के लिए निकले हैं। ट्रेनें की ट्रेनें भर गईं, इलाहाबाद से ऐसी तस्वीरें आईं।  

महंगाई फैक्टर

यह फैक्टर भी सभी को प्रभावित कर रहा था पेट्रोल-डीजल से लेकर खाने के तेल के दाम सभी की जेब ढीली कर रहे थे। इस महंगाई से हर कोई त्रस्त है, क्या मध्यम वर्ग और क्या ग़रीब।

यह सभी मुद्दे सरकार के ख़िलाफ़ थे।

आप कह सकते हैं कि लाभार्थी कार्ड सरकार के पक्ष में चला। प्रति व्यक्ति 5 किलों फ्री राशन, 6 हज़ार रुपये किसान सम्मान निधि, श्रम कार्ड इत्यादि ने काम किया। हां, ज़रूर इससे इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन सिर्फ़ इसी ने काम किया और पूरी तस्वीर बदल दी, ऐसा मानना ज्यादती होगा, अतिश्योक्ति होगी। जैसे यह मान लेना कि महिलाओं ने जाति-धर्म और मुद्दों से परे जाकर मोदी या योगी के नाम पर वोट किया है।

पांच किलो राशन से बेशक बहुत ग़रीब लोगों को मदद मिली, लेकिन इसकी क्वालिटी को लेकर भी बहुत शिकायतें आईं। ख़ैर इससे भी बड़ा इसका काउंटर तर्क ये था पांच किलो राशन तो मुफ़्त में दिया लेकिन रसोई गैस तो एक हज़ार से ऊपर कर दी। अब कैसे पकाएं। कोयला, लकड़ी भी कोई सस्ता नहीं। इसके अलावा खाने-पीने के अन्य सामान भी लगातार महंगे हो रहे हैं। यानी सब वहीं बराबर हो गया। इसके अलावा जिसके पास ज़रा सी खेती है या बटाई पर ज़मीन है, वह यही कह रहा था कि 5 किलो अनाज से क्या होता है, 50 किलो अनाज या फसल तो जानवर खा गए, बर्बाद कर गए। यह बात पूर्वांचल में खूब सुनने को मिली और ख़ासतौर से महिलाओं के मुंह से। जिनके घर के मर्द खेतों में रात-रातभर पहरा देते हैं। एक बीघा-दो बीघा पर खेती कर रहीं इन महिलाओं का यही दर्द था कि पूरी फसल जानवर बर्बाद कर जा रहे हैं।

चुनाव को लेकर अभी मतदान प्रतिशत की भी व्याख्या होगी। महिला वोटर, पुरुष वोटर इसकी भी बात होगी। कम मार्जिन से हार-जीत को भी बारीकी से देखना होगा। साथ ही बीएसपी का वोट प्रतिशत जो 21-22 प्रतिशत से नीचे कभी नहीं गया वो इस बार 12-13 प्रतिशत पर कैसे पहुंच गया और ये बाकी 8-10 फ़ीसद वोट किसे ट्रांसफर हो गया और क्यों हो गया।

इसकी भी पड़ताल ज़रूरी है। पड़ताल तो इसकी भी ज़रूरी है कि क्या हिंदुत्व का अंडर करंट इतना तेज़ है कि वो अंत में सभी मुद्दों पर हावी हो जाता है।

वैसे आप कह सकते हैं कि ऐसा नहीं है कि ज़मीनी मुद्दों ने काम नहीं किया। बीजेपी की सीटे घटना और डिप्टी सीएम सहित कई दिग्गजों का हारना इसी की तस्दीक करता है। बीजेपी गठबंधन 2017 के मुकाबले करीब 50 सीटों के नुकसान में है। अकेले भी उसे 54 सीटों का नुकसान हुआ है। 2017 में बीजेपी के पास 309 सीटें थीं। माना जा सकता है कि ये जो समाजवादी गठबंधन की 124 सीटें आईं हैं ये इन्हीं मुद्दों और जनता की सरकार से नाराज़गी की वजह से आईं हैं। जनता ने ही चुनाव लड़ा वरना विपक्ष ख़ासकर अखिलेश तो काफी देर से जागे और मैदान में उतरे। तो 2017 की 47 सीटों से आगे अकेले 111 सीट मिलना भी कम उपलब्धि नहीं। साथ ही 2017 के 21.82 प्रतिशत वोटों की अपेक्षा इस बार अकेले 32 प्रतिशत और गठबंधन के तौर पर 35 प्रतिशत से ज़्यादा वोट मिलना भी कोई छोटी बात नहीं। हालांकि बीजेपी को भी वोट प्रतिशत में फायदा हुआ। 2017 में भाजपा के पास कुल 39.67 फ़ीसदी वोट था, जो इस बार बढ़कर 42 प्रतिशत पहुंच गया। यानी मायावती के घाटे से बीजेपी को फायदा हुआ है। और एसपी को भी फ़ायदा हुआ है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। कहा जा रहा है कि मायावती का दलित वोट बीजेपी के खाते में गया है। हालांकि मुस्लिम वोट एसपी के साथ गया है ऐसा माना जा रहा है। ख़ैर,  मायावती के घाटे और राजनीति की भी अलग से समीक्षा करनी होगी।

लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ज़मीन जो किसान आंदोलन से तपी हुई थी, वहां से अपेक्षा अनुसार समाजवादी और आरएलडी गठबंधन को नतीजे नहीं मिले। लखीमपुर खीरी जहां किसानों को गाड़ी से कुचलकर मार दिया गया, वहां की आठों सीटें बीजेपी के खाते में कईं। ये सब परिणाम चौंकाने वाले हैं।

ख़ैर जो नतीजे आए हैं वो बीजेपी के लिए निश्चित ही हर्ष और हौसले का विषय हैं। 2022 को 2024 का भी सेमीफाइनल माना जा रहा था। माना जा रहा था कि 2022 और ख़ासतौर पर यूपी से ही 2024 का रास्ता निकलेगा, तो वो तो निकलता दिखाई दे रहा है। माना यही जा रहा है कि 2024 का चुनाव तो मोदी जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा, लेकिन उसके बाद योगी महाराज को केंद्र में शिफ़्ट किया जा सकता है। यह सब आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र की परियोजना का हिस्सा है। ख़ैर अब जनादेश स्वीकार कीजिए और सबकुछ भूलकर 2025 में होने वाले आरएसएस के सौ साल के जश्न की तैयारी कीजिए।

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